Tuesday, April 30, 2019

म्यूजिक टीचर के असर में रहना


जैसे बुरे दिनों के लिए अम्मा छुपा के रखती थीं रसोई के डिब्बों में कुछ रूपये, जैसे बाबा बचा के रखते थे भीतर वाले खलीते (जेब) में गाढे वक़्त के लिए कुछ मुस्कुराहटें और ढेर सारी हिम्मत. जैसे हम बचपन में अपनी खाने की थाली में से बचाकर रख लेते थे बेसन का लड्डू फिर उसे सबके खा चुकने के बाद धीरे धीरे स्वाद लेकर खाते थे ठीक वैसे ही रखती हूँ अपने प्रिय लेखक के लिखे को. जब दिन का हर लम्हा आपस में गुथ्थम गुथ्था कर रहा होता है, जब सुबहों की शामों से एकदम नहीं बनती, जब नहीं लगता किसी काम में मन, न पढ़ा जाता है कुछ, न सूझता है कुछ भी लिखना. तब इस लेखक के लिखे को निकालती हूँ और जिन्दगी अंखुआने लगती है. लेखक यकीनन मानव कौल हैं. 'ठीक तुम्हारे पीछे' से बहुत पहले, 'प्रेम कबूतर' से भी बहुत पहले से वो मेरे प्रिय लेखक हैं. प्रिय निर्देशक भी. अब देख रही हूँ कि वो प्रिय अभिनेता भी बनने लगे हैं. इतनी लम्बी भूमिका है हाल ही में देखी उनकी फिल्म 'म्यूजिक टीचर' के बारे में कुछ कह पाने की कोशिश की.

सोचा था 19 को नेटफ्लिक्स पर रिलीज़ होते ही देखूँगी इसे, लेकिन जिन्दगी सामने आकर हंस दी यह कहते हुए कि ' तुम नहीं मैं डिसाइड करुँगी तुम कब क्या करोगी.' और मेरे पास सर झुकाने के सिवा कोई चारा नहीं था. तमाम लोग फिल्म देखकर अपनी राय देते रहे मैंने कुछ नहीं पढ़ा, किसी को नहीं. यह फिल्म मेरे लिए बुरे दिनों की खर्ची थी, इसे संभालकर खर्चना था. बेहद उलझे और निराश दिनों में उम्मीद थी कि एक फिल्म है जो मुझे डूबने से बचा लेगी. कुछ है जो बचा हुआ है. फिर एक रोज तमाम मसायलों को दूर रखकर फिल्म देखना शुरू किया. फ़ोन स्विच ऑफ  करके भी कि कोई भी व्यवधान फिल्म की रिदम तोड़ दे यह नहीं चाहती थी.

सार्थक दास गुप्ता ने बेहद खूबसूरत फिल्म बनाई है. फिल्म का पहला फ्रेम जिस तरह खुलता है वो आपका हाथ पकडकर अपने साथ एक अलग दुनिया में ले जाता है. बेनी की दुनिया में, बेनी जो झरना है, गीत है, पहाड़ है, जंगल है, पुल है, नदी है. बेनी जो संगीत का शिक्षक नहीं समूचा संगीत है. पूरी फिल्म हर दृश्य में जिस तरह प्रकृति के अप्रतिम सौन्दर्य को लेकर सामने आती है वो मंत्रमुग्ध करता है. वो पहाड़ी रास्ते वैसे ही हैं जैसा होता है जीवन. देखने में बेहद खूबसूरत लेकिन चलने में साँस फूल जाय. पर्यटक का पहाड़ वहां के रहनवासियों के पहाड़ से इतर होता है. फिल्म के पहाड़,  जंगल , धुंध में डूबी वादी पर्यटक की नहीं है वहां के रहनवासियों की है.

स्मृतियों का कोलाज बनता बिगड़ता रहता है. बेनी इस फिल्म के हीरो हैं लेकिन एक हीरो और है फिल्म में इसके सिनेमेटोग्राफर कौशिक मंडल. ओह इतने सुंदर दृश्य, इतना मीठा संगीत जैसे कोई जादू. अमृता बागची ज्योत्स्ना के रोल में और बेनी के रोल में मानव कौल बेहद इत्मिनान वाले सुंदर दृश्य रचते हैं. फिल्म में कहीं कोई हडबडी नहीं. सब इत्मिनान से चलता है. जैसे आलाप हो कोई...या कोई तान.

कुछ दृश्य हैं जो कभी नहीं भूलूंगी. एक दृश्य जिसमें ज्योत्सना, बेनी से पूछती है 'मेरे कान के झुमके कैसे लग रहे हैं? 'फिर आगे पूछती है 'मैं कैसी लग रही हूँ?' सादा से इन सवालों के जवाब में बेनी का गाढ़ा संकोच, शर्मीलापन उनके भीतर तक की सिहरन को बयां करने में कामयाब है.
एक दृश्य जहाँ किसी का अंतिम संस्कार होने के बाद बेनी की पड़ोसन गीता (दिव्या दत्त) कुछ चीज़ें जला रही है. चीज़ें कहीं नहीं है, आग भी जरा सी है लेकिन धुआं ...ओह उस दृश्य में वह धुआं हीरो है जिसके बैकग्राउंड में बेनी और गीता हैं. दुःख के उन पलों में दो उदास लोग एक बहुत घना रूमान रचते हुए. वो धुआं कितना कुछ कहता है. मारीना त्स्वेतायेवा की  'द  कैप्टिव स्पिरिट' की याद हो आती है. काफ्का की याद उन्हीं दृश्यों में घुलने लगती है. वह बेहद खूबसूरत दृश्य है.
एक और दृश्य जिसमें बेनी बहन की शादी का कार्ड पोस्टबॉक्स में डालने की न डालने की दुविधा को कुछ लम्हों में दर्शाता है. वो कुछ सेकेण्ड भीतर की पूरी जर्नी की डिटेलिंग देते हैं.

दिव्या दत्त के बारे में अलग से बात किया जाना बेहद जरूरी है कि एक तो वो मुझे प्रिय हैं हमेशा से. जिस भी फिल्म में जब भी वो हुई हैं लगता है वो उसी किरदार के लिए जन्मी हैं. इतना इकसार हो जाती हैं वो और सच कहूँ तो वो जब तक रहती हैं सबको ओवरलैप कर लेती हैं. कमाल की अदायगी. इस फिल्म में भी गीता की भूमिका में ऐसा ही असर छोड़ जाती हैं. उनके रोल पर अलग से बात हो सकती है जिसमें बहुत सारे स्त्री विमर्श के शेड्स समाहित हैं.

मानव कौल ने इस फिल्म में अच्छा अभिनय किया है यह कहना ज्यादती होगी क्योंकि मुझे ऐसा लगा कि उन्होंने अभिनय किया ही नहीं है बल्कि जिया है पूरी फिल्म को, हर दृश्य को, हर संवाद को. वो फिल्म में घुले हुए हैं. यह फिल्म मानव कौल के सिवा और कौन कर सकता था भला. यह उन्हीं की फिल्म है. हर फ्रेम में, हर संवाद में और हर मौन में मानव एकदम परफेक्ट हैं.

अमृता बागची फ्रेश हैं. वो मानव के साथ स्क्रीन शेयर करते हुए अच्छी लगती हैं और जितनी उनकी भूमिका है उसे ठीक से करने का प्रयास करने का पूरा प्रयास करती हैं.

सार्थक दासगुप्ता के और काम को देखने की इच्छा बढ़ रही है. फिल्म के तमाम और पहलुओं पर बात हो सकती है, तमाम डिस्कोर्स जो रचे बसे हैं लेकिन अभी उन पर बात करने का मन ही नहीं है. बस कि कविता सी झरती इस फिल्म के असर में रहने का मन है कुछ दिनों.


Monday, April 22, 2019

'ये कविताओं के पंख फ़ैलाने के दिन हैं '


'क' से कविता यह नाम नया है लेकिन इस भावना वाला काम तो मैं तकरीबन 60-65 सालों से कर रहा हूँ कि दूसरों की कविताओं को सुनाना. वहां भी दूसरों की कविताओं को सुनाना जहाँ मुझे आमंत्रित किया गया है मेरी अपनी कविताओं को सुनाने के लिये क्योंकि मुझे लगता है कि जो मुझसे भी अच्छी कवितायेँ लिखी गयी हैं वो भी उन सबको सुनानी चाहिए जो कविताओं से प्रेम करते हैं.' 
- नरेश सक्सेना 28 अप्रैल 'क' से कविता की दूसरी सालाना बैठक में 

'क से कविता क से क्या कहने. मेरा जो मानना है कि कविता को जन तक कैसे ले जाएँ उसका यह बहुत अच्छा उपक्रम है. जनता को कविता की समीक्षा करने का मौका मिलता है मेरे ख्याल से यह बहुत बड़ी बात है. कविता अगर जिन्दा रहेगी तो लिखने से ज्यादा ऐसे कार्यक्रमों से जिन्दा रहेगी. नये नए ज्यादा से ज्यादा लोगों का कार्यक्रम से जुड़ना ही कार्यक्रम की उपलब्धि है.
- लाल बहादुर वर्मा 28 अप्रैल 'क' से कविता की दूसरी सालाना बैठक में 

मुझे कार्यक्रम में आकर बहुत अच्छा लगा. मैं देहरादून का हूँ कविता के कार्यक्रम में इतने लोगों का जमा होना, बराबर बने रहना है यह बड़ी बात है. कार्यक्रम का कंटेंट, संचालन, पूरी बुनावट में जो तारतम्यता थी वो कमाल की थी. इसे जिस सादगी जिस सहज भाव से चलाया जा रहा है इसे ऐसे ही चलने दें.'
- हमाद फारुखी 28 अप्रैल 'क' से कविता की दूसरी सालाना बैठक में 

कविता प्रेम, सच्चाई, मनुष्यता की ओर ले जाती है. हम सबको मिलकर स्कूलों में कॉलेजों में इस तरह के कार्यक्रम को जाना चाहिए और हम सबको छात्रों को इससे जोड़ने का प्रयास करना चाहिए.-
इन्द्रजीत सिंह 28 अप्रैल 'क' से कविता

एक बेहद सादा सा, सुंदर सा भाव था मन में कि कोई ऐसा ठीहा हो जहाँ दो घड़ी सुकून मिले. रोजमर्रा की आपाधापी से अर्ध विराम सा ठहरना हो सके. जहाँ होड़ न हो, जहाँ तालियों का शोर न हो, जहाँ छा जाने की इच्छा न हो, बस हो मिलना अपनी प्रिय कविताओं से और कविता प्रेमियों से. (अपनी कविता के प्रेमियों से नहीं).और संग बैठकर पीनी हो एक कप चाय. इस विचार ने बहुत मोहब्बत के साथ कदम रखा शहर देहरादून ने 23 अप्रैल 2016 को और दो साल पूरे होते होते यह उत्तरकाशी, श्रीनगर, हल्द्वानी, रुद्रपुर, खटीमा, टिहरी, रुड़की, पौड़ी, अगस्त्यमुनि, गोपेश्वर, लोहाघाट (चम्पावत), पिथौरागढ़,बागेश्वर और अल्मोड़ा तक इसकी खुशबू बिखरने लगी. 

कब सुभाष लोकेश और प्रतिभा पीछे छूटते चले गए और रमन नौटियाल, भास्कर, हेम,पंत शुभंकर, ऋषभ, मोहन गोडबोले निशांत, प्रमोद, विकास, राजेश, नीरज नैथानी, नीरज भट्ट, सिद्धेश्वर जी, प्रभात उप्रेती, अनिल कार्की, महेश पुनेठा, मनोहर चमोली, गजेन्द्र रौतेला, भवानी शंकर, पियूष आदि इस कारवां को आगे बढ़ाने लगे पता ही न चला. गीता गैरोला दी तो सबकी प्यारी लाडली दी हैं उन्होंने इसकी मशाल जिस तरह थामी कि मोहब्बत की आंच थोड़ी और बढ़ गयी. 

देहरादून में नूतन गैरोला, राकेश जुगरान, नन्द किशोर हटवाल, नीलम प्रभा वर्मा दी ने लगातार अपने प्रयासों से और स्नेह से इसे सींचा. कल्पना संगीता, कान्ता, राकेश जुगरान, नन्द किशोर हटवाल, सतपाल गाँधी, सुरभि रावत, स्वाति सिंह, नन्ही तनिष्का सहित सैकड़ों लोग नियमित भागीदार बनते गये. कार्यक्रम की सफलता असल में शहर की सफलता है. देहरादून को अब बारिशें ही नहीं कवितायेँ भी सींच रही हैं. उत्तराखंड के अन्य शहरों को भी.

इस कार्यक्रम को व्यक्ति का नहीं, समूचे शहर का होना था. व्यक्तियों को इसमें शामिल होना था. कहीं पहुंचना नहीं था, कुछ हासिल नहीं करना था बस कि हर बैठकी का सुख लेना था, लोगों से मिलने का सुख, सुकून से दो घड़ी बैठने का सुख, प्यारी कविताओं को पढने का सुख, सुनने का सुख.

बोलने और लिखने की होड़ के इस समय में यह पढ़ने और सुनने की बैठकी बनी. लेखकों की नहीं पाठकों की बैठकी. शहरों ने इस कार्यक्रम को अपने लाड़ प्यार से सींचा. जो लोग बैठकों में शामिल होने आये थे वो इसके होकर रह गए. अब घर हो या दफ्तर कुछ भी प्लान करते समय महीने के आखिरी इतवार की शाम पहले ही बुक कर दी जाने लगी. बच्चे, युवा, साहित्यकार, बिजनेसमैन, गृहणी, शिक्षक सब शामिल हुए. सबने अपनी प्रिय कवितायेँ पढ़ीं, कितनों ने पहली बार पढ़ीं. कितनों ने ही यहाँ आकर समझा पढने का असल ढब. सुना कि किसी को कोई कविता क्योंकर अच्छी लगती है आखिर.

यह कोई नया विचार नहीं था क्योंकि बहुत से लोग मिले जिन्होंने कहा कि ऐसा तो हम सालों से कर रहे थे. कुछ बैठकों में शामिल भी हुए हम कुछ के बारे में सुना भी. महेश पुनेठा पिथौरागढ़ में 'जहान-ए-कविता' चला ही रहे थे. भास्कर भी ऐसे तमाम प्रयोग करते रहे थे. हेम तो हैं ही प्रयोगधर्मी. फिर क्या ख़ास है इन बैठकों में. खास हुआ सबका जुडना. एक नयी जगह में बैठकी की सूचना परिवार में नए सदस्यों की आमद सा लगता.

उत्तराखंड ने इन बैठकों को अलग ही ऊँचाई दी. यहाँ हमें 'मैं' से दूर रहने वाली बात पर ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी. जो साथी शामिल हुए वो सब स्वयं 'मैं' से बहुत दूर थे दूर हैं. न शोहरत की तलाश, न पीठ पर किसी थपथपाहट की उम्मीद बस कि हर बैठक के बाद होना थोडा और समृद्ध, होना थोड़ा और मनुष्य, और तरल, और सरल.

इन बैठकों में शामिल लोग नाम विहीन से हो जाते थे, चेहरा विहीन. बिना तख्ती वाले लोग इतना सहज महसूस करते कि बैठकों का इंतजार रहने लगा. शहर ने बाहें पसारीं और कार्यक्रम को अपना लिया. हमें न कभी जगह की कोई परेशानी हुई न चाय की. जबकि न हमने चंदा किया न किसी से फण्ड लिया. सब कैसे इतनी आसानी से होता गया के सवाल का एक ही जवाब था प्रेम, कविताओं से प्रेम.

देहरादून में 28 अप्रैल को हुई दूसरी सालाना बैठक असल में राज्य स्तरीय बैठक न हो पाने के बाद आनन-फानन में मासिक बैठक से सालाना बैठक में बदल दी गयी. फिर न पैसे थे न इंतजाम कोई और न ही वक़्त. ज्यादातर साथी शहर में ही नहीं थे. लेकिन जब शहर किसी कार्यक्रम को अपना लेता है तो आपको ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती. और यह किसी कार्यक्रम की किसी विचार की सबसे बड़ी सफलता होती है कि उसे व्यक्तिपरक होने से उठाकर समाज से जुड़ जाए. शहर के सारे लोग इसकी ओनरशिप लेते हैं. सबकी चिंता होती है कि कोई कमी न रह जाए. सब मिलकर काम करते हैं, सब मिलकर एक-दूसरे के होने को सेलिब्रेट करते हैं. मेहमान कोई नहीं होता, मेजबान सब. कोई मंच नहीं, माल्यार्पण नहीं, मुख्य अतिथि नहीं, दिया बाती नहीं, किसी का कोई महिमामंडन नहीं. जेब में चवन्नी नहीं थी लेकिन दिल में हौसला था तो निकल पड़े थे सफर
में और देखिये तो कि आज दो बरस में पूरा उत्तराखंड कविता की इन भोली बैठकियों से रोशन है.

क' से कविता की दूसरी सालाना बैठक में लोग मुम्बई से भी आये थे, दिल्ली से भी लखनऊ से भी और उत्तरकाशी से भी. कबीराना थी शाम...फक्कड़ मस्ती, गाँव दुआर पे कहीं बैठकर, चौपाल में, कुएं की जगत पर खेत के किनारे मेड पर बैठकर भी जैसे कबीरी हुआ करती होगी वैसी हो चलीं हैं कविताओं की ये बैठकियां. 
 

Friday, April 12, 2019

कहानी- स्कूल


- ज्योति नंदा

सुन ऋषि ,कल रात को खूब मजा आया" वो बोली।
"अच्छा। क्या हुआ ? फिर वही , झूठ- मूठ सोने की एक्टिंग "
"नहीं नहीं ,कल मम्मा -पापा को बहुत डांट पड़ी.।
हा हा हा..... ऋषि की हंसी रुक ही नहीं रही थी। मां पापा को भी कभी डांट पड़ती है क्या ? उसने तो कभी देखा ही नहीं था कि माँ को कभी किसी ने डाटा ?
"हंस क्यों रहा है तू ?, रात को अचानक दादी दादू आ गए ,गाँव से, उन्होंने डांटा बड़ा मजा आया। " सुडूप्प ..की आवाज़ के साथ होठों को गोल बना कर नूडल्स खाती है।
क्यों"? मुश्किल से हंसी रोकते हुए ऋषि ने पूछा।
"मम्मा पापा एक कमरे में नहीं सोते इसीलिए और क्या?" उसने व्यंग किया जिस तरह उसे फ़िज़ूल की बातो पे डात पड़ती है वैसे ही दादा ने अपने बेटे को डाटा। मानो कोई रीत हो जो पीढ़ियों से चलती आ रही है। बेवजह बातो पे बड़ो का छोटों को डांटना।
ऋषि झल्लाया "ऐ तू चुतिया है क्या?"
"ऐ ऐ तू पागल , इडियट ,जबान संभाल अपनी न न पुन.. सक हकलाती ज़बान में नया शब्द बोला उसने।

"व्हाट व्हाट.....यु सैड"
तू गन्दी बात बोलेगा तो मै भी बोलूंगी ."
"अच्छा अच्छा ठीक है अब नहीं कहूँगा पलटवार होते ही ऋषि समझौते की मुद्रा में आ गया."पर तूने क्या बोला, न न ??? यह तो कुछ नया है , कहा से सीखी ?
"पता नहीं" अदिति चिढ गयी।
ऋषि समझ गया ज्यादा पूछना ठीक नहीं "अच्छा तू ही बोल अलग सोने के लिए डांट पड़ती है क्या "?
"कल मम्मा पापा मुझे सुलाने के बाद फिर से झगड़ने लगे"
'अरे वाह! बहुत दिनों के बाद तेरे मम्मा पापा ने फाइट की" ऋषि ने चटकारे लेकर कहा.उसकी आँखे चमक से और फ़ैल गयी. ऐसा कुछ जानने कि लालसा में जो वह अक्सर सुनना चाहता है.लेकिन क्यों ? ये वो नहीं जानता।

अदिति मायूसी से बोली "अब तो मम्मा पापा बात ही नहीं करते.बस मेरे पीछे पड़े रहते है,अदिति खाना खालो, नहा लो, पढ़ लो. पर कल फिर से लड़ने लगे" मुँह टेढ़ा कर बोली."हम दिवाली पर गाँव गए थे न वहा भी दादी मम्मा पर गुस्सा कर रही थी एक छोटा भइय्या चाहिए ही चाहिए"
ऋषि परेशां हो गया "अब यह कैसे आएगा "?
"ओहो बुद्धू तुझे कुछ नहीं पता.तेरे मम्मा पापा साथ नहीं रहते न इसीलिए.जब मम्मा पापा एक कमरे में सोते हैं तभी तो छोटा भैय्या आता है." ऋषि इस नए प्राप्त हुय ज्ञान को समझने की कोशिश में लगा हुआ था.
".घर में सबको छोटा भैय्या चाहिए.दादी दादू नानू नानी सबको. पर मम्मा ने बोला उन्हें नहीं चाहिए.पापा से कहा की एक ही बहुत है. जैसे चल रहा है चलने दो, नहीं तो कुछ भी नहीं बचेगा और न मैं बचाउंगी "
"क्या बचाना है?" ऋषि के मन में जाने कैसे कैसे ख्याल आ रहे थे क्या बचाना है अदिति की माँ को। कही वो कोई सीक्रेट एजेंट तो नहीं है? या फिर सुपर मैन वीमेन के भेष में? उन्हें दुनिया बचानी है।

"यह तो मुझे भी नहीं प.ता फिर पापा उठ कर दूसरे कमरे में चले गए. रात को दादी ,दादू आ गए अचानक और मम्मा पापा को खूब डांटा.मजा आया." ताली बजा कर हसने लगी."सब समझ रहे थे में सो रही हूं पर......ऋषि ने फिर छेड़ा।
"पर तू तो नंबर वन चोरनी है सब सुनती देखती रहती है" ऋषि ने चिढाया .अदिति ने आँखे तरेरी.
"मैं तो रात भर आराम से सोता हूँ अपनी मम्मा के साथ , फिर थोडा ठहरा, गहरी सांस ली "कभी कभी नानी आ जाती है बड़ बड करने लगती है.........
...........अच्छा हुआ तू अलग हो गयी,रात को चैन से सो तो लेती है.....कोई फिजूल की झिक झिक नहीं करता........बुढा तो ना जीने देता है न मरने.....".
"बुड्डा कौन ?"अदिति ब्रेड का टुकड़ा मुह तक ले जाते हुय रुकी.
"नाना और कौन" हा हा...दोनों ने ठहाके लगाये "तेरी मम्मा क्या बोलती है?"
"कुछ नहीं बस सिर के नीचे रखा तकिया कान पे ढँक कर सो जाती है.नानी बड़ बड़ करके चली जाती है".
टन टन टन ......"चल-चल टिफिन टाइम ख़त्म हो गया.तेरी बातें ही नहीं ख़त्म होती".ऋषि ने फटाफट टिफिन समेटा और क्लास की ओर दौड़ गया.अदिति भी बेमन से पीछे हो ली.

दूसरे दिन स्कूल में सुबह से ही अदिति कुछ कहने के लिए उतावली दिख रही थी। जी.के.और मोरल साइंस की साप्ताहिक क्लास में अदिति का कभी मन नहीं लगता था। आज तो बिलकुल भी नहीं.टीचर बड़ों का आदर और माता पिता के सम्मान का महत्तव समझा रही थी। अदिति इस इन्तजार में थी कि कब टन टन की आवाज आये. ऋषि उसका उतावलापन भांप गया."ऐ ,क्या बात है?" वह अदिति के कान में फुसफुसाया.
"झूठ नहीं बोलना चाहिए" टीचेर का स्वर गूंजा.
"मम्मा पापा से बहुत गुस्सा है बोल रही थी तुम हमेशा झूठ बोलते हो" अदिति भी फुसफुसाई .
तभी घंटी बज गयी सारे बच्चे मैदान की तरफ दौड़ पड़े.अदिति और ऋषि अब भी घर का, समाज का और किताबी नैतिकता का भेद समझने की कोशिश कर रहे थे.
"कल मम्मा ऑफिस से आने के बाद थक कर लेटी थी तब पापा ने उन्हें एन्रेर्जी ड्रिंक दिया .उसके बाद मम्मा मुझे बहुत प्यार करने लगी .और......ही ही ...ही...."अदिति मुह पर हाथ रख कर हसने लगी.ऋषि फिर झल्लाया " क्या है जल्दी बता."........खी खी ....और न...और और . मम्मा,पापा को भी प्यार कर रही थी.फिर पापा ने कहा अदिति तू दादी के पास सो जा। मैं नहीं जा रही थी लेकिन दादी और पापा ने बोला सन्डे फिल्म दिखायेंगे और आइसक्रीम खिलायंगे तो मैं चली गयी.""ऐ चटोरी" ऋषि ने फिर चिढाया.
"अरे सुन तो. में तो सुबह वापस मम्मा के पास ही थी"
'"अच्छा ! जादू क्या" ऋषि को मजा आने लगा था.
"मम्मा को तो कुछ भी याद नहीं था. फिर मैंने मम्मा को बताया की उन्होंने पापा की दी हुए एनेर्जी ड्रिंक पी थी तो वह पापा से फिर लड़ने लगी और रोने लगी "तुमने मेरा रेप किया है "
"यह रेप क्या होता है? वो जो टी वी की न्यूज़ में नाना नानी दिनभर सुनते रहते है। जब पूछता हूँ तो चैनल बदल देते है। "
वो होगी कोई मामी पापा के बीच की बात, छोड़ न ,.पर दादी ने पता है.... बताया कि...कि"
क्या ?"
"अब छोटा भइय्या आयेगा हमारे घर "

Wednesday, April 3, 2019

पंचम सुर पर चढ़ी वीरानी


हाथों की लकीरें एक-एक कर टूट रही हैं. टूट-टूटकर हथेलियों से गिर रही हैं. नयी लकीरें उग भी रही हैं. टूटकर गिरने की गति नयी उगने की गति से काफी ज्यादा है. हथेली अमूमन अब बिना लकीरों की सी हो चली है. उसे देर तक देखती रहती हूँ. कोरे कागज सी कोरी हथेलियाँ. इन पर स्मृति का कोई चिन्ह तक अब शेष नहीं रहा. इतनी खाली हथेलियाँ देखी हैं कभी? मैं किसी से पूछना चाहती हूँ. लेकिन आसपास कोई नहीं. यह हथेलियों का खाली होना ही है. मुस्कुराते हुए बिना लकीरों वाले हाथ से चाय का कप थामते हुए ध्यान बाहर लगाती हूँ. मन के बाहर भी. बड़े दिन से बाहर देखा ही न हो जैसे. आसमान साफ़ है. ना-नुकुर करते हुए ही सही आखिर सर्दियों की विदाई हो चुकी है. चिड़ियों का खेल जारी है. जब मैं इन्हें नहीं देखती तब भी ये ऐसे ही तो खेलती होंगी. जीवन ऐसा ही है.

एक घर है, जिसकी बालकनी सनसेट प्वाइंट है, एक सड़क है जो आसमान को जाती है, एक पगडंडी है जो न देखे गए ख्वाबों की याद दिलाती है, एक घास का मैदान है जो पुकारता है नंगे पांव दौड़ते हुए आने को, कुछ पागल हवाएं हैं जिन्होंने शहर की सड़कों को गुलाबी और पीले फूलों से भर रखा है. इतना कुछ तो है फिर जीवन का यह वीराना कहाँ से आता है आखिर. जो भी हो यह वीरानगी किसी राग सी लग रही है. पंचम सुर पर चढ़ी वीरानी.

कुछ दिनों से पैदल चलने का मन हो रहा है. यह सड़कों से मेरे रिश्ते की बात है. बिना पैदल चले शहरों से रिश्ता नहीं बनता. बिना नंगे पाँव चले घास से रिश्ता नहीं बनता, बिना दूर जाए करीबी से रिश्ता नहीं बनता. बिना जार- जार रोये सुख से रिश्ता नहीं बनता. लकीरों का यह टूटकर गिरना सुखद है.