वो एक कमरे में टहल रहे थे. जैसे किसी बागीचे में हों. टहलना खत्म हुआ और सुभाष सर ने पूछा, किसने क्या देखा? किसी ने पंखा देखा, किसी ने बोर्ड, किसी ने मैम को देखा किसी ने किताबें. सुभाष सर एक बच्चे का जवाब सुनकर ठिठक गये, जब उसने कहा मैंने सूरज देखा. वो पलटे. क्या...क्या देखा आपने? वो उस बच्चे के करीब पहुंच गये. उसने पूरे आत्मविश्वास से कहा मैंने सूरज देखा. कमरे में सूरज...शायद यही सोच रहे थे सुभाष सर...उस बच्चे ने चार्ट पेपर पर अपने नाम के साथ अपने हाथ से बनाये सूरज की ओर इशारा किया...वहां देखा.
कौन तय करता है सूरज के उगने और डूबने की दिशा और समय. बच्चों की दुनिया में वो सब कुछ खुद तय करते हैं. नाटक सीखने आये बच्चे खुद अपने सुभाष सर को न जानेे क्या-क्या सिखा गये. पंद्रह सितंबर का जो दिन थियेटर एक्टिवटी के लिए तय था, उस दिन का नाटककार कोई और ही था. यूं तो हमारी जिंदगी के हर लम्हे का राइटर डायरेक्टर कोई और ही है लेकिन उस दिन यह बात डीएम के आदेश के रूप में सामने आई. सामने आई बारिश की उस विभीषिका के रूप में. मौसम के गुस्से का असर ये कि दून के सारे स्कूल बंद. जिन बच्चों को कार्यशाला के लिए आना था उन्हें घर भेज दिया गया. सुभाष जी परेशान, लेकिन शो मस्ट गो आॅन...तो राजकीय जितने भी बच्चे आये थे उनके साथ खेल शुरू हुआ.
अपनी उंगलियों को हिलाते हुए नीचे से पर लाना... ऊपर से नीचे. बच्चों के मन में रखी संकोच की पर्तें एक-एक कर उतरने लगी थीं. हां, एक बहुत सुंदर बात ये दिखी कि सुभाष सर ने सख्त हिदायत दी, खेल में शामिल सबसे छोटी बच्ची मधु के हाथ से ऊपर कोई अपना हाथ नहीं ले जायेगा. हमें अपना ही नहीं अपने साथियों की क्षमताओं का भी ख्याल रखना चाहिए. हमारी गति, हमारा वेग कहीं किसी का दिल न दुखा दे. कि पकड़ लंे हाथ अगर तो सब साथ बढ़ें...खूब बढ़ें. शायद रोजमर्रा की जिंदगी में हम बच्चों को ऐसे ही संदेश देना भूल जाते हैं, जिसे सुभाष सर ने बच्चों को प्यार से समझाया. खेल का असली मजा तब है जब सब साथ चलें.
खेल आगे बढ़ने लगा. दो हाथ किरदार बने. एक ने दूसरे से उसका नाम पूछा, हाल पूछा और भी बहुत कुछ. एक कहानी सुनाई गई. एक पढ़ाकू बच्चे की कहानी. जिसे सिर्फ पढ़ना पसंद है. उसका दोस्त, मम्मी पापा सब उसे समझाते हैं कि पढ़़ने के अलावा खेलना भी जरूरी है लेकिन वो समझता ही नहीं. इसी कहानी को बच्चों के अलग-अलग ग्रुप में नाटक के रूप में भी करके दिखाया.
बच्चे अब अपने पूरे रंग में आ चुके थे. खाने के डिब्बे भी आ चुके थे. बच्चे अंदाजा लगा रहे थे कि उसमें क्या होगा. सब अपनी पसंद की चीजों का नाम ले रहे थे. मधु, मुस्कान, धर्मवीर, जीशान, आशाराम, अमनजोत सिंह, करन, सौरभ, दिग्विजय, बिलाल, अभिषेक ने सुभाष सर और प्रिया दीदी के साथ मिलकर नाश्ता किया और दुगुने जोश से नाटक की ओर लौटे.
कूदो तो इतना कि आसमान छू लो....सुभाष सर ने कहा भी और कूदकर दिखाया भी. सारे बच्चे अपने-अपने सर के ऊपर टंगे आसमान से होड़ लेने में जुट गये. अपनी पूरी ताकत से आसमान की ओर छलांग लगाते. उनकी आंखों में ऐसी चमक थी कि लगा कि आसमान उनकी मुट्ठियों में आ गया हो. हालांकि मुझे तो वो बेचारा उनके कदमों में बिछा हुआ नजर आ रहा था.
नाटक सिर्फ संवाद नहीं होता, सिर्फ मंच नहीं...जिंदगी हर पल एक नाटक है, एक खेल. कितनी अजीब बात है कि नाटक में हम स्वाभाविक होना चाहते हैं और जिंदगी में नाटकीय. सुभाष सर कोई किताब पढ़ रहे थे. उसे पढ़ते हुए उन्हें बहुत मजा आ रहा था. कभी वो किताब पढ़ते हुए दीवार से टकरा जाते, कभी लेट जाते, कभी पैर ऊपर करके जोर-जोर से हंसते. बच्चे उन्हें देखकर खूब खिल रहे थे. रोज की स्वाभाविक बात पढ़ना जब अभिनय बनी तो मुश्किल हो गई. सब सुभाष सर की तरह पढ़ रहे थे. सचमुच....आसान नहीं अभिनय करते हुए सहज हो पाना...
यह एक तकनीक थी बच्चों के करीब जाने की, दोस्ती करने की, नाटक को खेलने की और खेल को अभिनीत करने की. थोड़ी देर में पूरे कमरे में सफेद रंग की बाॅल थीं और बच्चों की चमकती आंखें. अगर हम खेल में डूब जाये ंतो सारे संकोच धराशायी हो जाते हैं. खेल की शुरुआत में जो बच्चे सहमे हुए थे, वो अब खूब चहक रहे थे. फिर मिलेंगे के वादे के साथ धमाचैकड़ी का सिलसिला अगली गतिविधि तक के लिए रूका जरूर लेकिन इस कार्यशाला का असर उन बच्चों के जेहन पर तारी रहेगा.