Friday, April 26, 2024

बात कुछ बन ही गयी

नींद वक़्त से पहले ही आ चुकी थी। हालांकि इन दिनों नींद से मेरे रिश्ते अच्छे नहीं चल रहे हैं फिर भी सफर में मोहतरमा मेहरबान रहीं। मैंने आँख भर शीशे के बाहर टिमटिमाते कसौली को देखा और खरगोश की तरह नींद की चादर में दुबक गयी। 

सुबह उठी तो मौसम बदला सा लगा। एक खुशमिजाजी तारी थी मौसम पर। कुछ शरारत भी। मुस्कुराकर मैंने सुबह को 'हैलो' कहा और लैपटॉप खोलकर बालकनी में कुछ लिखने बैठ गयी। सुबह ने हाथ पकड़कर कमरे से बाहर खींच लिया। मैं सुबह का हाथ थाम कसौली में मटरगश्ती करने निकली। मैंने महसूस किया ये कोई और मैं हूँ। बेफिक्र, शरारती, अल्हड़ और मस्तीखोर। सचमुच शहर छोड़ने से सिर्फ शहर नहीं छूटता चिंताएँ भी छूटती हैं। थोड़े से बोझिल वाले हम भी छूट जाते हैं, एक अनमनापन भी छूटता है। 

होटल की चाय कुछ खास थी नहीं तो सोचा कि किसी टपरी में चाय सुड़की जाएगी। कमरे की बालकनी से जो खेत और जंगल दिख रहे थे उनकी चाह ऐसी हुई कि रास्तों के भीतर रास्तों में घुसते हुए वहाँ जा पहुंची। नयी जगह जाने पर हर अगले पल क्या होगा, कौन सा रास्ता खुलेगा, कौन सा बंद मिलेगा सब किसी रहस्य सा होता है। ये रास्ते कई बार लगा कि लोगों के घर से होकर गुजर रहे हैं। कहीं किसी चूल्हे पर बनती रोटी की खुशबू मिलती कहीं कुकर में उबलते आलू पुकारते। मैं चलती ही जा रही थी। इस बीच बादलों ने भी मटरगश्ती शुरू की और मैंने जंगल और खेतों के ठीक बीच में खुद को भीगते हुए पाया। सच कहती हूँ, देवयानी की ज़ोर से हुड़क लगी, हमारे उत्तराखंड में इसे खुद लगना कहते हैं। हिमाचल में क्या कहते होंगे नहीं जानती। देवयानी का कहा हर शहर में साथ चलता है कि ये लड़की अपनी बारिशें, अपने मौसम साथ लेकर चलती है। मैंने चेहरा ऊपर किया और बाहें फैला दीं। पहाड़ों की बारिशें किसी आशीर्वाद सी लगती हैं जो मन की सारी धुंध को दूर कर दें। मैंने मुस्कुराकर कसौली के मौसम का शुक्रिया अदा किया और बारिश से कहा, 'लौट जाओ प्रिये कि खेतों में अभी पका हुआ गेहूं खड़ा है।' बारिश समझदार थी, सर पर हाथ फेरने ही आई थी जैसे। मुझे बाहों में समेटकर, माथा सहला कर चली गयी। 

अब भीगने के बाद वाली सड़कें, पेड़, पंछी मेरे साथ थे। दूर तक जाती लंबी सड़क पर खुद को रख दिया और कुछ ही देर में खुद को बौराता हुआ पाया। नहीं जानती थी कि ऐसी किसी सुबह का मुझे इस कदर इंतज़ार था। इस पूरी यात्रा में यह बौराहट बढ़ती ही गयी जिसके किस्से आगे भी खूब मिलेंगे। 

ध्यान ही नहीं रहा कि कितनी दूर निकल आई हूँ। दूर निकलने ही तो आई हूँ सोचकर सड़क के किनारे एक पत्थर पर कुछ देर बैठ गयी और चिड़ियों का खेल देखने लगी। थोड़ी देर उन्हें ताकते रहने के बाद लगा असल में वो सब मिलकर मुझे देख रही हैं। वो मुझे देखकर क्या सोच रही होंगी, आपस में क्या बतिया रही होंगी मैंने मन ही मन सोचा और हंस दी। चाय की तलब बढ़ गयी। अब तक जितनी भी दुकानें व गुमटियां मिलीं सब बंद मिलीं थीं तो सोचा चाय मुश्किल है मिलना कि ठीक उसी वक़्त थोड़ा और आगे बढ़ने पर एक छोटी सी दुकान खुलती नज़र आई। मैंने दो चाय ली और जंगल के भीतर समा गयी। अपने भीतर के जंगल से निकलकर कसौली के रास्ते के किनारों पर सजे जंगलों में। जिस चाय में शहर की मोहब्बत घुली हो सुबह की खुशबू उससे ज्यादा अच्छी चाय भला कहाँ मिल सकती है। 

इस शहर को मैंने एक दिन का ठिकाना बनाया था। मुझे कहीं जाना नहीं था, कहीं पहुँचना भी नहीं था बस होना था उन लम्हों में, उन पलों में खुद के साथ। और बीती शाम ही समझ आ गया था कि वो सुर तो लग चुका है. पहले भी कई बार हिमाचल आई हूँ लेकिन मेरा रिश्ता बन नहीं पा रहा था हिमाचल के साथ। टूरिस्ट की तरह जगहें घूमकर लौट जाती रही। सारा दोष मेरा भी तो नहीं रहा होगा, मैंने टेढ़ी आँखों से हिमाचल की तरफ देखते हुए कहा। उसने कहा, 'घूमने आओगी, तो घुमा देंगे और दोस्ती करने आओगी तो गले से लगा लेंगे।' समझ गयी, गलती मेरी ही थी। इस बार घूमने नहीं आई थी हिमाचल के साथ दोस्ती करने, रिश्ता बनाने आई थी। एक और मौका देने खुद को भी और हिमाचल को भी। बात कुछ बन ही गयी सी लग रही थी। 

धूप बिखरी तो सिमटा जरा बिखरा हुआ मन। लौटकर कमरे में लेटे हुए घंटों राग मालकोश सुनती रही। कितना अरसा हुआ ऐसे संगीत और प्रकृति की सोहबत में हुए। पनीली आँखों में कई ख़्वाब उगने लगे थे...चायल की पुकार कानों में घुल रही थी। मैंने कहा, 'ठहरो भी, आती हूँ न तुम्हारे पास। इतनी भी क्या बेसब्री'। तेज़ हवा के झोंके ने बताया कि पैगाम पहुँच चुका है और जनाब चायल इंतज़ार में हैं....

जारी...

Wednesday, April 24, 2024

कसौली की खुशबू ने थाम लिया था...


कसौली के उस छोटे से चर्च में बैठकर जैसे ही आँखें मूँदीं, एक रुकी हुई लंबी सिसकी का एक सिरा खुल गया था। आँखें बंद करने से डरती हूँ इन दिनों कि आँखें बंद होते ही न जाने क्या-क्या नज़र आने लगता है। वो सब जो बीत चुका है फिर-फिर सामने उतराने लगता है। जैसे कोई सिनेमा की रील चल पड़ी हो। लेकिन कसौली के इस चर्च में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। बस बंद आँखों को खोलने का जी नहीं किया, पलकों से बहती लकीरों को समेटने की इच्छा नहीं हुई।

कसौली का वह छोटा सा चर्च किसी पुरानी फिल्म के किसी दृश्य जैसा लग रहा था।कुछ ही लोग थे वहाँ। ज़्यादातर युवा। उनकी मुस्कुराहटें एक-दूसरे को इस कदर थामे हुए थीं, जैसे नेक लोगों ने थामा हुआ दुनिया को। वो मोमबत्तियाँ जला रहे थे, एक-दूसरे की आँखों में झांक रहे थे, ब्लश कर रहे थे। जरूर वो अपने ही किसी रूमानी ख़्वाब में रहे होंगे। चर्च का उदास माहौल इन युवा जोड़ों की उपस्थिती से एकदम रूमानी हो उठा था। उन्होंने एक लम्हे को भी एक-दूसरे का थाम नहीं छोड़ा था। मैं कुछ देर चर्च की सामने वाली बेंच पर बैठी और सामने लगी ईसा  की मूरत को देखती रही।

इस दुनिया को सुंदर बनाने के लिए कितनी कम मेहनत करनी होती है। बस ये जैसी है, उसे वैसी ही बने ही तो रहने देना है। इतना ही तो। लेकिन दुनियादार लोगों ने ठीकरा उठाया और सुंदर सी दुनिया की काँट-छाँट शुरू कर दी। भीतर कोई रोशनी उग रही थी बाहर सूरज ढल रहा था।

ढलते सूरज की तस्वीर लेते हुए मुझे मानस की याद आई। जाने किस शहर में होगा। घुमक्कड़ ही तो है वो। सोचा उसे बताऊँ कि कसौली मे हूँ। खुश होगा। महीनों, कभी-कभी सालों भी बात न होने के बावजूद मानस हमेशा करीब महसूस होता है। शायद इसलिए कि मैं सोचूँ पत्ती तो वो जंगल की बात करे ऐसा रिश्ता है हमारा।

लेकिन मैंने फोन नहीं किया। इस न करने में इतना कुछ गुंथा हुआ है। कितना कुछ बचा लेना है। बात करो तो कितना सारा बोलना पड़ता है।

खुद के लिए एक क्रॉस खरीदा गले में पहनने को और बाहर आकर चर्च की सीढ़ियों पर बैठकर जाते हुए सूरज को देखने लगी। आसपास कुछ लोग थे लेकिन वो शांति को भंग नहीं कर रहे थे।

घर से निकलने से पहले कितने ही ऊहापोह थे, कितनी आनाकानियां। इस पल में वो सब औंधी पढ़ी थीं। मैंने अपनी कलाई को थामा और मुस्कुरा दी।

वहाँ आसपास के लोगों को देखकर सोचने लगी इनके भीतर क्या चल रहा होगा। इन मुस्कुराते चेहरों के पीछे क्या पता कोई उदास हो। क्या मेरी मुस्कुराहटों के भीतर कोई उतर पाया होगा, रंगीन, खूबसूरत तस्वीरों, मुस्कुराहटों और गुनगुनाहटों से जब मैं खुद को ही भरमा रही हूँ तो किसी और का क्या ही कहना।

हम अपने निज में किस कदर कैद हैं...पिछले दिनों यह बात और ज्यादा समझ आई। पहले भी गाज़ा की तस्वीरें देखकर उदास होती थी, किसानों की फसल बर्बाद होने के दर्द को समझती थी, जब कभी किसी भी वजह से किसी के घर टूटने की तस्वीरें देखती थी फफक उठती थी कि बचपन में ही अपना घर टूटते देखना शायद इसका कारण हो। किसान परिवार से ताल्लुक रखना शायद इसका कारण हो कि हर मौसम की बरसात से खुश नहीं होता मन, फसल का खयाल आता है सबसे पहले। लेकिन पिछले दिनों यह सब महसूस होना अपनी सघनता के साथ और करीब आया।

हर रात मेरी आँखों के आगे बेघर हुए लोग, टूटते घर, बिखरते लोग, उदास चेहरे तैरते। अपनी उदासी बौनी लगती इन सबके आगे। 'घर' शब्द को नए ढंग से समझना शुरू किया है फिर से और पाया है कि कसौली के उस छोटे से कमरे में जहां चिड़िया फुदककर बेधड़क कमरे में आ जाया करती थी, कितना सुंदर घर था वो। 

वो हाथ जो मेरे कांधे पर था जिसकी छुअन में हौसला था, वो माथे पर रखा गया चुंबन जिसने कहा था, 'प्यार है' वो आँखें जिन्होंने अपनेपन के कितने ही अर्थ खोले वो सब घर हैं। अलग-अलग शहर में रहने वाले दोस्त याद आए, नहीं घर याद आए।


ओवरथिंकिंग के दलदल में घुसी ही थी कि देवदार मुस्कुराए, हाथ पकड़कर उन्होंने उठाया और पूछा, 'जलेबी खाओगी'। मैं कसौली के उस छोटे से बाजार में जलेबी की तलाश में निकल पड़ी। अजब सी खुशबू थी यहाँ की जलेबी की मिठास में। शायद शहर की खुशबू होगी। 

जलेबी की मिठास लिए मैं इस शहर के हर कोने में घूमती रही, भटकती रही। शांति के फूल मेरे बालों में कब टंके पता ही नहीं चला। अकेले यूं किसी शहर में घूमना कितना सुखद होता है इसे दर्ज नहीं किया जा सकता बस महसूस किया जा सकता है।

चलते-चलते एक कप चाय की ख्वाहिश हुई...रात करीब सरक आई थी...

जारी....

Monday, April 22, 2024

हाँ, हम फिर तैयार हैं

पुराने घर की अंतिम मुसकुराती हुई तस्वीर 

आग का क्या है पल दो पल में लगती है
बुझते-बुझते एक जमाना लगता है....

जाने कितनी बार सुनी यह गज़ल इन दिनों ज़िंदगी का सबक बनी हुई है। अब जब मन थोड़ा संभल रहा है तो इस बारे में लिखना जरूरी लग रहा है। घटना जनवरी के किसी दिन की है। संक्षेप में इतना ही कि सुबह हमेशा की तरह सब ठीक-ठाक छोड़कर, पौधों को पानी देकर, बिस्तर और सोफ़ों के कवर की सलवटों को एकदम दुरुस्त करके, हर चीज़ को करीने से सहेज कर घर से दफ़तर के लिए निकली। यह हमेशा की आदत है। जबसे अकेले रहती हूँ यह आदत बढ़ गयी है। कि वापस लौटूँ तो घर मुस्कुराते हुए स्वागत करे और उसकी बाहों में गिरकर दिन भर की थकान गायब हो जाय। 

उस रोज सारे दिन कुछ ज्यादा ही मन लगाकर दफ्तर के सारे काम निपटाए, कुछ पेंडिंग काम भी। रोज के टाइम पर घर लौटी, दरवाजा खोला...और देखा कि मेरी दुनिया तबाह हो चुकी है। पूरा घर काले धुएँ के गुबार में घिरा हुआ, लपटों में घिरा हुआ। इस बारे में ज्यादा बात नहीं करूंगी क्योंकि बातें अंतहीन हैं, बस कि यह घटना शॉर्ट सर्किट से हुई। एक छोटी सी चिंगारी ने विकराल रूप ले लिया। और एकल जीवन के वासी इस प्रदेश यानि अपार्टमेंट में आसपास कोई था ही नहीं, सब काम पर थे तो किसी को कुछ पता न चला। फायर ब्रिगेड ने आकर आग बुझा दी, कुछ बेहद नेक काम करने वालों ने उस जले हुए मलबे के ढेर को फिर से घर बना दिया भले ही महीनों का समय लगा इसमें फिर भी। दोस्तों ने इस बीच इस कदर बाहों में कसकर रखा कि जले हुए की आंच मुझ तक पहुंचे ही न। किसने रहने का इंतजाम किया, किसने कपड़ों का किसने खाने का कुछ पता नहीं। कब किसने अकाउंट में कितने पैसे भेजे कोई हिसाब नहीं। हर पल इस दुखद घटना के दुख से बड़ा अपनेपन का घेरा संभाले हुए था। अङ्ग्रेज़ी का एक शब्द होता है Gratiude इस घटना ने मुझे इस शब्द में डुबो दिया है। सच है, वो दुख ही क्या जो और विनम्र न बनाए। मन हमेशा भीगा-भीगा सा रहता है कभी दुख से, कभी सुख से।  

तीन महीने बीत चुके हैं और अब भी यह सोचते ही झुरझुरी हो जाती है कि कैसे एक ही पल में न सर पर छत थी, न कपड़े, न खाना। यानि रोटी कपड़ा और मकान सब आग ने छीन लिया। लेकिन जानते हैं इन सबसे ज्यादा बड़ी चीज़ क्या छीनती हैं ऐसी घटनाएँ, हिम्मत, हौसला, आत्मविश्वास। मुझे याद है मैं पापा से फोन पर बात करते हुए रो पड़ी थी कि 'पापा मेरा घर नहीं जल रहा मेरी हिम्मत, मेरा हौसला जला जा रहा है।' 

कारीगरों ने घर बनाने का जिम्मा लिया, दोस्तों ने हौसला बचाने का। वो एक महीना, उसका एक-एक पल एक युद्ध था। खुद टूटी हुई थी लेकिन चाहती थी माँ उस जले हुए घर को न देखें, बेटू न देखे। कि कैसे सह पाएंगे उस हँसते मुस्कुराते हुए घर को एक जले हुए मलबे के ढेर में बदले। खैर, मेरे पास सबसे पहले पहुंची देवयानी। माँ और बच्चे के सामने तो मजबूती से खड़ी थी मैं देवयानी की बाहों ने रो लेने का ठिकाना दिया।   

खैर, इस घटना को साझा करने का कारण 'सहानुभूति', 'आह ये क्या हुआ', 'बेचारी', 'हिम्मत रखो', 'सब ठीक हो जाएगा' जैसे शब्दों से बचते हुए सिर्फ इतना साझा करना है कि घर को लेकर सावधानी रखनी जरूरी है। कोई भी स्विच या, कोई अपलायन्स जरा भी दिक्कत करे तो बिलकुल इगनोर न करें क्योंकि मेरे घर में यह हादसा बंद स्विच में हुआ। हो सके तो घर से निकलते समय एमसीबी गिराकर जाये तो ठीक होगा। लाइट के अलावा गैस सिलेन्डर हमेशा नीचे से बंद करें। पड़ोसी अगर कोई है तो उसके पास एक डुप्लीकेट चाबी जरूर दें। घर का इंश्योरेंस जरूर कराएं, सामान का इंश्योरेंस भी कराएं। लेकिन जीवन है कितनी ही सावधानी बरतें कुछ भी कभी भी हो सकता है की तैयारी के लिए दोस्ती कमाएं। 

अगर आसपास कोई इस स्थिति से गुजर रहा हो तो मदद करें लेकिन जताएँ नहीं, बात करने की बजाय पास जाकर बैठ जाएँ बस। इसी तरह की घटनाओं की कहानियाँ न सुनाएँ। 'अच्छा हुआ कि कोई था नहीं घर में' 'चलो कुछ तो बच गया', या 'उसका तो इससे भी बड़ा नुकसान हुआ था' जैसी बातें कुछ सहारा नहीं देतीं। और 'सामान ही तो जला है' वाक्य का अर्थ कौन नहीं जानता। ह्यूमन लॉस के आगे यह कुछ भी नहीं, फिर भी सामान से भी एक इमोशन जुड़ा होता ही है। 

काफी सारे लोग कई तरह के कयास लगा रहे थे कि हुआ क्या, और मैं इंतज़ार में थी कि जब मन सधेगा तब कुछ कहूँगी। 

इस घटना ने एक बार फिर भीतर एक बड़ा बदलाव किया है...मैं खुद धीरे-धीरे उस बदलाव को देख पा रही हूँ। दुखी नहीं हूँ, उदास भी नहीं हूँ...जीवन मुझे फिर से मुस्कुराकर देख रहा है...और मैं भी उसे। 

चायल ने घायल मन पर कुछ फाहे रखे हैं तो कुछ कहने का मन किया। बहुत लोगों के फोन न उठा सकी, बहुतों के मैसेज का जवाब नहीं दे सकी, लेकिन सबका साथ महसूस किया है यह दिल से कह रही हूँ जानती हूँ आप सब समझते हैं। 

Friday, April 5, 2024

सब ठीक ही तो है


न जाने किस से भाग रही हूँ. न जाने कहाँ जाने को व्याकुल हूँ. हंसने की कोशिश में न जाने क्यों आँखें छलक पड़ती हैं. बात करना चाहती हूँ लेकिन चुप हो जाती हूँ. मुश्किलें किसके जीवन में नहीं भला ये जानते हुए ख़ुद को खुशक़िस्मत महसूस करती हूँ फिर भी हवा का कोई झोंका गले से लगाकर कहता है “तुम रो क्यों नहीं लेती पगली” और मैं उसका मुँह ताकती हूँ कि मैं तो ठीक हूँ न. “ठीक होने में उदास होना, रो लेना शामिल नहीं ये किसने कहा” हवा के झोंके ने सर सहलाते हुए कहा और मैं ख़ामोश हो गई. मैंने सोचा, सपने में बार-बार ट्रेन छूट जाती है, नींद के भीतर ढेर सारी जाग भरी रहती है और जाग में नींद का दखल जारी रहता है ये सब किस से कहूँ इसलिए कह देती हूँ सब ठीक है. लेकिन जिन्हें पता है उन्हें सच में सब पता ही है कि ठीक के भीतर कितना पानी है फिर भी…

Wednesday, March 6, 2024

उम्मीद




एक रोज जरा सी लापरवाही से
उम्मीद के जो बीज
हथेलियों से छिटक कर 
बिखर गए थे

सोचा न था
कि वो इस कदर उग आएंगे
और ठीक उस वक़्त थामेंगे हाथ
जब मन काआसमान
डूबा होगा घनघोर कुहासे में

डब डब करती आँखों के आगे
वादियाँ हथेलियाँ बिछा देंगी
और समेट लेंगी आँखों में भरे मोती सारे

स्मृतियों में ठहर गए गम को
कोई पंछी अपनी चोंच से
कुतरेगा धीरे-धीरे

जब कोई सिहरन वजूद को घेरेगी 
मौसम अपने दोशाले में लपेटकर
माथा चूम लेगा

उगता हुआ सूरज
मुश्किल वक़्त को मुस्कुराकर देख रहा है...