Wednesday, September 28, 2016

प्यार है तुमसे मेरे हीरो...


तारीखों के मुताबिक लोगों को याद करना मुझे पसंद नहीं. शायद मीडिया में ठीकठाक पारी खेलते हुए तारीखों के जश्न के बीच उन्हीं लोगों को मार्केट करते देखना और ठीक एक दिन बाद भूल जाना ३६४ दिन के लिए भी इसका कारण रहे होंगे. लेकिन मैं खुद अपना ही कंट्रास्ट खुद भी हूँ...क्योंकि कुछ तारीखें जो ठहरी हुई हैं जेहन में अपनी खासियत के चलते उन्हें ३६४ दिन याद भी रखा है, इंतजार भी किया है तारीख की मुठ्ठी खुलने का. ऐसी ही एक तारीख है २७ सितम्बर भी और २३ मार्च भी. 

जेहन से ये ख्याल कभी जाता ही नहीं कि अगर ये आज़ादी भगतसिंह  और  सुभाष  चन्द्र बोस की जानिब से आती तो इसकी अलग ही खुशबू होती. इन्कलाब जिदाबाद इस शब्द में भगतसिंह ने इतना रूमान भर दिया कि अब भी आँखें छलक पड़ती हैं...आज तुम्हारे जन्मदिन पर तुम्हें याद करते हुए तुम्हारे बार-बार पढ़े खतों को फिर फिर पलटती हूँ....कि तुमसे प्यार है मेरे हीरो...


शहादत से पहले साथियों को अन्तिम पत्र

22 मार्च, 1931

साथियो,

स्वाभाविक है कि जीने की इच्छा मुझमें भी होनी चाहिए, मैं इसे छिपाना नहीं चाहता। लेकिन एक शर्त पर ज़िन्दा रह सकता हूँ, कि मैं कैद होकर या पाबन्द होकर जीना नहीं चाहता।

मेरा नाम हिन्दुस्तानी क्रान्ति का प्रतीक बन चुका है और क्रान्तिकारी दल के आदर्शों और कुर्बानियों ने मुझे बहुत ऊँचा उठा दिया है- इतना ऊँचा कि जीवित रहने की स्थिति में इससे ऊँचा मैं हरगिज़ नहीं हो सकता।

आज मेरी कमजोरियाँ जनता के सामने नहीं हैं। अगर मैं फाँसी से बच गया तो वे जाहिर हो जाएँगी और क्रान्ति का प्रतीक चिन्ह मद्धिम पड़ जाएगा या संभवतः मिट ही जाए। लेकिन दिलेराना ढंग से हँसते-हँसते मेरे फाँसी चढ़ने की सूरत में हिन्दुस्तानी माताएँ अपने बच्चों के भगतसिंह बनने की आरजू किया करेंगी और देश की आजादी के लिए कुर्बानी देने वालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि क्रान्ति को रोकना साम्राज्यवाद या तमाम शैतानी शक्तियों के बूते की बात नहीं रहेगी।

हाँ, एक विचार आज भी मेरे मन में आता है कि देश और मानवता के लिए जो कुछ करने की हसरतें मेरे दिल में थीं, उनका हजारवाँ भाग भी पूरा नहीं कर सका। अगर स्वतन्त्र, ज़िदा रह सकता तब शायद उन्हें पूरा करने का अवसर मिलता और मैं अपनी हसरतें पूरी कर सकता। इसके सिवाय मेरे मन में कभी कोई लालच फाँसी से बचे रहने का नहीं आया। मुझसे अधिक भाग्यशाली कौन होगा? आजकल मुझे स्वयं पर बहुत गर्व है। अब तो बड़ी बेताबी से अंतिम परीक्षा का इन्तज़ार है। कामना है कि यह और नज़दीक हो जाए।


आपका साथी 
 भगतसिंह
कुलबीर के नाम अन्तिम पत्र

लाहौर सेण्ट्रल जेल,
3 मार्च, 1931

प्रिय कुलबीर सिंह,

तुमने मेरे लिए बहुत कुछ किया। मुलाक़ात के वक्त ख़त के जवाब में कुछ लिख देने के लिए कहा। कुछ अल्फाज़ (शब्द) लिख दूँ, बस- देखो, मैंने किसी के लिए कुछ न किया, तुम्हारे लिए भी कुछ नहीं। आजकल बिलकुल मुसीबत में छोड़कर जा रहा हूँ। तुम्हारी ज़िन्दगी का क्या होगा? गुज़ारा कैसे करोगे? यही सब सोचकर काँप जाता हूँ, मगर भाई हौसला रखना, मुसीबत में भी कभी मत घबराना। इसके सिवा और क्या कह सकता हूँ। अमेरिका जा सकते तो बहुत अच्छा होता, मगर अब तो यह भी नामुमकिन मालूम होता है। आहिस्ता-आहिस्ता मेहनत से पढ़ते जाना। अगर कोई काम सीख सको तो बेहतर होगा, मगर सब कुछ पिता जी की सलाह से करना। जहाँ तक हो सके, मुहब्बत से सब लोग गुज़ारा करना। इसके सिवाय क्या कहूँ?

जानता हूँ कि आज तुम्हारे दिल के अन्दर ग़म का सुमद्र ठाठें मार रहा है। भाई, तुम्हारी बात सोचकर मेरी आँखों में आँसू आ रहे हैं, मगर क्या किया जाए, हौसला करना। मेरे अजीज़, मेरे बहुत-बहुत प्यारे भाई, ज़िन्दगी बड़ी सख़्त है और दुनिया बड़ी बे-मुरव्वत। सब लोग बड़े बेरहम हैं। सिर्फ मुहब्बत और हौसले से ही गुज़ारा हो सकेगा। कुलतार की तालीम की फ़िक्र भी तुम ही करना। बड़ी शर्म आती है और अफ़सोस के सिवाय मैं कर ही क्या सकता हूँ। साथ वाला ख़त हिन्दी में लिखा हुआ है। ख़त ‘के’ की बहन को दे देना। अच्छा नमस्कार, अजीज़ भाई अलविदा... रुख़सत।

तुम्हारा खैरअंदेश
भगत सिंह

Thursday, September 15, 2016

कंधे से सटकर बैठने में बहुत सुख है...



जब खुद को उतारकर रख देती हूँ खुद से दूर कहीं ठीक उसी वक़्त किसी को अपने बहुत करीब पाती हूँ. चेहरा कोई नहीं बनता, एहसास होता है कि कोई है...बहुत करीब. ठीक उस तरह जिस तरह उसे होना चाहिए, बिलकुल उतना ही जितने की दरकार है न कम न ज्यादा. वो जो होना है वो उस उतारकर रखे गए के करीब बैठा होता है, कंधे से सटकर.

कंधे से सटकर बैठने में बहुत सुख़ है. सीलन से सर्द दीवार पे जब धूप गिर रही हो उस वक़्त उस दीवार से सटकर खड़े होना या उससे पीठ टिकाकर बैठने का सुख उसे कैसे पता. मैं दूर से बैठकर उसका खेल देखती हूँ. वो मेरी हथेलियों में धूप के सिक्के रखता है. ठीक उसी वक़्त सर पर खड़े पलाश के पेड़ की छाया गिरती है. हाथ पर दो सिक्के एक साथ रख जाते हैं...धूप भी, छाया भी...ऐसे ही मेरे चेहरे पर दो लकीरें गिरती हैं, तिरछी रेखाएं. चाँद और सूरज की रौशनी एक साथ...वो अपनी हथेलियों से कभी चाँद को ढांप देता है, कभी सूरज को...चेहरे पर अँधेरा नहीं गिरने देता...ये कोशिश भीतर के अँधेरे को रौंदने की है दरअसल...उसे मेरे चेहरे को सिर्फ अपनी हथेलियों से ढांपकर अँधेरा करना पसंद है...

पहाडी रास्तों पर हाथ पकड़कर भागता फिरता है वो मेरे साथ, बारिशों को उछालता है, मेरी तमाम तनहाइयों को फूंककर उड़ा देता है. मैं उसे दूर से देखती हूँ अपने ही साथ घूमते, चाय पीते, नज़र से नज़र जोड़कर घंटों बैठे रहना. मेरे तमाम दर्द वो अपनी अंजुरियों में सहेजता है, उन्हें पी जाना चाहता हो जैसे...कहता है वो तुम हो सिर्फ तुम ही...इस दुनिया में मेरी इकलौती प्रेमिका, न तुमसे पहले कोई न तुम्हारे बाद कोई...मैं सिसक उठती हूँ....सदियों से यही सुनने को हर प्रेमिका भटक रही है कितने जंगलों, रेगिस्तानों में...

फिर जैसे ही मैं अपना हाथ थामती हूँ...वो गुम हो जाता है...कहीं नजर नहीं आता. भीतर कुछ रेंगता महसूस होता है लेकिन. वो जो चला गया वो कौन था...वो जो मेरे मैं से अलग होने पर ही आता है...और मैं के करीब आते ही गुम हो जाता है...

जानती मैं भी हूँ....कि वो कौन है...फिर भी उसे चेहरे में तलाशने की आदत से बाज नहीं आती...अपने ही एहसास का कोई चेहरा होता है क्या...मैं दूर से देखती हूँ अपना चेहरा...दिप दिप करती चेहरे पर पड़तीं लकीरें...मुस्कुराती हूँ...

Thursday, September 1, 2016

तुम्हारे ख़यालो से घिरा हूँ - नेपोलियन




नेपोलियन बोनापार्ट का नाम आते ही एक योद्धा, एक शासक की छवि उभरती है। लेकिन इस शासक को, नेपोलियन को पत्र लिखने का बहुत शौक था। उसने अपनी पूरी ज़िन्दगी में ७५,००० ख़त लिखे। जिसमें से ज़्यादातर उसने अपनी पत्नी जोसिफिन को लिखे। कुछ शादी के पहले लिखे और काफ़ी सारे शादी के बाद भी। यह जो ख़त है नेपोलियन ने १७९६ में शादी से पहले अपनी पत्नी को लिखा था- प्रतिभा 

पेरिस, दिसंबर १७९५

प्रिय,

मैं सुबह जागा तो तुम्हारे ख़यालो से घिरा हुआ था। तुम्हारी तस्वीर, और तुम्हारे साथ बीती कल की खूबसूरत शाम का नशा मुझ पर अब तक छाया हुआ है। ओह मेरी प्यारी, अतुलनीय जोसिफिन, तुम्हारे एहसास ने मेरे दिल पर कैसा जादुई असर किया है।

प्रिय, कहीं तुम नाराज़ तो नहीं? कहीं तुम उदास तो नहीं हो? और चिंतित.....ओह तुम तो मेरी आत्मा हो। अगर तुम दुःख में हो तो तुम्हारे प्रेमी को एक पल का चैन भी भला किस तरह आ सकता है।

एक बात बताओ, क्या तुमने अपने दिल में मेरे लिए और भी बहुत कुछ बचाकर रखा है? हालाँकि प्रिय, तुम्हारे इन्तिहाई समर्पण और प्रेमपूर्ण भावनाओं ने मुझे अभिभूत कर रखा है। तुम्हारे दिल की जो बात मैंने तुम्हारे होंठो से सुनी हैं, तुम्हारे दिल की हलचल को जिस तरह महसूस किया है वो सारी ज़िन्दगी मेरे भीतर तुम्हारे प्रति प्रेम की ऊष्मा को बनाये रखने को काफी है...

मैं तुम्हारे प्यार की आग में ता-उम्र जलता रहूँगा। कल रात मुझे एहसास हुआ कि तुम्हारी तस्वीर की सुन्दरता तुम्हारी सुन्दरता के आगे कितनी कम है...

तुम दोपहर में निकल रही हो न? मैं तीन घंटों बाद तुमसे मिलूँगा।

तब तक ढेर सारा प्यार, हजारों चुम्बन। लेकिन तुम मुझे वापसी में कुछ मत देना प्रिय, क्योंकि वो मेरे खून में आग सी लगा देगा, मैं सह न सकूँगा प्रिय...

तुम्हारा