Thursday, March 30, 2017

हर दस्तक को गौर से सुनना...


दरवाजे पर पड़ती हर दस्तक बताती है
दस्तक देने वाले के भीतर की दुनिया का पता

हौले से दरवाजे पर कोई रखता है हाथ
होते-होते रह जाती है कोई दस्तक अक्सर
दस्तक देने वाले को पता होता है
कि दस्तक हुई नहीं
फिर भी
वो बेआवाज़ दस्तक को सुन लिए जाने के इंतजार में रहता है
पुकार से पहले सुन लिए जाने के सुख के इंतजार में

हथेलियों को आपस में रगड़कर
दरवाजे के खुलने का इंतजार करता आगंतुक
दोबारा दस्तक देने को हाथ बढ़ाता है

दोबारा दरवाजे पर हाथ ज[रखनेसे ठीक पहले रुक जाता है
यह सोचकर कि कहीं सोया न हो दरवाजे के उस पार का संसार

कहीं कोई झगड़े के बाद के अबोले में न हो
कहीं ऐसा न हो कि नींद के बाद का मीठा आलस घेरे हो उसे
कहीं दरवाजे की थाप से मीठा आलस बिखर न जाए

चुपचाप बिना दस्तक दिए वापस लौटने से पहले
दरवाजे को उदास नज़रों से देखता है
इस उदासी में एक राहत भी है
कितनी हिम्मत जुटानी होती है यूँ दरवाजों पे दस्तक देने को

कभी कोई बेधडक दस्तक भी सुनाई दे सकती है दरवाजे पर
जोर-जोर से, दरवाजे पर पड़ती दस्तकें
साधिकार, साभिमान दस्तकें
उनमें हड़बड़ी होती है अंदर आने की
सिर्फ दीवारों और छत के भीतर आने की,

कभी उदास दस्तकें भी सुनना
दरवाजे भीग जाते हैं इन दस्तकों से
ये दरवाजों पर हौले-हौले गिरती हैं
गिरती रहती हैं
मनुहार होती है इन दस्तकों में
बिना मांगी माफियाँ होती हैं
बहुत उदास होती हैं ये दस्तकें

बहुत रूमानी होती हैं कुछ दस्तकें
बस एक बार 'ठक' से बजती हैं दरवाजे पर
उन्हहू दरवाजे पर नहीं, सीधे दिल पर
दरवाजे के उस पार असंख्य फूल खिल उठते हैं
पर दरवाजा खुलता नहीं
दरवाजे के इस पार मिलन के न जाने के कितने पुल बनने लगते हैं
लेकिन दरवाजे पर दस्तक दोबारा नहीं उभरती
दरवाजे के इस पार से उस पार की दुनिया महकने लगती है
दरवाजा खुलता नहीं
मन खिलते रहते हैं
अभिमानिनी दरवाजा 'एक और' दस्तक का इंतजार करता है
अभिमानिनी आगंतुक बिना दोबारा दस्तक दिए
दरवाजे के खुलने का इंतजार करता है
दोनों तरफ एक हलचल भरा मौन उभरता है,
दरवाजा खुलता नहीं
आगंतुक लौट जाने से पहले
दोबारा दस्तक देने को हाथ उठाता है
दस्तक से ठीक पहले खुलता है कोई दरवाजा...
खुलती है कोई दुनिया भी

दरवाजे पे उभरी दस्तकों में कई बार दर्ज होता है 'भय'
हर एक दस्तक दिल में हजार संदेह पैदा करती है
ये दस्तकें असल में
खोले जाने का अनुरोध नहीं हैं, खुली धमकी हैं
दस्तकों का एक पूरा संसार है
हर दस्तक में कुछ चेहरे पैबस्त होते हैं
कुछ एहसास भी
लेकिन बहुत ज़रूरी है उन दस्तकों को सुना जाना जो
रह गयीं दस्तक बनते-बनते
किसी चेहरे में किसी एहसास में ढलते-ढलते
कभी दरवाजों से ज़रूर पूछना
उन अजनबी आहटों का हाल
जो बेआवाज़ लौट गयीं।


Monday, March 27, 2017

एक चम्मच प्यार


प्रेम
उसे मालूम था कि
वो स्त्री है दुनिया की सबसे मजबूत स्त्री
जो है उसके प्रेम में
इसलिए उसने
सारे निर्मम प्रहार किये उस पर ही

एक चम्मच प्यार
क्या फर्क पड़ता है जिन्दगी में
अगर कम हो जाए 
एक चम्मच प्यार
सिवाय इसके कि जिन्दगी
‘जिन्दगी’ नहीं रहती...


विसर्जन 
राख सिर्फ फुंके हुए जिस्म की ही
नहीं बहाई जाती नदियों में

फुंके हुए अरमानों की राख
आंसुओं की खारी नदी में
बहाई जाती है जिन्दगी भर...


Tuesday, March 21, 2017

जीने से भी ज्यादा जियूँगी


सफर फिर पांव में बंधा है. साथ बंधा है अकेलापन भी. सफर से पहले कितना कुछ समेटना होता है. सफर पूरा होने पर कितना कुछ होता है करने को. लेकिन सफर के ठीक बीच में राहत के सिवा कुछ भी नहीं. लोगों का रेला है, रेल है खुद से मेल है. हरी सुरंग के बीच से गुजरते हुए, पहाड़ों पे हाल में गिरी बर्फ की तासीर हथेलियों पे लिए रेगिस्तान की तरफ का रुख किया है. रुख किया है असल में अपनी ओर. न जाने कितना सूखा भर गया है पिछले दिनों. बारिशों की लड़ियों से खेलते हुए भी, चितचोर चैत से लाड़ लड़ाते हुए भी, शायद खुद से लड़ते-लड़ते थकने लगी हूँ. जिंदगी से लड़ते-लड़ते ऊबने लगी हूँ. 

खैर, सफर है, आराम है...साथ कोई नहीं. इसका भी सुख है. कभी-कभी किसी का न होना भी कितना ज़रूरी होता है. वैसे कोई कभी भी कहाँ होता है, होने के तमाम वहम ही तो होते हैं.

सफर मोहक है हमेशा की तरह. खाना है, भूख नहीं, पानी है प्यास नहीं. बर्थ है नींद नहीं। बस छूटते हुए रास्तों को देखने का सुख है. जिंदगी जीने की तलब है. यूँ हारना अच्छा नहीं लगता, थकना अच्छा नहीं लगता. तरकीबें भिड़ाती रहती हूँ. धूमिल की कवितायेँ साथ हैं... दिन के बीतने और रात के करीब आने के बीच हथेलियों में इंद्रधनुष खुलता है. नागेश कुकनूर की फिल्म 'धनक.' कबसे लिये फिर रही हूँ, लेकिन देखने की फुर्सत और इच्छा दोनों का मेल होने के इंतज़ार में हूँ. फिल्म खत्म हो चुकी है... बस इतना कह सकती हूँ कि एक बार फिर नागेश से प्यार हो गया है. पूरी फिल्म सुख में डुबो चुकी है. मैं फ़िल्में देखते हुए खूब रोती हूँ. धनक पूरे वक़्त आँखें भिगोये रखती है. सुख का रुदन, जिंदगी में डूबने का सुख...

नागेश के लिए मन में शृद्धा जागती है. कितनी बारीक नज़र है और कितना सादा सा संवेदनशील दिल. पिछले किसी सफर में नागेश की ही 'लक्ष्मी' देखी थी आज तक सिहरन महसूस होती है और आज ये धनक....मीठी सी मासूम सी फिल्म. शाहरुख़ तुम पर कभी दिल-विल आया नहीं मेरा लेकिन धनक में तुम नहीं होकर भी दिल चुरा ले गए...

हाँ नागेश, जीने से भी ज्यादा जियूँगी मैं, उड़ानों से भी आगे उडूँगी...पक्का प्रॉमिस...

( सफर, इश्क़ शहर से गुलाबी शहर )

Friday, March 17, 2017

ओढ़े हुए तारों की चमकती हुई चादर...


आहट सी कोई आए तो लगता है कि तुम हो
साया कोई लहराए तो लगता है कि तुम हो

जब शाख़ कोई हाथ लगाते ही चमन में
शरमाए लचक जाए तो लगता है कि तुम हो
संदल से महकती हुई पुर-कैफ़ हवा का
झोंका कोई टकराए तो लगता है कि तुम हो

ओढ़े हुए तारों की चमकती हुई चादर
नद्दी कोई बल खाए तो लगता है कि तुम हो

जब रात गए कोई किरन मेरे बराबर
चुप-चाप सी सो जाए तो लगता है कि तुम हो...

- जां निसार अख्तर

Wednesday, March 15, 2017

खो चुका है अपने सारे रंग लोकतंत्र


ढेर सारे भ्रष्टों में किसी एक भ्रष्ट का चुनाव है लोकतंत्र
संविधान नाम की किताब का एक पन्ना है लोकतंत्र

बदलाव का एक सुपरहिट नारा है लोकतंत्र
बेईमान, हत्यारों, बलात्कारियों के आगे हारा है लोकतंत्र

सच्चाई और ईमानदारी की जमानत ज़ब्ती का ऐलान है लोकतंत्र
भीड़ को हांकने का साधा हुआ हुनर है लोकतंत्र

हुल्लड़बाज़ी और हंगामा है लोकतंत्र
जनता का फटा हुआ पाजामा है लोकतंत्र

छुटभैये नेताओं की सहालग है लोकतंत्र
मीडिया के पेट का राशन है लोकतंत्र

सुना तुमने? कहते हैं ईवीएम की कोई कारस्तानी है लोकतंत्र?
वैसे दिमागों को बरगलाने की शैतानी तो है ही लोकतंत्र

उंगली पर लगा एक गाढ़ा नीला निशान है लोकतंत्र
हालात के बद से बदतर होने जाने का प्रमाण है लोकतंत्र

इरोम की हार का शोकगीत है लोकतन्त्र
हत्यारे के चेहरे की कुटिल मुस्कान है लोकतंत्र।

खो चुका है अपने सारे रंग लोकतंत्र
अब तो बस एक बदरंग तस्वीर है लोकतंत्र

वोटर को उंगलियों  पर नचाने का खेल है लोकतंत्र
झूठ की चाशनी चटाने का नाम है लोकतंत्र

सुनो, सम्भल के इसे छूना, इसकी है बडी तेज़ धार
देश ही नहीं रिश्तों पर भी इसने किया है खूब प्रहार।

(अगड़म बगड़म )


Friday, March 10, 2017

क्यों है एग्जाम का हौव्वा?



इम्तिहान...एग्जाम...परीक्षाएं...सर पर सवार हैं...किसके? विद्यार्थियों के तो नहीं. फिर किसके सर पर सवार हैं? माँ बाप के, टीचर्स के, स्कूलों के, नौकरी देने वालों के? किसके सर पर सवार हैं ये जबकि चिंता तो सबको है कि बच्चे परेशान न हों, समाज बेहतर बने, शिक्षा का मकसद सिर्फ रोजगार की ललक में इकठ्ठा की गयी डिग्री न हो. तो फिर झोल कहाँ हैं? क्यों हमारे बच्चे मार्च आते ही डरने लगते हैं और जून आते ही खुश हो जाते हैं... यह सवाल बराबर खाए जाता है. जैसे और दूसरे तमाम सवाल खाए जाते हैं.

मैं जिस तरह सोचती हूँ उस तरह जीने का प्रयास करते हुए उसे महसूस करने का प्रयास भी करती हूँ. उस महसूसने के आधार पर सोचने को बदला भी है कई बार. कि सोचने और बात करने और जीने के बीच अगर कोई डिस्कनेक्ट है तो कुछ तो गड़बड़ है. तो ऐसा ही मैंने परीक्षा शब्द के साथ करने की कोशिश की. मेरे भीतर जो डर, जो भय 'परीक्षा' शब्द को लेकर बोये जा चुके थे उनका मैं कुछ नहीं कर सकी लेकिन यह प्रयास ज़रुर किया कि यह डर किसी और को न दूं. मैंने अपनी बेटी को कभी भी इस शब्द के घेरे में फंसने नहीं दिया.

जब क्लास के सारे बच्चे, बच्चों के पैरेंट्स घबराये होते थे हैं और मेरी बेटी मजे से खेल रहे होते हैं. एग्जाम को मुंह चिढाना उसे आता है. कल पेपर है इसलिए खेलना और टीवी देखना कभी बंद नहीं हुआ. न ही सोने से पहले हमारा गप्प मारने का सिलसिला. मुझे याद नहीं मैंने कभी भी उसे कहा हो पढाई करने को. बस यह कहा कि 'मजा न आये तो मत पढना, और मजा आने में अगर कोई दिक्कत आये तो ज़रूर बताना.' यह सिलसिला जारी है.

लेकिन समाज घर में सीखे हुए को चुनौती देने को तैयार रहता है. आज वो आठवी क्लास का इम्तिहान देने गयी है वैसे ही जैसे रोज जाती है, न कोई टीका, न दही चीनी न स्पेशल वाला गुड लक कि दिन अच्छा बीते और खूब मजे करो स्कूल में इस कामना के साथ रोज भेजती हूँ आज भी भेजा. लेकिन सवाल इतना भर नहीं है.

अब कुछ सवाल उसके भी हैं. मैंने उसे एग्जाम से डरना नहीं सिखाया लेकिन समाज एग्जाम नाम का डंडा लेकर पीछे पड़ा हुआ है. एक हौव्वा बना है चारों तरफ. बच्चे परेशान हैं, टीचर्स डरा रहे हैं, नाइंथ में आओ तब पता चलेगा...एग्जाम अब उसके अपने क्लास में नहीं होते. अलग से बड़े हाल में होते हैं. साथ में बैठे दोस्त अनजाने चेहरे बन जाते हैं, एग्जाम के दौरान आसपास अपने जाने पहचाने टीचर्स की जगह अनजान खडूस चेहरे टहलते हैं.

मेरा उसे बचपन से यह समझाना कि 'एग्जाम कुछ नहीं होता यह भी रोज के जैसा एक दिन है जिसे एन्जाय करो' धराशाई होने लगता है. वो पूरी हिम्मत से, लगन से मेरी सीख को बचाने की कोशिश करती है लेकिन कभी कभी हारने लगती है. तब मुझसे लडती है, सवाल करती है, 'क्यों इतना इम्तिहान का हौव्वा बना रखा है सब लोगों ने. जो आपने हमें सिखाया है वही तो पूछना चाहते हैं न? कोई नया पूछने में तो दिलचस्पी है नहीं किसी की? तो पूछ लो न आराम से, इतना डराते क्यों हो?' पेपर में सब आता होता है फिर भी काफी देर तो इस 'खतरनाक' माहौल से एडजस्ट करने में लग जाता है. वो उदास हो जाती है. कहती है 'मम्मा मुझे एग्जाम से डर नहीं लगता लेकिन ये एग्क्साम टाइम स्कूल जाने में मजा नहीं आता. '

एक रोज उसने बताया उसके क्लास एक बच्चा एग्जाम हॉल में बेहोश हो गया. वो डर के मारे बेहोश हो गया था. बहुत सारे बच्चों के पेट में दर्द होने लगता है, चक्कर आना, उलझन, घबराहट होना सामान्य बात है. बेटी कहती है, मेरे सारे दोस्त इतने परेशान होते हैं एग्जाम टाइम में कि मुझे भी बुरा लगने लगता है. क्या एग्जाम शब्द का यह हौव्वा दूर नहीं कर सकते आप लोग? मेरी बोलती बंद हो जाती है.

मुझे उन पैरेट्स के चेहरे आते हैं जो बच्चों के कम नम्बर आने पर बुझ जाते हैं और बहुत अच्छे नम्बर लाने के लिए टीचर्स से कहते हैं 'आप मारिये इसे जितना चाहे लेकिन नम्बर कम नहीं आने चाहिये.' जिनके लिए बच्चे का रिपोर्ट कार्ड उनका स्टेट्स सिम्बल है. वो पैरेंट्स भी याद आते हैं जिन्हें बच्चों को स्कूल भेजने का मतलब अच्छे नम्बर से पास होकर ही पता है.

इस अच्छे नम्बर के संसार पर बहुत सवाल हैं? रिपोर्ट कार्ड में अच्छे नम्बर जमा करने के चक्कर में जिन्दगी के रिपोर्ट कार्ड से नम्बर लगातार कम किये जा रहे हैं...यह तो ठीक नहीं है न? हमारे बच्चे परेशान हैं उन्हें इस नम्बर रेस से मुक्त तो करो.

Wednesday, March 8, 2017

सहिराना जादू और रंग अपने होने के...


'तुम्हारी हथेलियों में क्या है?' लड़की ने अपनी नजरें नई कोंपले वाले पेड़ की सबसे ऊंची शाख पर टिकाते हुए पूछा.
लड़के ने मुस्कुरा कर कहा, 'रंग'
लड़की ने मुस्कुराकर कहा, 'दिखाओ...'
लड़के ने हथेलियां आगे कर दीं...सुर्ख लाल रंग से भरी हथेलियां।
'क्या ये रंग पक्का है?' लड़की ने पूछा
लड़के ने उसके गाल पर अपनी उंगली से लाल लकीर खींचते हुए कहा, 'एकदम पक्का.'
लड़की मुस्कुराई. सांझ ने अपनी चादर में उन दोनों को समेट लिया।

चैत दरवाजे पर था और फागुन अपनी पोटली बांध रहा था। एक मौसम के आने और दूसरे मौसम के आने के बीच का जो समय होता है जिसमें जिंदगी के राग रहते हैं उसी मौसम में जब स्त्रियां जिदंगी के पक्के रंग ढूंढ रही थीं रंग जो जेहन को नई तरबियत से नई समझ से रंगें, जो रूहे सुखन बनें।

जाते फागुन ने चैत की हथेलियों पर आम की बौर रखीं, गेंहूं की बालियां रखीं, सरसों की लहक रखी, मिट्टी की महक रखी, जिंदगी जीने की शिद्दत रखी, मुश्किलों से लड़ने का हौसला रखा और कान में हौले से कहा, 'इस धरती का कोना-कोना प्यार से रंग देना।'

चैत बस दो कदम की दूरी पर था, उसने अपनी हथेलियों में फागुन की दी सारी नियामतों को सहेजते हुए मुस्कुराकर कहा, 'फिक्र न करो दोस्त, मैं ऐसा ही करूंगा' और ऐसा कहते हुए उसने धरती की तमाम स्त्रियों की ओर देखा। धरती के कोने-कोने को प्रेम के रंग में रंगने का काम स्त्रियों के सिवा कौन कर सकता है भला। इतनी सदियों से इस रंग को सहेजने का बीड़ा तो स्त्रियों ने ही उठाया है। आज दो-दो विश्वयुद्ध का सामना कर चुकी इस दुनिया में अगर अब तक प्रेम पर यकीन कायम है तो स्त्रियों के ही कारण। विध्वंसक समय और समाज में भी लोग उम्मीदों पर भरोसा करना चाहते हैं तो स्त्रियों के ही कारण।

मौसम हों, त्योहार हो या कोई और दिवस सब स्त्रियों ने अपने कंधों पर उठा रखे हैं। लेकिन एक बात बिगड़ गई इस सबमें कि स्त्रियां प्रेम सहेजते-सहेजते, धरती को प्रेम के रंग में रंगने की कोशिश करते-करते खुद को बिसराने लगीं। भूलने लगीं कि जिंदगी का हर रंग कच्चा है, हर राग अधूरा अगर वो खुद की कीमत पर सहेजा गया हो। घर, परिवार, समाज की उम्मीदों का बीड़ा उन्हें थमाकर कहीं उनके रंगों को धुंधला तो नहीं कर दिया गया।

स्त्रियों ने अब अपने लिए रंग तलाशने शुरू किये। पक्के रंग। उन्होंने सूरज से कभी न छूटने वाला सिंदूरी रंग लिया, खेतों से लिया मन को हर्षाने वाला हरा...गेहूं की बालियों सा सुनहरा रंग उन्होंने कानों में पहना और सूरजुखी सा पीला अपने गालों पर रंगा...एक एक कर उसके आंचल में आकर सजने लगे जीवन के सारे रंग...

स्त्रियों की टोली जब टेसू के रंग लिए नदी किनारे पर पहुंचीं तो नदियों ने इठलाकर अपनी हथेली आगे कर दी। टेसू के रंग नदियों में घुलने लगे...रंग धरती पर दौड़ने लगे...स्त्री विमर्श के शोर गुल से अनजान टेसू के रंगों से रंगी हथेलियों वाली स्त्रियों ने मुस्कुराकर कहा...'स्वाभिमान...!'

फागुन ने मुस्कुराकर कहा, चलो देर से सही यह रंग तुम्हें मिल तो गया...स्त्रियों ने मुस्कुराकर कहा, 'हां, हमने यह रंग जिंदगी सहेजते-सहेजते कहीं संभालकर रख दिया था. जैसे घर संभालते-संभालते रख देती हैं तमाम जरूरी चीजें खूब संभालकर। और संभालकर रखी हुई चीजें अक्सर नहीं मिलतीं। फिर अचानक कुछ और ढूढते वक्त कुछ और मिल जाता है जैसे आज फागुन की रंगत ढूँढ़ते ढूंढते, जिंदगी को झाड़ते पोछते वक्त आज यह रंग मिल गया है। अब जो मिल गया है ये रंग तो इस रंग को खोने नहीं देंगे। इस रंग में कितनी प्यारी खुशबू है न?' स्त्रियों ने मुस्कुराकर कहा। बसंत और फागुन दोनों उनके चेहरे पर आई चमक को देख रहे थे। तमाम रंगों में सजी संवरी हंसती खिलखिलाती स्त्रियां यूं तो हमेशा ही लुभाती हैं, उन पर हर रंग निखरता है, वो हर रंग में खिलती हैं लेकिन यह रंग जिसने आज की स्त्रियों का हाथ थामा है उसकी चमक ही अलग है। इक जरा सा खुद का हाथ थामते ही, इक जरा सा खुद को महसूसते ही कैसे सारे रंग जीवन के निखरने लगे...

'तुम्हें यह रंग मिला कहां,' बसंत ने पलकें झपकाकर पूछा, स्त्री ने कहा, 'आज मेरे महबूब शायर साहिर का जन्मदिन है। मैं जब उनकी नज्मों के करीब गई तो वहीं से यह रंग मिला. उनकी नज्में पलटते-पलटते सारे रंग फीके पड़ने लगे कि मोहब्बत के रंग गाढ़े होने लगे, गाढ़े होने लगे अना के रंग, मज़लूमों के, इंसानियत के ह.क में खड़े होने की इच्छा के पक्के रंग, गुरबत से, अन्याय से लड़ने की हिम्मत के रंग. कच्ची उम्मीदों के रंगों से दिल बेजार था बहुत तो किनारा किया झूठे वादों और कच्ची उम्मीदों के रंगों से...अब यूं ही बाजार में बिकने वाले रंगों से न खेलेंगे हम होली न मनायेंगे कोई स्त्री दिवस...कि रंग अपने होने के, खुशबू अपने अस्तित्व की और जेहन में घुलती साहिर की नज्.मों का जादू...'

लड़का अगले रोज फिर आया था उसके पास...इस बार उसकी हथेलियों में लाल, पीले, हरे, नीले रंग नहीं थे...उसके हाथों में थे गालिब, फैज., कैफी, मज़ाज, और साहिर के नगमे...लड़की की आंखों की चमक बढ़ गई थीं...फागुन की महक भी...उसने साहिर की नज्.म को चूमते हुए कहा, जन्मदिन मुबारक मेरे महबूब शायर...!

धरती पर अब नदियां नहीं रंग बह रहे थे, पेड़ों की शाखों पर अब फूलों में राग खिल रहे थे...इस रंग में रंगने से धरती की कोई स्त्री कोई पुरुष बच न जाये ध्यान रखना..

http://epaper.dailynews360.com/1129301/khushboo/08-03-2017#page/1/1

Thursday, March 2, 2017

पलाश के फूल दिल्ली और मौन में रिल्के...



मौसम वही है जाती हुई सर्दियों का...पलाश आसमान से लेकर ज़मीन तक छाये हुए हैं. इनको देखकर मन चिहुंक उठता है. जाने कैसा रिश्ता है इनसे। जिस तरह ये ऊंची-ऊंची टहनियों पर खिलकर मुस्कुराते हैं उतनी ही शिद्दत से सड़क पे बिछने के बाद मुस्कुराते हैं .. धरती हो या आसमान रंगत एक सी मुस्कुराहट एक सी... बेपरवाह, बेख़ौफ़। मैं इनके इश्क़ में हमेशा सुधबुध खो बैठती हूँ । रास्तों से भटक जाती हूँ, इनके चटख रंग जैसे हाथ पकड़कर किसी और ही दुनिया में ले जाते हैं, वही दुनिया जहाँ शायद मैं हमेशा से जाना चाहती हूँ...

दिल्ली पहुँचते ही पहली मुलाकात पलाशों से ही हुई दूसरी वरयाम सिंह जी से. वरयाम जी अब दूसरे नहीं लगते।उनसे जब भी मिलती हूँ जिस कदर लाड़ से वो मुझे, मेरे सपनों को, मेरी गलतियों को सहेजते हैं उनसे बहुत अपनापा हो गया है. उन्हें देख लगता है कि 'असल में बड़ा होना क्या होता है'.

वो मुझे पलाशों के साथ छोड़कर हँसते हुए चले जाते हैं, ये कहकर 'आना आराम से, मैं हूँ.' वो मुझे समझते हैं. इस दुनिया में कितने कम लोग किसी को समझते हैं.

झरते हुए पलाशों के बीच खड़े होकर लगता है मानो किसी ख्वाब की खिड़की खुल गई हो..मैं उस खिड़की से कूदकर भागी हूँ,  ख्वाबों के जंगलों में. ख्वाब भी तो बड़े आड़े-टेढ़े हैं... फूलों से ढंकी धरती के ख्वाब, नफरतों के साए से भी दूर जिन्दगी की मोहब्बत में डूबे लोगों की दुनिया का ख्वाब.

मेरे आसपास से लोग आ-जा रहे हैं. अजनबी लोग भी जाने-पहचाने लग रहे हैं, जाने-पहचाने भी अजनबी से. बूढ़े बाबा बड़े जतन से चाय बना रहे हैं... अदरक इलायची की खुशबू हवाओं में घुल रही है... मैं पलाश के जंगल में गुम हूँ चाय की खुशबू में कैद...मेरे दोनों हाथ जितने पलाश बटोर सकते थे, बटोर चुके हैं... पलाश बटोरते समय सोचती हूँ, 'काश कुछ और फूल बटोर पाती'. आखिर पलाशों से एकदम पट चुकी धरती पर बैठ गयी हूँ...'खुश हो?' कोरों से बहती बदली पूछती हूँ. चुप रहती हूँ....


बाबा आवाज़ लगाते हैं, 'बिटिया चाय पी लो आकर'
मैं उनको देख मुस्कुराती हूँ. मुझे उनकी आवाज धरती की सबसे प्यारी आवाज़ लगती है मानो वो चाय पीने को नहीं जी लेने को कह रहे हों.  मैं जितने पलाश समेट सकती हूँ सब समेटकर बाबा के पास चाय पीने पहुँचती हूँ. मैं अपनी ख्वाब की दुनिया में  इस जगह का 'पलाश कॉर्नर' रखना चाहती हूँ,  दुनिया के नक़्शे में यह 'मंडी हाउस' है. साहित्य अकादमी का गलियारा गुलज़ार है. कोई कोना मैं भी तलाशती हूँ... जहाँ मैं अपने पलाश भी संभाले रह सकूँ।

रूस का एक संसार खोलती हूँ. बोरिस पास्तेर्नाक डूबकर रिल्के की कवितायेँ पढ़ रहे हैं... मारीना रिल्के को ख़त लिख रही है...रिल्के मौन में हैं... पुश्किन की कविता 'टू द सी' वहीं है आसपास।

पलाश अब भी मुस्कुरा रहे हैं... दिन बीत चुका है, ओहो...'चुका' नहीं है, बीता है. बीतकर चुपचाप बैठा है पास में.
बीते हुए दिन का हाथ पकड़कर मुस्कुराती शाम में प्रवेश करती हूँ. हम दोनों दौड़ते फिरते हैं... झर चुकी शाखों पर नन्ही कोपलों का जादू फैल चुका है... हम उस जादू के साये में भागते फिरते हैं यूँ ही, बेवजह, शाम कब रात हुई, रात कब आधी रात पता नहीं, इतना पता है कि पलाश अब भी हाथ में खिले हुए हैं, उन्हें सिरहाने रखकर नींद की ओर देखती हूँ. बीता हुआ दिन पास आ बैठता है, कहता है, 'बीत जाने के बाद भी इतना बचा हुआ था मैं? मालूम नहीं था...' उसकी आँखों में चमक है, मेरी आँखों में नींद।

(२५ फ़रवरी  २०१७ , दिल्ली )