Wednesday, February 5, 2025



सारा सबकुछ, कुछ नहीं बचा इतना 

इन दिनों आँखें नम रहती हैं...सबसे इनकी नमी छुपाती हूँ, गर्दन घुमाती हूँ, बातें बदलती हूँ कि कोई सिसकी कलाई थाम लेती है. फिर तन्हाई चुराती हूँ थोड़ी सी...आँखों के बाँध में फंसी नदी को खुला छोड़ती हूँ...फिर रोती हूँ...फिर और रोना आता है. जाने कैसी उदासी है...जाने कैसा मौसम मन का. कुछ समझ नहीं आता कि बस इस उदासी के सजदे में झुक जाती हूँ. ये सुख की उदासी है. सुख जब भी आते हैं अपने साथ उदास नदियाँ लेकर आते हैं.

इन दिनों ऐसे ही सुखों से घिरी हूँ कि आँखें हर वक़्त डबडब करती रहती हैं. क्या है आखिर मुझमें ऐसा? मुझे प्यार की आदत नहीं पड़ी है. सुख की आदत नहीं पड़ी शायद. जब भी प्यार, अपनेपन, सम्मान, स्नेह की बारिशें मुझे भिगोती हैं मैं उदास हो जाती हूँ. कहीं छुप जाना चाहती हूँ. सम्भलता नहीं प्रेम. भरी-भरी आँखों से प्रेमिल लोगों को देखती हूँ. सोचती हूँ इन्हें मुझमें क्या नज़र आता होगा आखिर. क्योंकर मुझे करते हैं इतना प्रेम. ये इन सबकी ही अच्छाई है, मुझमें तो ऐसा कुछ भी नहीं. और फिर आँखें छलक पड़ती हैं.

प्रेम के कारण रुलाने वालों में सबसे नया नाम जुड़ा है विनोद कुमार शुक्ल जी का.

मेरी आँखों में जो गिने चुने सपने थे, जीवन में जो गिनी चुनी ख्वाहिशें थीं उनमें से एक थी विनोद कुमार शुक्ल से मिलने की ख्वाहिश. कई बार ऐसे अवसर बने कि उनसे मिलना होता लेकिन वो अवसर बगलगीर होकर गुजरते रहे. जाने किस लम्हे की तैयारी में कितने लम्हे हमसे छूटते जाते हैं.

इस बार यात्रा की बाबत मैं वहां से लिखूंगी उस अंतिम दृश्य से जो आँखों में बसा हुआ है, फ्रीज हो गया है. रायपुर में विनोद जी के घर से विदा होने का वक़्त. उनका वो जाली के पीछे खड़े होकर स्नेहिल आँखों से हमें देखना और कहना ठीक से जाना, फिर आना. सुधा जी के गले लगना, शाश्वत का कहना मैं चलता हूँ छोड़ने. बमुश्किल उसे मनाना कि तुम रहो यहीं, हम चले जायेंगे.

जैसे नैहर से विदा होती है बिटिया कुछ ऐसी विदाई थी. गला रुंधा हुआ था. और जब तक नजर में रहीं सुधा जी तब तक विदा का हाथ हवा में तैरता रहा.

लौटते समय हम इतने खामोश थे कि हमारी ख़ामोशी के सुर में हवा का खामोश सुर भी शामिल हो गया था.


जब रायपुर जाने की योजना बनी तब हर तरफ से एक ही बात सुनने को मिली, कैसी पागल लड़की है. जब सारी दुनिया गर्मी से राहत पाने को पहाड़ों की तरफ भाग रही है ये पहाड़ छोड़कर रायपुर जा रही है. इतनी गर्मी में. मैं हर सवाल पर मुस्कुरा देती कि यह सिर्फ मैं जानती हूँ कि अपने जिस प्रिय लेखक से मुलाकात का सपना बरसों से मन में छुपा हुआ है उनसे मुलाकात से जो सुकून की ठंडक मुझे मिलने वाली है उसके आगे इस मौसमी ताप की बिसात ही क्या.

मेरे मन में विनोद जी से मिलने की इच्छा में एक संकोच, एक झिझक थी जबकि मेरी प्यारी माया आंटी के मन उत्साह का तूफ़ान था. उन्होंने खुद आनन-फानन में टिकट करायीं और साफ़ कहा, कोई ना-नुकुर नहीं, चलना है तो बस चलना है. मैं तो खुद ही जाना चाहती थी बस मुझे फ़िक्र थी उनकी कि उनके उत्साह का मेल उनकी सेहत से बना रहना भी जरूरी है. मैंने उन्हें समझाया हम फिर चल सकते हैं कभी अच्छे मौसम में. उन्होंने डपट दिया, कोई न-नुकुर नहीं, बस हम जा रहे हैं. और मैं मन में बुदबुदाई हाँ, हम जा रहे हैं.

इंदौर प्रवास के दो दिनों में खूब सारे दोस्तों से मिलना हुआ लेकिन एक मध्धम सुर लगा रहा विनोद जी पास जाने का. सबके कुछ प्लान थे, सबके पास योजनायें थीं. क्या देखना है, कहाँ जाना है, क्या खाना है, क्या खरीदना है. मेरे पास था सिर्फ इंतज़ार कि मुझे विनोद जी से मिलना है.

हालाँकि हर वक़्त वो झिझक साथ ही थी कि क्या कहूँगी मिलकर उनसे. क्या कोई सवाल करुँगी? सवाल तो कोई है नहीं मेरे पास. उन्हें अपने बारे में क्या बताउंगी. विनोद जी माया आंटी को जानते हैं. कई बरसों से. माया आंटी से मैंने कहा,'मुझसे पूछेंगे कि मैं कौन हूँ तो मैं कह दूँगी कि मैं आपका सामान उठाने आई हूँ, आपकी अस्सिटेंट.' वो हंस देतीं इस बात पर. लेकिन मैंने सच में उनसे कहा, 'आप बातें करना मैं चुपचाप सुनूंगी. मैं बस कुछ देर उनके करीब बैठना चाहती हूँ.'

ऐसी ही उहापोह के बीच हम रायपुर पहुंचे. बारिश की बौछारों ने ठंडे मौसम ने हमारा स्वागत किया. सैनिक गेस्ट हाउस की तरह भागती टैक्सी के भीतर दो प्रेमिल छवियाँ एकदम चुप थीं. विनोद जी की तमाम कवितायें साथ चल रही थीं. लेकिन उस वक़्त सबसे करीब थी उनकी कविता की ये पंक्तियाँ-

'मैं फुरसत से नहीं

उनसे एक जरूरी काम की तरह
मिलता रहूँगा।
इसे मैं अकेली आखिरी इच्छा की तरह
सबसे पहली इच्छा रखना चाहूँगा।'

('जो मेरे घर कभी नहीं आयेंगे' कविता से)

हाँ, हम एक बेहद बेहद जरूरी काम नहीं, इच्छा की तरह उनसे मिलने जा रहे थे. उनके लिए तोहफे में क्या ले जाते तो थोड़ी सी बारिश थोड़ा सा ठंडा मौसम मंगा लिया था...

सुबह वैसी ही थी जैसी उसे होना था. महकती हुई, खुशगवार. सुबह की हथेलियों पर रात की बारिशों के बोसे रखे हुए थे. भीगी हुई सुबह ने जब गाल छुए तो लगा शहर ने लाड़ किया हो जैसे. पैर जैसे थिरक रहे थे और मन उससे भी ज्यादा. मैं और माया आंटी देर रात जागते रहे, गप्प लगाते रहे, हंसी ठिठोली करते रहे. इसमें श्रुति ने भी इंट्री ली बीच में. माया आंटी के भीतर की ऊर्जा चौंकाती है बहुत. तो उस हंसी ठिठोली के बीच मैं ही पहले सो गयी. सुबह आँख खुली तो माया आंटी नहा धोकर वॉक करके आ चुकी थीं. अब बारी मेरी थी समय पर तैयार होने की.

हमने सोचा था कि एक घंटे के करीब विनोद जी के पास बैठेगे फिर देखेंगे क्या करना है. आखिर एक बुजुर्ग व्यक्ति को कितना परेशान कर सकते थे. हम वक़्त पर पहुंचना चाहते थे इसलिए वक़्त से निकल पड़े लेकिन शहर में राजनैतिक उबाल आया हुआ था. जगह-जगह सरकार के खिलाफ प्रदर्शन चल रहे थे. रास्ते बंद थे. बमुश्किल हम ढेर सारे रास्ते बदलने के बाद विनोद जी के घर पहुंचे. घर जो अब हमारा भी हो गया है. घर जिसका पता मुठ्ठियों में लिए ऐसा महसूस हो रहा था कि सुंदर मौसम का पता हो हाथों में. गली का आखिरी मकान जिसके एक तरफ मौलश्री के दो पेड़ हैं और दूसरी तरह एक आम का पेड़. घर जिसके सामने लगे पेड़ों पर बैठे पंछी बाट जोहते हैं खुशदिल लोगों की आमद की.

घर के करीब पहुँचते ही शाश्वत बाहर खड़े दिख गये. विनोद जी और सुधा जी भी बरामदे में इंतजार करते मिले. किसी को इंतजार में देखना सुखद होता है. मैं जानती थी यह इंतजार मेरा नहीं माया आंटी का था. लेकिन मैं कब माया आंटी से अलग थी. तो मैं उस इंतजार से अभिभूत थी. अभी हम अंदर जाकर बैठे ही थे कि माया आंटी को याद आया कि वो कुछ भूल आई हैं. मैं तुंरत उठी और वापस सैनिक गेस्ट हाउस का रुख किया. तब तक माया आंटी और विनोद जी बात करते रहे और मैं शहर के धरने प्रदर्शन के बीच चक्कर काटती रही. मुझे जाकर वापस आने में 40 मिनट लग गये. मैंने सोचा अभी भी 20 मिनट तो हैं मेरे पास. कुछ देर तो साथ बैठ ही पाऊँगी. उनके हस्ताक्षर लेने के लिए उन्हीं की किताब 'सबकुछ होना बचा रहेगा' मेरे पर्स में थी. और उम्मीद थी कि एक तस्वीर स्मृति के लिए तो मिल ही जायेगी. मेरी कामनाओं की लिस्ट हमेशा बहुत छोटी ही रही है. मेरे लिए इतना पर्याप्त से भी ज्यादा ही था. मैं खुश थी कि उनके साथ 20 मिनट रहूंगी.

लेकिन जब तक मैं लौटी माया आंटी ने माहौल ही बदल दिया था. मैं पहुंची, बैठी तो विनोद जी मुझे लाड़ से देख रहे थे. माया आंटी ने बताया कि मैंने इतनी देर में बता दिया है कि ‘तुम बहुत अच्छा लिखती हो, तुम्हारी किताबें आई हैं.’ जब वो ऐसा कह रही थीं विनोद जी की स्नेहिल दृष्टि मेरे चेहरे पर थी और मेरी ऑंखें एकदम पनीली. मैंने लगभग रुआंसी होकर कहा, 'आपने ऐसा क्यों किया आंटी.' मैं संकोच में इस कदर धंस गयी थी कि समझ में नहीं आ रहा था कहाँ जाऊं. अपने प्रिय लेखक के सम्मुख खुद को लेखक के तौर पर पटका जाना सहज नहीं था. इस लम्हे की तो मेरी तैयारी ही नहीं थी. मैं अपनी ख़ामोशी और संकोच में सिमट गयी थी कि तभी शाश्वत ने कहा, 'आपने फोन पर बात की थी न एक बार मुक्तिबोध के बारे में' मैंने हाँ, में सर हिलाया.

विनोद जी मेरा संकोच समझ गये थे शायद. उन्होंने पास आने को कहा, पास बैठने को. मैं उनके करीब तो बैठना चाहती थी लेकिन उनके बराबर नहीं सो उनके पास फर्श पर मैंने अपने बैठने की सही जगह ढूंढ ली. विनोद जी ने कहा, 'अपनी किताबें लायी हो?'







मैंने नहीं में सर हिलाया और लगभग रो पड़ी. बस इतना ही कह पायी कि ‘अपने प्रिय और इतने वरिष्ठ लेखक के सम्मुख खुद को लेखक के तौर पर लाने की तो मेरी हिम्मत ही नहीं. मैं तो एक विद्यार्थी की तरह आई हूँ. पास बैठूंगी कुछ देर तो यकीनन बहुत कुछ सीखूंगी आपसे.’ यह कहते हुए मेरा स्वर इतना भीगा हुआ था कि शब्द शायद साफ़ नहीं निकल रहे थे. उधर माया आंटी अपने पर्स में मेरी किताब ढूंढ रही थीं और मैं सोच रही थी कि काश न मिले. और वो नहीं मिली. शाश्वत भी समझ गये थे मेरा संकोच. उन्होंने कहा, 'अरे ऐसा क्यों कह रही हैं. यहाँ तो कितने लोग आते हैं किताबें लेकर. देकर जाते हैं.' मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं था बस एक चुप थी.

भावुकता बुरी शय है यह सब बहा ले जाती है. लेकिन अगर भावुकता को सहेजने वाला करीब हो तो यह बहुत खूबसूरत हो उठती है, इसके साए में लम्हे महकने लगते हैं. विनोद जी की कोमलता का सुर मेरे संकोच और झिझक के सुर के संग लग गया था. वो मुझे सहज करने का प्रयास करने लगे. ऐसा करते हुए वो लगातार मुस्कुरा रहे थे. उन्होंने पास बिठाकर कहा, ‘पूछो क्या पूछना है, क्या बात करनी है.’ शाश्वत से उन्होंने ही कहा, रिकॉर्ड करने को. उधर

माया आंटी भी कैमरा तैयार कर चुकी थीं उस बातचीत को रिकॉर्ड करने की जिसकी न मेरे पास कोई योजना थी न तैयारी. मेरे पास कोई सवाल नहीं थे तो मैंने उनसे मुक्तिबोध के बारे में पूछा कि विनोद जी मुक्तिबोध से पहली बार कब मिले थे कैसी थी वो मुलाकात. (वह बातचीत रिकॉर्डेड है जिसे इत्मिनान से पाठकों के सम्मुख लाया जाएगा.)

मैंने उनसे पूछा था अपने मन की दुविधा के बारे में कि जब आप अपने प्रिय लेखक से मिलते थे तो आप उनसे क्या पूछते थे, आपको कैसा लगता था? उन्होंने कहा, बिलकुल वैसा ही जैसा अभी तुम्हें लग रहा है. मैं उनसे एक प्रश्नचिन्ह की तरह मिलता था बिना प्रश्न के.

मैंने इस बात को इस तरह समझा कि जानने की ढेर उत्सुकता लेकिन बिना किसी सवाल के.

मैंने ज़िन्दगी से जो सीखा या जाना है वो यह कि सवाल पूछकर हमें तयशुदा जवाब मिल जाते हैं लेकिन सवाल न पूछकर, संवाद करके हमें उन सवालों के पार जानने का अवसर मिलता है. इसलिए मैं सवाल करने से बचती हूँ, बात करने को उत्सुक होती हूँ. और अभी तक की यात्रा में इसने मेरा काफी साथ दिया है.
उनके साथ हुई बातचीत में जिक्र आया मानव कौल का. उनकी और मानव की उस आत्मीय तस्वीर का. रिल्के और मारीना का. डा वरयाम सिंह जी का, नरेश सक्सेना जी का, नामवर सिंह जी का. यह बातचीत बहुत आत्मीय हो चली थी.

मैं उन्हें बार-बार कह रही थी कि आप थक गए होंगे आराम कर लीजिये लेकिन उन्होंने कहा कि उन्हें बात करना अच्छा लग रहा है. मुझे शिवानी जी से हुई वह मुलाकात याद आई जब बमुश्किल उनसे मिलने का थोड़ा सा वक़्त मिला था क्योंकि वो लम्बे समय से बीमार चल रही थीं लेकिन जब उनसे मुलाकात हुई तो घंटों बात हुई. मुझे ही उन्हें बार-बार रोकना पड़ा था कि आप थक जायेंगी और वो कहतीं 'बड़े दिन बाद किसी से बात करना अच्छा लग रहा है.' इस मुलाकात में उस मुलाकात की स्मृति घुल गयी थी. घुल गयी थी वरयाम जी की वो मीठी डांट जिसमें मेरे लिए फ़िक्र हुआ करती थी.



सोचती हूँ तो रोयें खड़े हो जाते हैं, आखें भीग जाती हैं ऐसा क्या है मुझमें आखिर, कितना लाड़ मिला मुझे इन सबका. शहरयार, निदा फाजली, नीरज, गुलज़ार, जगजीत सिंह...कितने नाम...कितना स्नेह. ये सब लोग मेरे लिए लोग नहीं स्नेह का दरिया हैं. शायद इसी स्नेह ने मुझे संवारा है. मुझमें जो कुछ अच्छा है (अगर है तो) उसमें इन सबका योगदान है. यकीनन.

मेरे हिस्से के 20 मिनट कबके फुर्रर हो चुके थे. मैं रसोई पर काबिज हो चुकी थी. पहले चाय फिर खाने की तैयारी में. विनोद जी खुश थे. उन्होंने सर पर हाथ फेरकर कहा, 'माया जी के आने की ख़बर से लग रहा था कि कोई उत्सव आ रहा है घर में, कोई त्योहार. लेकिन यह नहीं जानता था कि उनके साथ एक प्यारी सी ख़ुशी भी आ रही है जिसका नाम प्रतिभा है. तुम घर की बिटिया हो गयी हो.' मेरी आँखें फिर डबडब करने लगीं.

सारा दिन मेरी आँखें डबडब करती रहीं. यकीन नहीं आ रहा था कि मैं विनोद जी की रसोई सम्भाल रही थी, उनके लिए रोटी बनाना, थाली लगाना, उन्हें परोसकर खाना खिलाना यह सब मेरे हिस्से के सुख थे. मेरे हिस्से के बचे हुए 20 मिनट मुंह बनाये खड़े थे और विनोद जी के साथ बिताया जा रहा एक पूरा दिन उन बीस मिनट को मुंह चिढ़ा रहा था.




मैं भूल ही नहीं पा रही कि किस तरह वो सारे सुख मेरे नाम कर देना चाहते थे. कि सब कुछ मैं खा लूं, सब कुछ ले लूं उनसे. जितनी देर में मैं रोटियां बना रही थी वो अपनी किताब पर मेरे लिए स्नेह की बारिश कर रहे थे,

आत्मीय प्रतिभा कटियार
जो इस घर की बेटी है
को सारा सब कुछ
कुछ नहीं बचा इतना
आशीर्वाद...

फिर उन्होंने इस लिखे को रिकॉर्ड भी किया मेरे लिए. तस्वीर खींचते समय उन्होंने कहा, देखो सब लोग मुस्कुरा रहे हों...



इस पूरी मुलाकात में सुधा जी का जिक्र बेहद जरूरी है कि उनकी प्रेमिल हथेलियों की गर्माहट साथ लिए आई हूँ, शाश्वत की सादगी और सरलता की छवि कभी नहीं बिसरेगी मन से.

कबिरा सोई पीर है- पहला उपन्यास



वसंत हाथ थामे साथ चल रहा है। सचमुच। ट्रेन में हूँ, देहरादून लौट रही हूँ। पूरे रास्ते सरसों के खेतों की बहार छाई हुई है। बहार को देखते हुए अपने दिल की धड़कनों से कहती हूँ, जरा आहिस्ता चलो, दोस्तों से एक ख़बर साझा करनी है। कि मेरा पहला उपन्यास 'कबिरा सोई पीर है' लोकभारती प्रकाशन से प्रकाशित होकर आ गया है। आज यानि 3 फरवरी से पुस्तक मेले में राजकमल प्रकाशन समूह के स्टॉल पर उपलब्ध है।

मनोज पांडेय का शुक्रिया उन्होंने मेरे लिखे को सुंदर ढंग से सहेज दिया है। अशोक भौमिक मेरे प्रिय हैं, उनका चित्र आवरण पर होना सम्मान की बात है।

प्रियदर्शन जी ने उपन्यास पढ़कर जब मुझे फोन किया था, मुझे लगा जैसे मेरा रिजल्ट आने वाला है। लेकिन जब उन्होंने कहा, 'यह उपन्यास एक सांस में पढ़ा जाने वाला उपन्यास है’ तो काफी देर लगी इस बात को जज़्ब कर पाने में। फिर उन्होंने इसी बात को ब्लर्ब में कुछ इस तरह लिखा, ‘इसमें संदेह नहीं कि यह उपन्यास एक सांस में पढ़ा जा सकता है, लेकिन उसके बाद जिस गहरी और लंबी सांस की ज़रूरत पड़ती है, वह कहीं हलक में अटकी रह जाती है। कई किरदारों और स्थितियों के बीच रचा गया यह उपन्यास हमारे समय की एक बड़ी विडंबना पर उंगली रखता है।‘
बहरहाल, पहला उपन्यास है। और पहले का एहसास कितना अलग होता है, आप सब जानते ही हैं। उम्मीद है जैसे आप सबने अब तक मेरे लिखे को स्नेह दिया है, इस उपन्यास को भी देंगे।
तो, ‘कबिरा सोई पीर है’ अब आपके हवाले है...

Sunday, January 12, 2025

टर्मिनल 3


झारखण्ड से लौट आई हूँ। पूरे 18 घंटे की बेसुध नींद के बाद उठी हूँ तो मन एकदम निर्मल है। हालांकि वापसी में हिन्दी वाला खूबसूरत सफर अँग्रेजी वाले suffer से एक्सचेंज हो जाने के कारण मन थोड़ा कसैला तो था, लेकिन इस जाग में मुझे जो याद है वो पल भर को मेरी पनीली आँखों और थकान में झाँकती उस लड़की की आँखें हैं जिसमें सफर की असुविधा को समझ पाने की और कुछ न कर पाने की निरीहता थी, चलते वक़्त हथेलियों को थामकर कहे वो शब्द थे, 'सॉरी मैम, हम कुछ कर नही पाए ठीक से, आप अपना खयाल रखिएगा।' उस एक पल में मेरा तमाम आक्रोश, सारी असुविधा और थकान मानो ठहर गए थे।

तो किस्सा जरा सा है,राँची से ही फ्लाइट 2 घंटे लेट हो गयी, कारण तकनीकी था। दिल्ली से देहरादून की कनेक्टिंग फ्लाइट थी। सिर्फ 7 मिनट की देरी से वो फ्लाइट मिस हो गयी। हालांकि महान एयर इंडिया का स्टाफ रांची से बेवकूफ बनाने, गैर जिम्मेदार बातें करने और अपनी ज़िम्मेदारी दूसरे पर फेंक देने जैसा व्यवहार कर रहा था। दिल्ली में भी स्टाफ के बेहद खराब व्यवहार और बदइंतजामी के चलते फ्लाइट छूट गयी, जैसे उन्हें इसकी कोई परवाह नहीं, आप जाइए भाड़ में।

इसके बाद इस काउंटर से उस काउंटर, इस ऑफिसर से उस ऑफिसर के बीच झुँझलाते, धक्के खाते टर्मिनल 3 मेरी कहानी का दर्शक बना रहा। बेहद खराब व्यवहार, बेहद खराब व्यवस्था, और बेहद ढीली प्रक्रिया के चलते 1.50 बजे की फ्लाइट मिस होने के बाद मुझे अगले दिन की फ्लाइट का टिकट नसीब हुआ शाम 5 बजे और रहने की व्यवस्था हुई रात 9 बजे वो भी गुड़गाँव के किसी बेहद थके हुए होटल में, जो लगभग धर्मशाला जैसा था। हमें किससे कांटेक्ट करना है हमारे पास कोई नंबर नहीं किसी का। मांगने पर ऐसी झिड़क, कि पूछिये मत। कहा गया कि सुबह आपके पिकअप के लिए कैब भेजी जाएगी। जानते हैं, उस पिकअप कैब के डिटेल्स कब आए? मैं देहरादून पहुँच चुकी थी तब।

कनेक्टिंग फ्लाइट के चलते मेरा सामान भी कहीं गुमशुदा था, जिसकी तलाश में सुबह 3.30 बजे से 5 बजे तक इस काउंटर से उस काउंटर के धक्के खाने का काम शुरू हुआ। और अंत में वो मिला। शुक्र ये रहा कि इस बार फ्लाइट लेट नहीं हुई और देहरादून पहुँच गयी। अब यहाँ जो बैग मिला वो टूटा हुआ था। फिर उसकी कम्पलेन का खेल शुरू हुआ। हालांकि देहरादून का स्टाफ सहयोग भी कर रहा था और विनम्र भी था।

मैं यह पोस्ट क्यों लिख रही हूँ, जबकि एयर इंडिया की शिकायत हर सही जगह पर की जा चुकी है। मैं यह पोस्ट लिख रही हूँ मानवीय संवेदना की जानिब से। हम किसी भी काम पर हैं, कहीं भी हैं, हमारा व्यवहार कितनी सारी मुश्किलों को कम कर सकता है। इस पूरी प्रक्रिया में मैंने कई बुजुर्गों को, परिवारों को, छात्रो को इसी तरह परेशान होते देखा। फ्लाइट कैंसिल होना, मिस होना, यह आम बात होगी एयरलाइंस वालों के लिए लेकिन उस व्यक्ति के मन को कौन समझेगा जो किस योजना से कहीं के लिए निकला है। एक बुजुर्ग महिला व्हील चेयर के लिए 4 घंटे से इंतज़ार कर रही थीं। एक बच्ची पहली बार अकेले सफर पर निकली थी पढ़ने के लिए जा रही थी, एक अंकल जो बीमार थे, उन्हें घर पहुँचना था और एक स्टाफ था जो ठीक से बात तक नहीं कर रहा था। दूसरी टिकट कराने और बेकार से होटल में रुकने के इंतजाम को किसी एहसान की तरह दिखाने वाले व्यवहार के खिलाफ मन में ज्यादा गुस्सा था। फिर लगा हमारी इंसानी तरबियत होने में अभी बहुत वक़्त लगेगा। इसका कोई कैप्सूल नहीं, कोई ट्रेनिंग इसे सिखा नहीं सकती। 'हमारी एयरलाइन में आपका स्वागत है, नमस्ते...आपकी यात्रा शुभ हो, आशा है आप हमारी एयरलाइन में फिर से यात्रा करेंगे, आपका दिन शुभ हो ' जैसे नाटकीय वाक्यों में संवेदना कहीं नहीं।
 
संवेदना थी उस बच्ची की आँखों में जिसने कैब में बिठाते हुए मेरी हथेलियाँ थामी थीं। और बस आज की सुबह में उसी हथेलियों की नरमी सिमटी हुई है, वही उम्मीद है। वो ड्यूटी पर तैनात सहेज नहीं थी, इंसानी संवेदना थी...

हाँ, मैं बेहद आशान्वित रहती हूँ हर हाल में, और देखिये न टर्मिनल 3 पर लिखी गयी इस अङ्ग्रेज़ी वाले Suffer की इस कहानी में भी एक आशा तो मुझे मिल ही गयी। 

चित्रा सिंह इस सुबह में गुनगुना रही हैं, सफर में धूप तो होगी, जो चल सको तो चलो...और मैं मुस्कुरा रही हूँ। जीवन के सफर का हाल भी तो कुछ ऐसा ही है न। 

आपकी यात्रा शुभ हो...

Sunday, November 17, 2024

It begins with self


जीवन इतना खूबसूरत है कि तमाम मुश्किलों के बावजूद इसका आकर्षण खींचता है। खुश होने की इच्छा, सुंदर जीवन की अभिलाषा बार-बार ज़िंदगी को नए सिरे से सँवारने की, फिर-फिर कोशिश करने की ताक़त भी देती है और सलाहियत भी। लेकिन इस कोशिश का नाम सहना नहीं है।

सहने के खिलाफ खड़े होना व्यक्ति के प्रति आक्रोश नहीं है बल्कि वह समझ है जिसमें आत्मसम्मान के फूल खिलते हैं। समझ जो दृष्टि देती है कि परिवार या शादी ही नहीं किसी भी रिश्ते को बचाने में अगर आत्मसम्मान दांव पर लग रहा है तो फैसला लेने का समय आ चुका है।

It Ends with Us पिछले हफ्ते देखी। तब से फिल्म साथ चल रही है, और साथ चल रही हैं न जाने कितनी बातें। आसपास बेवजह रिश्तों को घसीटती स्त्रियों की कहानियाँ। फिल्म पर काफी कुछ लिखा जा चुका है, कहा जा चुका है, दोहराने की मेरी कोई इच्छा भी नहीं सिवाय इतना कहने के फिल्म जरूर देखनी चाहिए।
फिल्म के बहाने मेरे भीतर जो हलचल है यह बात उसी के बारे में है। फिल्म की नायिका का अपनी माँ से पूछना, 'तुमने सहना बंद क्यों नहीं किया'।

फिल्म की नायिका का अपने पति (जो उसे पीटता है) से यह पूछना, 'अगर तुम्हारी बेटी का बॉयफ्रेंड या पति उसे पीटेगा तो तुम उससे क्या कहोगे' और नायक का पूरी ईमानदारी से यह कहना कि वो कहेगा कि, 'उसे छोड़ दो' कहानी की सघनता को सुंदर ढंग से दिखाता है।

नायक का यह कहना कि 'मैं अब वो सब कभी नहीं करूंगा, मैं अपना इलाज कराऊँगा' यह स्वीकारोक्ति फिल्म के अंत की दिशा बदलने की तैयारी सरीखी लगती है। लेकिन लिली जो फिल्म की नायिका है उसके ज़ेहनी स्पष्टता कितनी सहूलियत से अपना रास्ता चुनती है। यह फिल्म की ताक़त है। बिना किसी लाउडनेस के, बिना कोई चीखमचिल्ली के फिल्म का अंत किसी रोशनी सा खुलता है।

वह एक रिश्ते से निकलकर दूसरे रिश्ते में जाने की गलती नहीं करती, वक़्त लेती है, अपने वक़्त को अपने हाथ में थामती है। सूरज उसका माथा सहलाता है। मैं जानबूझकर एटलस के किरदार की बात नहीं कर रही क्योंकि मैं मानती हूँ कि एटलस जैसे सुंदर और यूटोपियन किरदार के बगैर भी लिली का फैसला यही होता और होना चाहिए।
हमारे आसपास जो तमाम लिली मुरझा रही हैं, जो फैसला नहीं ले पा रही हैं। जिनसे साथ सहा भी नहीं जा रहा लेकिन छोड़ भी नहीं पा रही हैं, यह उनके बारे में है। मानो लिली उन सबसे कह रही हो, खुद पर भरोसा करो और उठो। क्योंकि कुछ फैसले जो लगते तो व्यक्तिगत हैं लेकिन वो पीढ़ियों के लिए जरूरी होते हैं। शारीरिक हिंसा तो सिर्फ एक वजह है जो दिखती है, ज़्यादातर वजहें तो दिखती भी नहीं है लेकिन जिनकी मार हर दिन झेलनी होती है, और क्या अलग होना ही अंतिम फैसला है, यह सब व्यक्ति का खुद का निर्णय है। लेकिन आत्मसम्मान जब लगातार रिस रहा हो, रिश्ते में खुद के होने न होने पर रोज सवाल उठ रहा हो तो सोचना तो चाहिए। फैसलों के बाद का रास्ता आसान तो नहीं होता लेकिन रोशनी से भरा होता है इतना तो जरूर है। फिल्म की नायिका उसी रास्ते को दिखाती है।

बच्चों की खातिर जुड़े रहने की तरक़ीब सिखाने वाले चालाक समाज को अब ये बताना होगा कि जिस बच्चे को ढाल बनाकर शादी संस्था को बचा रहे हो उसमें बच्चे भी घुटन के शिकार हैं और आगे चलकर वे उलझे हुए व्यक्ति के रूप में बड़े होते हैं और समाज को कुछ नई किस्म की उलझनें ही देते हैं।

फिल्म का नाम है It Ends With Us लेकिन असल में यह फिल्म कहती है It begins with self.

Saturday, November 9, 2024

मेयअड़गन यानि सत्य की सुंदरता


जैसे जी भर के रो चुकी लड़की के कांधे पर गिरा हो हरसिंगार का एक फूल एकदम बेआवाज़, महक से सराबोर। जैसे खाली पड़े कैनवास पर किसी बच्चे ने रंग उड़ेल दिये हों और कैनवास भर उठा हो उम्मीद की ख़ुशबू से। जैसे तेज़ धूप में नंगे पाँव चलते पैरों से कोई नदी लिपट गयी हो। जैसे निराश मन ने जलाया हो आस्था का एक दिया और ज़िंदगी में उजास फूट पड़ा हो...

मेयअड़गन...(शायद ऐसे ही लिखते होंगे) देखना खुद की हथेलियों में अपना चेहरा रखकर जी भर के रो लेना है। जीवन कितना सादा है, कितना सहज, कितना खूबसूरत। और हम न जाने किन चीजों में उलझे हैं। बाद मुद्दत किसी फिल्म को देखते हुए खूब रोई हूँ, बार-बार रोएँ खड़े हुए हैं। अरविंद तो लाजवाब हैं ही, कार्थी भी कमाल के हैं। फिल्म का विषय, उसका ट्रीटमेंट सबकुछ जैसे स्क्रीन पर लिखी गयी प्रेम कविता हो।
 
छोटी से छोटी चीजों की ऐसी प्यारी डिटेलिंग है कि आसपास पड़ी ज़िंदगी जो हमसे छूटी ही रह जाती है, उसे उठाकर गले लगाने का जी कर उठता है। अगर कोई आप पर भरोसा करता है, निस्वार्थ प्यार करता है, आप बदलने लगते हैं। मैं इस फिल्म के प्यार में हूँ, फिर फिर देखूँगी, सबको देखनी चाहिए। चुप रहकर देखनी चाहिए।
मेयअड़गन तमिल फिल्म है जिसका हिन्दी में अर्थ होता है 'सत्य की सुंदरता'।