Sunday, September 29, 2013

उदास मौसमों के विदा की बेला...



बदलने लगा है मौसम
कन्धों पर झरने लगे हैं
गुलाबी ठण्ड के फाहे

सुना है उदास मौसमों के
विदा की बेला है...


Tuesday, September 24, 2013

किसी से न कहना


सुनो, अरे सुनो तो....राघव हांफते हुए काजल के पीछे भाग रहा है.
काजल पलटकर देखती है. खिलखिलाकर हंसती है और फिर भागने लगती है. दम है तो जीतकर दिखाओ. वो चिल्लाकर कहती है. राघव पेट पकड़कर बैठ जाता है.
जा तू, मैं तुझसे नहीं बोलता. तू ही जीत जा. सर की चमची.
मैं सर की चमची....मैं सर की चमची....गुस्से में चिल्लाते हुए काजल राघव के पास आती है और उसे एक तमाचा मारती है. राघव दर्द से कराह उठता है. काजल और मारती है. 
माफ कर दे रे काजल, तू नहीं मैं सर का चमचा...
ठीक से माफी मांग. काजल कमर पे हाथ रखकर खड़ी हो जाती है.
राघव कान पकड़कर माफी मांगता है.
सुन....राघव काजल से कहता है
तू ना, किसी को बताना मत कि तूने मुझे मारा है.
क्यों...काजल उसे घूरकर देखती है. तेरी इज्जत घट जायेगी ये बताने से कि मुझसे पिटा है, इसलिए.
राघव धीरे से कहता है हां....
जिनके सामने तेरी इज्जत घट जायेगी तू मुझे बताइयो मैं उन्हें भी एक रहपटा लगा दूंगी. फिर सबकी इज्जत एक सी हो जायेगी. ठीक?
राघव मन ही मन सोच रहा है कि कैसे काजल को मनाये....
अच्छा सुन, अगर तू किसी को नहीं बतायेगी तो मैं तुझे इमली वाली गोलियां दूंगा.
अच्छा....और?
काजल चलते-चलते पूछती है.
और बिस्कुट....
और? काजल फिर पूछती है...
और ऑरेंज वाली टॉफी. देख इससे ज्यादा मैं कुछ नहीं दे सकता. हां...राघव खिसिया गया.
अबे, तेरी इज्जत का सवाल है. इमली की गोली, ऑरेंज वाली टॉफी और बिस्किुट भर की है तेरी इज्जत? काजल ने व्यंग्य किया.
राघव ने मुंह फुला लिया.
अच्छा चल नहीं बताउंगी. तू घर जाते वक्त मेरा बस्ता भी उठायेगा.
ठीक. राघव ने कहा.
मेरी बात मानेगा. काजल कहती है
ठीक. राघव कहता है.
अब से तेरी इज्जत मेरे हाथ में सुरक्षित है. काजल मुस्कुराती है.
गुरू जी ने विज्ञान की कक्षा हेतु जिन बच्चों से जंगल से किसी खास पेड़ की पत्ते मंगवाये थे उनमें काजल सबसे पहले लौटी थी.
राघव, कपिल, घुग्घू तो वहां तक गये ही नहीं.
सौरभ पहुंचा जरूर लेकिन देर से.
गुरू जी काजल को देखकर मुस्कुराए....
शाबास! लाओ पत्तियां यहां रख दो.
राघव, तुम भी यहां रख दो अपनी पत्तियां.
ना...गुरूजी हम ना लाये...हम ना...गिर पड़े रस्ते में सो ला ना पाये...जो गिरते ना तो पक्का ले आते. देखो कपड़ा भी मैले हो गये गिरने से.
काजल फिस्स...से हंस दी. राघव ने उसे घूरा...
गुरूजी अगली बार हम पक्का लेकर आयेंगे. तब तक सौरभ, कपिल और घुग्घू भी कक्षा में आ गये. सिर्फ सौरभ के हाथ में पत्ते थे.
गुरूजी ने काजल के सबसे पहले काम पूरा करने के लिए पूरी कक्षा को तालियां बजाने को कहा. साथ ही उन्होंने राघव को बुलाकर कहा, बेटा मुझे पता है तुम गिरे नहीं थे. तुम्हें काजल ने मारा था.
पूरी कक्षा के सामने एक लड़की के हाथ पिटने की बात स्वीकार करते हुए राघव को आंसू आ गये. उसने काजल की ओर देखा. काजल ने इशारे से कहा कि उसने नहीं बताया गुरूजी को.
गुरू जी ने कहा, मैंने तुम दोनों की बातें सुन ली थीं. उन्होंने काजल को भी डांट लगाई. और पूरी कक्षा से कहा,
बच्चो कोई भी काम न लड़कों का है न लड़कियों का. कोई भी क्षमता और इच्छा से सधता है. इसलिए अगर काजल जंगल में जाकर पत्तियां ला सकती है तो राघव मीठा गीत गा सकता है. और राघव, जब कपिल और सौरभ से पिटकर तुम्हारी इज्जत नहीं घटती सिर्फ दर्द होता है तो काजल से पिटकर इज्जत क्यों घटती है. क्योंकि वो लड़की है. यह गलत बात है. पीटना या पिटना अपने आप में गलत बात है, लड़का हो या लड़की. समझे? उन्होंने राघव से कहा, जी गुरू जी.
और काजल अब तुम किसी को नहीं पीटोगी.
जी गुरू जी.....काजल ने धीरे से कहा.

(उत्तराखंड के जेंडर मॉड्यूल में पठन सामग्री के तौर पर शामिल )

Friday, September 20, 2013

सब ठीक है....



सुबह जल्दी जागती हूं इन दिनों
रियाज़ के लिए चुनती हूं राग भैरवी

सैर में भैरवी की तान के संग
गुनती चलती हूं स्कूल जा रहे
बच्चों की मुस्कुराहटें

चाय के साथ बस थामे रहती हूं अखबार
फिर उठाकर रख देती हूं दूर

व्यवस्थित करती हूं घर
ढूंढती हूं कुछ खोई हुई चीजें

दवाइयां वक्त पर लेती हूं

ऑफिस में भी सब ठीक है
काम अपनी गति से चल रहा है

मुस्कुराहटों वाली चूनर में
कुछ छेद हो गये थे
पिछले दिनों उसे भी रफू करा लिया है

गाड़ी की सर्विसिंग ड्यू नहीं है

बच्चों की परीक्षाएं भली तरह निपट गयी हैं

बहुत दिन हुए किसी दोस्त से
नहीं हुई खट-पट

चैनलों को देखकर
जागता था गुस्सा
सो अब इंटरटेनमेंट चैनल में
मुंह घुसाये रहती हूं कुछ घंटे

पलटती हूं कुछ किताबें सोने से पहले
और खुद से बुदबुदाती हूं कि
सब ठीक है....
नमी से भरपूर ये शब्द
हर रात मुझे मुंह चिढ़ाते हैं...


Wednesday, September 18, 2013

प्रतिरोध



मौन की जमीन पर
भी उग ही आते हैं प्रतिरोध के बीज

आसमान के पल्लू में बांधकर रखी गयी
तमाम खामोशियाँ
लेने लगती हैं आकार

धरती से आसमान तक
बरपा होने लगता है
चुप्पियों का शोर
अब नहीं, अब और नहीं

नहीं चलेगी अब कोई संतई
नहीं सेंकने देंगे सत्ता की रोटियां
हमारे जिस्मों की आंच पर

नहीं बहने देंगे एक भी बूँद खून
न सरहद पर, न सरहद पार

न, कोई सफाई नहीं देंगे हम

दुनिया के हाकिमों,
खोलो अपनी जेलों के दरवाजे
ठूंस दो दुनिया की तमाम हिम्मतों को
जेलों के भीतर
आम आदमी की चेतना का सीना
तुम्हारे आगे है.…

रंग कोई नहीं है हमारे झंडों का
बस कि रगों में दौड़ते खून का रंग है लाल.….

Thursday, September 5, 2013

हथेलियां...जो आजकल खुली रहती हैं...



इन दिनों आंखों में कोई दृश्य ठहरता नहीं. कानों में कोई बात नहीं रुकती, जेहन की डायरी पर कोई लम्हा दर्ज नहीं होता...हर रोज कोरे पन्नों का शोर मौन के पानी में किसी की कंकड़ी सा पड़ता है. वो मौन को सधने नहीं देता.

संगीत की दहलीज पर किये गये सजदों में भी मानो सर ही झुक पाता है. ऊंचे पहाड़ों, खूबसूरत मंजर, सर्द हवाओं के दरम्यान न जाने कौन सी बदली आंखों से टकराती है और अतीत का कोई टुकड़ा गालों पर रेंगते हुए हथेलियों की पनाह में जा छुपता है. हथेलियां...जो आजकल बंद नहीं होतीं. खुली रहती हैं. सूरज की कोई किरन हथेलियों पर खेलते हुए किसी शातिर खिलाड़ी की तरह अतीत की नमी को चुरा लेना चाहती है. जैसे नया प्रेमी चुरा लेना चाहता है प्रेमिका की स्मतियों में दर्ज पुराने प्रेमी के बिछोह के सारे दर्द.

इस चाहना में इतनी मासूमियत है, इतनी पवित्रता कि इसके पूरे होने न होने के अर्थ बेमानी होने लगते हैं. हथेलियों पर सूरज की किरनों को खेल जारी है दूर...कहीं बहुत दूर से शहनाई की आवाज आ रही है...उदास शहनाई...

वादियों में कोहरे का खेल जारी है... खूबसूरत खेल. उदासी का अपना सौन्दर्य होता है जो बेहद आकर्षक होता है. वादियों में बादलों का खेल उसी उदासी के सौन्दर्य को बढ़ा रहा था. पहले की तरह अब किसी दृश्य को देखकर हथेलियां खिलखिलाकर आगे नहीं बढ़तीं. वो किसी दृश्य को मुट्ठियों में कैद करने को बेताब नहीं होतीं. न बारिश, न हवाएं, न बादल, न खुशबू न कविता, यहां तक कि नन्हे बच्चे की मुस्कुराहट भी नहीं. बस कि इन तमाम खुशनुमा दृश्य के सर पर हाथ फिराने की इच्छा जागती है. ये दृश्य शाश्वत रहें ये दुआ देने को जी चाहता है.

इन दृश्यों की नज़र उतारने को कुछ तलाशती हूं तो उम्र के दुपट्टे में बंधे स्म्रतियों के कुछ सिक्के ही हाथ आते हैं. इस दुनिया के निजाम ने ऐसे खोटे सिक्कों पर पाबंदी लगा रखी है.

अपनी खुली हथेलियों को देखती हूं. लकीरें कोई नहीं हैं बस कि एक खुशबू है जो लगातार झरती रहती है. हथेलियां अब बंद नहीं होतीं...हथेलियों का बंद न होना बड़ा संकेत है...इतना बड़ा संकेत कि उस पर आंखें नहीं ठहरतीं...कुछ छूटता सा महसूस होता है...कुछ टूटता सा महसूस होता है...ग़म की डली अपने नमकीन स्वाद के साथ...सांसों के साथ सरकती रहती है...

शाम की ओढ़नी में खुद को लपेटते हुए उम्र के कंधे पर सर टिका देती हूं...