Wednesday, March 21, 2018

यूं मिलती है कविता मुझसे...


एक बहुत पुराना लेख याद दिलाया दोस्त अखिलेश्वर पांडे ने. जिसे लिखकर भूल गयी थी. मेरे लिए कविता ही जीवन है और यह एक पाठकीय प्रतिक्रिया है, कि मन के तमाम उतार चढ़ावों को ठौर मिला कविताओं को पढ़ते हुए ही. आज जब विश्व कविता दिवस मनाया जा रहा है तब मैं पलट रही हूँ स्मृतियों के कुछ पीले पड़ चुके पन्ने...

- प्रतिभा कटियार

अपनी स्मृतियों को रिवाइज करती हूं तो खुद को स्मृति के उस पहले पन्ने के सामने खड़ा पाती हूं, जिस पर मरीना ने लिखा था, मुलाकातें मुझे अच्छी नहीं लगतीं. माथे टकरा जाते हैं. जैसे दो दीवारें. मुलाकातें मेहराब होनी चाहिए. उस वक्त मेरी उम्र कोई दस या बारह वर्ष के आसपास रही होगी. और मरीना की ये पंक्तियां उसकी कविता की लाइनें भी नहीं थीं. लेकिन ये शब्द $जेहन में ठहर गये. इन्हीं का हाथ पकड़कर मैंने कविता की दुनिया में प्रवेश किया. कविता मुझे हमेशा लुभाती रही. इसके बाद देश और विदेश के न जाने कितने कवियों को पढ़ा. पाश, ब्रेख्त, नेरूदा, शिंर्बोस्का, शमशेर, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, अज्ञेय, मुक्तिबोध, जाने कितने नाम आसपास मंडराते रहते हैं. कितनी कविताएं हैं, जो हमेशा साथ चलती रहती हैं.
कविताओं के संसार में विचरने और उससे बाहर आने के दौरान समय एक बात मैंने शिद्दत से महसूस की कि कविता कहां है और कहां नहीं यह सवाल अब तक अनुत्तरित ही है. मैंने कई बार कविता को वहां पाया, जहां उसके होने की उम्मीद नहीं थी. मसलन कभी किसी की बात में, कभी किसी मुलाकात में, फिल्म के किसी डॉयलॉग में, किसी कहानी के एक अंश में, तेज धूप में नंगे पांव भागती जाती स्त्री के आंचल में छुपे एक मासूम की मुस्कुराहट में. इसके उलट कई बार कविता वहां नहीं भी मिली, जहां इसकी तलाश थी. मसलन किसी के कविता संग्रह में, किसी कवि गोष्ठी में, कविता के किसी ब्लॉग पर. यह अजीब सा इत्तफाक अब तक लगातार उपस्थित या अनुपस्थित होता रहता है. इसी बीच ऐसा भी होता है कि कोई सुंदर कविता न$जर से गुजरती है और दिल और दिमाग में हमेशा के लिए ठहर जाती है.

मेरे लिए कविता गहरी संवेदना से उपजी ऐसी अभिव्यक्ति है जो आगे बढ़कर पढऩे वाले की अनुभूतियों को गले लगा लेती है. उसे उद्वेलित करती है, कभी-कभी तो शांत भी करती है. उसे प्यार करती है तो उसके साथ सदा के लिए जज़्ब हो जाती है. पाठक चाहकर भी उस कविता से पीछा नहीं छुड़ा पाता फिर कविता का आकार कवि से बड़ा हो जाता है.

समकालीन दौर में कविता के सम्मुख मुझे सबसे बड़ी चुनौती यही लगती है कि कविता को जहां होना चाहिए वो अक्सर वहां नहीं होती. अखबारों में काम करते हुए साहित्य पेज की जिम्मेदारी निभाते हुए कविताओं के ढेर में खुद को खूब धंसा हुआ पाया है. लेकिन उस ढेर में अक्सर कविताएं नहीं होती थीं. यही कारण था कि कविता प्रेमी होने के बावजूद एक समय में कविता के नाम से खौफ़ खाने लगी थी. आज भी कमोबेश वैसे ही हालात हैं. ढेरों ब्लॉग्स हैं, पत्रिकाएं हैं, रचनाधर्मिता अपने चरम पर है लेकिन कविता कहां है? कहां है वो कविता जो अपने समय को, समाज को रेखांकित करती है. कहां है वो कविता जो हमारा हाथ पकड़कर कहती है, हम हैं ना. वो कविता कहां है जिसकी उंगली पकड़कर हम अवसाद की लंबी यात्रा से विराम पायें. ऐसा नहीं है कि ऐसी कविताएं नहीं हैं लेकिन बहुत कम हैं.

कविता की फॉर्म या टेक्नीक को लेकर मेरा कोई आग्रह कभी नहीं रहा. छंदबद्ध हो या न हो, वो गद्य शैली में हो या पद्य शैली में, उसके संग कितने भी प्रयोग किये गये हों लेकिन उसमें एक अनुभूति हो और इतनी सामथ्र्य हो कि वो अपने रस को खोये बगैर अपने भीतर विचार को पल्लवित होने दे और पाठक से एकाकार हो सके. उसके भीतर प्रवेश करने के लिए पाठक को मशक्कत न करनी पड़े.

मशक्कत, यह शब्द आजकल कविताओं से संग काफी जुड़ा हुआ पाती हूं. अक्सर अपने साथियों से सुना है. जो कविता के खांटी पाठक नहीं हैं, कहते हैं कि यार कविता समझ में नहीं आती. उन्हें जब कविता को खोलकर समझाया तो उन्हें आनंद आया. तो नई कविता को अपने भीतर थोड़ा सा सहज भाव लाने की जरूरत मुझे महसूस होती है. दुरूहता, जटिलता और बोझिलता कविता के रस को कम न कर दें. कविता का अंतिम शरण्य तो पाठक ही है ना अगर वो उस तक ही नहीं पहुंच रही है तो कुछ तो सोचना होगा.

अब सवाल पाठक का है तो पाठक की चिंता कोई कवि क्यों करे. कविता लिखते वक्त कवि किसी के बारे में नहीं सोचता. वो एक गहन पीड़ा से गुजर रहा होता है. उससे मुक्ति का उसके पास एक ही रास्ता होता है कविता. न वो पाठकों के बारे में सोचता है, न संपादकों के बारे में वो बस अपनी पीड़ा से मुक्ति पाने के बारे में सोचता है. उस वक्त कविता की टेक्नीक, उसे कैसा होना चाहिए, कैसा नहीं होना चाहिए इस बारे में सोचने की फिक्र नहीं होती. ऐसे में वो भला पाठक के बारे में क्योंकर सोचे.
एक पुल चाहिए- कवि की अपनी सीमाएं हैं और पाठक की अपनी. लेकिन दोनों की सीमाओं के बीच एक पुल की दरकार होती है. जो उन दोनों को करीब लाती है. कविता भी है और उसके पाठक भी लेकिन उन दोनों का संयोग करने वाले पुल अक्सर जर्जर पाये जा रहे हैं. इन पुलों में साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं, संग्रहों के अलावा भी कुछ चीजें शामिल होने की जरूरत है. पिछले दिनों मैंने थियेटर एप्रिसिएशन और फिल्म एप्रिसिएशन कोर्स के बारे में सुना. तभी यह ख्याल आया कि ऐसा ही कुछ कविता के बारे में क्यों नहीं होना चाहिए. पाठक तक पहुंचने की सारी यात्रा कवि ही क्यों तय करे, कुछ यात्रा तो पाठक को भी तय करनी चाहिए. अपनी समझ, सामथ्र्य को परिष्कृत और सुदृढ़ करते हुए कविता की ओर प्रस्थान करने के लिए.

विचार, प्रतिबद्धता, शुद्धता, सामाजिक परिवर्तन में कविता की भूमिका जैसे सवालों से बहुत दूर होता है कवि मन जब वो कविता लिख रहा होता. किसी श्रेणी का ख्य़ाल रखकर कविता नहीं लिखी जाती. हां, लिखे जाने के बाद वो किस श्रेणी में आती है, यह अलग बात है. कविता लिखना शब्दों से खेलना नहीं है. सुंदर शब्दों में भावों को उड़ेलना भर नहीं है, पूरे समय, समाज से जुडऩा है. कवि की प्रतिबद्धताएं, समझ, दृष्टि, संवेदना जितनी सक्रिय होती है कविता अपने आप उसी दिशा में जाती है. ये श्रेणियां हैं तो बहुत महत्वपूर्ण लेकिन कवि को इनसे निरपेक्ष होकर ही रहना चाहिए. क्योंकि तीव्र अनुभूति वाली प्रेम कविताओं में ऐसे राजनैतिक और सामाजिक सरोकारों को जज्ब होते भी देखा है जो राजनैतिक और तथाकथित प्रतिबद्ध कविताओं में नहीं दिखता. कविता अपने मूल में जितनी सहजता से सामने आती है वही ठीक है.

जहां तक सामाजिक सरोकारों की बात है तो मन में हमेशा से यह सवाल रहा कि हमारे यहां कब किस कवि को उसकी कविता के चलते जेल में डाला गया. कब किस कविता को प्रतिबंधित किया गया. कविता पूरे वेग के साथ बिना किसी की परवाह के अपने समय की जटिलताओं के खिलाफ खड़ी होती है . मुझे व्यक्तिगत तौर पर ऐसी कविताओं की तलाश हमेशा रहती है जो पढऩे वालों की आत्मा पर चोट करे. जिसका असर सदियों तक बना रहे. बनावटी प्रतिबद्धता, बनावटी सरोकार कविता की कलई अपने आप खोल देते हैं. कवि को लगता है कि उसने तो कमाल कर दिया था लेकिन असल में कमाल हो नहीं पाता. यानी कविता लिखने से पहले कवि का आत्मिक और वैचारिक शुद्धिकरण (माफ़ कीजिए ये काफी दक्षिणपंथी शब्द है फिर भी जरूरी है). उसकी समझ का साफ होना बहुत जरूरी है. क्योंकि उलझी हुई समझ से लिखा गया कहां ठहरेगा? ये हम सब जानते हैं. पानी के बुलबुले से उठेंगे फिर गुम हो जायेंगे और हम रोते रह जायेंगे कि मेरी कविता को पहचान नहीं मिली. यही है आज की कविता के सामने यही सबसे बड़ी चुनौती है. एक अच्छी रचना को साधुवाद देना जितना जरूरी है, उससे कहीं ज्यादा जरूरी है एक बुरी रचना की आलोचना करना. आलोचना की आज के दौर में सख्त जरूरत है. तीखी आलोचना. जो कविता की दुनिया में उग आये कूड़ा-करकट को साफ करे और सुंदर कविताओं का रास्ता साफ करे. आलोचनाएं निष्कपट होनी चाहिए और उन्हें पूरी सहदयता के साथ स्वीकार किया जाना चाहिए.

Tuesday, March 20, 2018

कवि की मृत्यु पर कोहराम


- देवयानी भारद्वाज

मृत्यु एक गरिमामय कर्म है
एक सार्थक जीवन के बाद
चुचाप उठ कर चल देना
जिए गए जीवन के प्रति
गहरी श्रद्धा
ऐसी मृत्यु
जिसे आप अपने मौन में
जज़्ब करते हैं धीरे-धीरे

मृत्यु कोई हादसा नहीं
हत्या या असामयिक मृत्यु
यहाँ मेरा सन्दर्भ नहीं
एक भरपूर जीवन के बाद
विदा की घड़ी
जैसे दूर क्षितिज पर
ढल रहा हो सूरज
धीरे-धीरे
जबकि दीप्त है पृथ्वी
अब भी उसकी आभा में

बिना शोर
बिना कोहराम के
चला गया एक कवि
जैसे चले गए उसके पूर्ववर्ती
जैसे चले जायेंगे अभी और भी कई
अपने जाने के सही समय पर

कवि की मृत्यु पर कोहराम
शोक संदेशों और श्रद्धांजलियों की बाढ़
मृत्यु की गरिमा पर चोट सा पड़ता है
वह जहाँ चला गया है
वहां नहीं पहुंचेंगे तुम्हारे शोक सन्देश
उसके पीछे
इतना शोर मत मचाओ
वह लिख रहा है
अपनी अंतिम कविता
उसके आस पास थोडा धीरे बोलो
कुछ शोर कम मचाओ

Saturday, March 17, 2018

एक दुःख है जो झरा नहीं



ये झर जाने के दिन हैं इसलिए खूब झर रही हूँ. झर झर झर. पूरी तरह से झर जाना चाहती हूँ. सांस सांस झर जाना चाहती हूँ. देह से झरती इक इक साँस को झरते हुए देख रही हूँ. ठीक उसी तरह जैसे देखती हूँ पेड़ों से गिरते पत्तों को. झरना दुःख नहीं है, पूरा होना है. लम्हों का पूरा होना, साँसों का पूरा होना. स्वाभाविक जो भी है सुख है, झरना भी, उगना भी. प्रेम भी, विरह भी. जीवन भी, मृत्यु भी.

मैंने मृत्यु को कई बार अपने आसपास देखा है, स्पर्श किया है. देह की मृत्यु को भी और देह में मृत्यु को भी. कई बार लगता है मैंने चखा है मृत्यु को, मेरी जिह्वा पर स्वाद है मृत्यु का और वो बुरा नहीं है. यह अवसाद नहीं है, यह जीवन है. जीवन में होना है, जीवन की इच्छा का होना है. बहुत सारा जीने की ख्वाहिश है ये.

झील के किनारे की वो रात याद आ रही है जब सिगरेट के धुएं के बीच एक जोर से आई सिसकी को जिगरी दोस्तों से छुपा लिया था. समन्दर किनारे की वो रात भी याद आ रही है जब सारी रात लहरों को काटते हुए काट रहे थे दुःख और बेवजह के ठहाकों में खुद को छुपा रहे थे. उन लहरों में खुद को बहा आये थे, उन बेवजह के ठहाकों में जीने की इच्छा को बचा लाये थे.

मृत्यु में कोई दुःख नहीं है जीवन में है. जीवन जिए बिना मरने को तैयार नहीं हूँ. हालाँकि इस युध्ध में मरती हूँ रोज ही. देह की मृत्यु के अपने मायने हैं. उनमें कुछ दुःख भी हैं, कुछ बेबसी भी. उन दोस्तों को याद करती हूँ जो देह से मुक्त हुए. कमल जोशी की वॉल पर रोज ही जाती हूँ, मनोज पटेल को पढ़ते-पढ़ते ही सो जाती हूँ अक्सर. और भी कुछ दोस्त हैं जो चुपके से चले गए. किसी दिन मैं भी चली जाऊंगी. बिना किसी को कुछ भी बताए. बस कि सैलाब से डर लगता है. पीछे से उठने वाले शोर से डर लगता है, रूदन की वीभत्सता डराती है बहुत.

मृत्यु जब शांति है तो मृत्यु के बाद इतना कोहराम क्यों...देह की मृत्यु पर ही कोहराम क्यों? जीते जी मरते हुए लोग आस पास होते हैं हम उन्हें देखते भी नहीं.

मुझे न ये दुनिया कभी समझ आती है, न ये ही लगा कि दुनिया को मैं समझ आती हूँ. बस कि बिना जिए मरने को जी नहीं करता इसलिए हर लम्हे को पूरी शिद्दत से जीती हूँ. हालाँकि रोज ही देखती हूँ एक एक कर हाथेलियों से झरती लकीरों को...एक रोज झर जायेंगी सारी लकीरें, फिर उगेगा कुछ नया.

झर रहा है झर झर झर मौसम
पत्ते ही नहीं झर रहे पेड़ों से
जिए जा चुके लम्हे झर रहे हैं
कुछ बिना जिए लम्हे भी
देखा देखी आतुर हैं झरने को

जी जा चुकी साँसे झर रही हैं
उम्मीदों की शाख पर अटकी
पीली पड़ चुकी आखिरी पत्ती
झर सकती है किसी भी वक़्त

चांदनी झर रही है बेवजह बेपनाह
जीवन का मुसाफ़िर चल रहा है लगातार
झर रही हैं दूरियां

एक दुःख है जो झरा नहीं पूरा
मोहब्बत की आखिरी लकीर
अभी अटकी है हथेलियों में
उसी में अटकी हैं आखिरी साँसे

मृत्यु नहीं है हालाँकि देह का झरना.

Tuesday, March 13, 2018

सपने वाला खेल


'आओ सपनों वाला खेल खेलते हैं, तुम मुझे अपना सबसे प्रिय सपना देना, मैं अपना सबसे प्रिय सपना तुम्हें दूंगा. हम एक दूसरे के सपनों को जियेंगे.'  लड़के ने कहा.

लड़की ने कहा, 'तुम. मेरा सबसे प्यारा सपना तुम हो'
लड़का हंस दिया, ' अम्म्म...मेरा सबसे प्यारा सपना है मेरे पास बहुत सारे पैसे हों, मुझे सारी दुनिया के लोग जानते हों.सम्मान करते हों
'
लड़की लड़के का सँभालने लगी. उसके पास पैसा है, शोहरत है लेकिन लड़की उदास है.

लड़का खुद के इर्द-गिर्द घूमता फिरता है. खुद के आगे न कुछ देख पाता है, सुन पाता है. वो भी बेहद उदास रहता है.

इस खेल के नियम ठीक नहीं थे. 

Saturday, March 10, 2018

तुम गाना गीत


जब गुजरना सहराओं से
गुनगुनाना नदियों और झरनों के गीत
जब गुजरना पथरीले ऊबड़ खाबड़ रास्तों से
गुनगुनाना हरियाली के, पगडंडियों के खेतों के गीत
जब अँधेरा बिगुल बजाये कान पर
तुम गुनगुनान रौशनी के गीत

जब जिन्दगी उदासियों की बाड़ लगाये
तुम गाना खिलखिलाहटों के गीत

जब मृत्यु हाथ थामे
तुम मुस्कुराना और गाना जिन्दगी के गीत.

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कभी-कभी कोई सवाल न पूछकर भी
दी जा सकती है राहत
कभी कुछ न पूछकर भी और कभी
मौन रहकर भी

हमेशा साथ होने के लिए नहीं जरूरी होता
साथ में होना
कभी दूर रहकर भी दिया जा सकता है साथ

प्यार के लिए गले से लगाना ही काफी नहीं होता
कई बार लगाने पड़ते हैं थप्पड़
बकनी पड़ती हैं गलियां
और बनानी पड़ती है बेस्वाद चाय

दोस्त, सांत्वना से बचो
जब जरूरी लग रहा हो सांत्वना देना
कि सांत्वना से बड़ा दंश कोई नहीं.

Monday, March 5, 2018

मिलन


जब तुम्हें देखता हूँ तब तुम्हें सोचता नहीं हूँ 
जब तुम्हारे पास आता हूँ, तब रास्ते में कहीं खो जाता हूँ
जो तुम्हारे पास पहुँचता है वो कोई और होता है
तुम जिससे मिलकर खुश होना चाहती थी
उससे मिलकर उदास होती हो
और जो तुम्हारे पास पहुँचता है वो गुनहगार
हालाँकि रास्ते में भटक जाने का गुनाह मेरा है, उसका नहीं
मैं रास्ते में भटका हुआ तुम्हारी उदासी से बहुत दूर होता हूँ
और वो उस उदासी को अपने कन्धों पर उठा पाने में लगातार नाकाम

उसके साथ चलते हुए तुम पीपल के पेड़ की ओट से झांकते चौथ के चाँद को देखती हो
चाय पीने की इच्छा को उपेक्षित करती हो
ठीक उस वक़्त मैं अपने भटकाव के रस्ते में मिली एक गुमटी में
चाय पीते हुए मैं तूम्हारे बारे में सोचता हूँ
तुम्हारी उँगलियों के नर्म स्पर्श के बारे में
तुम्हारी आँखों में उतरी उस नदी के बारे में
जिसकी तेज़ धार में हमारे ढेर सारे चुम्बन प्रवाहित हैं

मुझे तुम्हारी बहुत याद आती है
और मैं तेज क़दमों से तुमसे मिलने को चल देता हूँ
जब मैं तुम्हारे पास पहुँचता हूँ तुम अपनी उदास आँखें लिए जा चुकी होती हो
मेरी देह पर तुम्हारा रुदन बिखर जाता है

मैं जानता हूँ कि अब जबकि तुम जा चुकी हो
मैं तुम्हारे ही बारे में सोचता रहूँगा देर तक
पीपल की कोई पत्ती टूटकर कांधों पर गिरी है
वो पत्ती मेरा दर्द समझती है शायद
क्या वो पत्ती तुम हो ?
(5 फ़रवरी 2018 के दैनिक जागरण में प्रकाशित)