एक बार फिर संस्कृतियों के पहरेदारों की नींद में खलल पड़ गया है. महिलाओं के लिए एक और कानून जो बनने जा रहा है. ये कानून होगा वर्कप्लेस पर होने वाले सेक्सुअल हैरेसमेंट्स को रोकने का. वर्कप्लेस पर होने वाले सेक्सुअल हैरेसमेंट की बारीकियों को समझते हुए आने वाले मानसून सत्र में इसे कानून बनाने की योजना है. यह पूरी तरह सच है कि बदले हुए माहौल में ज्यादा महिलाएं, हर तरह के काम की ओर बढ़ रही हैं. ऐसे में वे यौन हिंसा की शिकार भी ज्यादा हो रही हैं.
1997 में दिये गये विशाखा बनाम स्टेट ऑफ जजमेंट में सुप्रीम कोर्ट ने कार्यस्थल में महिलाओं के प्रति होने वाली यौन हिंसा को लेकर जो दिशा-निर्देश दिए थे, वो शायद अब काफी नहीं रहे. आज इतने बरस बाद अगर मुड़कर देखें तो हालात बहुत बदल गये हैं. इन बदलावों में महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा के तमाम नये-नये रूप सामने आ रहे हैं. कार्यस्थलों पर होने वाले यौन उत्पीडऩ के मामले में अगर सरकारी आंकड़ों पर ही न$जर डालें तो 2006 से 2008 के बीच दो लाख से ज्यादा महिलाएं यौन हिंसा का शिकार हुई हैं. ये सरकारी आंकड़े हैं. हम सब जानते हैं कि असल संख्या इससे कई गुना ज्यादा है क्योंकि ऐसे मामलों में मुखर होने वालों की, मोर्चा लेने वालों की, और मामलों को दर्ज कराने वालों की हिचक अब तक टूटी नहीं है.
खैर, हम बात कर रहे थे संस्कृति के पहरेदारों की. उन्हें डर है कि महिलाओं के हाथ में फिर एक बार एक और कानून पकड़ा दिया जायेगा जिसका वे फिर मिसयूज करेंगी. समाज के लिए यह आदर्श स्थिति नहीं है. यकीनन ये आदर्श स्थिति नहीं है. हां, वे चुपचाप हर तरह की हिंसा को सहती रहें ये आदर्श स्थिति है. इतने बरसों से तो हम एक आदर्श समाज में जी ही रहे हैं. आदर्श समाज, आदर्श परिवार, आदर्श रिश्ते. हमें अपने सामाजिक ढांचे पर गर्व है. तो अब ये क्या होने लगा कि ये आदर्श ढांचा भरभराने लगा. एक के बाद एक महिलाओं के लिए कानून बनाकर उनका दिमाग खराब कर दिया गया है. बताइये, कोई बात है कि दहेज के नाम पर पूरे के पूरे परिवार सजायाफ्ता हो जाते हैं. बताइये, कि उनकी एक एप्लीकेशन पर किसी की नौकरी पर बन आयेगी. ये भी कोई बात हुई? इन कानूनों ने उन्हें जगाना शुरू कर दिया है. जाहिर है समाज के पहरेदारों की नींद तो हराम होनी ही हुई. इस देश में जहां, हर कदम पर, हर जगह, हर चीज का मिसयूज हो रहा है. टाडा जैसे कानूनों तक का मिसयूज हो गया. पॉलीटीशियन इतने सालों से कर ही क्या रहे हैं, सिवाय सत्ता सुख लेने के और अपने अधिकारों का मिसयूज करने के. ऐसे में सारी चिंताएं महिलाओं के कानूनों के दुरुपयोग को लेकर ही क्यों उभरती हैं ये सोचकर अब हैरत नहीं होती.
हां, मानती हूं कि मिसयूज नहीं होना चाहिए. किसी भी कानून का नहीं होना चाहिए. लेकिन सच यह भी है कि कुछ मामलों में हुए मिसयूज के चलते हम कानून की जरूरत पर सवाल तो नहीं उठा सकते. मिसयूज रोकने के तरीकों पर बात करना वाजिब है. ऐसे मामलों को इंडीविजुली ऑब्जर्व किये जाने की और उन पर कार्रवाई किये जाने की भी जरूरत से इनकार नहीं लेकिन चंद ऐसे उदाहरणों के चलते कानून के अस्तित्व पर ही सवाल उठाना कहां का न्याय है. यूं भी कानून का लाभ उठाना चॉकलेट का रैपर खोलकर खाने जैसा आनन्ददायक तो नहीं होता है. बेहद कड़वे अनुभवों से गुजरने के बाद ही इंसान कानून की तरफ हाथ बढ़ाता है, उसमें भी हाय-तोबा. इसका तो एक ही इलाज है, आप बनाइये न सचमुच ऐसा आदर्श समाज, जहां कभी किसी महिला को किसी कानून का सहारा लेने की जरूरत ही न पड़े. बराबरी की बुनियाद पर खड़ा सह अस्तित्व का समाज. जहां रिजर्वेशन बिल भी बेमानी हो जाये, और ढेर सारे महिला कानून भी. जब तक ऐसा समाज नहीं बनता तब तक हाय-हाय तो बंद कीजिये...सोचिए कि कानून का जन्म अपराध की कोख से ही होता है हमेशा.
19 comments:
प्रतिभा जी आप की प्रतिभा पहली बार पढ़ी. सच में कमाल का लिखा है...लेखनी आग उगल रही है और उसकी धधक हमारे खून को गरम कर रही है...इसी को कहते हैं शब्दों की शमशीर.
सच कहा आपने...
कानून का लाभ उठाना चॉकलेट का रैपर खोलकर खाने जैसा आनन्ददायक तो नहीं होता है. बेहद कड़वे अनुभवों से गुजरने के बाद ही इंसान कानून की तरफ हाथ बढ़ाता है.
ये बेकार की हाय -हाय करेंगे तभी तो इनके फेवर में कुछ होगा.
बहुत अच्छी पोस्ट.
आभार.
शानदार पोस्ट
aane wale kanoon ki jaankari ke liye shukriya.bahut jaandaar post hai.
यूं भी कानून का लाभ उठाना चॉकलेट का रैपर खोलकर खाने जैसा आनन्ददायक तो नहीं होता है. बेहद कड़वे अनुभवों से गुजरने के बाद ही इंसान कानून की तरफ हाथ बढ़ाता है
sarthak aur prabhavi lekhan.
इस कानून के प्रावधान क्या हैं ? और यह सच है कि ऐसे कानून की सख्त जरूरत है।
आने वाले कानून के प्रावधान की सही बात उठाई रंगनाथ जी ने.
अगली पोस्ट में पूरी जानकारी देती हूँ...
शुक्रिया!
अभी कानून बना भी नहीं और लोगो को परेशानी भी शुरू हो गयी . महिलाओ से अक्सर दर जाते है पुरुष तभी तो एक कानून के नाम से ही उन्हें डर लगने लगता है. वैसे बिना किसी कानून के भे महिलाये अपनी रक्षा कर सकती है. उन्हें डरता देखकर अच्छा लग राग रहा है. मचने दीजिये हाय-हाय
shikha shukla
http://baatbatasha.blogspot.com
pratibha je dua keejia kee is kanoon me ye kathit mard rode na atkaain. aameen
आपका लेख इतना सच, इस कदर ज़रूरी क़ड़वाहट से भरा है कि कुछ कहने की हालत में नहीं हूं. पुरुष होने के नाते शर्माऊं तब भी नाटक ही लगेगा. यहां मैं कुछ उद्धृत कर रहा हूं, लेकिन वो मेरा लिखा नहीं है...नमिता जोशी (नवभारत टाइम्स की वरिष्ठ पत्रकार) के शब्द हैं ये...उनसे साभार...स्त्री चिंतन में शामिल कड़वाहट तब तक रहेगी, जब तक ये हालत रहेगी...(बकौल--नमिता जी)
1. जब तक ऑफिसों में काम करने वाले वो चंद पुरुष लडकियों की मौजूदगी में अपने डेस्कटॉप पर नंगी तस्वीरें लगाते रहेंगे। जब तक दूसरे कॉलीग ऐसे परवर्ट लोगों की सीट पर आ-आकर ऐसी तस्वीरें निहारते रहेंगे, उस पर खी-खी-खैं-खैं करेंगे, तब तक मुझे फेमिनिस्ट होना पड़ेगा। बच कर रहना।
2. जब तक ऑफिसों में पुरुष अपने आसपास घूम रही लड़कियों के सामने अपने कॉलीग से जोर-जोर से नॉन-वेज जोक शेयर करेंगे, उसे इस तरह दिखाते हुए डिस्कस करके और हंसेगे ताकि लड़कियां जान लें कि हम सामने से तो बातें गांधीवाद से लेकर नक्सलवाद तक पर कर लेंगे, लेकिन हमारी औकात वही है।
3. जब तक तुम पुरुष किसी सेंटेंस में बात करते-करते कॉमा और फुलस्टॉप की जगह मां-बहन की गालियां देना बंद नहीं करते, तब तक तुम्हें हम फेमिनिस्टों से जूझना पड़ेगा। मां-बहन की गालियां देना बंद करो या उनको मां-बहन कहना छोड़ दो।
4. जब तक तुम मर्द अपनी पत्नियों का तब तक अबॉर्शन करवाते रहोगे, जब तक कि ये कन्फर्म न कर लो कि अब की बार लड़का ही होगा, तब तक तुम्हारे सिर पर फेमिनिस्ट नाचेंगे। मौका मिला तो जूते मारेंगे।
5. तब तक फेमिनिस्ट रहना पड़ेगा, जब तक ऑफिसों में काम कर रही औरतें एक घंटे में चार बार अपने घर पर पर्सनल फोन कर कर के ये पूछती रहेंगी कि बच्चा सोया कि नहीं, स्कूल से आया कि नहीं। मतलब ये कि उस वक्त तक जब तक वो उन बाल-बच्चेदार मर्दों की तरह फ्री होकर ऑफिस के काम में मन लगाने के काबिल नहीं हो जातीं जो शायद ही कभी अपने घर पर फोन करके ये सवाल पूछते हों।
बातें और भी हैं, लेकिन फिर कभी, किसी और मौके पर...
प्रतिभा जी, शुक्रिया...हमें आईना दिखाने के लिए
मूल लेख का लिंक ये है...
http://blogs.navbharattimes.indiatimes.com/kisisenaakahana/entry/%E0%A4%AE%E0%A4%B0-%E0%A4%A6-%E0%A4%A8-%E0%A4%AE%E0%A4%95-%E0%A4%9C
आपकी बातें सोचने पर विवश करती हैं।
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पॉल बाबा का रहस्य।
आपकी प्रोफाइल कमेंट खा रही है?.
विचारणीय पोस्ट...
बिल्कुल सत्य वचन..पूर्णतः सहमत:
कानून का लाभ उठाना चॉकलेट का रैपर खोलकर खाने जैसा आनन्ददायक तो नहीं होता है. बेहद कड़वे अनुभवों से गुजरने के बाद ही इंसान कानून की तरफ हाथ बढ़ाता है.
kisi blog me aapki tippani dekhi. vichar parhe. khushi hui. to lagaa, is pratibhaa mey dam hai. isliye aapke blog tak aa gaya. sundar, santulit aur vyavahaarik vichhar hai aapke.
बेहद ज़रूरी मुद्दा उठाया है आपने…
मेरे हिसाब से कानून स्त्री, पुरुष, हिंदू, मुस्लिम, नेता, प्रजा, अगड़ी / पिछड़ी जाती के हिसाब से नहीं देश के हर नागरिक के लिए समान होना चाहिए और हर गलत काम करने वाले को उसकी सजा मिलनी चाहिए फिर चाहे वो किसी भी लिंग, धर्म, हैसियत का क्यों न हो.
आपने लिखा की "बेहद कड़वे अनुभवों से गुजरने के बाद ही इंसान कानून की तरफ हाथ बढ़ाता है." लेकिन मैं इससे थोडा सा अलग विचार रखता हूँ. कई बार कुछ इंसान (चाहे पुरुष हो या स्त्री) अपने अहं को संतुष्ट करने के लिए भी दूसरों को तकलीफ देने में नहीं हिचकिचाते. किसी ब्लॉग (शायद तीसरा खम्बा) में एक बार पढ़ा था कि एक लड़की अपने ससुराल वालो के खिलाफ धारा ४०८-अ का इस्तेमाल करना चाहती थी और इसके लिए उसने वकील को यह तक कह डाला कि वो अपने ऊपर हुए जुल्म को सिद्ध करने के लिए खुद के शरीर पर सिगरेट के दाग भी लगवाने तक को भी तैयार है. सोचिये ये कितनी घटिया और शर्मनाक सोच है. और ऐसे मनोरोगी आज समाज के हर हिस्से में व्याप्त है.
अगर किसी भी कानून का दुरूपयोग न हो तो बेहतर है क्योंकि आज देश में लिंग के आधार पर बने हुए विशेष कानून का जमकर दुरूपयोग हो रहा है.
भावेश जी, मैंने वही तो कहा कि सही गलत, अच्छा बुरा कोई भी हो सकता है. मिसयूज के मामले हैं लेकिन कितने? उनको लेकर अलग से सोचा जाना चाहिए न कि कानून की सार्थकता पर ही सवाल खड़ा कर दिया जाए. कानून हमेशा मास कनेक्ट होते हैं. कुछ मामलों को इस कदर हाईलाइट किया जाता है कि लगता है कि बस चारों ओर महिलाओं ने कानून का दुरुपयोग ही कर रखा है. जिस कानून का आपने जिक्र किया है 498 ए उसी के संदर्भ में ज्यादा दूर नहीं, बस दस बारह पुरानी खबरों पर न$जर डालिये. अखबार दहेज हत्याओं से रंगे हुआ करते थे. जीते जागते इंसान को जलाकर मारने जैसा जघन्य अपराध और कोई कानून भी न हो. मिसयूज तो किसी चीज का नहीं होना चाहिए. अगर हो तो उसे रोकना भी चाहिए लेकिन उसके आधार पर कानूनों की जरूरत पर ही सवाल खड़ा करना ठीक नहीं है.
This is good one...we need such type of laws as well as massive awareness programmes regarding morality and chastity. What we see is; most of the women are afraid just for being defamed in society and they and their family members don't go to police after such incidents take place. It is due to the brainwashing and heavy conditioning of their psyche from early childhood. So, there is a need of change in school syllabus also and rape and virginity should be seen in different context.
Pratibha ji aapke vichar krantikari hain. Samaj teji se badal raha hai. ab talkieson mein siti bajane wale log kam ho rahe hai. siksha aur adhunikikaran ke karan logo mein chetna aa rahi hai. kanoon ise aur adhik pusht karega. garib tabkon mein jo nari ke prati hinsa ho rahi hai wo to dikhai deta hai lekin amiron mein ho rahi bhayavah hinsa dikhai nahi deti. kanoon ka durupyog nahi ho iska dhyan rakhana hoga.
sudhir sharma
professor kalyan college bhilai
प्रतिभा जी,लेख की कुछ बातों से सहमत हूँ तो कुछ से असहमत.पहली बात तो ये सच नहीं हैं कि इन कानूनों को लेकर पुरुष कोई हल्ला मचा रहे हैं.आम पुरुषों को तो ठीक से इनके बारे में पता ही नहीं हैं तो आपत्ति क्या करेंगे? आपत्ति यदि कोई कर रहा है तो वो है खुद सुप्रीम कोर्ट या कानून क्षेत्र से जुडे लोग(पुरुष और महिला दोनों) या फिर दिल्ली और चंडीगढ जैसे शहरों में में उग आए इक्का दुक्का पत्नी पीडित संगठन.उस पर ही आप लोगों ने हंगामा मचाना शुरु कर दिया कि देखो पुरुष कैसे डर रहे है.जब दहेज कानूनों के दुरुपयोग को लेकर जब सुप्रीम कह रहा हैं कि ये कानूनी आतंकवाद हैं तो जाहिर है इस पर बात तो होगी ही.हाँ ये मानता हूँ कि पुरुष भी एकतरफा बात करते हैं वो केवल दुरुपयोग की बात पर चिल्लाते हैं लेकिन इस मामले में कम कौन हैं आप खुद को ही देख लीजिए.अपने लेख में आप केवल पुरुषों पर उंगली उठा रही हैं जबकि इन कानूनों का विरोध पुरुषों से ज्यादा तो महिलाएँ कर रही हैं और वो करंगी ही क्योंकि कानून दुरुपयोग का शिकार भी ज्यादातर महिलाएँ ही हो रही हैं.ऐसे केस भी आ रहे हैं कि एक झूठे मामले में दो पुरुष तो पाँच महिलाएँ तक पकडी जा रही हैं.एक बार जयपुर में महिला आयोग की एक पूर्व अध्यक्ष ने भी ये ही कहा था कि दहेज संबंधी कानूनों का जमकर दुरुपयोग हो रहा हैं.अब उनके बारे में आपका क्या ख्याल हैं क्या वो भी इन कानूनों से डर गई?और अंत में एक सवाल क्या आपने कभी दहेज या घरेलू हिंसा जैसे कानूनों के प्रावधानों के बारे में निष्पक्ष होकर सोचा है?थोडा समय दिया हैं इस पर भी या बस आपको केवल विरोध करने वाले ही नजर आ रहे है?
हाँ ये मैं मानता हूँ कि दुरुपयोग के लिए केवल महिलाओं को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता बल्कि इसमें पुरुष भी बराबर के दोषी है.और हाँ ऐसे कानूनों को खत्म करने की बात कोई नहीं कर रहा बल्कि उनमें संशोधन की बात कर रहा हैं जो कि होना ही चाहिये.
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