Saturday, March 27, 2010

रेनर मरिया रिल्के की कविता- निष्ठा

मेरी आंखें निकाल दो
फिर भी मैं तुम्हें देख लूंगा
मेरे कानों में सीसा उड़ेल दो
पर तुम्हारी आवाज़ मुझ तक पहुंचेगी
पगहीन मैं तुम तक पहुंचकर रहूंगा
वाणीहीन मैं तुम तक अपनी पुकार पहुंचा दूंगा
तोड़ दो मरे हाथ,
पर तुम्हें मैं फिर भी घेर
लूंगा और अपने ह्दय से इस प्रकार पकड़ लूंगा
जैसे उंगलियों से
ह्दय की गति रोक दो और मस्तिष्क धड़कने लगेगा
और अगर मेरे मस्तिष्क को जलाकर खाक कर दो-
तब अपनी नसों में प्रवाहित रक्त की
बूंदों पर मैं तुम्हें वहन करूंगा।
(अनुवाद- धर्मवीर भारती )

Saturday, March 20, 2010

बाबुल जिया मोरा घबराये


बाबुल जिया मोरा घबराये
बिन बोले रहा न जाये
बाबुल जिया मोरा घबराये...
बाबुल मेरी इतनी अरज सुन लीजो
मोहे सुनार के घर न दीजो
मोहे $जेवर कभी न भाये
बाबुल जिया मोरा घबराये...
बाबुल मेरी इतनी अरज सुन लीजो
मोहे व्यापारी के घर न दीजो
मोहे धन-दौलत न सुहाये...
बाबुल जिया मोरा घबराये...
बाबुल मेरी इतनी अरज सुन लीजो
मोहे राजा के घर न दीजो
मोहे राज न करना आये
बाबुल जिया मोरा घबराये...
बाबुल मेरी इतनी अरज सुन लीजो
मोहे लुहार के घर दै दीजो
जो मेरी जंजीरें पिघलाये....
बाबुल जिया मोरा घबराये...
- प्रसून जोशी

Tuesday, March 16, 2010

वो कौन था मोड़ पर ....



वो याद ही तो थी जो एक रोज मोड़ पर मिली थी. घर के मोड़ पर. वो याद ही तो थी जो गुलमोहर के पेड़ के नीचे से गुजरते हुए छूकर गयी थी. एक कच्ची सी याद उठी साइकिल की पहली सवारी वाली भी. वो भी तो याद ही थी जो हर शाम के साथ झरती थी छत पर. छत, जिसके बनने में भी हाथ लगाया था भरपूर. वो याद ही थी उन दीवारों में बसी हुई, जो आगोश में लेने को व्याकुल थी. वो दीवारें जिन्हें इंच-इंच बढ़ते देखा. कभी कंधे से नापा तो कभी सर से. और एक दिन सर से ऊपर निकल गईं सर्रर्रर्रर्र से सारी दीवारें. फिर उन दीवारों में हम खिलखिलाने लगे. इन्हीं दीवारों में सपने देखना सीखा. इसी घर की फर्श पर पहला पांव रखा. डंाट भी खाई कि कच्ची फर्श पर पांव रखकर पांव की छाप छोड़ दी हमेशा के लिए. डांट खाकर भी कितना खुश था मन कि मेरे पांव छप गये हैं यहां हमेशा के लिए. उसी फर्श पर न जाने कितना अकेलापन साझा किया था आंसुओं से. मानो वो फर्श नहीं सखी हो. दरवाजे, तो बेचारे ही रहे हमेशा क्योंकि हर गुस्से में इन्हें ही जोर से झटका था हर बार. इन दीवारों में वो रिश्ते रहते थे, जो बने-बनाये मिले थे. जन्म के रिश्ते. वो रिश्ते, जिनमें खुशबू बसती है. वो रिश्ते, जहां अधिकार काबिज रहता है. वो रिश्ते जिनमें भरोसा होता है कि गलत या सही से पार सबको साथ होना ही है. वो घर जहां कोने-कोने में अधिकार है. वो घर जहां बचपन के मीठे झगड़ों की याद है. जहां क्या होना है, क्या नहीं होना है के फैसलों के बीच की यात्रायें भी मुस्कुरा रही थीं. वो घर जो अचानक यूं ही छूट गया था एक रोज. अनजाने...अनचाहे...एक रोज बड़े से शोर-शराबे के बीच घर से नाता टूट गया. छन्नन्नन्न....से न जाने क्या-क्या टूट गया. न जाने क्या-क्या छूट गया. छूट गया बचपन, सखियां, सहेलियां, मां, पापा, प्यार, दुलार, अधिकार. छूट गया सब. लेकिन पूरे वजूद में बस भी गया सब कुछ. छूटे हुए घर को दिल में बसाये एक और घर बसाने लगी. दूसरा घर सजाने लगी. अरमान नये, सपने नये, रिश्ते नये. कितने बरस बीत गये नये रिश्तों में उलझे हुए. नये घर के पर्दों के रंग से लेकर दीवारों की ऊंचाई तक तय करने में लगभग बिसरा ही बैठी, उस कच्ची मिट्टी की खुशबू को जिससे घरौंदे बनाये थे कभी. कोई एलडीए के चक्कर नहीं, कोई एनओसी नहीं, कोई नक्शा पास नहीं कराना. अपनी गुडिय़ा के लिए शानदार घरौंदा इन्हीं हाथों से तो बन जाता था झट से.
फिर एक रोज कहीं से कोई खुशबू आई. कोई याद जी उठी भीतर. घुंघरू की तरह बज उठी छन...छनानन..छन्न..छन्नन्न...झूम ही उठा मन. वो मोड़, लगा अब भी ढेर सारे इंतजार लिए खड़ा है. वो दीवारें मेरे बचपन की खुशबुओं को अपने भीतर बसाये हैं. वो गुलमोहर खिले न खिले उस पर हर पल बारहों महीने खिलती हैं यादें. जीवन की आपाधापी ने कभी वक्त ही नहीं दिया कि इन सौगातों की ओर, इनके इंतजार की ओर ध्यान दिया जा सका.
लंबे....बहुत लंबे समय बाद जब अपनी उलझनों को ताक पर रखा. समझदारी को उतार कर अलगनी पर टांगा और खुलकर सांस ली... बेवजह ही ढेर सारी मुस्कुराहटों ने आगे बढ़कर थाम लिया दामन और कहा, कबसे था तुम्हारा इंतजार. तब ध्यान आया कि वो जो उस मोड़ पर रोज कोई मुस्कुराता सा मिलता है, वह मेरा ही बचपन है. ये भी कि घर जाने के लिए वहां का गेट खोलकर भीतर जाना भर नहीं होता, उसकी आत्मा में प्रवेश भी करना पड़ता है. क्योंकि जब छूटा था घर तो आत्मा का एक टुकड़ा भी तो वहीं छूट गया था ना. बगीचे में फूलों के बीज बोते हुए खुद को भी तो बोया था ना हमने? क्यारियां कब से लहलहा रही हैं इंतजार में. नन्हे हाथों से जिन पौधों को दिया था पानी, वो अब पेड़ बन चुके हैं.
वो धान अब तक बिखरे पड़े हैं वहीं, जो घर छोड़ते समय उछाले थे. वो सिसकियां भी...वैसी की वैसी. बेपनाह सिसकियां...कैसे भूल गई पीछे मुड़कर देखना. कैसे भूल गई कि छूटकर भी नहीं छूटता कुछ भी. कभी भी.

Thursday, March 11, 2010

पलाश ही पलाश


क्या ढूंढ रही हो वहां?
लड़के ने लड़की से पूछा.
फूल...पलाश के फूल
लड़की ने सर झुकाये-झुकाये ही जवाब दिया.
लड़का हंसा. पागल हो पलाश के फूल पलाश के पेड़ पर मिलेंगे कि यहां मिट्टी में. आजकल तो पलाश ही पलाश खिले हैं...जितने चाहे ले लो. मैं ले आऊं...? लड़का नरमाई से पूछता है.
रहने दो. जिस पलाश की मुझे तलाश है वो पेड़ों पर उगा नहीं मिलेगा तुम्हें.
लड़की ने मिट्टी में कुछ खोजते हुए ही जवाब दिया.
पेड़ पर नहीं मिलेगा तो क्या आलू हो गये हैं पलाश जो मिट्टी में खोज रही हो. लड़का अपनी हंसी भरसक रोकने की कोशिश करता है लेकिन रोक नहीं पाता. लड़की उसे खामोशी से देखती है. कहती कुछ नहीं.
फिर उसकी उंगलियां मिट्टी में कुछ तलाशने लगती हैं. लड़की इस कदर निर्विकार है कि लड़का शांत हो जाता है.
मैं मदद करूं? लड़का प्यार से पूछता है.
नहीं...पलाश क्या आलू है? लड़की मुस्कुरा कर सवाल के रूप में जवाब देती है. इत्ती देर बाद आई लड़की के होठों की मुस्कान लड़के को राहत देती है.
अगर तुम कह रही हो तो आलू ही होगा शायद. उसने धीरे से कहा.
मैंने नहीं कहा...आलू.
फिर...?
तुमने कहा. लड़की हंस दी.
ओफ्फो. लड़का हैरान.
पलाश आलू नहीं है...पलाश तलाश है. अपने प्यार की तलाश. जब-जब पेड़ों पर पलाश खिलते हैं, दिलों में प्र्रेम की तलाश खिल उठती है. प्रेम से जुड़े सारे दुख, फूल बन जाते हैं. सारी यादें खुशबू. पलाश का होना प्यार का होना है...लड़की ये कहते-कहते अपने भीतर की यात्राएं भी तय कर रही थी. लड़का अनमना सा समझने की कोशिश कर रहा था.
लेकिन तुम यहां क्या ढूंढ रही हो...पेड़ के नीचे...मिट्टी में? लड़के का सवाल अब भी वहीं था.
यहां मैंने अपने प्रेम की इकलौती मुलाकात की यादों को छुपाया था. पलाश के इस पेड़ के नीचे. कहा था उनसे, ना दिक् मुझे बार-बार कि मैं खुद आऊंगी तुम्हारे पास जब खिलेंगे ढेर पलाश.
और देखो, जैसे-जैसे मैं ये मिट्टी हटा रही हूं वैसे-वैसे पलाश की गमक बढ़ रही है. देखना एक दिन ये धरती पलाश से भर जायेगी...धरती पर पलाश ही न$जर आयेंगे बस...हर फूल में महकेगी मोहब्बत. हर दिल में बसेगी मोहब्बत. देखना तुम. लड़की का चेहरा पलाश की तरह खिल उठा था.
लड़के को पलाश के फूलों से मोहब्बत झरते हुए महसूस हो रही थी.
सचमुच...

Saturday, March 6, 2010

बेवजह का लिखना-3


मर्जी का सफर
लीजिये महिलाओं की मर्जी को उजागर करता एक राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण ताजा-ताजा हाजिर हुआ है. इस सर्वे के मुताबिक 20 फीसदी महिलाएं पति की पिटाई को प्यार मानती हैं. 58 फीसदी महिलाओं का मानना है कि गलती करने पर पिटाई करना पति का जन्मसिद्ध अधिकार है.
इस सर्वे का एक और खुलासा ध्यान देने लायक है कि पति द्वारा पत्नी की पिटाई के चार प्रमुख कारण सामने आए हैं-
पहला-यौन संबंध के लिए तैयार न होना
दूसरा-चरित्र पर संदेह होना
तीसरा-पति को बताए बगैर कहीं जाना
चौथा-पति के विचारों, फैसलों से असहमत होना.
जाहिर सी बात है कि चौथे कारण के चलते पत्नियों की पिटाई सबसे कम होती है. क्योंकि पत्नी का निजी विचार जैसा बहुत कम ही होता है और असहमति तो उससे भी कम और उस असहमति (अगर है) का प्रदर्शन तो लगभग न के बराबर होता है.
(हालांकि यह कहीं नहीं दर्ज है कि यही कारण पुरुषों पर लागू होने पर स्त्री के क्या अधिकार हैं.)
इस सर्वेक्षण में शहरी ग्रामीण महिलाओं और युवकों की भागीदारी थी. चिंताजनक बात यह है कि ये विचार नई पीढ़ी के युवकों और युवतियों के हैं. वो नई पीढ़ी जिसके कंधों पर आने वाले कल का दारोमदार है. जो जेनरेशन नेक्स्ट है.
जब कोई पिछली पीढ़ी का व्यक्ति ऐसा कुछ कहता या समझता है तो उतना दु:ख नहीं होता, जितना युवा पीढ़ी को रूढि़वादी सोच के साथ खड़े देखकर होता है.
पत्रकारिता के एक छात्र ने जिसकी उम्र-22-24 वर्ष रही होगी जब यह कहा कि औरत की तो समाज में कोई पहचान नहीं होती लेकिन हम मर्दों की तो इज्जत होती है. अगर कोई औरत ऐसा काम करे जो हमारी इज्जत के खिलाफ जाये तो हमें तो हमें तो कदम उठाना पड़ेगा ना? उन्हें काबू में रखना जरूरी है. यह सुनकर मुझे जो दु:ख हुआ उसे मैं बयान नहीं कर सकती. दोष पूरा उसका भी नहीं है. किस तरह छोटे-छोटे तालिबान हमारे भीतर धंसे हुए हैं जो मौके-बेमौके अपना रंग दिखाते हैं साफ न$जर आता है, स्त्री को आम इंसान समझने को लेकर भी अभी तक समाज में आम राय नहीं बन पाई है. इन्हीं माहौल में पलने वाली लड़कियां जब पूरे आत्मविश्वास से कहती हैं कि होती है औरत ही औरत की दुश्मन तो जटिलता साफ न$जर आती है. संवाद अधूरे हैं सभी. जेहन में जमी काई को साफ करना आसान भी नहीं.
समाज से होता साक्षात्कार हर पल तोड़ रहा है. सबसे ज्यादा तोड़ रही हैं ये अपनी मर्जियां. बड़े पदों पर बैठी पढ़ी-लिखी औरतों से लेकर गांव की कम पढ़ी-लिखी औरतों तक सोच एक ही है. जो दिखाया जा रहा है, उसे देखकर राय कायम की जा रही है. उसी पर फैसले हो रहे है. कहां है वो न$जर जो देख पाए तस्वीर के उस पार का सच...कि दरअसल दुश्मन वो नहीं जो सामने खड़ा है हथियार लिये. दुश्मन तो वो हैं जिसने हथियार कमाये हैं और तैयार किया है हमें ही हमारे खिलाफ खड़े होने को.
सिमोन, सात्र्र, दोस्तोवकी, काफ्का, कामू की क्या बात. यहां तो इन्हें अपनी ही बात समझने में कठिनाई हो रही है. बेवजह का लिखना पोस्ट की पहली कड़ी में रोहित ने कहा था कि ये हालात सिर्फ गांव के नहीं हैं. सही कहा था रोहित ने. ये हालात सिर्फ गांव के नहीं, शहरों के भी हैं. हमारे घरों के भी हैं.
अच्छा-अच्छा लिखा जा रहा है. लेकिन कई बार लगता है कि यह लेखन का जो ड्राइंगरूम करण हो रहा है, ये जड़ों तक पहुंच नहीं रहा. मित्र लोग ढांढस बंधाते हैं, होगा बदलाव. फर्क पड़ेगा एक दिन. जानती हूं कि फर्क पड़ेगा...पड़ रहा भी है...लेकिन दु:ख होता है अपनी जिम्मेदारियों से बेजार होते लोगों को देखकर. अपनी ही पीठ खुद ठोंककर खुश होने वालों को देख. थोड़ी सी वाह-वाह काफी नहीं. बुनियादी परिवर्तन के लिए बुनियादी लड़ाई जरूरी है. शुरुआत अपने ही घरों से होनी चाहिए. शायद मैं ज्यादा भावुक हो रही हूं लेकिन सचमुच बेवजह ही लग रहा है सब कुछ.

Thursday, March 4, 2010

बेवजह का लिखना-2


अपनी मर्जी से कहां सफर में हम हैं...

अपनी मर्जी का अर्थ क्या होता है? यही ना कि जो खुद करने का जी चाहे. लेकिन यह चाहना कैसा हो...क्या हो...अगर यह विचार जन्म लेने से पहले ही हाईजैक कर लिया जाये तब? क्या होगा तब? कितनी अपनी रह जायेगी वो मर्जी जो अपनी है. कई बार अपनी ही मर्जी का सलीब ढोते-ढोते दुखने वाले कंधों को दर्द भी महसूस किया है. अपनी मर्जी कितनी बार चाबुक बनकर बरसती हुई भी मालूम पड़ी है. अपनी ही मर्जी से देश की न जाने कितनी औरतें सती होती रही थीं. अपनी मर्जी से न जाने कितनी बालिका वधुएं अपने से दोगुने उम्र के दूल्हे के संग ब्याह दी जाती हैं.

अपनी मर्जी से न जाने कितनी माएं अपने ही गर्भ में अपनी बच्चियों का कत्ल कर देती हैं खुशी-खुशी. अपनी ही मर्जी से आज भी कई घरों में पत्नियां आधे पेट खाकर ही सो जाती हैं और ज्यादातर महिलाएं एनीमिया की शिकार होकर मर जाती हैं. ये सब कुछ औरतें अपनी मर्जी से करती हैं. उन पर कभी कोई दबाव नहीं होता. किसी भी तरह का. पिता की भीगी निगाहों और जर्जर आर्थिक स्थिति को देखकर चुपचाप उनके द्वारा चुने गए रिश्तों को स्वीकार करने वाली इन अपनी मर्जियों की भरमार किसी से छुपी भी नहीं है. मैं सचमुच इस अपनी मर्जी के भेद को खोलना चाहती हूं. देखना चाहती हूं कि इन अपनी मर्जियों के उस पार भी क्या कोई मर्जी है? जब से होश संभालो सही और गलत को जिस तरह चीख-चीखकर कानों में उड़ेला जाता है कि कोई भी लड़की कानों में जबरन ठूंसे जा रहे सही को ही अपनी मर्जी मान बैठती है. गलत के हश्र, अंजाम इस कदर खौफनाक होते हैं कि अपनी मर्जी की तकदीर और तदबीर वहीं गढ़ दी जाती है. उस मर्जी की हद, मियाद, दिशा सब पहले से तय है. सिर्फ चेहरे और नाम बदलकर सिर हां में हिलने भर की देर है. तभी तो कितनी आसानी से हमेशा बड़े से बड़े स्त्री विरोधी अपराध स्त्रियों के मत्थे ही मढ़ दिए गए. दहेज हत्या, सास या ननद के मत्थे, बच्चियों का न पढऩा लिखना, मां के मत्थे, बच्चियों की भ्रूण हत्या मां और दादी के मत्थे. पुरुष शातिर निगाहों से देखता रहता है दूर खड़ा होकर कि कहीं औरतों की ये अपनी मर्जी उनकी सचमुच की अपनी मर्जी न बन जाए...जैसे ही ऐसा कुछ होता न$जर आया गर्दन कलम. किसी एक गांव की कहानी में न जाने कितनी ही ऐसी अपनी मर्जियों की भ्रूण हत्याएं हो रही हैं. हद तो यह है कि जिनके अस्तित्व की हत्या हो रही है, उन्हें खुद भी इसका अहसास नहीं. उन्हें पता ही नहीं कि उनके हिस्से के सुख कौन से हो सकते हैं. कि उनका जीवन जो वे जी रही हैं उसके आगे भी है, हो सकता है.

इन अपनी मर्जियों की बाड़ इतनी सख्त है कि अगर कोई लड़की इसके पार जाने की, झांकने की कोशिश भी करे तो उसके नतीजे अखबारों में पढऩे को मिलते ही रहते हैं. वुमन रिजर्वेशन बिल के पास होने की खुशी मनाई जाए या दुख मनाया जाए कि एक और मौका दूसरों के हाथ का मोहरा बनने का. अपनी मर्जी का ये सफर राजनीति तक सेंध लगा चुका है. किसे इलेक्शन लडऩा है, किसकी बहू कितना वोट बटोरेगी...उसकी ना-नुकुर का परसेंटेज कितना हो सकता है आदि का कैलकुलेशन शुरू हो गया है. शहर की चमचमाती सड़कों पर फर्राटे से गाडिय़ां दौड़ाती, अंग्रेजी में बोलती और महत्वपूर्ण फैसले लेती महिलाएं सचमुच लुभाती हैं. उनके फैसले कई बार परिवार, समाज, नीति-नियम को पार भी कर जाते हैं लेकिन वो होती है उनकी अपनी मर्जी जिसकी जिम्मेदारी वो खुद उठाती हैं.

बदलती हुई तस्वीर को मुकम्मल होने में अभी बड़ा समय बाकी है. क्योंकि चमचमाती सड़कों पर दौडऩे वाली विश्वास से भरी इन लड़कियों की संख्या के आगे दूसरों की मर्जी को अपनी मर्जी मानकर जीने वालों की संख्या कई गुना ज्यादा है. इंत$जार है उस सुबह का जब सफर भी हमारा होगा, पंख भी हमारे, उड़ान भरने की दिशा भी हम ही तय करें और कितनी उड़ान भरनी है यह भी हमारा फैसला हो.
जारी....

Wednesday, March 3, 2010

बेवजह का लिखना


यूं मैं बिना मन के कभी नहीं लिखती. नौकरी की जरूरतों के अलावा. अब तक इक्का-दुक्का मौकों पर ही ऐसा बेमन का लिखा है जैसा आज लिखने बैठी हूं. कुछ-कुछ पीछा छुड़ाने की गरज से. क्योंकि बचपन में किसी से सुन लिया था कि जो चीज ज्यादा परेशान करे उसे कागज की पुर्ची पर लिखकर तकिया के नीचे रखकर सो जाओ. सुबह उठकर उसे चिंदी-चिंदी कर के फेंक दो. यह तरकीब कई बार बड़ी काम आई. किसी को पता नहीं लेकिन कई बार पर्चियों में न जाने क्या-क्या लिखकर बहा दिया, जला दिया और मन को दुविधाओं से कुछ राहत मिली.

बहरहाल, आज लिखने का मन न होने का कारण जरा खास है. हालांकि नया नहीं. होली मनाने के लिए गांव जाना होता है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश का एक छोटा सा गांव, जिसकी अपने नाम से कोई खास पहचान नहीं. अक्सर जाना होता है वहां और ज्यादातर मन उदास होता ही है. कोई न कोई कड़वा कारण मौजूद होता है दिल दुखाने के लिए. इस बार करीब साल भर बाद जाना हुआ. एक नजर में गांव में काफी बदलाव हो गए थे. कई घरों में गाडिय़ां आ चुकी हैं. सड़कों की स्थिति भी थोड़ी सुधरी हुई मिली. हर किसी के पास एक नहीं दो-दो मोबाइल. छप्परों तक पर डिश एंटीना लटका न$जर आया. जाहिर है टीवी और सनीमा के जादू का असर साफ था. मुंबईया सपनों ने गांवों में सिर्फ दस्तक नहीं दी है, उन्होंने वहां कब्जा करना भी शुरू कर दिया है. लेकिन अफसोस सिर्फ सपने ही यहां पहुंच सके हैं. समझदारी नहीं. ये कहने का यह अर्थ नहीं कि गांवों के लोगों में समझदारी नहीं होती लेकिन समय के हिसाब से आये बदलाव जेहन पर भी तो दिखने चाहिए. इसकी न किसी को जरूरत है और न ही कोई उन्हें इस बात का इल्म कराने की जुर्रत कर सकता है. पूरे गांव में शायद ही कोई लड़की हाईस्कूल से ज्यादा पढ़ पाती हो. हालात ऐसे कि लड़कियां खुद पढऩा नहीं चाहतीं. कहीं कोई आनन्दी नहीं, कोई टीचर जी नहीं. सीरियल में दिखाये जाने वाले अम्मा जी और दादी सा के जुल्म या उनकी पैंतरेबाजियां देखने में सबको आनन्द आता है.

बेटों की चाह में सास, बहू, बेटी एक साथ गर्भवती हो रही हैं. एक के बाद एक बेटियों की कतार है. बस एक बेटे की चाह में. जो ज्यादा मॉडर्न हुआ तो अल्ट्रासाउंड देवता की जय हो गई और बेटी का गर्भ में ही राम नाम सत्य. फिर बेटे की आस. ऊपर से आदर्श टाइप दिखने वाले एक बेटे एक बेटी वाले परिवार की नींव में न जाने कितने कन्या भ्रूण दफन पड़े हैं. गांव के पढ़े-लिखे लड़के जाहिर है गांव से दूर जाकर रह रहे हैं. कभी-कभार आकर, इन लोगों से पंगा लेकर कोई अपनी छुट्टियां खराब नहीं करना चाहता. औरतों की मर्जी का तो ये हाल है कि वे अपनी ही मर्जी से अपने पति को दूसरी शादी करने को राजी हैं क्योंकि वे बेटा नहीं पैदा कर पा रही हैं. अपनी ही मर्जी से आठ-दस बच्चियों तक कोशिश करती रहती हैं कि शायद खानदान का वारिस मिल जाये. अब नहीं मिल रहा तो पति का क्या दोष सो उन्हें दूसरी शादी का पूरा हक है. ऐसा औरतें अपनी मर्जी से कहती हैं. ध्यान रहे उनकी अपनी मर्जी. स्त्री-पुरुष, बुजुर्ग जवान सब मिलकर जाहिलियत के कुएं खोदने में लगे हैं जिसमें स्त्रियां अपनी मर्जी से खुद कूद रही हैं.

अचानक सब बेवजह लगने लगता है. लिखना-पढऩा, कहना-सुनना कुछ भी तो सार्थक नहीं. हम चंद अल्फाजों में खुद को उलझाकर कैसे संतुष्ट हो सकते हैं. अखबार, पत्रिकाएं, चैनल, फिल्में कुछ भी जाहिलियत के इस ताने-बाने को नहीं तोड़ पा रहा. कुछ भी नहीं. किसी अखबार का कोई लेख, लेखों का संकलन, कहानी, कविता, उपन्यास सब कुछ खारिज हो जाता है इन जमीनों पर जाकर. एक बूंद भी नहीं बचता. कोई पलटना भी नहीं चाहता ऐसे कागज.
ये इक्कीसवीं सदी है. हम महिलाओं की आजादी की बात करते हैं. मुझे नहीं लगता कि ये सिर्फ किसी एक गांव की बात है...लेकिन फिलहाल मन बहुत उदास है. कितने मुगालतों में जी रहे हैं हम.
सब बेवजह...
जारी...