‘और देखते-देखते रास्ते वीरान, संकरे और जलेबी की तरह घुमावदार होने लगे थे. हिमालय बड़ा होते होते विशालकाय होने लगा. घटायें गहराती-गहराती पाताल नापने लगीं. वादियाँ चौड़ी होने लगीं. बीच-बीच में करिश्मे की तरह रंग-बिरंगे फूल शिद्दत से मुस्कुराने लगे. उन भीमकाय पर्वतों के बीच और घाटियों के ऊपर बने संकरे कच्चे-पक्के रास्तों से गुजरते यूँ लग रहा था जैसे हम किसी सघन हरियाली वाली गुफा के बीच हिचकोले खाते निकल रहे हों. इस बिखरी असीम सुन्दरता का मन पर यह प्रभाव पड़ा कि सभी सैलानी झूम-झूम कर गाने लगे, ‘सुहाना सफर और ये मौसम हंसी...’ पर मैं मौन थी. किसी ऋषि की तरह शांत थी. मैं चाहती थी कि इस सारे परिदृश्य को अपने भीतर भर लूं. मेरे भीतर कुछ बूँद-बूंद पिघलने लगा था. जीप की खिड़की से मुंडकी निकालकर मैं कभी आसमान को छूते पर्वतों को देखती तो कभी ऊपर से दूध की धार की तरह झर-झर गिरते जल प्रपातों को. तो कभी नीचे चिकने-चिकने गुलाबी पथ्थरों के बीच इठला-इठला कर बहती चांदी की तरह कौंध मारती बनी-ठनी तिस्ता नदी को. सिलीगुड़ी से ही हमारे साथ थी यह तिस्ता नदी. पर यहाँ उसका सौन्दर्य पराकाष्ठा पर था. इतनी खूबसूरत नदी मैंने पहली बार देखी थी. मैं रोमांचित थी. पुलकित थी. चिड़िया के पंखों की तरह हल्की थी. ‘
- साना साना हाथ जोड़ी से – लेखिका- मधु कांकरिया
इन दिनों मैं दसवीं में पढ़ रही हूँ, अपनी दसवीं में पढने वाली बिटिया के साथ. हाल ही में उसने मुझे हिंदी के एक पाठ 'नौबतखाने में इबादत' पाठ को लेकर कहा, सिर्फ यही मुझे एकदम बोर लगता बाकी सब अच्छे हैं. इसके पहले यही बात उसने 'साना साना हाथ जोड़ी' को लेकर भी कही थी. कुछ दिनों पहले ‘मैं क्यों लिखता हूँ’ के बारे में भी.
मुझे अपने स्कूल के दिन याद आते हैं उसकी ऐसी बातें सुनकर. दुःख है कि मेरे जीवन में साहित्य या कुछ भी स्कूल में या कॉलेज में पढने से नहीं आया. जिन हिंदी की कविताओं को घर में खुद पढ़ने में सुख होता था वही पाठ वही कवितायेँ स्कूल में शिक्षिका द्वारा पढाये जाने पर भारी बोझ सी लगने लगती थीं. ऐसा और विषयों में भी हुआ ही. मैंने बिटिया से कहा जो पाठ तुमको बोर करते हैं वो दिखाओ, उसने मुझे पाठ दिखाए तो मेरा चेहरा खिल उठा. 'साना साना हाथ जोड़ी' मधु कांकरिया जी का लिखा यात्रा वृतांत है और 'नौबतखाने में इबादत' यतीन्द्र मिश्र द्वारा लिखा संस्मरण और प्रिय कवि अज्ञेय का लिखा पाठ ‘मैं क्यों लिखता हूँ’ था.
मैंने बिटिया की समस्या का कोई हल नहीं किया सिवाय इसके कि जब वह हल्के-फुल्के मूड में होती उसके साथ मिलकर इन पाठों को मन से पढ़ा. 'साना साना हाथ जोड़ी' पढ़ते हुए गंगटोक और सिक्क्किम की यात्राओं के बहाने हमने न जाने कितनी यात्राएँ कीं, कितनी ही यात्राओं को फिर से महसूस किया, पिंडर, झेलम, नर्मदा, बेतवा नदियों को तिस्ता के बहाने याद किया. भाषा की सुन्दरता को महसूस किया, लेखिका के मन की स्थिति को समझा. ठीक यही हुआ 'नौबतखाने में इबादत' को पढ़ते हुए. बिस्मिल्ला खां के बारे में पढ़ते हुए बनारस शहर का जिक्र जिस तरह आता है कि कचौड़ियों की खुशबू देहरादून में महसूस होने लगती है. एक सही सुर के लिए बिस्मिल्ला खां साहब की तलब, उनकी सादगी, विनम्रता, फटी लुंगी का किस्सा और उनके जन्म शहर डुमरांव की नरकट घास तक का जिक्र पाठ के लिए मोहब्बत जगाने में पूरी तरह कामयाब है. अज्ञेय का 'मैं क्यों लिखता हूँ' पढ़ते हुए भी कुछ ऐसे ही हालात बने. लिखना किस तरह आंतरिक विवशता से होता है इस बात को उसने खूब अच्छे से समझा और अक्सर मुझे लिखते देख हंसकर कहती, 'नानी अभी मम्मा को आंतरिक विवशता आ रही है.'
हम माँ बेटी ने इन पाठों का आनन्द लिया. अभ्यास प्रश्नों की ओर हमने देखा भी नही. मुझे यकीन है कि जिस तरह उसने पाठ को समझा है उसके लिए कोई प्रश्न मुश्किल नहीं होगा.
मुझे यह प्रसंग इन दिनों इसलिए भी याद आ रहे हैं कि इन इनों उत्तराखंड में चल रहे सेवारत शिक्षक प्रशिक्षण में शिक्षकों के साथ संवाद में हूँ. जहाँ शिक्षक कई बार किताबों में ज्यादा कोर्स होने, पढ़ाने के दौरान आने वाली चुनौतियों के बारे में बात करते हैं, समय की कमी, बहुत सारे काम करने होते हैं की बात करते हैं. मुझे इन सब समस्याओं का एक ही हल दिखता है कि क्यों शिक्षण के इस खूबसूरत काम को अपना आनन्द बना लिया जाए. जब तक पढाना पहले पढना नहीं होगा, खुद का आनंद नहीं होगा तब तक ये खूबसूरत पाठ काम के बोझ से लगते रहेंगे. फिर यही बोझ बच्चों को भी ट्रांसफर होगा. होता ही है.
जिन पाठों को पढ़ते हुए जिन्दगी से जुड़ा जा सकता था, उन्हें पढ़ना बच्चों को और पढाना शिक्षकों को बोझ लग रहा है. शायद मेरी बेटी को हिंदी पढ़ाने वाली शिक्षिका ने भी अपनी नौकरी की पूर्ति के तौर पर पाठ पढ़ाया होगा. तो भला दिल से लिखे गये ये खूबसूरत पाठ बच्चों के दिल में किस तरह उतरते जब वो शिक्षक के दिल में ही नहीं उतरे. बाकी विषयों के बारे में यकीन से नहीं कह सकती लेकिन भाषा के संदर्भ में जरूर लगता है कि भाषा चाहे हिंदी हो, अंग्रेजी या कोई और उसका कनेक्शन सीधे दिल से होना जरूरी है. दिल से रिश्ता न होगा तो भाषा अपने पेचोखम में उलझा लेगी, जो लिखा गया है उसकी भावभूमि तक पहुंचना मुश्किल ही होगा.
एनसीईआरटी ने बेहद खूबसूरत किताबें बनायी हैं, इन्हें पढ़ना एक सुख है, जाहिर है इन्हें पढ़ाना भी सुख होना चाहिए. अगर यह काम हो रहा है, सुख नहीं तो जरूर हमने पढ़ाने से पहले अपने पढ़ने के सुख को खो दिया है. आइये, पहले अपने सुख को तलाशें.