Wednesday, August 31, 2011

सम की तलाश...



आंख खुली तो आसमान ने मुस्कुराकर बांहे पसार दीं. वही जाना-पहचाना आसमान जो, हमेशा इसी तरह मेरा स्वागत करता है. भरपूर मुस्कुराहट से मैं उसका शुक्रिया अदा करती हूं. भूगोल के नक्शे में हुए बदलावों के चलते भले ही उत्तराखंड को अलग राज्य बना दिया है लेकिन मेरा और यहां के आसमान, घटाओं का, पहाडिय़ों का नाता अब भी वही है, जिसमें भूगोल के नक्शे का कोई जिक्र नहीं. सो इस बार देहरादून शहर के सर पर मंडराते आसमान ने उसी तरह मुस्कुराकर स्वागत किया. इस बार मेरा मन अनमना था, सो मैंने उसकी मुस्कुराहट की ओर ध्यान भी नहीं दिया. जानबूझकर. वो बेचारा संकोच से सिमट गया.

इस बार मेरा यहां आना आकर जाना भर नहीं था, बल्कि कुछ खोजना था. भीतर पलते अवसाद के टुकड़ों को गंगा की धार में विसर्जित करना था, ढूंढना था अपने ही जीवन के सम को. जो पिछले कुछ दिनों में शायद मेरे हाथ से फिसल गया था. अपनी बेफिक्री से इन वादियों को भर देना था. जिस तरह न आने की तारीख तय थी, ठीक उसी तरह जाने का दिन भी मुकर्रर नहीं था. अनिश्चितता के सुर पर आवारगी की ताल थी.
न पीठ पर सामान का बोझ था, न कोई रूट चार्ट, न ट्रैवल एजेंडा न रिजर्वेशन कनफर्म होने की टेंशन. बस मैं खुद का हाथ थामे चल पड़ी थी. लंबा सफर करके किसी शहर के स्टेशन पर उतरना, टैक्सी लेकर उस शहर में प्रवेश करना और उसके बेहतरीन कोनों को खंगालने की कोशिश करने भर से शहर आपको अपनाता नहीं है. शहर अपनाता तब है, जब हम उस शहर के हवाले खुद को करते हैं. टूरिस्ट होने और उस शहर के वासी होने के फासले के बीच मैं अकसर टहलती रहती हूं. लेकिन इस बार बिना किसी मशक्कत के शहर ने मुझे परमानेंट वीजा पकड़ा दिया था. इतना सुंदर और शानदार तो यह मुझे कभी नहीं लगा. मेरी जेब में कोई प्लान नहीं था कि कब कहां कितना घूमना है. कहां की तस्वीरों में खुद को दर्ज करना है. सब मुझे इतना अपना लग रहा था कि कभी तस्वीरें वगैरह लेने का ख्याल भी नहीं आया.

इस बार न होटल की बुकिंग थी न गेस्ट हाउस या रिसॉर्ट की बुकिंग की चिंता. इस बार मैंने घर चुना था. या कहूं कि घर ने मुझे चुना था. शहर ने आवाज देकर मुझे बुलाया था. घर की बालकनी में चाय पीते-पीते मसूरी के सर पर मंडराते बादलों की अठखेलियां देखना रोज का काम हो चुका था. कभी आधी चाय के दौरान अचानक कोई कहता, चलें मसूरी, मौसम बहुत अच्छा है. पैरों में स्लीपर्स डाले उसी पल हम गाडिय़ों में भर जाते और अगले ही पल मसूरी के सबसे बेहतरीन कॉफी प्वाइंट पर होते. बरिस्ता और कैफे कॉफी डे को मुंह चिढ़ाते हुए... रात का फरमान अक्सर बूंदें लेकर आती थीं.
कितनी बार इस मसूरी आई हूं लेकिन यूं उलझे बालों में, जीन्स में हाथ डाले सड़कों पर आवारगी कभी नहीं की. कोई दोस्त आगे निकल जाता तो हम छुपकर उसे तंग करते. उसे कहते हम निकल आये हैं अब तू वापस अपने आप आना. फिर अचानक प्रकट होना. और इस लुकाछिपी से मसूरी की सड़कों को अपनी खिलखिलाहटों से भर देना. कभी कोई हनीमून कपल दिखता तो प्यार का पंचनामा याद आ जाता. कोई कहता अभी लड़की चंद्रमुखी है और लड़का....छोडि़ए जाने देते हैं. उस हनीमून कपल की रिक्वेस्ट पर एक साथी फोटू खींचता है और बाद में आकर उनके एक्सप्रेशंस की जो डिटेलिंग होती कि हमारा हंस-हंसकर बुरा हाल हो जाता.

कॉफी से भुट्टे के स्वाद को ओवरलुक करते और पान से कॉफी के स्वाद को. दरअसल, यह था किसी भी चीज के स्थाई न होने का संदेश खुद को देना. सुख हो या दुख वो कितना ही बड़ा हो या छोटा उसे आने वाला पल रिप्लेस करता ही है. जीवन में रहते हुए या जीवन के बाद. सड़कों पर हमारी तरह आवारगी करते बादलों का भी मूड बदला और उन्होंने बरसना शुरू कर दिया. ये हमारे लिए मसूरी से भागने का ब$जर था. भागते-दौड़ते, हंसते-खिलखिलाते अपनी प्यारी धन्नो यानी आईटेन को तलाशते.
अगले ही पल में हम मसूरी से देहरादून के रास्तों पर अपनी हंसी बिखेर रहे होते. बारिश कार के शीशों पर लगातार जमा हो रही थी जिससे वापइर झगड़ा कर रहे थे. मैं अपना दाहिना हाथ खिड़की से बाहर निकालती हूं. उस पर बूंदों की मटरगश्ती होती देखती हूं और खुद को बूंद होता महसूस करती हूं.
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ऐसी ही एक मस्ती भरी रात में हम अचानक बाहर कुछ खाने का मूड बना बैठते हैं. घड़ी डपटती है कि बहुत देर हो चुकी, आज नहीं. हमें भी मालूम है कि अब सब बंद हो चुका होगा. फिर भी निकल पड़ते हैं कि शायद कहीं कुछ मिल जाए, वर्ना घर तो है ही. देर रात हमारी कार सड़कों पर खाना तलाशती है और हर बार, हर निराशा हमें कहकहों से भर देती है...कितनी बार दोस्त रिक्वेस्ट करते हैं कि अगर कुछ पड़ा हो तो दे दो प्लीज...लेकिन इस न मिलने में जो आनंद था वो अलग ही किस्म का था. हम जीवन में ऐसे क्यों नहीं हो पाते कि जिस चीज की तलाश हो उसे पूरी शिद्दत से तलाशें और न मिलने पर उतनी ही शिद्दत से हंस सकें. यह न मिलना, हमें दूसरे रास्तों पर फेंकता है हमारी जिंदगी और खुशगवार हो उठती है. देर रात लगभग सो चुके शहर की सड़कों पर खाने के बहाने की गई यह आवारगी मन के भीतर जमा न जाने कितने अवसादों को खुरच आई थी. और आखिर हमें खाना भी मिल ही गया था...लेकिन खाने से बड़ी थी खाने की चाह और उसकी तलाश. चाह और तलाश में जो आनंद है, वो मिलने में नहीं. दीदी, मुझे हमेशा रास्तों में होना अच्छा लगता है...स्वाति कार का स्टीयरिंग घर की ओर मोड़ते हुए कहती है...मैं बस उसके कहे पर अपनी सहमति की मुहर भर लगाती हूं, मुझे भी.
हंसते-हंसते हम थक चुके थे लेकिन नींद आसपास भी नहीं थी. तो रात की चाय की ड्यूटी के लिए मुस्तैद एक दोस्त चाय बना ही लेता है. फिर हम खुद को संगीत के हवाले करते हैं...घड़ी की भागती हुई सुइयां भी हमें डरा नहीं पातीं...अभी तो एक ही बजा है...कहते हुए फिर किसी सुर का सिरा कोई न कोई पकड़ ही लेता है. मैं सिर्फ सुनने के लिए हूं. यहां मौजूद सुरों के पक्के साथियों के सामने गुनगुनाने की भी मेरी हिम्मत नहीं होती...खिड़की में लगे शीशों के उस पार गिरती बारिश लगातार मोहती है. धीरे से खिड़की खोलती हूं और बौछार सीधे मेरे मुंह पर गिरती है...अब हम दोनों खुश हैं. बारिश भी और मैं भी...कमरे में गुलाम अली साहब की गज़ल को आसिम ने अपनी पलकों पर उठा रखा है...
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हरिद्वार चलेंगी? फोन पर अचानक सवाल उभरता है. उस आवाज में इतना उत्साह है कि नींद से भरी आंखों को बंद किये-किये ही मैं कह उठती हूं, क्यों नहीं. बस पंद्रह मिनटों में हम खुद को हरिद्वार की सड़कों पर पाते हैं. हरिद्वार मेरा प्रिय शहर है. यह मेरा पानी से मोह है या कुछ और लेकिन इस शहर का सबसे बड़ा आकर्षण गंगा नदी ही है. देहरादून से हरिद्वार का रास्ता इतना खूबसूरत है कि हरिद्वार कब आ गया पता ही नहीं चला. उस रास्ते के खत्म का होने का दुख था लेकिन सामने गंगा का लहराता आंचल अपने पास बुला रहा था. ये मेरे लिए कोई नई जगह नहीं है. सब कुछ देखा, जाना, बूझा. फिर भी इस बार सब कुछ अलग सा लग रहा था. हम किसी सम्मोहन में जकड़े उस ओर चलते जाते हैं. कब हम गंगा में पांव लटकाकर बैठ गये, कब उसकी धारों को अपने हाथों से तोडऩे लगे कुछ याद नहीं. बच्चे फोटोग्राफी में मस्त थे और मैं गंगा की लहरों को देखने में. बारिश के चलते जल प्रवाह खूब बढ़ा हुआ था. न जाने कैसा सम्मोहन है इस नदी का कि घंटों इसके किनारे बैठकर बीत जायें पता ही न चले. यह टूरिस्ट टाइम नहीं है. भीड़ कम है. जो सुखद लग रही है. न कोई इच्छा, न कामना फिर भी एक दिया मैं भी गंगा की लहरों के बीच रख देती हूं. दोस्तों के लिए यह फोटोग्राफी का मौका है मेरे लिए अपने भीतर के अंधकार को जलाकर गंगा के हवाले करने का. अचानक अपनी कोरों पर कुछ रेंगता हुआ सा महसूस होता है. गंगा की ही कोई बूंद होगी शायद. उसे उंगली पर उठाकर गंगा में ही विसर्जित करती हूं. मेरा यहां से उठने का मन ही नहीं होता. कुछ लोग यहां रात में इन्हीं सीढिय़ों पर सो भी जाते हैं कोई बताता है. मैं तड़प उठती हूं कि मैं क्यों नहीं. तभी किसी साथी की भूख मेरे कानों से टकराती है. अगर यह बच्चे की आवाज न होती तो मुझे कोई यहां से हटा नहीं सकता था. फिर खाने की खोज, हलवा, पूड़ी की खुशबू...हमारे खाने का इंतजाम एक रोजेदार दोस्त करता है. घड़ी की ओर देखते हैं और ऋषिकेश जाना फिलहाल मुल्तवी करते हैं. रायवाला रोड पर चलना भी एक अनुभव ही रहा. बेहद खूबसूरत रास्ता. हम बीच-बीच में रुकते हैं. प्रकृति को दोनों हाथों से समेट लेना चाहते हैं. लेकिन वो सिर्फ स्मृति में दर्ज होने को तैयार है, या फिर तस्वीरों में.
शाम की चाय एक ढाबे में पीते हुए कोई गढ़वाली धुन छेड़ देता है...टीवी पर अन्ना के आंदोलन का अपडेट लेते हुए हम वापस देहरादून. मैं धीमे से कहती हूं काश कि बारिश भी हो जाती...और सचमुच दस मिनट में आसमान बरसने वाले बादलों से भर जाता है. लीजिए आ गई बारिश...सारे दोस्त मेरी ओर ऐसे देखते हैं जैसे बारिश का रिमोट मेरे हाथों में हो. मैं खुश होती हूं. घर पहुंचने पर आसिम रो$जा खोलता है और हम इंतजार करते हैं कि कब वो चाय बनायेगा.
एक और रात संगीत संध्या के हवाले होने को बेकरार थी.
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एक उतरती शाम को बादलों की लुकाछिपी से न$जर बचाकर लैपटॉप पर कुछ खंगालने की कोशिश भर करती हूं कि कुछ नये युवा दोस्त दाखिल होते हैं. यह संगीत का पूरा ग्रुप है. सब अपने-अपने हुनर के माहिर. मैं उनके अभिवादन का जवाब देकर चुपचाप काम करती रहती हूं. लेकिन कमरे से आती सुरों की बौछारें मुझे देर तक चैन से बैठने नहीं देतीं. अच्छा तो ये है कलम...जो गिटार बजा रहा है. और ये शायद किसलय होगा.  मैं मन में सोचती हूं. आज की सुर संध्या अपने उठान पर है. इस ग्रुप में तीन लड़कियां और तीन लड़के हैं. सातवीं मैं हूं. मैं अनजाने उनके सप्तक का कोई सुर बन जाती हूं...सुनने वाला.
अगर हम किसी राग पर चढऩा और उतरना सीख जायें तो राग का सम पकडऩा आसान हो जाता है...वो अपने शिष्यों को बता रही है. इतनी छोटी सी बात हम जीवन भर नहीं सीख पाते. नहीं खोज पाते अपना सम. और हमारे जीवन का राग लगातार खंडित होता रहता है. फिर धीरे-धीरे बेसुरे जीवन की आदत सी पड़ जाती है.

'ओ री सखी मंगल गाओ री
धरती अंबर सजाओ री
उतरेगी आज मेरे पी की सवारी...'

मैं सुरों के साथ बहते हुए छलक पड़ती हूं. एक दोस्त फोन करता है. अरुंधती ने क्या लिखा वो फोन पर बताता है. उसकी नाराजगी को सुनती हूं. उसे रोकती हूं. ठहरो, जरा ये सुर समेट लूं. अपनी आत्मा और नीयत को दुरुस्त रखना भी तो अन्ना का साथ देना ही है. मन से हर गलत को नकारना...उसके लिए लडऩा अन्ना के साथ होना ही है. सुर बहते जाते हैं और उनके साथ मेरा मन भी न जाने कितनी दिशाओं में बहता है.
वहां रहने वालों को कोई इत्तिला नहीं मेरे आने की. किसी से मिलने जाने का कार्यक्रम बनता भी है तो निरस्त कर देती हूं. सुर, प्रकृति और मैं...बस इनके बीच कोई और औपचारिकता नहीं चाहिए.

वापस जाने की संभावित सारी तिथियां टल चुकी थीं. अंतिम तिथि करीब थी. सारा दिन शहर से बातें करती हूं. खिड़की से बाहर देखती हूं. बालकनी से झांकती हूं. असल में दुनिया का हर वो कोना जो हमें हमारे भीतर के कोनों में झांकने का मौका देता है, हमारे अवसादों को ग्रहण करता है और हमारा हाथ पकड़कर चल पड़ता है, वहां मन का जुड़ जाना ला$िजमी है. आखिरी रात भी सुरों के हवाले रही लेकिन इसमें कुछ भावुकता के सुर भी शामिल थे. मेरी छलकती आंखों में सारे बच्चों का प्यार था, जिन्होंने मुझे जिंदगी के बेहतरीन दस दिन दिये. जिन्होंने शहर का ताला खोला और उसके अंदर मेरा प्रवेश कराया. प्रकृति से सुर ताल मिलाये और जल्दी ही वापस आने का वादा भी लिया. वापसी अधूरी ही हुई. मन का कोई टुकड़ा वहीं छूट गया. ये कोई नया शहर नहीं था मेरे लिए लेकिन अनुभव सारे के सारे नये ही थे.
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Wednesday, August 10, 2011

भीतर मेघ मल्हार...



इन दिनों फुरसत में हूं. फुरसत जो हमेशा फुर्र से उड़ जाती थी. कभी इस डाल, कभी उस डाल. उसका पीछा करना अच्छा लगता था. बीमारी के बहाने अब वो मेरे पीछे लगी रहती है. यह भी अच्छा लग रहा है. सावन ऐसा तो कभी बीता ही नहीं कि हम सोते रहें और ये बीतता रहा. दोस्त कहते हैं कि मैं मौसमों की माशूका हूं. $जरूर वे दरवाजे पर अब भी मेरा इंतजार करते होंगे. मैं तो सोई रहती हूं. दवाइयां खाती हूं और सो जाती हूं. कितना जुल्म करती हूं ना? जागती हूं तो बादल या तो बरस के जा चुके होते हैं या ना बरसने का मूड बनाकर रूठे न$जर आते हैं. हां पत्तों पर गिरी बूंदों को छूकर सावन महसूस करती हूं. सोचती हूं वो भी क्या सावन था जब बेधड़क दरवाजे को धकेलते हुए कमरे में जीवन में स्मृतियों में दाखिल हो जाया करता था. अब ये मौसम इतने सहमे से क्यों रहते हैं. इन्हें किसका डर है.

क्यों बूंदें मुझे नहीं भिगोतीं, क्यों मैं उन्हें बालकनी से देखती भर रहती हूं. बादलों पे पांव रखकर चलने का चाव रहा हमेशा से, बूंद बनकर बरसने की तमन्नाएं रहीं...फिर ये नींद न जाने कहां से आ गई. डॉक्टरों से मिली उधार की नींद. कुछ न करने की ताकीद, कुछ न सोचने की ताकीद. आदत है बात मान लेने की सो ये भी मान ली और देखो कैसे उदास सा बादल का टुकड़ा बालकनी की रेलिंग को पकड़कर बैठा है.
मैं उससे कहती हूं मुझे डर लगने लगा है इन दिनों. चलने से डर कि गिर जाऊंगी, जीने से डर कि मर जाऊंगी...बूंदों को हाथ लगाती हूं और डरकर हटा लेती हूं कहीं बह न जाऊं इनके साथ. बह ही तो जाना चाहती थी हमेशा से. बादल का वो टुकड़ा मेरी बातें सुनता है और चला जाता है.

मां, आज कौन सा दिन है? दिनों का हिसाब किताब बिगड़ गया है. मुंडेर पर दूर बैठा कौव्वा दिखता है, किसका घर है वो...मां से पूछती हूं. पूरा सावन मायके में बीत रहा है फिर भी गुनगुनाती हूं 'अम्मा मेरे बाबुल को भेजो री..' .पापा आकर बगल में खड़े हो जाते हैं. सब हंस देते हैं जाने क्यों मेरी ही आंखें छलक पड़ती हैंं. मैं सावन को दोनों हाथों से पकड़ लेना चाहती हूं. इसकी बूंदों में किसी के होने का इंतजार नहीं. किसी के आने की तमन्ना नहीं, बस सूखे मन को भिगो लेने की ख्वाहिश है...मेरा डर बढ़ रहा है इन दिनों. मां के सीने से चिपक जाती हूं...तभी बूंदों की बौछार हम दोनों को भिगो देती है...मौसम मुस्कुरा रहा है. मत घबराओ प्रिये, जब तुम सोओगी मैं तुम्हारे सिरहाने बैठकर तुम्हारा इंतजार करूंगा...मैं निश्चिंत होकर आंखें मूंद लेती हूं...बाहर बूंदों का साज बज रहा है भीतर मेघ मल्हार...

Sunday, August 7, 2011

सितारे डुबकियां ले रहे थे समंदर के भीतर



पिघल रहा था 
पत्थर के भीतर का मोम

खिल रहे थे 
चाकुओं की धार पर फूल

रात के भीतर उग आये थे 
चमकते हुए दिन

धरती के गर्भ से 
जन्म लेने लगा था आसमान

आग के भीतर से झांक रही थी 
बेहिसाब शीतलता

सितारे डुबकियां ले रहे थे
समंदर के भीतर

जब लिखी जा रही थी 
प्रेम कहानी