कौन है, कौन है वहां? दरवाजे की तरफ भागती हूँ...कोई आहट महसूस होती है. वहां कोई नहीं है. वापस आकर लेट जाती हूँ. कोई आएगा तो कॉलबेल बजाएगा न? आजकल तो सब शोर करके आते हैं...वाट्स्प मैसेज और फेसबुक अपडेट तक. यूँ आहट से पहचाना जाए ऐसा कौन है भला...पता नहीं. शायद वहमी हो गयी हूँ इन दिनों.
कानों में हर वक़्त कोई आहट गिरती रहती है. लगता है कोई आएगा. कोई आएगा यह सोचकर पहले कितने काम बढ़ जाते थे. रसोई में डब्बे तलाशना, बडबडाना ‘ओह...फिर कुछ नहीं बचा खाने को...कितना भी एडवांस में लाकर रखो ऐन वक़्त पर चीज़ें ख़त्म हो जाती हैं. फिर अचानक रसोई में सफाई की कमी नजर आने लगती है. कितनी भी सफाई करो कम ही लगती थी.’
‘बेडरूम कितना गन्दा है. बच्चों ने सब फैलाकर रखा है. दिन भर बटोरो दिन भर फैला रहता है. ड्राइंगरूम कितना उदास और अनमना सा है...ताजे फूलों ने कब का दम तोड़ दिया है और बासीपन का लिबास ओढकर सो चुके हैं. अख़बार पढ़े कम जाते हैं फैलते ज्यादा हैं. जिधर जाओ, उधर काम, एक प्याला चाय पीने की इच्छा को घन्टों की सफाई के अभियान से गुजरना पड़ता था.’
अब यह सब हंगामा नहीं होता क्योंकि ड्राइंगरूम अब रहा ही नहीं लेकिन आहटें खूब सुनाई देती हैं इन दिनों...कभी कभी लगता है असल में ये आहटें मेरे भीतर का कोई इंतजार है. किसका पता नहीं. लेकिन इंतजार तो है.
असल में कोई आये न आये मैं बचपन से पूरे घर को ड्राइंगरूम बना देना चाहती हूँ. उन्हू...ड्राइंगरूम नहीं बालकनी बना देना चाहती हूँ पूरे घर को...देखो न इसी चक्कर में बालकनी के गमले अक्सर कमरे में आते जाते रहते हैं...
सच कहूं मुझे ये ड्राइंगरूम वाला कांसेप्ट ही नहीं जंचता. वो मुझे एक नकली कमरा लगता है. जहाँ सब कुछ सजा होना चाहिए. नकली तरह से सजा हुआ. इन्सान भी. जो आये वो ड्राइंगरूम में बैठने के लिए तैयार होकर आये, मेजबान भी कपडे ढंग के पहन के सामने आये, सलीके से हाथ मिलाये या नमस्ते करे. दीवार पे टंगी महंगी पेंटिग अकड़ के कॉलर ऊंचा करके इंतजार करे कि आगन्तुक ज़रूर पूछें ‘ बड़ी अच्छी है, पेंटिंग किसकी है?’ कोई विदेशी नाम जानकर जिसे शायद आगन्तुक ने पहली बार सुना हो अचकचा कर ‘अच्छा-अच्छा’ कहते हुए संकोच में धंस जाए.
फिर वो महंगा वॉश, कालीन, सोफे...परदे...शो ऑफ में ऐंठते हुए दुनिया भर के देशों से बटोरकर लाये गये शो पीस. फिर महंगी क्रॉकरी में आया चाय नाश्ता...चमकते हुए गिलास में आया पानी जिसे देख इस डर के कि कहीं गिरकर टूट न जाए, प्यास ही मर जाए
जब मैं छोटी थी तो घर में ड्राइंगरूम नहीं था. एक ही कमरा था और कभी भी कोई भी आ सकता था. तो हर वक़्त कमरे को टाईडी रखने का दबाव रहता था और हर वक़्त खुद को भी ड्राइंगरूम मोड में रखना पड़ता था. फिर हमारी जिन्दगी में भी ड्राइंगरूम आ गया और साथ में और भी न जाने क्या-क्या आ गया. हालाँकि टाईडी रखने वाले दबाव से पीछा अब खुद ही छुड़ा चुकी हूँ. सोचती हूँ जिन दिनों ड्राइंगरूम नहीं थे उन दिनों में कितना कुछ था....बचपन की सारी मीठी स्मृतियाँ उसी एक कमरे वाले घर की हैं...धीरे धीरे घर के साथ हम भी बड़े होते गए. वैसे उन बिना ड्राइंगरूम वाले दिनों में ये आहटें कम होती थीं जो आजकल बढ़ गयी हैं.
आजकल जो लोग घर में आते हैं उनकी कोई आहट नहीं आती और जिनकी आहटें कानों में गिरती हैं उनका दूर दूर तक कोई अता-पता नहीं है.
फ़िलहाल, इन दिनों घर में कमरे कितने ही हों, ड्राइंगरूम कोई नहीं है...सब बालकनी हैं...हर कमरे में बारिश है...हर कमरे में चिड़िया आती है...सोचा था ड्राइंगरूम मोड के लोगों का न जीवन में कोई काम, न घर में. घर वही आएगा जो, घर आएगा यानी घर चाहे उखड़ा हो या बिखरा हो. चाहे चाय खुद बनाने के लिए भगोना भी खुद ही धोना पड़े आने वाले को. जिससे मैं मुस्कुराकर कह सकूँ ‘क्या खिलाने वाले/वाली हो आज?’ जो कुकर में हाथ डालकर मजे से चप चप करके सब्जी चाटकर खाए और पानी के लिए गिलास का मुह भी न देखे. जो बिखरे हुए को और बिखरा दे और ज़मीन पर पसरकर सो जाए कहीं भी...ड्राइंगरूम की ऐसी की तैसी जिसने जिन्दगी में भी कर रखी हो...कि स्लीपर्स में ही कोलम्ब्स बना फिरता हो...
तो घर तो ऐसा ही बना लिया है अब कि कॉलबेल भी बेमानी ही है...सीधे धड़धडाते हुए आने वाले दोस्तों का अड्डा. लेकिन यह बात समझ में नहीं आती कि ये रात-बिरात ‘कोई है’ की आहट किसकी होती है...क्या ये मेरा कोई डर है?
अभी-अभी पेपरवाले ने कॉलबेल बजाई है...महीने भर की पढ़ी-अनपढ़ी खूनी ख़बरों का बिल उसके हाथ में है...मेरे भीतर कड़क चाय पीने की इच्छा है...मुझे हिसाब करना पसंद नहीं...पांच सौ का नोट उसे पकड़ा देती हूँ, वो जितने वापस देता है फ्रिज पर रख दिए हैं बिना गिने हुए...
मेरा ध्यान चाय पर है...बाहर बारिश है...भीगने की इच्छा ज्वर के स्नेह के आगे नतमस्तक है...खिड़की से बारिश दिख रही है...सड़क दिख रही है...मिर्च के पौधे में लटकी मिर्चें इतनी प्यारी लग रही हैं मानो उनकी तासीर कडवे की है यह झूठ है...
घर में पसरा यह सन्नाटा, एकांत, ज्वर, चाय कितना जाना पहचाना सा है सब...फिर से कोई आहट सुनाई दी है मुझे...आपको भी सुनाई दी क्या?
6 comments:
कुछ वहम जरूरी भी हैं ।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (12-07-2017) को "विश्व जनसंख्या दिवस..करोगे मुझसे दोस्ती ?" (चर्चा अंक-2664) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
उफ़ एक साँस में पढ़ गयी कहानी। यह सच, वहम न जाने कितने लोग जीते हैं।
हार्दिक बधाई
Nice One !!!
हाँ,सुनाई दी आहट !!!
और हैरान हूँ कि कुछ आहटें कितनी मिलती जुलती हैं !
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