वो रात का मुसाफिर था. उसके कंधे पर एक पोटली रहती थी. जो खासी भारी सी मालूम पड़ती थी. उस पोटली के बोझ से मुसाफिर अक्सर झुककर चलता था. अपने कंधे के बोझ को अपने दूसरे कंधे पर रखकर पहले कंधे को बीच-बीच में आराम देता था. रास्ते में कोई कुआं या बावड़ी मिलती, तो उस पोटली को वहीं रखकर पानी को हसरत से देखता. पानी पीने के लिए वो बावड़ी में उतर नहीं सकता था और कुएं से पानी खींचने के लिए उसके पास कुछ भी नहीं होता था. पोटली की निगरानी की ताकीद इतनी सख्त थी कि वो पलक झपकाये बगैर उसे देखता रहता. कभी थकान से जब जिस्म दोहरा हो जाता तो उसी पोटली पर सर रखकर कुएं की जगत पर चंद नींद की झपकियां लेता. फिर किसी सपने के बीच से हड़बड़ाकर उठ बैठता. वो सपने में देखता कि कोई उसकी पोटली लेकर भागा जा रहा है. वो उसके पीछे दौड़ रहा है. चिल्ला रहा है...अरे सुनो. रुको तो सही. उसमें तुम्हारे काम का कुछ भी नहीं है. पर जो पोटली लेकर भाग रहा था, उसके कदमों में ताकत भी बहुत थी और उसकी टांगें काफी लंबी थीं. मुसाफिर अपनी पूरी ताकत से दौडऩे के बावजूद लगातार पीछे छूटता जा रहा था...और एक मोड़ पर अचानक वो किसी चीज से टकराकर गिर पड़ा. उसके दोनों घुटनों से खून निकलने लगा...आ....ह. उसके हलक से दर्द भरी एक चीख निकली और वो चौंककर जाग गया. उसका पूरा जिस्म पसीने से भीगा था लेकिन उसका सर उसकी पोटली पर. ऐसे सपने टूटने के बाद उसे हमेशा सपने टूटने के सुख का अहसास होता. उसे समझ में नहीं आता था कि लोग ख्वाब टूट न जाने को लेकर इतने परेशान क्यों रहते हैं, जबकि उसे अपना सपना टूटने में जो सुख मिला वो कहीं नहीं मिला. बचपन में वो जब मां के मर जाने का सपना देखता था और नींद खुलने पर खुद को मां की छाती से चिपका पाता, तो चैन की सांस लेता था. मां की सांसों को चूमता, उसके दिल की धड़कनों पर अपना सर रख देता और मन ही मन उस खुदा का शुकराना करता, जिसे उसने कभी देखा नहीं है.
एक रोज उसे एक बावड़ी से निकलती हुई एक स्त्री मिली. रात इतनी गाढ़ी थी कि हाथ को हाथ न सूझता था. इसलिए मुसाफिर को उस परछांई के पहनावे से यह अंदाजा हुआ कि वो कोई स्त्री है. उसकी चाल में एक आत्मविश्वास था. उसका आंचल हवा के नामालूम से झोंकों में भी खूब लहरा रहा था. उसने उस परछाई को अपने करीब आते देखा और पोटली को कसकर पकड़ लिया. उसने सुना था रात-बिरात पीपल के पेड़ और कुएं बावडिय़ों के आसपास कुछ बुरी आत्माएं भटकती रहती हैं. वो डरकर अपनी तावीजों पर हाथ रखने लगा.
उस परछाई ने पास आकर पूछा, प्यास लगी है क्या?
मुसाफिर ने हकलाते हुए कहा, हां लगी तो है लेकिन...
लेकिन क्या. जाओ और पानी पीकर आओ. बावड़ी गहरी होगी ना? मुसाफिर ने पूछा.
यह सुनकर परछाई हंस दी. उस हंसी की खनक से उसे अंदाजा हुआ कि वो निहायत खूबसूरत होगी. मुसाफिर ने फिर डरते-डरते कहा, मैं नहीं जा सकता. मेरी ये पोटली है ना, मैं इसे जब तक इसके मालिक तक सही सलामत ना पहुंचा दूं, मैं कहीं नहीं रुक सकता. और यह सफर रात भर में ही पूरा करना है. मैं प्यासा रह लूंगा. कहते हुए मुसाफिर ने अपना हलक सूखता हुआ महसूस किया. तुम जाओ पानी पीकर आओ मैं संभालती हूं पोटली. परछांई ने उसे आश्वस्त किया. मुसाफिर एक पल अपनी प्यास देखता, दूसरे पल पोटली. इन दोनों के बीच एक बार उसकी न$जर परछाई से भी टकरा गई. उसी पल मुसाफिर उस परछाई की बात मान गया. उसने उस स्त्री को पोटली थमाई और कहा, तुम यहीं बैठो मैं आता हूं प्यास बुझाकर. स्त्री ने अपने दोनों हाथों से पोटली को थाम लिया. वहीं सीढिय़ों पर बैठ गई. मुसाफिर बावड़ी की तरफ बढ़ा. बीच-बीच में पीछे मुड़कर देखता. उस अंधेरे में जाने क्यों उसे कोई मुस्कुराहट सी खिलती न$जर आती. उसे लगता कि वो मुस्कुराहट उसे छू रही है. वो कोई तिलिस्मी रात थी शायद. आसमान चांद सितारों से खाली था. बस एक सितारा टिमटिमा रहा था. पूरे आकाश पर आज उस अकेले का राज था. वो स्त्री उस अकेले तारे से न$जर जोड़ बैठी. उसने पोटली पर सिर टिकाया और आंचल को हवा से खेलने के लिए छोड़ दिया. उस रात उस अकेले तारे को देखते हुए उसे बीते जमाने की सारी चांद रातें याद आने लगीं. वो रातें जब वो आसमान के इस तारे की तरह अकेली नहीं हुआ करती थी. इसी बावड़ी में एक जोड़ी हंसी खिलखिलाती फिरती थी. स्त्री की आंखों से बहते हुए एक बूंद उस पोटली में जा समाई.
उधर मुसाफिर की प्यास बुझने को न आती थी. वो बावड़ी में उतरता जाता. अंजुरी में भर-भरकर पानी पीता जाता. न जाने कितने जन्मों की प्यास थी जो बुझने को राजी ही न थी. वो भूल गया कि वो रात का मुसाफिर है. सुबह होते ही उसका और उसके सफर का कोई वजूद न रह जायेगा. वो पोटली वहां तक न पहुंच पायेगी, जहां उसे पहुंचना है. वो बावड़ी की ओर बढ़ता गया, स्त्री पोटली हाथ में लिये उसके लौटने का इंत$जार करती रही. इस बीच रात का सफर पूरा हुआ.
सुबह की किरन देखते ही स्त्री ने बावड़ी का रुख किया. मुसाफिर का कोई पता न था. वो बावड़ी के और करीब गयी...उसने उसे आवाजें दीं, अरे ओ मुसाफिर...कहां हो तुम. अपना सामान तो ले जाओ... लेकिन वो तो रात का मुसाफिर था. स्त्री को यह भी पता नहीं था कि यह पोटली किसके लिए है. किस पते पर इसे जाना है. उसने बावड़ी की उन्हीं सीढिय़ों पर पोटली को खोलकर देखा. उसमें चमकते हुए गहने थे, बड़े-बड़े हार, कानों के कुंडल, हाथों के कंगन, पैरों की पायल...श्रृंगार का सामान भी था सारा. लिपिस्टिक, बिंदी, पाउडर, आलता और भी न जाने क्या-क्या. कीमती साडिय़ां भी थीं. एक छोटा बॉक्स भी था उसमें. उसने डरते-डरते उस बॉक्स को खोला. उसमें से चमचमाते हुए व्रत, त्योहार, रीति-रिवाज, परंपराएं, नैतिकताएं, नियम-मर्यादाएं निकल पड़े. स्त्री ने उस बॉक्स को झट से बंद कर दिया. पोटली को समेटा. उसे बांधा और सर पर रख लिया. रास्ते भर वो मुसाफिर को तलाशती रही. जिंदगी के सफर में तबसे हर स्त्री अपने सर पर वो पोटली लिए घूमती है, एक मुसाफिर की तलाश में. जो आकर उसके बोझ को कम करे...उसका सफर और तलाश दोनों जारी है...
(13 नवम्बर को जनसंदेश टाइम्स में प्रकाशित)