Thursday, March 30, 2017

हर दस्तक को गौर से सुनना...


दरवाजे पर पड़ती हर दस्तक बताती है
दस्तक देने वाले के भीतर की दुनिया का पता

हौले से दरवाजे पर कोई रखता है हाथ
होते-होते रह जाती है कोई दस्तक अक्सर
दस्तक देने वाले को पता होता है
कि दस्तक हुई नहीं
फिर भी
वो बेआवाज़ दस्तक को सुन लिए जाने के इंतजार में रहता है
पुकार से पहले सुन लिए जाने के सुख के इंतजार में

हथेलियों को आपस में रगड़कर
दरवाजे के खुलने का इंतजार करता आगंतुक
दोबारा दस्तक देने को हाथ बढ़ाता है

दोबारा दरवाजे पर हाथ ज[रखनेसे ठीक पहले रुक जाता है
यह सोचकर कि कहीं सोया न हो दरवाजे के उस पार का संसार

कहीं कोई झगड़े के बाद के अबोले में न हो
कहीं ऐसा न हो कि नींद के बाद का मीठा आलस घेरे हो उसे
कहीं दरवाजे की थाप से मीठा आलस बिखर न जाए

चुपचाप बिना दस्तक दिए वापस लौटने से पहले
दरवाजे को उदास नज़रों से देखता है
इस उदासी में एक राहत भी है
कितनी हिम्मत जुटानी होती है यूँ दरवाजों पे दस्तक देने को

कभी कोई बेधडक दस्तक भी सुनाई दे सकती है दरवाजे पर
जोर-जोर से, दरवाजे पर पड़ती दस्तकें
साधिकार, साभिमान दस्तकें
उनमें हड़बड़ी होती है अंदर आने की
सिर्फ दीवारों और छत के भीतर आने की,

कभी उदास दस्तकें भी सुनना
दरवाजे भीग जाते हैं इन दस्तकों से
ये दरवाजों पर हौले-हौले गिरती हैं
गिरती रहती हैं
मनुहार होती है इन दस्तकों में
बिना मांगी माफियाँ होती हैं
बहुत उदास होती हैं ये दस्तकें

बहुत रूमानी होती हैं कुछ दस्तकें
बस एक बार 'ठक' से बजती हैं दरवाजे पर
उन्हहू दरवाजे पर नहीं, सीधे दिल पर
दरवाजे के उस पार असंख्य फूल खिल उठते हैं
पर दरवाजा खुलता नहीं
दरवाजे के इस पार मिलन के न जाने के कितने पुल बनने लगते हैं
लेकिन दरवाजे पर दस्तक दोबारा नहीं उभरती
दरवाजे के इस पार से उस पार की दुनिया महकने लगती है
दरवाजा खुलता नहीं
मन खिलते रहते हैं
अभिमानिनी दरवाजा 'एक और' दस्तक का इंतजार करता है
अभिमानिनी आगंतुक बिना दोबारा दस्तक दिए
दरवाजे के खुलने का इंतजार करता है
दोनों तरफ एक हलचल भरा मौन उभरता है,
दरवाजा खुलता नहीं
आगंतुक लौट जाने से पहले
दोबारा दस्तक देने को हाथ उठाता है
दस्तक से ठीक पहले खुलता है कोई दरवाजा...
खुलती है कोई दुनिया भी

दरवाजे पे उभरी दस्तकों में कई बार दर्ज होता है 'भय'
हर एक दस्तक दिल में हजार संदेह पैदा करती है
ये दस्तकें असल में
खोले जाने का अनुरोध नहीं हैं, खुली धमकी हैं
दस्तकों का एक पूरा संसार है
हर दस्तक में कुछ चेहरे पैबस्त होते हैं
कुछ एहसास भी
लेकिन बहुत ज़रूरी है उन दस्तकों को सुना जाना जो
रह गयीं दस्तक बनते-बनते
किसी चेहरे में किसी एहसास में ढलते-ढलते
कभी दरवाजों से ज़रूर पूछना
उन अजनबी आहटों का हाल
जो बेआवाज़ लौट गयीं।


3 comments:

Onkar said...

वाह, क़माल की कविता

कौशल लाल said...

सुन्दर

Unknown said...

अति मार्मिक भाव।