Friday, October 28, 2011

जीने की तलब, बेसबब ...


घर से निकलने के लिए किसी काम का हाथ में होना जरूरी जाने क्यों होता है? कहीं पहुंचने का सबब ला$िजम क्यों होता है? किसी से मिलने की तलब लिये बगैर भी तो घर से निकला जा सकता है, जिसमें यकीनन ऑफिस पहुंचने की भी कोई बात न ही शामिल हो. बेसबब शहर की सड़कों पर खुद को यूं ही फेंक देने का भी तो अपना एक लुत्फ होता है. बढ़ते पेट्रोल के दामों की चिंता को दरकिनार कर बस गाड़ी के एक्सीलेटर को निरंतर दबाये रखना और हवाओं से अठखेलियां करना क्या बहुत बड़ा ख्वाब है. आधी रात को शहर देखने की हसरत, नदी में झांकती ऊंघती हुई रोशनियों को देखना का आवारा मन इसका कोई कारण दे भी तो क्या दे. अभी अपनी इसी आवारगी को अंजाम देकर लौटी हूं.

रात ने बाकायदा शहर को अपनी हसीन ओढऩी में समेट रखा था. मखमली सड़कों पर खुद को बेसबब यूं ही छोड़ दिया था. न जीने की तलब, न मरने का सबब बस आवारगी... आवारगी... आवारगी...न जाने कब किसने किया होगा अवध की शामों का जिक्र यकीनन उसने भी उस रात भरपूर आवारगी की होगी. हर दूसरे कोने पर गोमती से टकराते हुए, रोशनी से नहाई सड़कों पर यूं आवारगी करते हुए महसूस हुआ कि मैं इस शहर की शहजादी हूं. कोई मुझे कहीं जाने से नहीं रोकता. कोई पूछताछ नहीं करता. कानों में जगजीत सिंह पूछ रहे थे कि 'यही होता है तो आखिर यही होता क्यों है...' मैं मुस्कुराती हूं. कोई जाकर भी कहां जाता है और कोई आकर भी कहां आता है. हर सवाल का कोई जवाब कहां होता है, और कुछ जवाब तो बेचारे सवालों का इंतजार ही करते रह जाते हैं कि कभी उनके बारे में भी कोई दरयाफ्त करेगा.

नये बने पुल के किनारे कुछ देर अकेले खड़े होना का जी चाहा. देखा, कुछ लोग पहले ही खड़े हैं थोड़ी-थोड़ी दूरी पर. कहीं कोई सिगरेट के छल्ले उड़ा रहा है तो कहीं कोई नदी में अपना अक्स तलाश रहा है. ये लोग अपने एकांत को जी रहे थे शायद. कोई फोन पर भी बात करता नहीं मिला. न कोई ईयरफोन के जरिये गाने सुनता. बस हर शख्स अपने आप में गुम. उस पुल के ठीक सामने वाली सड़क पर जो पार्क है, उसमें रोशन फुहारों के बीच एक भीड़ थी. गाडिय़ां खड़ी करने की जगह भी नहीं. भीड़ से चंद कदम दूर एकांत रखा था. तनहाई भी. भीड़ का कोई चेहरा नहीं था. एकांत में डूबे इन सारे लोगों का एक सा चेहरा था. मैं खुद को कहां पाती हूं? खुद से सवाल करती हूं. दिल में बसी एक पुरानी ख़्वाहिश जागती है सड़क पर गाड़ी चलाते हुए तेज आवा$ज में गाने की. सर्द हवा की ओढऩी में खुद को छुपाते हुए मैंने सारे चेहरों पर से उनकी पहचान को पोंछ दिया. अपनी आवाज को हवाओं में उछाल दिया...'यही होता है तो आखिर यही होता क्यों है?' मैंने अपनी आवाज में उन तन्हा खड़े लोगों की तन्हाई को भी पिरोया. कुछ ही देर में मैंने तन्हाई के चूर-चूर होने की आवाज सुनी, सड़क के बीचोबीच सूरज को उगते देखा और नकली रोशनी उगलते खंभों को खामोश होते सुना.

मेरे कंधों पर बैठकर ठंड का मौसम अपने आने का ऐलान कर रहा था...मैंने उसकी आंखों में देखा और कसकर उसका हाथ पकड़ लिया...उसने पलकें झपकाकर कहा, मैं यहीं हूं एकदम तुम्हारे पास. आंखों के पास एक सर्द लकीर सी उभरी जो लगातार गाढ़ी होती गई और आवाज मद्धम...मद्धम...मद्धम...

4 comments:

kavita verma said...

yun hi besabab hona bahut kuchh hone se bahut achchha hai....hamesha ki tarah khoobsurat...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत बढ़िया!
मंगलकामनाएँ!

प्रवीण पाण्डेय said...

मन की आवाजाही की शाब्दिक चित्रकारी।

vandana gupta said...

सच कहा आवारगी का भी अपना मज़ा है कुछ पल सिर्फ़ अपने साथ …………अपने लिये।