Tuesday, November 19, 2019

लाठियां चलाने वाले कौन हैं आखिर



रात भर शोर था आसपास. लाठियां चल रही थीं. लोग पिट रहे थे, लोग पीट रहे थे. लोग घायल हो रहे थे, लोग अस्पताल लेकर दौड़ रहे थे. लोग गालियाँ दे रहे थे, लोग दुआएं मांग रहे थे. सुबह आँख खुली थी पाया सपने में नहीं हकीकत ही सपने में थी. रात भर एक दृष्टिबाधित युवा हबीब जालिब की ग़ज़ल गाता रहा, तब भी जब उसे पुलिस पीट रही थी तब भी जब उसकी पसलियाँ टूट रही थीं,

ये लाठियां चलाने वाले कौन लोग हैं आखिर और किसे पीट रहे हैं. ये जिन्हें पीट रहे हैं ये अपने बच्चे हैं, इस देश का भविष्य. ये अपने हक के लिए लड़ रहे हैं. सच कहें तो ये हम सबके हक के लिए लड़ रहे हैं. फीस वृद्धि सिर्फ इनका मसला नहीं है यह उनका मसला भी है जिनके बच्चे अभी यहाँ पढने आये नहीं लेकिन आने का ख्वाब देखते हैं. हो सकता है कि लाठी भांजते पुलिसवालों के बच्चे भी यहाँ आने का ख्वाब देखते हों. और सिर्फ जेएनयू ही क्यों फीस वृद्धि का मसला तो मुसलसल हर जगह का है. हर अभिभावक का जो ज्यादा फीस के चलते तथाकथित अच्छे स्कूल में अपने बच्चों को नहीं भेज पाते.

खैर, लोग कहेंगे कि जो पीटते हैं वो सोचते नहीं वो आदेश का पालन करते हैं. मैं सचमुच जानना चाहती हूँ कि वो आदेश कैसे होते हैं. उनकी भाषा क्या होती है. क्या उसमें हिंसा, बेरहमी, क्रूरता, वीभत्स और अमानवीय व्यवहार मेंशन होता है. क्या होता है उन आदेशों में कि बेचारे पुलिस वाले मजबूरी में ऐसा क्रूर व्यवहार करने को मजबूर हो जाते हैं. अभी कुछ दिन पहले दिल्ली में ही पुलिस और वकीलों के बीच के संघर्ष का मामला भी सामने आया. वहां वकीलों ने भी ऐसा उपद्रव किया कि पुलिसवाले बेचारे नजर आये. महिला आइपीएस के संग बदतमीजी हुई. यह कौन लोग हैं आखिर. वर्दी का नशा, पावर का नशा, अपनी ही चलाने का नशा या जिन्दगी के तमाम मोर्चों पर पराजित होने की कुंठा हाथ में लाठी और पीटने का मौका.

यही भीड़ की हिंसा में होता है. कई बार दनादन पीटने वालों को, पीट पीटकर हांफ जाने वालों को पता तक नहीं होता कि उसने किसे पीटा और क्यों पीटा. इसे समाज के तौर पर, व्यक्ति के तौर पर समझने की जरूरत है कि हमारी हताशाएं, हमारी पराजय, कुंठा हमारा कैसा व्यक्तित्व रच रही हैं. यही हिंसा घरों तक पहुँचती है, पत्नी और बच्चों को पीटने में तब्दील होती है. दफ्तरों में पहुँचती है अपने मातहतों के प्रति अपने सहयोगियों के प्रति अभिव्यक्त होती है.

मुझे बचपन से पुलिस से बहुत डर लगता रहा है. शायद इसमें भारतीय सिनेमा का योगदान रहा होगा लेकिन सिनेमा के बाहर भी जो देखा उससे डर कम नहीं हुआ. पुलिस के उन जवानों से मिलकर बात करने का मन होता है जिन्होंने लाठियां बरसाई छात्रों पर कि पीटते वक़्त उन्हें कैसा लग रहा था आखिर. क्या वो ठीक से सो पाए उसके बाद?

पिछले दिनों आई थी यह खबर भी कि पुलिस वाले बहुत ख़राब स्थितियों में ड्यूटी करने पर मजबूर हैं. अच्छा वेतन नहीं, ज्यादा सम्मान नहीं, परिवार से दूर, बिना छुट्टियों के वो लगातार काम करते हैं कहीं यह भी तो कारण नहीं इंसान को इंसान न रहने देने के.

पहले कुंठा, हताशा, निराशा को बोना और फिर उसे इस तरह एक-दूसरे के खिलाफ इस्तेमाल करना राजनीति का मुख्य एलिमेंट हमेशा से रहा है लेकिन हम इसे मात देना कब सीखेंगे आखिर.

Friday, November 15, 2019

छोटी सी प्रेम कहानी



'कैन आई ट्र्स्ट यू?' लड़की ने सकुचाते हुए पूछा.
'यस यू कैन.' लड़के ने अपने कंधे चौड़े करते हुए कहा.
ठीक उसी वक़्त पूरनमासी का चाँद छपाक से नीली नदी में कूद गया. समूची रात सुफेद फूलों की खुशबू से महक उठी.
लड़की की आँखें नम हो उठीं. यह प्रेम की दास्ताँ के सबसे उजले अक्षर थे.
इन्हीं की रौशनी में लड़की की जिन्दगी दिप दिप दिप दमकने लगी. 
वक़्त सरकता गया.
न लड़की ने भरोसा करना छोड़ा न लड़के के कन्धों की चौड़ाई कम हुई है फिर भी लड़की इन दिनों उदास ही रहती है.
भरोसा करने और भरोसा न टूटने के बीच भी काफी उदासी रहती है.

Sunday, November 3, 2019

दो पैसे की धूप चार आने की बारिश



जब किसी से मिलने के बाद उसका मिलना छूट जाता है स्मृतियों में, जब कोई बात कहे सुने जाने के बाद जिन्दगी में ख़ास जगह घेरे रहती है, जब कोई किताब पढ़े जाने के बाद चलती रहती है जेहन में हलचल करती हुई, जब कोई फिल्म स्क्रीन पर अपने हिस्से की अवधि घेर चुकने के बाद मन के हिस्सों पर काबिज रहती है तो लगता है कि जिन्दगी आसपास ही है कहीं. हाल ही में ऐसी ही फिल्म से गुजरना हुआ. दीप्ति नवल की फिल्म 'दो पैसे की धूप चार आने की बारिश.' मैंने फिल्म पर कुछ भी लिखने से खुद को बचाए रखा कि फिल्म को भीतर बचाए रखना अच्छा लग रहा है इन दिनों. अब उस बचे हुए को शब्दों में सहेजना भी सुख हुआ,

फिल्म फ्रेम दर फ्रेम, डायलाग दर डायलाग जिस रूमानियत में इंसानियत को गढ़ती है वो मोहता है. फिल्म बादलों की है, बारिश की है, एक प्यारी सी बिल्ली की है, एक चलने और बोलने से महरूम बच्चे की है और है दो बेहद खूबसूरत इन्सान जूही और देव की. रिश्तों की कोई डोर किसी को किसी से नहीं बांधती लेकिन इंसानियत की, जिन्दगी से मिले थपेड़ों की, भूख की, प्यास की जीने की इच्छा की मौसमों से प्यार करने की डोर फिल्म में सबको एक दूसरे से बांधती है.

एक सेक्स वर्कर स्त्री और एक संघर्ष याफ्ता गीतकार किस तरह जिन्दगी के दो अलग-अलग सिरों पर खड़े होकर भी बंधे हैं फिल्म इसे बयां करती है.अमूमन खींचतान कर स्त्री पुरुष सम्बन्ध को सेक्सुअल डिजायर में कन्वर्ट कर ही दिया जाता है, फिल्म में भी यह कन्वर्जन है लेकिन यह बताने के लिए कि यह कितना गैर जरूरी है.
सेक्सुलिटी से परे इन्सान के रूप में  स्त्री पुरुष का एक-दूसरे से कनेक्ट करने का भी एक रिश्ता होता है. हम सब अपनी कमियों, कमजोरियों से बंधे हैं लेकिन उन्हें उसी रूप में स्वीकारना और एक-दूसरे के होने से खुद को समृद्ध करना यही तो जीवन है.

फिल्म में बहुत सारा अमूर्त प्रेम है जो पूरी फिल्म में बरसता रहता है. यह प्रेम किरदारों का एक-दूसरे से तो है ही उससे इतर फिल्म की लेखिका,निर्देशक दीप्ति नवल का उनके तमाम दर्शकों से है. वो स्क्रीन पर बरसता है मुसलसल वो कुछ और नहीं सुंदर दुनिया का ख्वाब है...जिसे एक पीले गुब्बारों से सजा ऑटो लेकर बार-बार गुजरता है.

मनीषा कोइराला और रजित कपूर दो सुंदर आत्माओं की मानिंद मिलते हैं खिलते हैं और महकते हैं...

कोई यूँ ही तो नहीं बारह मास मौसम बेच सकता. गुलज़ार और सन्देश शांडिल्य ने मिलकर ये मौसम बुने हैं और रचे हैं खूबसूरत गीत मीठे संगीत में ढले-
ख्वाब के बागानों में खिल जाएगी
गर ढूंढोगे तो जिन्दगी फिर मिल जाएगी...

Friday, November 1, 2019

पर्व, प्रगतिशीलता और हम


जब मैं कॉलेज के दिनों में थी तब पहली बार नाम सुना था छठ पूजा का. एक दोस्त के घर से आया प्रसाद खाते हुए इसके बारे में थोड़ा बहुत जाना था. नदी में खड़े होने वाली बात दिलचस्प लगी थी तो अगली साल जब यह पर्व आया तो मैंने इसे देखने की इच्छा जताई और दोस्त की मम्मी की उपवास यात्रा में शामिल होकर गोमती किनारे जा पहुंची. बहुत गिने-चुने लोग ही थे वहां. बाद में कुछ और साथियों से बात की तो ज्यादातर को पता नहीं था इस पर्व का. उत्तर प्रदेश में कुछ ही जगहों पर यह मनाया जाता था शायद मूलतः बिहार में मनाया जाता है ऐसा बताया गया.

छुटपन में करवा चौथ का व्रत रखने वाली स्त्रियाँ बड़ी आकर्षक लगती थीं लेकिन वो सहज ही नहीं दिखती थीं. पूरे मोहल्ले में दो-चार. उनकी सजधज देखने का चाव होता था.

गणेश पूजा, डांडिया के बारे में तो अख़बारों में पढ़ते थे या टीवी में छुटपुट देख लिया. सामने से देखा नहीं.

आज हर उपवास, पर्व की रेंज बढ़ गयी है. बाजार सजे हुए हैं, अखबार रंगे हुए हैं, राज्य सरकारें छुट्टी घोषित कर रही हैं. करवा चौथ को स्त्री सम्मान दिवस तक कहा जाने लगा है. स्त्री सम्मान दिवस घोषित किये जाने पर निहाल होने वाली स्त्रियों ने इस पर कोई सवाल खुद से नहीं पूछा कि किस तरह उनका सम्मान है यह ये अलग ही सवाल है.

सोचती हूँ पिछले दो दशकों में जितनी तेजी से हम धार्मिक अनुष्ठानों, पर्वों के प्रति सक्रिय हुए हैं, जितनी तेजी से इन अनुष्ठानों ने राज्यों की, वर्गों की सीमायें पार की हैं अपनी महत्ता के आगे सरकारों को नत मस्तक कराया है काश उतनी ही तेजी से धर्मों की, जातियों की ऊंच-नीच की बेड़ियाँ तोड़ने, एक-दूसरे के प्रति संवेदनशील होने की ओर अग्रसर भी हुए होते. धर्म, संस्कृति और पर्व अब सब किसी और के कंट्रोल में हैं वो जो जानते हैं इसकी यूएसपी. कि कैसे इनका इस्तेमाल किया जा सकता है. धर्मों का सकारात्मक इस्तेमाल करना आखिर कब सीखेंगे हम.

मुझे लगता है इसकी कमान स्त्रियों को अपने हाथ में लेनी होगी.