Monday, October 31, 2011

इंतजार...



नर्म मखमली घास पर नंगे पांव धीरे-धीरे चलते हुए उन्हें घंटों बीत चुके थे. उनमें कोई संवाद नहीं हो रहा था. न बोला, न अबोला. वे अपने-अपने एकांत में थे. एक साथ. वे एक-दूसरे के बारे में जरा भी नहीं सोच रहे थे. हालांकि इस मुलाकात से पहले हर पल वे एक-दूसरे के बारे में ही सोच रहे थे. कई बार तो एक पल में कई बार तक. वे बेवजह मुस्कुराते थे. नाराज होते थे. हाथ में कोई भी काम हो, दिमाग कितने ही हिस्सों में बंटा हो वे एक-दूसरे के बारे में ही सोचा करते थे. इस मुलाकात का उन्हें बरसों से इंतजार था. मिलने के बाद भी वे चल ही रहे थे. साथ-साथ. अकेले-अकेले.
चांद उन पर चांदनी बरसा-बरसा कर थक चुका था. लेकिन उनके पैर तो मानो चलने के लिए अभिशापित थे, या कहें कि उन्हें वरदान मिला था चलने का. वे बस चलते जा रहे थे. उनके भीतर भी न जाने क्या-क्या चल रहा था. पर वे शांत थे. उद्विग्न नहीं. उनके मिलन में असीम शांति थी.
लड़का अचानक रुक गया. 'सुनो,' उसने कहा.
लड़की ने चलते-चलते ही जवाब दिया 'कहो,'
'तुम खुश हो ना?' लड़के ने पूछा. यह उनके बीच पहला संवाद था. लंबे इंतजार के बाद मुलाकात के कई घंटे बीत जाने के बाद का पहला संवाद.
लड़की ने अपनी बांहें आकाश की ओर फैलाते हुए जोर से चिल्लाकर कहा, 'बहुत..'.
लड़के ने चैन की सांस ली. वो जहां रुका था, वहीं बैठ गया. रात के अंधेरे में सफेद फूलों की चमक आसमान के तारों को मात कर रही थी. उनकी खुशबू उनके सर पर मंडरा रही थी. लड़की ने पलटकर देखा और आगे चलती गई. उसने दोबारा पलटकर नहीं देखा और आगे बढ़ती गई. उसके कदमों में अब लड़के के होने की आश्वस्ति थी. लड़के ने अपनी बाहों को मोड़कर तकिया बनाया और उसमें अपने सर को टिकाकर आसमान में टहलते चांद को देखने लगा. लड़की घास पर अपना सफर पूरा करके लौटी तो लड़के की बाहों के तकिये में अपना सर भी टिकाने की कोशिश करने लगी. लड़के ने अपनी बांह फैला दी.
उसकी बांह के तकिये पर सर टिकाते हुए लड़की ने उसकी कलाई को छुआ.
'कितनी चौड़ी कलाई है तुम्हारी...' उसने किसी बच्चे की तरह खुश होते हुए कहा.
लड़का चुप रहा.
उसने लड़के की हथेलियों में अपनी हथेली को समा जाने दिया. लड़के की लंबी उंगलियों और चौड़ी हथेली में उसकी हथेली कैसे समा गई, उसे पता ही न चला. उन एक दूसरे में समाई हथेलियों को देखते हुए लड़की ने कहा, 'आज समझ में आया कि हमारी उंगलियों के बीच खाली जगह क्यों होती है?'
लड़का जवाब जानता था फिर भी उसने पूछा 'क्यों?'
'ताकि कोई आये और उस खाली जगह को भर दे.'  दोनों मुस्कुरा दिये.
'थक गये होगे?' उसने लड़के से पूछा.
'क्यों?' लड़के को इस सवाल का सबब समझ नहीं आया.
'सदियों का सफर आसान तो न रहा होगा?' उसने मुस्कुराते हुए कहा.
'बहुत आसान था.' लड़के ने कहा. 'अगर पता हो कि कहीं कोई आपके इंतज़ार में है तो सफर की थकान जाती रहती है.'
'और अगर ये इंतजार का सफर जीवन के उस पार तक जाता हो तो?' लड़की ने पूछा.
'तो जीवन बहुत खूबसूरत हो जाता है यह सोचकर कि जिंदगी के उस पार भी कोई है जिसे आपका इंतजार है.' लड़के ने कहा.
'हम क्यों चाहते हैं कि कोई हमारा इंतजार करे?' लड़की ने मासूमियत से पूछा.
'असल में हम जब यह चाहते हैं कि कहीं कोई हमारा इंतजार करे तो असल में हम खुद किसी का इंतजार कर रहे होते हैं. उंगलियों के बीच की खाली जगह के भरे जाने का इंतजार.  इंतजार अनकहे को सुनने का और अब तक के सुने हुए को बिसरा देने का भी. एक-दूसरे के मन की धरती पर जी भरके बरसने का इंतजार और अपनी आंखों में बसे बादलों को मुक्त कर देने का इंतजार. जानती हो सारी सार्थकता इंतजार में है.'
'ओह...?' लड़की उसकी बात को ध्यान से सुन रही थी. लड़की ही नहीं प्रकृति का जर्रा-जर्रा लड़के की बात को ध्यान से सुन रहा था. रात भी अपने सफर को तय करते-करते ठहरकर सुनने लगी थी.
'फिर...?' सबने एक सुर में कहा. मानो कोई कहानी पूरी होने को है.
'इंतजार में होना प्रेम में होना है. प्रेम इंतजार के भीतर रहता है.' लड़के ने कहा.
'तो जिनका इंतजार पूरा हुआ उनके प्रेम का क्या?'  लड़की ने उंगलियों में उंगलियों को और कसते हुए पूछा. ऐसा करते वक्त उसके चेहरे पर शरारत भरी मुस्कान थी.
'जिनका इंतजार पूरा हुआ, उनके हिस्से का अगला इंतजार उन्हीं पूरे हुए पलों में कहीं जन्म ले रहा होता है.'
'यानी प्रेम हमेशा सफर में रहता है?' लड़की ने आगे जोड़ते हुए पूछा.
'हां, प्रेम एक नदी है, जो हमेशा बहती रहती है, और उसे समूची धरती की परिक्रमा करते हुए यह गुमान रहता है कि कहीं कोई समंदर है उसके इंतजार में. यही गुमान उस नदी का सौंदर्य है.'
कहते-कहते लड़का अचानक रुक गया.
'तुम्हें एक बात पता है?' लड़के के शब्दों का सुर अचानक धीमा पड़ गया था.
'क्या...' लड़की ने उसी बेपरवाही से पूछा.
'तुम बहुत सुंदर लग रही हो.'
'धत्त...' लड़की शरमा गई.
'पहली बार देखा है क्या?' उसने लड़के की बाहों में छुपते हुए कहा.
'हां, खुले बालों में पहली बार.'
लड़की ने अपने चेहरे को अपने लंबे बालों से ढंक लिया.
'तुम्हें पता है कितनी सदियों के इंतजार का सफर तय किया है मैंने.' लड़का अपनी बात को वापस ठिकाने पर ले आया.
लड़की ने कहा, 'हां, जानती हूं.'
'और तुम जानते हो कि तुम तक आने के लिए मुझे धरती की कितनी परिक्रमाएं करनी पड़ीं?'
'जानता हूं.' दोनों खिलखिला दिए.
रात ने अपने आंचल में उनकी खिलखिलाहटों के फूल समेट लिये. सदियों के इंतजार के विराम की यह अनूठी कथा उसके हिस्से में जो आई थी. सूरज आहिस्ता-आहिस्ता रात की ओर बढ़ रहा था. लड़की उसकी उंगलियों में अब तक उलझी हुई थी. लड़का दूर कहीं आसमान में निगाह टिकाये हुए था कि तभी पौ फटी. सूरज की पहली किरन ने धरती की तलाशी ली. धरती का वह कोना खूब महक रहा था. नर्म घास पर कुछ पैरों के निशान अब भी थे. लेकिन वहां और कोई नहीं था. हां, कुछ पंखों के फडफ़ड़ाने की आवाज जरूर सुनी थी उसने.

सुबह के हिस्से में फिर इंतजार आया था.

(प्रकाशित)

Friday, October 28, 2011

जीने की तलब, बेसबब ...


घर से निकलने के लिए किसी काम का हाथ में होना जरूरी जाने क्यों होता है? कहीं पहुंचने का सबब ला$िजम क्यों होता है? किसी से मिलने की तलब लिये बगैर भी तो घर से निकला जा सकता है, जिसमें यकीनन ऑफिस पहुंचने की भी कोई बात न ही शामिल हो. बेसबब शहर की सड़कों पर खुद को यूं ही फेंक देने का भी तो अपना एक लुत्फ होता है. बढ़ते पेट्रोल के दामों की चिंता को दरकिनार कर बस गाड़ी के एक्सीलेटर को निरंतर दबाये रखना और हवाओं से अठखेलियां करना क्या बहुत बड़ा ख्वाब है. आधी रात को शहर देखने की हसरत, नदी में झांकती ऊंघती हुई रोशनियों को देखना का आवारा मन इसका कोई कारण दे भी तो क्या दे. अभी अपनी इसी आवारगी को अंजाम देकर लौटी हूं.

रात ने बाकायदा शहर को अपनी हसीन ओढऩी में समेट रखा था. मखमली सड़कों पर खुद को बेसबब यूं ही छोड़ दिया था. न जीने की तलब, न मरने का सबब बस आवारगी... आवारगी... आवारगी...न जाने कब किसने किया होगा अवध की शामों का जिक्र यकीनन उसने भी उस रात भरपूर आवारगी की होगी. हर दूसरे कोने पर गोमती से टकराते हुए, रोशनी से नहाई सड़कों पर यूं आवारगी करते हुए महसूस हुआ कि मैं इस शहर की शहजादी हूं. कोई मुझे कहीं जाने से नहीं रोकता. कोई पूछताछ नहीं करता. कानों में जगजीत सिंह पूछ रहे थे कि 'यही होता है तो आखिर यही होता क्यों है...' मैं मुस्कुराती हूं. कोई जाकर भी कहां जाता है और कोई आकर भी कहां आता है. हर सवाल का कोई जवाब कहां होता है, और कुछ जवाब तो बेचारे सवालों का इंतजार ही करते रह जाते हैं कि कभी उनके बारे में भी कोई दरयाफ्त करेगा.

नये बने पुल के किनारे कुछ देर अकेले खड़े होना का जी चाहा. देखा, कुछ लोग पहले ही खड़े हैं थोड़ी-थोड़ी दूरी पर. कहीं कोई सिगरेट के छल्ले उड़ा रहा है तो कहीं कोई नदी में अपना अक्स तलाश रहा है. ये लोग अपने एकांत को जी रहे थे शायद. कोई फोन पर भी बात करता नहीं मिला. न कोई ईयरफोन के जरिये गाने सुनता. बस हर शख्स अपने आप में गुम. उस पुल के ठीक सामने वाली सड़क पर जो पार्क है, उसमें रोशन फुहारों के बीच एक भीड़ थी. गाडिय़ां खड़ी करने की जगह भी नहीं. भीड़ से चंद कदम दूर एकांत रखा था. तनहाई भी. भीड़ का कोई चेहरा नहीं था. एकांत में डूबे इन सारे लोगों का एक सा चेहरा था. मैं खुद को कहां पाती हूं? खुद से सवाल करती हूं. दिल में बसी एक पुरानी ख़्वाहिश जागती है सड़क पर गाड़ी चलाते हुए तेज आवा$ज में गाने की. सर्द हवा की ओढऩी में खुद को छुपाते हुए मैंने सारे चेहरों पर से उनकी पहचान को पोंछ दिया. अपनी आवाज को हवाओं में उछाल दिया...'यही होता है तो आखिर यही होता क्यों है?' मैंने अपनी आवाज में उन तन्हा खड़े लोगों की तन्हाई को भी पिरोया. कुछ ही देर में मैंने तन्हाई के चूर-चूर होने की आवाज सुनी, सड़क के बीचोबीच सूरज को उगते देखा और नकली रोशनी उगलते खंभों को खामोश होते सुना.

मेरे कंधों पर बैठकर ठंड का मौसम अपने आने का ऐलान कर रहा था...मैंने उसकी आंखों में देखा और कसकर उसका हाथ पकड़ लिया...उसने पलकें झपकाकर कहा, मैं यहीं हूं एकदम तुम्हारे पास. आंखों के पास एक सर्द लकीर सी उभरी जो लगातार गाढ़ी होती गई और आवाज मद्धम...मद्धम...मद्धम...

Monday, October 24, 2011

अमावस की चमकीली भीगी सी रात....



उस रोज चांद जरा देर सा आया था. लड़की उसके इंतजार में बैठी थी. अपनी तिथियों की गणना वो बार-बार करती. कहीं कोई गड़बड़ी नहीं निकलती. फिर वो पूरे आकाश का चक्कर अपनी आंखों से लगाती और वापस लौट आती. आखिर क्यों नहीं आया आज उसका चांद. वो यूं ही हवाओं से खेलते हुए चलने को उठी. पांव बढ़ाया तो हैरत में पड़ गई. ये क्या, उसके पांव भीगे हुए से क्यों है. न$जर को थोड़ा और विस्तार दिया तो उसकी हैरत का ठिकाना न रहा. शहर की सारी सड़कें गायब हो चुकी थीं. सड़कों की जगह नदियां बह रही थीं. उसने झुककर करीब से देखा. हां, नदी ही तो थी. पानी में डाला तो पूरा हाथ भीग गया. वो फिर से उसी जगह बैठ गई. पांव को सड़क पर अरे नहीं, नदी में डालकर. रात खिसककर उसके कंधे के एकदम करीब आ बैठी थी. नदियां खूब मचल रही थीं. उनके प्रवाह में शरारत थी. उसने रात का चेहरा देखा, उससे पूछना चाहा कि यह क्या शरारत है लेकिन रात का चेहरा भी उसकी ही तरह आश्चर्य से भरा था. नदियों की ठिठोली दोनों मिलकर देखने लगीं. सड़कों पर दौडऩे वाले वाहन नाव बन चुके थे. बच्चे पानी को एक-दूसरे पर उछाल रहे थे. चारों ओर बस कलकल-कलकल का शोर था. लड़की ने देखा नदियों का पानी खूब साफ था. उसने अपनी अंजुरी में पानी को भरा और पी लिया. पानी नहीं, अमृत था वो. बहुत मीठा, बहुत स्वादिष्ट. लड़की को अपनी सदियों की प्यास उस पानी को पीकर बुझती महसूस हुई. उसने अपनी अंजुरियों में भर-भरकर ढेर सारा पानी पिया. पानी पीने से उसकी सूखी, निर्जीव हो चुकी आत्मा को जो सुख मिला, उसने उसकी आंखें नम कर दीं. उसने मन ही मन सोचा जाने किसने दुख में रोने का रिवाज बनाया है, असल रोना तो सुख में आता है.
उसका मन नदी के भीतर उतरने का हुआ. रात उसकी सहेली थी. उसने दुपट्टा खींचा और कहा, ना सखी मत जा. लड़की ने कहा, क्यों? सहेली जानती थी लड़की को तैरना नहीं आता. वो चुप रही. लड़की ने उस मौन पर अपनी मुस्कुराहट की मुहर लगा दी. वो नदी में उतर गई. उसने देखा नदी में ढेर सारे फूल उतरा रहे हैं. जो तारे आसमान से गायब थे, वे सब के सब शहर की नदियों में मस्ती कर रहे थे. वो थोड़ा और आगे गई तो एक पेड़ की डाली में अटका हुआ चांद दिखा. ओह तो ये महाशय यहां अटके हैं. लड़की ने मन ही मन सोचा और मुस्कुराई. इसीलिए आज आसमान सूना है. तुम यहां क्या करने आये? लड़की ने चांद से बनावटी गुस्सा करते हुए पूछा. चांद ने सर खुजाते हुए कहा, आज अमावस की रात है ना. मेरी आसमान के दफ्तर में छुट्टी होती है. और धरती पर दीवाली. मैंने सोचा आज धरती पर चलते हैं. साथ में ये कम्बख्त तारे भी हो लिए. लेकिन देखो ना, मैं कबसे इस कनेर की डाल में अटका हूं. कोई नहीं बचाने आया. तारे सारे के सारे मटरगश्ती कर रहे हैं. कौन आयेगा तुम्हें बचाने बोलो तो?
तुम...चांद ने शरमाकर कहा.
लड़की ने उसे कनेर की डाली से अलग कर दिया. अब वो शहर की सड़कों पर नहीं... नहीं... नदी में तैरने लगा. उसके साथी तारे भी. पूरी धरती पर पानी है और उनमें चांद सितारे तैर रहे हैं. फूल तैर रहे हैं. चांद ने लड़की से पूछा, ये शहर के सारे लोग कहां गये हैं?
लड़की मुस्कुराई. तुम आराम से मटरगश्ती करो. तुम्हें आज कोई तंग नहीं करेगा. शहर के सारे लोग धर्म के कार्यों में व्यस्त हैं...
चांद मुस्कुराया, ये बहुत अच्छा हुआ.
लेकिन एक बात बताओ, ये शहर की सड़कें आज नदियां कैसे बन गईं? लड़की ने पूछा.
चांद उदास हो गया?
बताना जरूरी है? उसने पूछा.
हां, लड़की ने कड़े स्वर में कहा.
आज की रात एक स्त्री का प्रेमी उसे यह कहकर गया था कि जिस रात पूरी धरती रोशनी से नहाई होगी और आसमान चांद सितारों से भरा होगा, उस रोज वो वापस आयेगा. धरती जिस रोज रोशनी से भरती है उस रोज आसमान पर चांद नहीं खिलता. और जिस दिन आसमान पर चांद खिलता है उस रोज धरती रोशनी से नहाई नहीं होती. लड़की सदियों से उस रात का इंतजार कर रही है. हर रात धरती को दियों से भर देना चाहती है. लेकिन न वो धरती का सारा अंधेरा मिटा पाती है न आसमान पर चांद सितारे उगा पाती है. वो हर रात रोती है. तुम्हें सड़कों की जगह आज जो नदियां दिख रही हैं, वो दरअसल, उस लड़की की आंख के आंसू हैं. आज उसके इंतजार की हजारवीं रात है...
लड़की गुमसुम होकर चांद की कहानी को सुन रही थी.
लेकिन आंसू का स्वाद तो नमकीन होता है. ये पानी तो बहुत मीठा है? लड़की ने सवाल किया.
हां, क्योंकि लड़की का रोना मोहब्बत में रोना था. और मोहब्बत की मिठास से तो जहर भी अमृत हो जाता है. ये जो पानी का स्वाद है ना ये उसकी मोहब्बत का स्वाद है. मीठा, अमृत सा. लड़की की आंख नम हो गई. उसने अंजुरी में भरकर पानी को फिर से पिया. उसने महसूस किया अपनी सूखी आत्मा को हरा होते. चांद नदी में तैरते हुए अब दूर जा चुका था...

Monday, October 17, 2011

एक रोज यूं ही...


आंखों में नींद का बादल अभी अटका ही हुआ था, हालांकि धूप आंगन से होते हुए ड्राइंगरूम तक आ पहुंची थी. चिडिय़ां अपने सुबह के कलरव के बाद डालियों से चिपककर ऊंघ रही थीं और हवाओं में थोड़ा भारीपन शामिल हो चुका था. उसने घड़ी की ओर देखा तो ग्यारह बज रहे थे. ओह...इतनी देर हो गई. आजकल जिंदगी की तरह नींद का हिसाब-किताब भी बिगड़ गया है. इसके पहले कि दिन शुरू होता फोन बज उठा. 
तुम आ रही हो ना? 
कौन? वो आवाज पहचान नहीं पाई.
तुम्हें क्या हर बार बताना पड़ेगा कि कौन. नंबर सेव कब करोगी.
अब तक लड़की को आवाज पहचान में आ चुकी थी. 
कभी नहीं सेव करूंगी. लड़की ने शरारत से कहा.
तुम मर क्यों नहीं जातीं? लड़के ने झुंझलाकर कहा.
यार, किसपे मरूं? कोई मिला ही नहीं. लड़की अब पूरे शरारत के मूड में आ चुकी थी.
अरे हम क्या मर गये हैं? 
शरारत का असर लड़के पर भी होने लगा था.
तुम? अब इतने बुरे दिन भी नहीं आये मेरे. लड़की खिलखिला पड़ी.
लड़का उसके इस तरह खुलकर हंसने से खुश हो गया.
जरा धीरे हंसो. न$जर लग जायेगी. उसने टोका.
यार रोका मत करो, कभी-कभी तो हंसती हूं.
अच्छा ठीक है. हंसो और हंसते-हंसते आ जाओ.
कहां आ जाऊं? लड़की ने पूछा.
तुम भूल गईं? आज तुम्हें मेरे घर आना था. तुमने वादा किया था. 
आज क्या है? लड़की ने याद करने की कोशिश की.
आज सनडे है. और तुमने कहा था कि तुम सनडे को घर आओगी.
ऐसा वादा मैंने क्यों किया होगा भला? जरूर मैंने पी रखी होगी उस रोज. लड़की फिर हंस पड़ी. 
अब जो भी हो, वादा किया है तो निभाना पड़ेगा. लड़का वादे का सिरा पकड़े हुए फोन पर लटका हुआ था.
देखो, मैं कोई हरिशचंद्र तो हूं नहीं कि वादा कर दिया तो पूरा ही करना है. अरे मैं मुकर गई वादे से. जाओ, नहीं आती...
लड़की की आवाज में अब भी शरारत थी.
यूं मैं भी किसी को बुलाता नहीं हूं पर अब सोच रहा हूं बहुत सा खाना बन गया है वेस्ट हो जायेगा तो गरीबों को दान कर दिया जाये...
अच्छा जी, ये बात. दोनों हंस दिए.
सुनो, मैं अभी सोकर उठी हूं. और मेरा सर भी दर्द कर रहा है. मैं कैसे आऊंगी. ड्राइव करने में दिक्कत होगी. लड़की ने टालना चाहा.
तुम अगर चाहोगी तो कुछ भी मुश्किल नहीं होगा ये मैं जानता हूं.
रहने देते हैं. फिर कभी. लड़की ने कहा.
ठीक है तुम्हारी मर्जी. लड़के ने अब हथियार डाल दिए.
फोन कट गया और सन्नाटे ने खिलखिलाहटों की जगह लेनी शुरू कर दिया. 
थोड़ी देर में लड़की ने न जाने क्या सोचकर नंबर रीडायल कर दिया. 
क्या हुआ? उधर से आवाज आई.
मैं आ रही हूं. दस मिनट में निकलती हूं.
ओके. उसने कोई सवाल नहीं किया.
खुद को रास्तों में छोड़ते हुए लड़की को हमेशा अच्छा लगता था. मौसम चाहे कोई भी हो. उसने तेज धूप की चूनर ओढ़ी. मुस्कुराहट की पाजेब को जीन्स से बिना मैच किये हुए भी पहना और हाथ में घड़ी. घड़ी को पहनना उसे हमेशा ऐसा लगता था कि उसने वक्त को अपनी कलाई पर बांध लिया हो. उसकी कलाई पर बंधकर वक्त उसका हो जाता हो जैसे. शहर की सड़कों से उसकी दोस्ती पुरानी थी. पलक झपकते ही वो लड़के के पास थी.
वो यहां क्यों आई अभी तक इसका कोई जवाब नहीं था. 
लड़का उससे क्यों मिलना चाहता था, इसका उसके पास कोई जवाब नहीं था. 
उन दोनों ने सवालों से मुंह चुराया और मुस्कुराहटों से एक-दूसरे का अभिवादन किया. लड़के ने उसे गले लगाया और लड़की ने पलकें झपकायीं. 
दिन के सारे पहर उनकी बातचीत, शरारत, खिंचाई, उलाहनों में उलझे रहे. दुनिया भर के साहित्य के पन्नों से होते हुए वे एक-दूसरे से उलझे रहे. काफ्का कभी चाय की चुस्कियां लेते तो दोस्तोवस्की तकिये पर सर टिकाये होते. नेरूदा कमरे में टहल रहे होते तो रिल्के चुपचाप आकर लड़की के पास बैठ जाते.
तुम्हें पता है मेरा एक सपना था, लड़की ने कहा. उसकी आवाज कुछ नम थी. लड़का उसके चेहरे की ओर देखने लगा.
मैं हमेशा सोचती थी कि कोई होगा जिसे मुझसे बेहद प्रेम होगा, मुझे जिससे बेहद प्रेम होगा. उसे मैं अपनी पसंद की सारी कविताएं सुनाऊंगी. सारा संगीत उसके आसपास बिखेर दूंगी, उसके जीवन को रंगों से भर दूंगी और सारी रंगोलियां निखर उठेंगी. 
उसकी आवाज ही नहीं आंखें भी भीगने लगीं.
और ऐसा हो न सका...बेचारा बच गया. लड़के ने चुटकी ली.
लड़की ने उसे गुस्से से देखा. उसके गुस्से में अपनापन था.
बेचारा क्यों? लड़की ने पूछा
अरे यार, जिसको तुम इतना पकाती वो बेचारा ही होता ना...
हूं...लड़की ने मुस्कुराहट में झूठमूठ की नाराजगी का रंग घोला.
लड़की बातें करते-करते थक गई थी. लड़का उसके चेहरे पर उतरते आलस को गौर से देख रहा था. आलस उसकी आंखों में उतर रहा था और वो लगभग उनींदी हो चली थी. तुम सो लो थोड़ी देर मैं खाना बनाता हूं. लड़के ने कहा.
ठीक है...लड़की ने आंखें बंद कीं.
लड़का किचन तक जाकर लौट आया. उसे देखता रहा. लड़की ने अधखुली आंखों से पूछा क्या हुआ?
कुछ नहीं एक बात याद आ गई.
क्या..लड़की ने लापरवाही से पूछा.
कहीं पढ़ा था मैंने सौंदर्य देह में नहीं भंगिमा में होता है. 
अच्छा? लड़की अब भी आलस में रही.
तुम इस समय बहुत सुंदर लग रही हो. अगर कोई पेंटर तुम्हारी तस्वीर बनाये तो वो दुनिया की सबसे सुंदर स्त्री की तस्वीर होगी. 
लड़के के स्वर में गांभीर्य था. लड़की गंभीरता को घर छोड़कर आई थी.
चलो-चलो खाना बनाओ. फ्लर्ट किसी और को करना. 
वो चला गया. लड़की की आंख से कुछ बह निकला. वो आलस नहीं था. दु:ख भी नहीं था. प्यार भी नहीं था. लड़की ने खामोशी में खुद को समेटा और अपने इर्द-गिर्द ढेर सारे पीले फूलों को खिलते देखा. खुद को उनकी खुशबू में पैबस्त होते महसूस किया. उसे लगा वो पीले फूलों की चादर में लिपटी है. लड़की ने अचानक आंखें खोल दीं. लड़का किचन में काम कर रहा था. लड़की ने किचन में जाकर नई फरमाइश की. 
मुझे चाय पीनी है.
लड़का चौंका. नींद पूरी हो गई तुम्हारी?
हां, हो गई. चाय बनाओ पहले. खाना बाद में. 
जो आज्ञा. उसने हंसकर कहा और चाय का पानी चढ़ा दिया. 
दिन ने पलकें झपकायीं तो शाम को मौका मिल गया आने का. एक पूरा दिन लड़की ने लड़के से बेवजह बात करने और झगडऩे में बिता दिया.
तुम मेरे प्रेमी नहीं हो. लड़की ने कहा.
हां, जानता हूं. 
दोस्त भी नहीं. लड़की ने फिर कहा.
हां, शायद हम दोस्त भी नहीं हैं. हम बरसों बाद मिल रहे हैं और एक-दूसरे के बारे में कुछ भी नहीं जानते. जानना चाहते भी नहीं. लड़के ने लड़की की बात पर स्वीकृति की मुहर लगाई.
फिर हम एक-दूसरे के साथ क्यों हैं? 
लड़की ने पूछा.
होने और न होने के बीच एक खाली जगह होती है. हमारे जीवन में शामिल अधिकांश लोग उसी खाली जगह में रहते हैं. लेकिन वो समझ नहीं पाते और खुद को किसी न किसी दायरे में कैद करते हैं. 
पर मुझे तुमसे मिलकर अच्छा लगा. लड़की ने कहा.
इतना काफी है. ज्यादा दिमाग मत लगाओ. लड़के ने कहा.
लड़की ने कलाई पर बंधे वक्त को घूरा और गाड़ी की चाभी उठा ली.
लड़के ने उसे रोका नहीं. 
तुम्हारे लॉन में कितने सुंदर फूल खिले हैं. लड़की फूलों को देखकर मुस्कुराई.
हां. लेकिन इनमें से कोई भी फूल तुम्हारे लिए नहीं है. लड़के ने स्पष्ट किया.
क्यों? लड़की नाराज हुई. 
क्योंकि तुम न तो मेरी दोस्त हो न प्रेमिका. तो मैं तुम पर एक फूल क्यों जाया करूं. लड़का शरारत से मुस्कुराया.
अच्छा, ये बात...वो दौड़ते हुए गुलाब की क्यारी तक जा पहुंची और इसके पहले कि लड़का उस तक पहुंचकर उसे रोकता लड़की ने एक फूल तोड़ लिया...
ओह...ये तुमने क्या किया?
लड़के ने कहा.
फूल तोड़ लिया और अब बालों में लगा भी लिया. ऐ...ये देखो. उसने लड़के को चिढ़ाया.
ये तुमने अच्छा नहीं किया. लड़का गंभीर हो चला था.
क्यों? लड़की ने भी गंभीर होकर पूछा.
यार, अब तुम्हें मेरी प्रेमिका बनना होगा. वर्ना ये लाल गुलाब क्या कहेगा. इस फूल को उसकी सफलता महसूस कराने के लिए हमें प्रेम करना पड़ेगा. लड़का मुस्कुराया.
लेकिन तुम तो पहले से ही किसी के प्रेम में हो? 
तो क्या हुआ, मैं कई प्रेम एक साथ कर सकता हूं. लड़के ने घर का दरवाजा बंद करते हुए चुहल की. 
आखिर ये एक फूल की अस्मिता का सवाल है.
लड़की ने अपना पर्स उसकी पीठ पे दे मारा. बदमाश...
लड़का हंस दिया. रहने दो. तुम वहीं होने और न होने के बीच ही रहो. वर्ना कौन अपनी हड्डियां तुड़वायेगा.
सही कहा. लड़की हंस दी.
चांद ने आसमान के रजिस्टर पर अभी-अभी साइन किये थे. वो इन दोनों को देख रहा था.
दोनों ने विदा ली. न अगली मुलाकात का वादा, न बेचैनी, न कोई असहजता. बस एक खिलखिलाता हुआ दिन आसानी से गु$जर गया. 
उन दोनों ने एक-दूसरे की ओर पीठ करते हुए खुद से कहा, हां ये प्रेम नहीं है. दोस्ती भी नहीं. पर जो भी है अच्छा है. बालों में टंके फूल की खुशबू में खुद को जज्ब करते हुए लड़की लौट रही थी अपने ही पास.

('द पायनियर' में 23 अक्टूबर को प्रकाशित)

Wednesday, October 12, 2011

वो शहर उसकी आवाज में बसता है...




कभी सोचा था कि रेत के समंदर में खुद को छुपा दूँगी और सैकड़ों रतजगों से मुक्त हो जाऊंगी. कुछ आवाजें थीं जो सहराओं को चीरते हुए आयीं थीं और रूह को अपने साथ उड़ा ले गयीं थीं. चाँद आसमान की देहरी पर होता था और शाम हथेली पर खिलखिला रही होती थी, ठीक उस वक़्त कोई हवा का झोंका आता और अपने साथ उड़ा ले जाता. मन के वो सारे कोने महकने लगते, जो सदियों से कैद पड़े थे. वो आवाज किसी साज सी थी. फ़ोन के उस पार एक संसार उगने लगा. उस संसार में मै भी उगने लगी. ये उगना असल में अपने ही भीतर जन्म लेना था. सदियों से भटकती रूह की आवाज को सुनना था. उस पार जो आवाज थी उसमे प्यार था, इस पार जो आवाज थी उसमे ऐतबार था. कहीं कोई बाँहों का हार नहीं, जिन्दगी के किसी मोड़ पर मिलने का वादा भी नहीं, कोई उम्मीद भी नहीं बस निश्चल, निर्मल, कामना रहित प्रेम. जो शिराओं में दौड़ता फिरता था, जिसके होने से जिन्दगी में रंग भरने लगे थे.


वो आवाज एक खुशबू थी, फूलों की चादर, रेत का समन्दर. उस आवाज में एक घर बनने लगा. उसमे ख्वाब अंगड़ाई लेने लगे. कभी जंगल, कभी बस्ती, कभी पर्वत, कभी समंदर में डूबती उस आवाज में न जाने कैसी ताजगी थी, न जाने कैसा सम्मोहन कि मन खिंचने लगा था. जाने क्यों रेत के सहरा में मुक्ति की कामना जगती दिखी थी. एक रोज वो आवाज टूट गयी. उस आवाज का जादू गुम हो गया. उस आवाज का टूटना मेरा भी टूटना था. मेरे घर का टूटना था. अजीब सी आकुलता थी, आँख भरी भरी सी रहने लगी. हम अब मौन में रहने लगे. शब्दों में ख़ामोशी को और ख़ामोशी को शब्दों में गढ़ने लगे. हम एक- दुसरे से झूठ बोलने लगे. भीतर-भीतर रोते हुए हम मुस्कुराने लगे. लेकिन उस आवाज का टूटना इस समूची स्रष्टि में बसी खूबसूरती का टूटना था. दरकना था उस विश्वास का जो एक से दूसरे तक होते हुए पूरे ब्रह्मांड में सच्चाई पर यकीन को संप्रेषित करता था.


राजस्थान के किसी गाँव में उस आवाज को ढूंढकर गले से लगाना था. उसे बताना था कि तुम महज एक आवाज नहीं पूरी स्रष्टि के लिए भरोसा हो. रेत के उन टीलों पर भले ही हमने धूप को आँचल में न समेटा हो लेकिन उस आवाज को अपने आँचल में समेटा ज़रूर था. हम एक दूसरे के पीछे भागते फिरते थे. सारा दिन हम ठिठोलियों में खोये रहते और सारी रात अपनी आवाज को छुपकर रख देते तकिये नीचे और बस रोते रहते. चाँद हमारे कमरे की ताका झांकी करता तो हम पर्दा गिराकर उसे बाहर का रास्ता दिखाते.


सवाल राजस्थान का नहीं था, सवाल किसी व्यक्ति का नहीं था, सवाल किसी एक आवाज का भी नहीं था सवाल था विश्वास के टूटने का. इस दुनिया में कुछ भी टूटे लेकिन विश्वास नहीं ही टूटना चाहिए. हमने न जाने क्या क्या कहा, क्या क्या सुना लेकिन राजस्थान का एक कोना हमारी आँखों की बदलियों के बरसने से भीगा ज़रूर. हमारी खिलखिलाहटों से महका ज़रूर. हमने हाथ में हाथ लिया और हथेलियों को कस लिया. उँगलियों में उँगलियों को फंसाकर जोर से दबाया. जी भर के गले लगे, जी भर के रोये, और शायद कुछ टूटने से बचा लिया. जो टूट चूका था उसके टुकड़े चुने और रेत की चादर उठाकर उसके भीतर उन टुकड़ों को सुला दिया.


तभी दशमी का चाँद खिला. नगाड़ों को गूँज उठी, मेहँदी की खुशबू आई, राजस्थानी खाने की महक छाई, ऊँट ने अपनी गर्दन हिलाई और हमने अपनी उदासियों को हथेलियों में भरकर हवाओं में बिखेर दिया. अंजुली में आत्मविश्वास भरा. कोरों पर उभर आई किसी याद को पीछे धकेला और मन को प्रेम से भर जाने दिया. न हवा महल, न आमेर का किला, न चोखी धाडी, सारा सुख सिमटकर रह गया जवाहर कला केंद्र में मिले दोस्तों में और न्यू संग्नेरी के उस घर में जहाँ हम असल में एक-दूसरे को एक दूसरे में खोज रहे थे...रेत के जिस समन्दर में हमेशा के लिए सो जाना था, वहां रात रात भर जागते ही रहे...बाजरे की रोटी, लहसुन की चटनी दाल बाटी चूरमा, कढ़ी, गट्टे की सब्जी, प्याज की कचौरी, मिर्ची बड़ा सब एक तरफ रह गए बस एक आइसक्रीम को मिलकर खाना, आधी रात को सड़कों पर खाक छानते हुए ऊंघते हुए शहर को देखना और हथेलियों में हथेलियों का घंटो फंसाए रहना याद रह गया...कौन कहता है राजस्थान में पानी की कमी है. वहां के लोगों के दिलों में प्रेम की नदी बहती है और उनकी आँखों में नमी रहती है. मैंने भी कुछ मोती चुराए हैं...कुछ नयी यादें बनायीं हैं. वो शहर उसकी आँखों में दीखता है, उन आँखों का भूगोल के नक़्शे में कोई जिक्र नहीं है...


Tuesday, October 11, 2011

उस आवाज के सजदे में झुकी झुकी है नज़र...


- प्रतिभा कटियार 
जिस मुलाकात का आगाज़ आवाज से शुरू हुआ हो, वो मुलाकात हमेशा ताजा रहती है. जगजीत सिंह ऐसी ही आवाज हैं (मैं उन्हें थे नहीं कहूँगी क्योंकि उनकी आवाज हमेशा हमेशा हमारे पास रहेगी). मेरी उम्र कोई सत्रह अठारह वर्ष की रही होगी. वो हमारे शहर में मेहमान थे. ताज होटल के कॉरिडोर में मीडिया उन्हें घेरने की कोशिश में था और मैं उस घेरे के बीच से निकल भागी थी. उन्हें देखा तो, देखती रह गयी. मानो कोई ख्वाब देखा हो रु-ब-रु. उन्होंने खुद पास बुलाया, 'किसे ढूंढ रही हो..?' उन्होंने पूछा. मेरी आवाज़ गले में अटकी थी. वो मुस्कुराये और सर पर हाथ फिरा दिया. वो ख्वाब सच में जी उठा. वो खूबसूरत दिन मेरी स्म्रतियों की गुल्लक में जमा हो गया.
इसके बाद मीडिया के लिए इंटरविव लेने के लिए तो कभी अपनी गुल्लक को भरने के लिए मुलकातें होती रहीं. रात-रात भर उनकी आवाज के साए में बैठने की हसरत इतनी बड़ी होती थी कि घर जल्दी लौटने की सारी हिदायतें न जाने कहाँ गुम हो जाती थीं. 

मैंने हमेशा उनमें एक प्यार भरा इन्सान देखा. उनकी आवाज़ में ये मिठास दरअसल उसी नेकी के सोते से फूटती थी. फोर्मल इंटरवीय के बाद हमारी जो बात होती थी दरअसल वही खास होती थी. अपने कमरे में बिखरे हुए सामान के बीच कभी कुरता, कभी, घडी तलाशते हुए उन्हें फ़िक्र रहती कि मैं चाय क्यों नहीं पी रही हूँ. वो अपने साथी कलाकारों का परिचय ज़रूर करते थे. जो साथी दूसरे कमरों में होते थे उन्हें बुलवाकर मिलवाते. उनकी खासियत से परिचय कराते. एक रोज बातों बातों में दर्द कि वो गांठ भी खुली थी जो दिल के किसी गहरे कोने में उन्होंने छुपा रखी थी. काश कि जिन्दगी का पहिया एक बार लौटा लेने कि इज़ाज़त होती या बीते हुए लम्हों में से कोई एक चुन पाने की...इसके बाद एक गहरी ख़ामोशी हमारे बीच पसर गयी थी जिसे उन्होंने अपने एक पंजाबी टप्पा गुनगुनाते हुए तोडा था.

हाल ही में निदा फाजली साब लखनऊ में थे. उनसे लम्बी बातचीत हुई थी कविता, नई कविता और कविता की समझ को लेकर. इस बीच जगजीत सिंह का जिक्र भी आया. निदा साब मुस्कुराये, मेरी गजलों को तो जगजीत ने मकबूल किया, वरना मुझे इतने लोग नहीं जानते. कई लोग ऐसे मिलते हैं जो मेरी गजलों को जगजीत की आवाज़ की मार्फ़त जानते हैं. मैं कहता हूँ जगजीत से यार तुने मेरी गजलें हड़प लीं लेकिन सच तो ये है कि उसने मेरी गजलों को उन दिलों में पैबस्त किया जो शायद किताबों या मुशायरों की दुनिया से दूर रहते हैं. उस खूबसूरत सी मुलाकात में जगजीत सिंह चुपचाप शामिल हो गए थे और शरारत से मुस्कुरा रहे थे. 
मेरी जब भी किसी शायर से (चाहे वो बशीर साब हों, जावेद साब या गुलज़ार साब ) बात की या मुलाकात की हर मुलाकात में, हर बात में वो शामिल रहे. और पूरी शिद्दत से शामिल रहे. मानो जगजीत जी के जिक्र के बगैर हर मुलाकात, हर बात अधूरी ही थी. गुलज़ार साब ने मिर्जा ग़ालिब धारावाहिक बनाकर ग़ालिब को हमारे दिलों में रोप दिया. बिना जगजीत सिंह की आवाज के ये कैसे मुमकिन होता भला. नसीर साब भी मिर्ज़ा ग़ालिब को अपने अलग से दर्ज अनुभवों में शामिल करते हैं बज़रिये जगजीत सिंह. 

जगजीत सिंह की आवाज़ की उंगली पकड़कर न जाने कितने लोगों ने गजल की दुनिया में प्रवेश किया. जिन लोगों के लिए गजल किसी कठिन पहेली सी हुआ करती थी वो 'कल चौदहवी की रात थी शब भर रहा चर्चा तेरा' पर झूमने लगे. स्टेज पर वो इतने कमाल के फनकार होते थे कि मजाल है सुनने वाले जरा हिल भी जाये.  'सब जीता किये मुझसे मैं हरदम ही हारा...तुम हार के दिल अपना मेरी जीत अमर कर दो...' इस जीत को अमर करने के दरम्यान इतनी खूबसूरत हरकतें होती थीं कि हम कैसेट में सुने गानों को भूल जाते थे.  उनसे बातचीत के दौरान मैंने कभी दर्द के सुर नहीं छेड़े लेकिन एक बार भीगी आँखों से देखते हुए उन्होंने कहा था 'कभी चित्रा को लेकर आऊँगा तो लखनऊ घुमाओगी न उसे?' मैं उनके इस सवाल का जवाब अपनी भीगी आँखों से ही दे पाई थी. ये ज़र्रानवाज़ी ही तो थी, इसका जवाब कोई क्या दे. उनकी ऐसी  तमाम बातें पहले  से जीते हुए दिल को बार-बार जीत लेती थीं. वो दिन नहीं आया जब वो चित्रा जी को लेकर आते और मैं उन्हें घुमा पाती हालाँकि उनके दिल में, उनकी नम आँखों में चित्रा जी मुझे हमेशा ही नज़र आयीं.    

एक रोज मैंने उनसे पूछा था कि 'आपको पता भी है लोग क्या कहते हैं.' उन्होंने मुस्कुराते हुए पूछा 'क्या कहते हैं?' 'यही कि जगजीत सिंह को गुस्सा बहुत आता है.' मैंने कहा. 'अच्छा? ये तो बहुत अच्छी बात है न? वरना लोग यही कहते रहते कि जगजीत को गाना ही आता है, बस.' ऐसे खुशमिजाज़ कि हर सवाल औंधे मुह गिर पड़े. 
 उन्हें घोड़ों का बहुत शौक था. रेसकोर्स उनकी पसंदीदा जगह हुआ करती थी वक़्त बिताने के लिए. चित्रा जी के लिए रसोई में कुछ बनाना कभी, तो कभी चुटकुलों की महफ़िल सजाना. ध्रुपद और ठुमरी हो या पंजाबी टप्पे वो लोगों के दिलों में उतर जाना और अपना स्थायी निवास बनाना जानते थे. लारा लप्पा...लारा लप्पा हो या चरखा मेरा रंगला...या फिर हे राम..हे राम...तू ही माता तू ही पिता है..तू ही राधा का श्याम हे राम हे राम...जगजीत सिंह हर किसी के दिल के भीतर जाने के सारे चोर दरवाजों से वाकिफ थे. यही वजह है कि उनके जाने की खबर से हर दिल भर आया है, हर आँख नम है. बेहद हंसमुख, जिन्दगी से भरपूर, खुशियाँ बिखेरने वाले जगजीत सिंह ने अपने सीने के दर्द को चुपके चुपके जिया. ब्रेन हेमब्रेज  को भी शायद उन्होंने अपनी गायकी का कायल कर लिया और वो उन्हें छोड़कर नहीं अपने साथ लेकर गया. दुनिया भर में उनके चाहने वालों की नम आँखें आज इस आवाज़ के सजदे में हैं...

(प्रभात खबर के सम्पादकीय पेज पर ११ अक्टूबर को प्रकाशित )

Monday, October 3, 2011

चीखो दोस्त...

चीखो दोस्त 
जितनी तेजी से तुम चीख सकते हो
इतनी तेज की गले की नसें 
फटकर बहार निकल आयें 
और तुम्हारी आवाज
दुनिया का हर कोना हिला दे.

बांध लो अपनी मुठ्ठियाँ 
और भीन्चो अपना जबड़ा 
इस कदर कि
पूरी दुनिया दहल जाये तुम्हारी 
बंद मुठ्ठियों को देख 
पीछे हट जाएँ हमलावर 
भय से.

आँखों में गुस्से का बारूद भर लो
और देखो जब किसी को 
लाल आँखों से 
तो समझ में आ जाएँ उसे 
अपनी कमजोरियां बिना कुछ कहे.

समेटो अपनी समूची ताक़त 
टटोलो अपनी बाजुओं का दम
उठाओ अपना गिरा हुआ
छलनी हुआ वजूद
और डटकर खड़े हो जाओ 
कमजर्फ लोगों के खिलाफ. 

तोड़ दो मायूसी की कारा 
निकल जाओ असहायता की जेल से
मत सहो अपना ही जीवन 
अपने ही ऊपर 
'अपनी मर्जी' से
क्योंकि सबको अपना बुध्ध 
खुद ही बनना पड़ता है... 

(संजीव भट्ट के लिए)