Saturday, January 26, 2019

कहीं खो तो नहीं गया बतौर शिक्षक हमारा सुख


‘और देखते-देखते रास्ते वीरान, संकरे और जलेबी की तरह घुमावदार होने लगे थे. हिमालय बड़ा होते होते विशालकाय होने लगा. घटायें गहराती-गहराती पाताल नापने लगीं. वादियाँ चौड़ी होने लगीं. बीच-बीच में करिश्मे की तरह रंग-बिरंगे फूल शिद्दत से मुस्कुराने लगे. उन भीमकाय पर्वतों के बीच और घाटियों के ऊपर बने संकरे कच्चे-पक्के रास्तों से गुजरते यूँ लग रहा था जैसे हम किसी सघन हरियाली वाली गुफा के बीच हिचकोले खाते निकल रहे हों. इस बिखरी असीम सुन्दरता का मन पर यह प्रभाव पड़ा कि सभी सैलानी झूम-झूम कर गाने लगे, ‘सुहाना सफर और ये मौसम हंसी...’ पर मैं मौन थी. किसी ऋषि की तरह शांत थी. मैं चाहती थी कि इस सारे परिदृश्य को अपने भीतर भर लूं. मेरे भीतर कुछ बूँद-बूंद पिघलने लगा था. जीप की खिड़की से मुंडकी निकालकर मैं कभी आसमान को छूते पर्वतों को देखती तो कभी ऊपर से दूध की धार की तरह झर-झर गिरते जल प्रपातों को. तो कभी नीचे चिकने-चिकने गुलाबी पथ्थरों के बीच इठला-इठला कर बहती चांदी की तरह कौंध मारती बनी-ठनी तिस्ता नदी को. सिलीगुड़ी से ही हमारे साथ थी यह तिस्ता नदी. पर यहाँ उसका सौन्दर्य पराकाष्ठा पर था. इतनी खूबसूरत नदी मैंने पहली बार देखी थी. मैं रोमांचित थी. पुलकित थी. चिड़िया के पंखों की तरह हल्की थी. ‘

- साना साना हाथ जोड़ी से – लेखिका- मधु कांकरिया

इन दिनों मैं दसवीं में पढ़ रही हूँ, अपनी दसवीं में पढने वाली बिटिया के साथ. हाल ही में उसने मुझे हिंदी के एक पाठ 'नौबतखाने में इबादत' पाठ को लेकर कहा, सिर्फ यही मुझे एकदम बोर लगता बाकी सब अच्छे हैं. इसके पहले यही बात उसने 'साना साना हाथ जोड़ी' को लेकर भी कही थी. कुछ दिनों पहले ‘मैं क्यों लिखता हूँ’ के बारे में भी.

मुझे अपने स्कूल के दिन याद आते हैं उसकी ऐसी बातें सुनकर. दुःख है कि मेरे जीवन में साहित्य या कुछ भी स्कूल में या कॉलेज में पढने से नहीं आया. जिन हिंदी की कविताओं को घर में खुद पढ़ने में सुख होता था वही पाठ वही कवितायेँ स्कूल में शिक्षिका द्वारा पढाये जाने पर भारी बोझ सी लगने लगती थीं. ऐसा और विषयों में भी हुआ ही. मैंने बिटिया से कहा जो पाठ तुमको बोर करते हैं वो दिखाओ, उसने मुझे पाठ दिखाए तो मेरा चेहरा खिल उठा. 'साना साना हाथ जोड़ी' मधु कांकरिया जी का लिखा यात्रा वृतांत है और 'नौबतखाने में इबादत' यतीन्द्र मिश्र द्वारा लिखा संस्मरण और प्रिय कवि अज्ञेय का लिखा पाठ ‘मैं क्यों लिखता हूँ’ था.

मैंने बिटिया की समस्या का कोई हल नहीं किया सिवाय इसके कि जब वह हल्के-फुल्के मूड में होती उसके साथ मिलकर इन पाठों को मन से पढ़ा. 'साना साना हाथ जोड़ी' पढ़ते हुए गंगटोक और सिक्क्किम की यात्राओं के बहाने हमने न जाने कितनी यात्राएँ कीं, कितनी ही यात्राओं को फिर से महसूस किया, पिंडर, झेलम, नर्मदा, बेतवा नदियों को तिस्ता के बहाने याद किया. भाषा की सुन्दरता को महसूस किया, लेखिका के मन की स्थिति को समझा. ठीक यही हुआ 'नौबतखाने में इबादत' को पढ़ते हुए. बिस्मिल्ला खां के बारे में पढ़ते हुए बनारस शहर का जिक्र जिस तरह आता है कि कचौड़ियों की खुशबू देहरादून में महसूस होने लगती है. एक सही सुर के लिए बिस्मिल्ला खां साहब की तलब, उनकी सादगी, विनम्रता, फटी लुंगी का किस्सा और उनके जन्म शहर डुमरांव की नरकट घास तक का जिक्र पाठ के लिए मोहब्बत जगाने में पूरी तरह कामयाब है. अज्ञेय का 'मैं क्यों लिखता हूँ' पढ़ते हुए भी कुछ ऐसे ही हालात बने. लिखना किस तरह आंतरिक विवशता से होता है इस बात को उसने खूब अच्छे से समझा और अक्सर मुझे लिखते देख हंसकर कहती, 'नानी अभी मम्मा को आंतरिक विवशता आ रही है.'

हम माँ बेटी ने इन पाठों का आनन्द लिया. अभ्यास प्रश्नों की ओर हमने देखा भी नही. मुझे यकीन है कि जिस तरह उसने पाठ को समझा है उसके लिए कोई प्रश्न मुश्किल नहीं होगा.

मुझे यह प्रसंग इन दिनों इसलिए भी याद आ रहे हैं कि इन इनों उत्तराखंड में चल रहे सेवारत शिक्षक प्रशिक्षण में शिक्षकों के साथ संवाद में हूँ. जहाँ शिक्षक कई बार किताबों में ज्यादा कोर्स होने, पढ़ाने के दौरान आने वाली चुनौतियों के बारे में बात करते हैं, समय की कमी, बहुत सारे काम करने होते हैं की बात करते हैं. मुझे इन सब समस्याओं का एक ही हल दिखता है कि क्यों शिक्षण के इस खूबसूरत काम को अपना आनन्द बना लिया जाए. जब तक पढाना पहले पढना नहीं होगा, खुद का आनंद नहीं होगा तब तक ये खूबसूरत पाठ काम के बोझ से लगते रहेंगे. फिर यही बोझ बच्चों को भी ट्रांसफर होगा. होता ही है.

जिन पाठों को पढ़ते हुए जिन्दगी से जुड़ा जा सकता था, उन्हें पढ़ना बच्चों को और पढाना शिक्षकों को बोझ लग रहा है. शायद मेरी बेटी को हिंदी पढ़ाने वाली शिक्षिका ने भी अपनी नौकरी की पूर्ति के तौर पर पाठ पढ़ाया होगा. तो भला दिल से लिखे गये ये खूबसूरत पाठ बच्चों के दिल में किस तरह उतरते जब वो शिक्षक के दिल में ही नहीं उतरे. बाकी विषयों के बारे में यकीन से नहीं कह सकती लेकिन भाषा के संदर्भ में जरूर लगता है कि भाषा चाहे हिंदी हो, अंग्रेजी या कोई और उसका कनेक्शन सीधे दिल से होना जरूरी है. दिल से रिश्ता न होगा तो भाषा अपने पेचोखम में उलझा लेगी, जो लिखा गया है उसकी भावभूमि तक पहुंचना मुश्किल ही होगा.

एनसीईआरटी ने बेहद खूबसूरत किताबें बनायी हैं, इन्हें पढ़ना एक सुख है, जाहिर है इन्हें पढ़ाना भी सुख होना चाहिए. अगर यह काम हो रहा है, सुख नहीं तो जरूर हमने पढ़ाने से पहले अपने पढ़ने के सुख को खो दिया है. आइये, पहले अपने सुख को तलाशें.

Saturday, January 12, 2019

जरा तुम अपना हाथ देना


सखि, जरा तुम अपना हाथ देना
तुम भी, अरे तुम भी
अम्मा तुम भी, ताई तुम भी
मौसी तुम भी, चाची तुम भी
बहना तुम भी, सासू माँ तुम भी
देवरानी प्यारी तुम भी
जेठानी हमारी तुम भी
जरा अपना हाथ देना.

मैडम जी आप भी देना तो जरा
अरी कमला, विमला तुम भी
घर के काम छोड़ो न कुछ देर को
बस जरा तुम अपना हाथ देना
ओ नन्ही गुड़िया तुम भी दो न अपना हाथ
मैडम एमएलए जी,
एनजीओ वाली मैडम/दीदी
बाद में बताना समाज कैसे बदलेगा वाली बात
अभी अपना हाथ दो न जरा.

कलक्टर मैडम आप भी
अरी ओ छोरियों
ब्वायफ्रेंड से लड़ लेना बाद में
अभी तो जरा आपना हाथ देना
ओह,सुनीता दर्द में हो तुम बहुत
तो हम आयेंगे तुम्हारे हाथ में अपना हाथ देने
आँखों में भरे हैं तुम्हारे आंसू
तो उन्हें उठाएंगे अपनी पलकों पर
बस कि तुम्हारी हथेलियों का
हमारी हथेलियों में होना जरूरी है इस वक़्त

कोई बहुत बड़ी लड़ाई नहीं है ये
एक दूसरे की हथेलियों में हथेलियाँ देकर
महसूस करना है अपनी ताकत
यह साथ में होना
है हमारे होने की बात
अपने ख्वाबों को एक-दूसरे की हथेलियों में
सुरक्षित रख लेने की बात

ईश्वर तो एक बहाना है
असल में तो खुद को पाना है...

#सबरीमाला

Thursday, January 3, 2019

एक लम्हे में अपना बना लेता है उदयपुर


दिन इतनी तेज़ी से भाग रहे थे कि भागते-भागते हांफने लगे थे. दो घड़ी ठहरकर सांस लेने लगते तो रफ्तार कम हो जाती और लगता कि कितना कुछ छूट गया है. कोई काम, कोई जिम्मेदारी मुंह बिसूरने लगती. ऐसे ही भागते दौड़ते दिनों में कानों से टकराया था उदयपुर का नाम. जैसे जेठ की चिलचिलाती धूप में ठंडी हवा का एक झोंका छूकर गुजरा हो. न किसी ने मुझे पहले से उदयपुर के किस्से सुनाये थे, न मैंने साहित्य के किसी टुकड़े को पढ़ते हुए इस शहर से राब्ता बनते महसूस किया था. इतिहास पढ़ते हुए शायद गुजरा था यह नाम बिना किसी एहसास के सिर्फ एक चैप्टर की तरह. फिर क्या था ऐसा उस रोज इस नाम में कि दिल की धडकनों को थोड़ा सुकून आया. हालाँकि यह कोई यात्रा नहीं थी, सिर्फ गुजरना भर था वहां से होकर लेकिन जाने क्या था कि दिल को राहत मिल रही थी. जैसे कोई अजनबी इंतजार में हो, जैसे किसी अनकहे में भरा हो जीवन भर का कहा, जैसे किसी के काँधे पर टिककर आ जाये एक टुकड़ा बेफिक्र नींद. एक बार एक दोस्त ने कहा था कि मैं हर आने वाले लम्हे का उत्सुकता से इंतजार करता हूँ कि न जाने उसमें मेरे लिए क्या हो. मुझे भी अब ऐसा ही लगने लगा है. उदयपुर की पुकार को सहेजा और निकल पड़ी सफर में.

न कोई वहां इंतजार में था, न कोई जल्दी थी कहीं पहुँचने की. पूरे इत्मिनान के साथ सफर कटता रहा. रास्ते में मानव कौल के कहानी संग्रह ‘प्रेम कबूतर’ से दो कहानियां पढ़ीं. किस कहानी को कहाँ पढ़ा जाना है यह भी वो कहानी खुद तय करके रखती हो शायद. इतने दिनों से सिरहाने रखे रहने के बाद महीनों बैग में घूमने के बाद आखिर इन कहानियों ने चुना हवा में उड़ते हुए पढ़ा जाना. कहानियां अपने साथ उड़ा ले जाने में कामयाब थीं. इति और उदय, प्रेम कबूतर दोनों कहानियां. प्रेम कबूतर का असर लिए उदयपुर पहुंचना हुआ.

जब कहीं कोई इंतजार नहीं कर रहा होता तो अक्सर हम वक़्त पर या वक़्त से पहले पहुँच जाते हैं. उदयपुर भी वक़्त से थोड़ा पहले ही पहुँच गयी. सलीम भाई कैब के ड्राइवर थे. उनसे बात करते हुए राजस्थान की खुशबू ने घेर लिया. शहर को मैं हसरत से देख रही थी, इस उम्मीद से कि जाने वो मुझसे दोस्ती करेगा या नहीं. हवा में हल्कापन था, हालाँकि देहरादून से जिस्म पर लदकर गयी जैकेट बेचारी बड़ा अजीब महसूस कर रही थी कि यहाँ तो ठीक ठाक गर्म था मौसम. शहर की हवा आपको बता देती है कि उसका आपको लेकर इरादा क्या है और मुझे इस शहर की हवाओं का मिज़ाज़ आशिकाना लगा. एयरपोर्ट से होटल पहुँचने के बीच मैं रास्तों से बातें करती रही, खुद को उदयपुर की हवाओं के हवाले करती रही. इस बीच सलीम भाई बात करते रहे. वो उदयपुर के दीवाने लगे मुझे. सारे रस्ते जिस मोहब्बत से वो उदयपुर के बारे में बताते रहे सुनकर बहुत अच्छा लग रहा था. यह जानकर कि मैं यहाँ पहली बार आई हूँ शायद उन्होंने इस बात की जिम्मेदारी ले ली थी कि वो मेरी दोस्ती उदयपुर से करवा ही दें. उन्होंने बताया कि यह शहर बनास नदी के किनारे बसा है. यहाँ बहुत सारी झीलें हैं, बहुत सारे महल. उन्होंने महाराज उदय सिंह के किस्से भी सुनाये जिन्होंने इस शहर को बसाया था. सलीम भाई की गाड़ी मानो सडक पर नहीं झील में नाव की तरह चल रही हो और उनकी बातें लहरों सी. कि यह शहर जादू करता है, जो यहाँ आ जाता है यहीं का हो जाता है. कि यहाँ के लोगों को किसी बात की हड़बड़ी नहीं, सब तसल्ली से जीते हैं. कि यहाँ भीड़ नहीं है, जनसंख्या भी तो बस 30 लाख ही है. सब पता है सलीम भाई को. वो चाहते हैं कि मैं पूरा उदयपुर देखूं, खूब दिन यहाँ रुकूँ और यहाँ का खाना खाऊं. होटल पहुँचने तक मैं सलीम भाई की जुबानी जिस उदयपुर से मिल चुकी थी, उसे अपनी नजर से देखने की इच्छा बढती जा रही थी. खाना खाने में वक़्त जाया न हो कि मेरे पास वक़्त ही बहुत कम है इसलिए खाने की इच्छा और भूख दोनों को इग्नोर किया और चल पड़ी अकेले फ़तेह सागर झील से मिलने. सलीम भाई जाते-जाते बता गये थे कि किस तरह सुखाडिया सर्कल जहाँ हम रुके थे से सिर्फ दस रूपये में मैं फतेह सागर पहुँच सकती हूँ. चलते समय कुछ दोस्तों ने फतेह सागर झील के लिए संदेशे भेजे थे उन संदेशों को साथ लिया और चल पड़ी. सुखाड़िया सर्कल से महज दस रूपये देकर विक्रम में बैठकर तेज़ आवाज में राजस्थानी संगीत सुनते हुए फतेह सागर झील के किनारे जा पहुंची. थोड़ा रास्ता पैदल का था जो अतिरिक्त सुख था. यह पैदल चलना मेरा खुद का चुनाव था. यह सुख लेना मैंने लन्दन की सड़कों पर घूमते हुए सीखा है. किसी भी शहर से दोस्ती करनी हो तो पहले उस शहर की सड़कों को दोस्त बनाना होता है. पैदल चलते हुए शहर जितना करीब आता है, कैब में बैठकर नहीं आता.

झील के किनारे पहुंचकर सबसे पहली अनुभूति हुई सुकून की, ठहराव की. मैंने झील को आदाब कहा उसने पलके झपकाकर, मुस्कुराकर करीब बिठा लिया. हम दोनों के बीच लम्बा मौन रहा. इस सुकून की मुझे कबसे तलाश थी. यह ठहराव, कबसे चाहिए था. भागते-भागते पाँव में छाले पड़ चुके थे लेकिन उन्हें देखने की फुर्सत तक नहीं थी. झील की ठंडी हवाओं ने उन तमाम जख्मों को सहलाया तो मेरी पलकें नम हो उठीं. जैसे बाद मुद्दत मायके लौटी बेटी को माँ की गोद मिली हो. जैसे प्रेमी ने माथा चूमते हुए और सर पर हाथ रखकर कहा हो ‘मैं हूँ न’. मैं अपलक उस शांति में थी. घूँट घूँट उस शांति को पीते हुए. इस पार से उस पार झील के किनारे धीर-धीरे चलते हुए मैंने खुद को पूरी तरह समर्पण की स्थिति में पाया.

अब तक निशांत आ पहुंचा था. निशांत हमारा देहरादून का साथी है. ‘क’ से कविता का साथी. वो उदयपुर में गांधी फेलोशिप कर रहा है. उससे मिलने के बाद मुझे लगा कि उदयपुर पहुँचने के बाद से अब तक जो मेरे साथ हो रहा है, निशांत भी उसी गिरफ्त में है. एकदम इश्कियाना. निशांत पूरे वक़्त उदयपुर की तारीफ में था. उसने पुराने उदयपुर से लेकर नए तक सब घुमाया. यहाँ के लोग, यहाँ की संस्कृति, मौसम, मिजाज़, खाना, चाय, सुबह, शाम, पंछी, ऊँट, झीलें, महल सबके सब निशांत की बातों में बनारस के पान की तरह घुले थे. मैं उस पान का स्वाद ले रही थी, मुस्कुरा रही थी. ‘मैम यहाँ की शाम बहुत अच्छी होती है, यहाँ शांति बहुत है. बहुत सुकून है यहाँ. यहाँ के लोगों को कोई जल्दी नहीं होती किसी बात की. कोई हड़बड़ी नहीं. लोग इत्मीनान से जीते हैं यहाँ. यहाँ लोगों ने अपनी संस्कृतियों को खूब सहेजा हुआ है. रोज शाम को कुछ न कुछ तो जरूर हो रहा होता है. यहाँ का खाना बहुत अच्छा होता है, थोड़ा तीखा होता है लेकिन स्वादिष्ट भी. यहाँ के जैसी चाय तो मैंने कहीं पी ही नहीं. यहाँ रह जाने का जी करता है...’ वो लगातार उदयपुर की तारीफ में था. सच कहूँ तो उसकी बाइक पर बैठकर उदयपुर घूमते हुए मुझे एक पल को भी नहीं लगा कि वो कुछ रत्ती भर भी ज्यादा तारीफ कर रहा है. उसकी बातों में जो उदयपुर था और मेरे सामने जो उदयपुर था दोनों ने मिलकर मुझे अपने इश्क की गिरफ्त में ले लिया था. निशांत मुझे सिटी पैलेस और पिछोला झील देखने के लिए छोड़कर चला गया शाम को फिर मिलने आने के लिए.

मैं अब सिटी पैलेस में थी. महलों की भव्यता में एक किस्म का गर्वीलापन शामिल रहता है. बड़े-बड़े किले, महल मुझे ज्यादा रास नहीं आते, उनकी बजाय मुझे नदियों, तालाबों के किनारे बैठना और ठेली पर चाय पीना ज्यादा पसंद है. लेकिन सिटी पैलेस की भव्यता में एक किस्म की सादगी भी दिखी मुझे. यह भव्यता आपको आक्रांत नहीं करती, आपसे दोस्ती करती है. मैं महल में घूमती फिर रही थी. यहाँ के दरो-दीवार से मुखातिब. कोई जल्दी नहीं थी. किसी के मूड का ख्याल नहीं रखना था. कहीं भी बैठ जाती थी, देर तक बैठी रहती फिर चल पड़ती. मैं असल में हवा को महसूस कर रही थी. अरसे से इस सुकून की तलाश में थी.

फिर पिछोला झील का किनारा मिला. शान्ति का चरम था यह. न कोई भीड़, न कोई हल्ला. सामने लहराती खूबसूरत झील और किनारे असीम शान्ति. देर तक उसे निहारती रही. फिर वहीँ बैठ गयी पहले कुर्सी पर फिर जमीन पर. ठंडी हवा के झोंके मन की थकन भी मिटा रहे थे. जो कभी नहीं हुआ वो पिछोला झील ने कर दिखाया कि थपकी देकर अपने काँधे पर सर रखकर सुला लिया. दिन में यूँ बाहर अकेले अनजाने लोगों के बीच अनजानी जगह मैं सो भी सकती हूँ कभी सोचा नहीं था. कब नींद आई पता ही नहीं चला. जब नींद खुली तो खुद को थकन से आज़ाद पाया. मैं पिछोला को देख मुस्कुराई, तुम्हें पता था न मुझे क्या चाहिए था. पिछोला के पानी ने छोटी सी उछाल ली और कहा, खुश रहो.

वहां से लौट रही थी बिलकुल ताज़ा और तनाव मुक्त होकर. शाम निशांत के इश्क के किस्सों के नाम और उदयपुर की स्पेशल चाय के नाम रही. आलू के पराठों के नाम भी. निशांत फिर से उदयपुर के किस्से सुना रहा था. यहाँ ये बहुत अच्छा है, यहाँ वो बहुत अच्छा है. आप रुकतीं तो वहां ले जाता आपको, वहां ले जाता. वो जहाँ ले जाना चाहता था उन जगहों के विवरण और उनसे उसका लगाव मुझे वहां ले जा चुका था, यह वो नहीं जानता था. जैसे कोई आशिक अपनी महबूबा के बारे में हर वक़्त बात करना चाहता है और बात करते हुए उसके चेहरे पर जो ख़ुशी होती है वैसी ही खुशी थी निशांत के चेहरे पर. उत्तराखंड के अगस्त्यमुनि की सुंदर वादियों में पला बढा, देहरादून में अपनी वैचारिकी निखारता यह लड़का आखिर उदयपुर के इश्क़ में यूँ ही तो नहीं पड़ा होगा. ‘मैम रात में उदयपुर बहुत खूबसूरत लगता है.’ वो बोल रहा था और मैं उदयपुर के इश्क में गिरफ्तार हुई जा रही थी.

यात्राओं में अक्सर अच्छी चाय न मिलना बेहद अखरता है. ज्यादातर अच्छी चाय के नाम पर ढेर सारा दूध, और शकर वाली चाय मिल जाती है लेकिन यहाँ कुल्हड़ में जो मिली स्वादिष्ट चाय तो दिल खुश हो गया. एक के बाद एक 3 चाय पी हमने. खूबसूरत रात, हल्की झरती ठंड जिसके लिए सिर्फ गुलाबी शाल काफी था के साये में पैदल घूमना...दिन बीत गया था. सुबह अल्लसुबह हमें सिरोही के लिए निकलना था. लेकिन सच यह है कि मैं अब भी उदयपुर में ही हूँ. उन्हीं गलियों में कहीं, वहीँ फतेह सागर झील के किनारे बैठी हुई, सिटी पैलेस में टेक लगाये हुए, पिछोला झील के किनारे सोई हुई या चाय की गुमटी पर चाय पीती हुई...

(फेमिना जनवरी 2019 अंक में प्रकाशित)