Wednesday, May 21, 2014

देखना खुद को इस तरह...


देखना खुद को इस तरह
जिस तरह देखता है कोई
खिड़की से झांकती हुई सड़क को
सड़क पे दौड़ती हुई गाड़ियों को
पड़ोसी के बगीचे में खिलते फूल को
या रास्ते में पड़े पत्थर को

देखना खुद को इस तरह जैसे
दूर से कोई देखता है नदी
उफक पे ढलता हुआ सूरज
या कैनवास पर बनी अधूरी कलाकृति

देखना खुद को इस तरह
जैसे दीवार पर टंगी कोई तस्वीर
कमरे में रखा हुआ सोफा
टेबल पर रखी हुई चाय
खिड़कियों पर पड़े पर्दे

देखना खुद को इस तरह जैसे
देखना ईश्वर को तमाम सवालों के साथ....


Sunday, May 18, 2014

देश और समाज के खिलाफ प्रेम


उफ्फ्फ्फ़  ये झरझर झरती बेसबब मुस्कुराहटें
जब देखो खिलखिल खिलखिल
न इन्हें चिलचिलाती धूप की फिकर
न किसी तूफान का डर
न रात का पता न दिन की खबर
कहां से आ गये हैं ये लोग
किस दुनिया के हैं ये आखिर
इनका एजेंडा क्या है
इनकी राजनीति क्या है
सिर्फ एक-दूसरे को प्यार करना़?

क्या इन्हें नहीं पता कि
मोहब्बत जैसी फिजूल सी चीज में उलझने का वक्त नहीं है
क्या इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि
कि देश की तरक्की के मानक बदल रहे हैं
क्या इन्हें खेतों में उगी फसल
के खो जाने का डर नहीं है
जमीनों को जोर से पकड़ लेने को
बेताब क्यों नहीं हैं ये
हर वक्त हाथों में हाथ लिए
गंाव-गली मोहल्ले की सड़कें नापते रहते हैं

कोई पूछे इनसे कि क्या इन्हें भूख नहीं लगती
प्यास नहीं लगती
नींद नहीं सताती
थकते नहीं ये हंसते हुए
क्यों इनके जेहन से वेतन का कम होना
या इंक्रीमेंट की चिंता गायब है

ये तो समाज बागी लोग हैं
बेहद खतरनाक
इस तरह हंसते मुस्कुराते खिलखिलाते हुए
कितने लोगों को चिंता में डाल दिया है इन्होंने

कल तक ये हम जैसे ही थे
बात-बात पर चिढ़ने वाले
हर बात के लिए सरकार को, राजनीति को कोसने वाले
चाय की दुकानों पर बौद्धिकता झाड़ने वाले

और आज ये इन सबसे कितनी दूर हैं
बस अपनी ही दुनिया में खोये ये लोग
कभी आसमान में उड़ते हैं तो
कभी चांद पे जा बैठते हैं
समंदरों को इन्होंने हथेलियों में थाम रखा है
और मौसम...वो तो कबसे इनका साथ दे रहा है

ऐसे गुस्ताख लोगों की दुनिया को भला क्या जरूरत
जो अपनी ही दुनिया में खोए रहते हैं
और बाकी सबकी जलन का ईर्ष्या का कारण बने हुए हैं
ऐसे लोगों के बारे में या तो गंभीरता से सोचे जाने की जरूरत है
या उनके जैसा ही हो जाने की....


दो प्रेमी दुनिया के लिए...


प्रेमियों से बड़ा खतरा इस दुनिया को किसी से नहीं
इनकी मुस्कुराहटें चुनौती देती हैं दुनिया की तमाम सत्ताओं को
इनका आत्मविश्वास चूलें हिला कर रख देता है समाज की

इनका ये ख्वाब कि समूची धरती पर
प्रेम की फसल लहलहा उठे
और विश्व में वासना की नहीं प्रेम की संतानों का जन्म हो
कितना खतरनाक है जरा सोचिए

इनका ये यकीन कि एक रोज हर व्यक्ति
मानवता, इंसानियत, संवेदनाओं से छलक रहा होगा
एक-दूसरे का सम्मान और एक दूसरे से प्रेम करना
यही तरक्की के नये मानक होेंगे
ये कोई रूमानी यकीन नहीं है
इसमें राजनैतिक गंध है

इनके एजेंडे में है दुनिया की राजनीति की शक्ल बदल देना
तरक्की को पुलों और मॉल की संख्या से नहीं
समाज के हर व्यक्ति की थाली की रोटी
और चेहरे की मुस्कान से आंकना

इनके रूमान की खुशबू ने
न जाने कितनी विजयी पताकाओं को दरकिनार किया है
असलहों से लैस किसी आतंकवादी से ज्यादा खतरनाक है
आत्मविश्वास और मुस्कुराहटों से लबरेज प्रेमी

सत्ताएं जानती हैं ये सच सदियों से
इसलिए कटवाई जाती रही प्रेमियों की गर्दनें हर दौर में

लेकिन फीनिक्स की तरह हर बार अपनी ही राख से
दोबारा उग आने वाले ये प्रेमी
हमेशा कमजर्फ समाज के सामने चुनौती बनकर खड़े होते रहे...

Wednesday, May 14, 2014

तुम भी बस.…



गुलमोहर- सुनो…कविता सुनोगे?
अमलताश- रहने दो, बस तुम साथ रहो कुछ देर.....

गुलमोहर- (शरमाते हुए) तुम भी बस.…

------------------------------------------

गुलमोहर- अच्छा बताओ तो ये एग्जिट पोल जो कह रहे हैं वो कितना सच है ?
अमलताश- पता नहीं

गुलमोहर- अच्छा नयी सरकार मे फूलों को महकने की आजादी तो होगी न?
अमलताश- (अनमना सा) पता नहीं

गुलमोहर- तुम नाराज हो क्या?
अमलताश- पता नहीं

गुलमोहर- हम्म्म, अच्छा कविता सुनोगे?
अमलताश- (शांत होते हुए) ठीक है.… सुनाओ

गुलमोहर- (खिलखिलाते हुए) 'तुम'
अमलताश- हा हा हा.… अच्छी कविता है. मेरे पास भी एक कविता है. सुनाऊँ?
गुलमोहर- हाँ
अमलताश- 'हम.…'
गुलमोहर- (शरमाते हुए) तुम भी बस.....

(दहकती दोपहरों की महकती बातें, शहर लखनऊ)

तस्वीर- मोबाइल क्लिक 

Wednesday, May 7, 2014

लौटना, दरअसल सिर्फ उसका प्रेम था.....


उसे जाने दिया क्योंकि यकीन था कि
वो जायेगा नहीं
या यूँ कहें कि
जा पायेगा ही नहीं
इस जाने देने में अहंकार था
जिसे प्रेम का नाम दिया

उसके पीठ फेरते ही मुस्कुराकर
धुएं के कुछ छल्ले
आसमान की ओर उछाले
ठंडी हवाओं को
अपने फेफड़ों में भरा
शांत होकर ढलते सूरज
और उगते चाँद पर नज़र टिकाई

कान लगातार
दरवाजे पर ही लगे थे
वो तलाश रहे थे आहटें
उसके लौट आने की
हालाँकि ये बात सिर्फ दिल को पता थी

बीते दिनों के बिना पढ़े गए अख़बारों को खंगाला
न्यूज़ चैनलों को बदलते हुए
झूठी ख़बरों में से सच को तलाशने की
नाकाम सी कोशिश की
एक कप और काली गाढ़ी कॉफी पीने की इच्छा को
रसोई में जगह दी
और के एल सहगल की आवाज से
कॉफी के स्वाद में और इज़ाफ़ा किया

लेकिन जो आहटें टटोलने को कान दरवाजे पर टंगे थे
वो नदारद ही थीं
अब उन आहटों की तलाश में
आँखें भी निकल पड़ीं
कदम भी, दिमाग भी
वो जा तो नहीं सकता छोड़कर
वो मेरा प्यार है. मेरा प्यार
मेरा गाढ़ा प्यार

साऊथ अफ्रीका के जंगलो से घना
सहारा के रेगिस्तान से ज्यादा विस्तृत
हिन्द महासागर की गहराइयों से गहरा
मेरा प्यार
इससे दूर कोई जा भी कैसे पायेगा
ये प्रेम का अहंकार था

दरवाजे पर उसके आने की आहटें बीनते कानों की मायूसी
एक युद्ध हारने सा था
उसके न होने पर बहे आंसू
दुःख के नहीं
शिकस्त के आंसू थे

एक रोज लहू लुहान क़दमों से वो लौटा
थका, बोझिल,  उदास
उसके लौटने की आहटों से अहंकार का बाग़ खिल उठा
कि देखो मैंने कहा था न,
उसे लौटना ही था
उसे लौट ही आना था आखिर .…

इन सबसे दूर भीगी हुई सिसकियों के बीच
दिल से बस इतनी सी आवाज आई
धन्यवाद किस्मत
तुम्हें मालूम है
प्रेम की अहमियत

उसका लौटना दरअसल सिर्फ उसका प्रेम था.....