Friday, March 18, 2016

नो मोर ब्यूटी काॅम्प्लीमेंट्स प्लीज़!


जबसे समझ लिया सौन्दर्य का असल रूप
तबसे उतार फेंके जेवरात सारे
न रहा चाव, सजने सवरने का
न प्रशंसाओं की दरकार ही रही

नदी के आईने में देखी जो अपनी ही मुस्कान
तो उलझे बालों में ही संवर गयी

खेतो में काम करने वालियों से
मिलायी नजर
तेज़ धूप को उतरने दिया जिस्म पर
न, कोई सनस्क्रीन भी नहीं.

रोज सांवली पड़ती रंगत
पर गुमान हो उठा यूँ ही

तुम किस हैरत में हो कि
अब कैसे भरमाओगे तुम हमें...
- प्रतिभा कटियार

'सुंदर' शब्द समूची कायनात के लिए जो अर्थ रचता है वो स्त्री के वजूद से जुड़ते ही जाने कैसे उलझने लगता है। स्त्री के वजूद से जुड़ते ही सुंदरता नैन नक्श, लंबे बाल, गोरे रंग, बड़ी.बड़ी आंखें, सुराहीदार गर्दन, हिरनी जैसी चाल, गुलाब की पंखुड़ी से होंठ (और न जाने क्या.क्या) इर्द.गिर्द अटकने लगता है. सौंदर्य के मानक और उनका स्त्रियों से जुडना इतना महत्वपूर्ण बना दिया गया कि हर स्त्री अपने आपको इन्हीं मानकों के इर्द-गिर्द पहुंचा पाने की कवायद में जुट गई। हिंदी फिल्मों ने, गानों ने, मीडिया ने और बाजार ने इन मानकों को सरिया सीमेंट लगा-लगाकर खूब मजबूत किया। किसी ने अगर सौंदर्य के इन मानकों से थोड़ा आगे बढ़कर स्त्री को देखा तो घर के काम में निपुण, मदुभाषी, ममतालु, समर्पण को सुख समझने वाले व्यक्तित्व के रूप में देखा गया।

शादी के लिए लड़कियों को बचपन से ही तैयार किया जाता, कैसे हंसना है, कैसे चलना है, कैसे बोलना है,ससुराल जाओगी ते सास क्या कहेंगी, मां ने लड़की को कुछ सिखाया ही नहीं जैसी परवरिश। नतीजा ये कि सौंदर्य और घर के कामों में निपुण होने के अच्छी लड़की वालेे इन मानकों में उलझे-उलझे ही उनका तमाम जीवन बीतने लगा। यह पितृसत्ता ही है जिसने सदियों से स्त्रियों के दैहिक सौंदर्य, आभूषणों, बनाव-श्रृंगार आदि को सलीब सा लाद दिया उन पर, जिसे ढोते हुए वे मुस्कुरा रही हैं। आज भी जबकि हम कहते हैं कि हम काफी आधुनिक हो गये हैं, सौंदर्य के इन मानकों में उलझने से बच नहीं पाते। कितनी ही संभावनाएं पितृसत्ता के इस मकड़जाल में उलझकर रह गई। कितनी ही प्रतिभाओं को उनके सौंदर्य के बरक्स आंककर उनके काम को कमतर साबित किया गया।

सबसे दुःखद यह है कि यह सब जिस ढंग से हुआ, जितने महीन रेशे हैं इस पूरे चक्रव्यूह के कि स्त्रियां खुद भी अक्सर समझ नहीं पातीं कि उनके सौंदर्य की प्रशंसा करके उनके पूरे व्यक्तित्व को एक छोटे से घेरे में समेटकर रख दिया जा रहा है। एक ही तीर से दो निशाने साधते हुए जो बकौल मानक तनिक कम सुंदर हैं उनके भीतर जीवन भर की हीन भावना भर दी जाती रही और जो ज्यादा सुंदर हैं वो आत्ममुग्धता और प्रशंसाओं में घिर जाती हैं। कितनी ही लड़कियां अपने सांवले रंग के कारण रातों को छुप.छुपकर रोती रहीं और उम्र भर अपने रंग के लिए कोसी जाती रहीं। जाने कितनी ही लड़कियां उम्र भर अपने सौंदर्य, अपने रंग, अपनी आखों, अपने लंबे, कद पे इतराती रहीं।

जिस सौंदर्य से जीवन खिल उठना था, महक उठना था उसने न सिर्फ तमाम संभावनाओं का अंत किया बल्कि कहीं सुपीरियटी तो कहीं इनफीरियटी काॅम्पलेक्स में समेटकर रख दिया। जब आधी आबादी की संभावनाएं यूं समेट दी जाएं तो दुनिया जहां के तमाम अवसरों, तमाम संभावनाओं पर एकछत्र राज्य किसका हुआ? पितृसत्ता ने कितने महीन रेशों से आधी आबादी की जड़ों को कमजोर किया है कि जिनके साथ नाइंसाफी हुई उन्हें भी इसकी खबर न हुई।

मुझे याद है बचपन से ही मुझे अपने सुंदर न होने का भान हो गया था। लेकिन मैंने इसके पहले कि यह मेरा काॅम्पलेक्स बनता मैंने अपना सारा ध्यान पढ़ने-लिखने पर लगाया। सुंदर दिखना, सजना संवरना मुझे लगता था ये मेरे लिए है ही नहीं। यही वजह थी कि किसी भी पार्टी में जाने की बात सुनकर आंसू आ जाते थे। उस नन्ही उम्र के मन में उपजा कोई काॅम्पलेक्स ही रहा होगा शायद जो आंसू बन बहता होगा।

स्त्रियों के सौंदर्य के मामलों की पर्तें खोलने के लिए एक और निजी अनुभव साझा करना जरूरी लग रहा है। वो बात जो कहती तो रही हूं पुख्ता ढंग से, जीती भी रही लेकिन लिखा-पढ़ी में कभी आई नहीं। 17 बरस की उम्र में मेरा एक बड़ा एक्सीडेंट हुआ। मौत के मुंह से बचकर वापस आने जैसा अनुभव। सालहा अस्पतालों, डाॅक्टरों, दवाइयों के जाल और एक कदम भी जमीन पर रखने की मोहताजगी के बाद जब उठी तो समाज की चिंता में मुखरता से यह बात आती कि चलो अच्छा हुआ चेहरे पे कोई निशान नहीं आया। लेकिन यह चिंता भी कि मेरे बांयें हाथ में आये 120 टांकों के निशान मेरी शादी में मुश्किल खड़ी करेंगे। अजीब बेचारगी से मुझे देखा जाने लगा। मेरे घरवाले लाख रैडिकल रहे लेकिन समाज का दबाव उन्हें भी प्लास्टिक सर्जरी के लिए उकसाने लगा। पहली बार मैंने किसी बात का मुखर विरोध किया था यह कहकर कि जो लड़का मेरी देह पर लगे कुछ चोट के निशान स्वीकार नहीं कर सकेगा, वो मेरे मन की मुश्किलों को कैसे समझ पायेगा भला। ऐसे लड़के को तो मैं खुद ही अस्वीकार कर दूंगी, कोई प्लास्टिक सर्जरी नहीं होगी, वो निशान अब भी हाथ पर मुस्कुराते हैं, अब भी जब-तब उसे कुछ कमेंट्स मिलते हैं, मुझे कभी बेचारगी से देखा जाता है कभी ये सुझाव दिए जाते हैं कि अब भी प्लास्टिक सर्जरी करवा लो। जबकि मैं यह अच्छी तरह से जानती हूं कि दरअसलए सर्जरी की जरूरत तो जे़हनी तौर पर बीमार इस समाज को है जो सौंदर्य को इतने सीमित अर्थों में देख पाता है। खासकर स्त्रियों के बरअक्स।

अब भी अस्पतालों में नर्सें बेटी होने की खबर के साथ खूब गोरी बेटी हुई है कहते हुए अतिरिक्त उत्साहित होती हैं। दूसरी तरफ 'एक तो बेटी ऊपर से रंग भी दबा हुआ' कहकर सर झुकाये बैठे घरवालों भी नज़र आते हैं.

ब्यूटी पार्लरों का बढ़ता शिंकजा, सात दिन में गोरा होने वाली क्रीम का बाजार, करवाचौथ पर सर से पांव तक सजा-संवारकर हर लड़की को सुंदरता के मानकों में जड़ देने की कोशिश के चलते अक्सर लोग यह कहना भूल ही जाते हैं कि आपका काम बहुत सुंदर है, आपका लिखा, आपकी ड्राइविंग, आपका बंदूक चलाना, हवाई जहाज उड़ाना, आपका धान रोपना, फसल काटना कितना सौंदर्य है इनमें, कितनी खुशबू।

स्त्रियों को अपने भीतर के इस सौंदर्य को पहले खुद महसूस करना, उसे निखारने की कोशिश करना और शारीरिक सौंदर्य पर आत्ममुग्धता या हीनता से आजाद होना जरूरी है। जरूरी है दैहिक सौंदर्यों पर मिलने वाले काॅम्प्लीमेेंट्स को सर पर चढ़ाने से बचना और इंतजार करना अपनी दूसरी क्षमताओं पर मिलने वाले काॅम्पलीमेंटस का। सौंदर्य बहुत व्यापक शब्द है. सौंदर्यजाल से मुक्त होकर ही सौंदर्य की उस व्यापकता तक स्वयं स्त्री भी पहुंच सकती है और समूची सृष्टि भी, वो भी जिन्होंने स्त्रियों को महज देह के सौंदर्य में बांधकर रख दिया है....

Wednesday, March 16, 2016

पोस्ट....लाइक, कमेंट्स, जिंदगी की नई इबारत....


फेसबुक- लम्हा लम्हा दर्ज होती जिंदगी

काश कोई हमें सुन लेता, वहां से जहां शब्दों का कोई काम ही नहीं रहता। काश कोई हमें पढ़ लेता ठीक वहां से जहां अक्षरों में दर्ज होने के कोई मायने नहीं रहते। काश कोई खामोशी की आंच में पकते दुःख में अपने होने के अहसास को मिला देता। काश कोई घड़ी भर को हमें तन्हा छोड़ देता कि अरसा हुआ खुद से बात ही नहीं हुई। लेकिन ये ख्वाहिश तो जिंदगी से कुछ ज्यादा ही डिमांड करने जैसा है। आलम तो यह है कि जो कहा जा रहा है उसे ही ठीक से समझ पाने में दिक्कत है। जो लिखा जा रहा है उसके अर्थों की अर्थी निकालने वालों की कमी नहीं। खामोशी....? किसे वक्त है खामोशी सुनने की, और चुप ही कौन है यहां...हर वक्त आवाज ही आवाज...अपने आप से बात करने पर कितने लाइक्स आयेंगे भला...? अपने आपसे हुई बात को भी चलो झट से दर्ज करके देखते हैं।

यह इंस्टेंट काॅफी का जमाना है। हर चीज इंस्टेंट। सुख, दुःख, प्रेम, विरह, रचनाधर्मिता, कला, कविता, कहानी, फोटोग्राफी, समीक्षा, आन्दोलन, खबरें, गाॅसिप, गुटबाजी सबकुछ इंस्टेंट। फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सएप और न जाने क्या-क्या। बात दिमाग में पूरी तरह आ भी नहीं पाती कि चैराहे पर टंग जाती है। बात पूरी समझ भी नहीं पाते हैं कि लाइक्स और कमेंट्स की भीड़ बढ़ने लगती है। अजीब सा नशा है इसमें...नशा...हां, नशा ही तो है...इस कदर नशा कि एक भी पल इसके बिना रहना मुश्किल लगता है। हाथों में मोबाइल है, मोबाइल हमेशा चैराहे से आपको जोड़े रखता है। बाहर की दुनिया से, अनजान लोगों की दोस्तियों से जुड़े रहने का ऐसा नशा कि अपने आसपास की दुनिया, अपने भीतर की दुनिया सबसे दूरी बढ़ती जा रही है।
मां हाॅस्पिटल मेें है, फेसबुक पे दर्ज है...पिता का इंतकाल हो गया.. फेसबुक पर दर्ज। ब्रेकअप, फेसबुक पर, इन अ रिलेशनशिप फेसबुक पर। सुबह के खाने में पकौड़े खाये या पोहा, फेसबुक पर, आज शाम की लोकल छूट गई....फेसबुक पर...लम्हा लम्हा जिंदगी फेसबुक पर दर्ज हो रही है। कहीं घूमने जाइये तो फेसबुक फोटोग्राफी की ऐसी भीड़ उमड़ी नजर आती है कि क्या कहा जाए...वही पोज, वही मुस्कुराहट, सब कुछ कृत्रिम। जैसे जीवन का उद्देश्य ही फेसबुक भर बनकर रह गया हो। सारे लोग घूमने जाते हैं, हमें भी जाना चाहिए। कितने दिन से अच्छी और नई प्रोफाइल पिक्चर अपलोड नहीं हुई तो निकल पड़े अच्छे दृश्यों और फेसबुक पर अपलोड करने वाली तस्वीरों की तलाश में। कई बार लगता है कि जिंदगी को दर्ज करने की आपाधापी में जिंदगी को जीना भूल गये हैं। किसी झरने के किनारे बैठकर खामोशी से उसकी आवाज सुनने, उसकी धार को महसूसने, प्रकृति के नजारों को आंखों में उतार लेने की बजाय सही फ्रेम की तस्वीर लेकर तुरंत अपलोड करने की हड़बड़ी कहां ले जा रही है पता नहीं....लेकिन जिंदगी फेसबुक पर लम्हा-लम्हा दर्ज हो रही है।
वाह...वाह....लाइक...सुपर लाइक...के बाजार सजे हैं...रात दिन चमचमाते बाजार। रात के एक बजे भी आप इस बाजार से गुजर जाइये तो रौनकें आपको आवाज देंगी। आपके कदम ठिठक जायेंगे। कभी तो उदास कदमों को मुस्कुराहटों की नेमत भी मिल जाती है यहां लेकिन इंस्टेंट...पेन रिलीवर की तरह। उसके साइड इफेक्ट....उन पर भी सोचना जरूरी है।
यह सोचना जरूरी है कि अनजाने कहीं फेसबुक एडेक्शन सिंड्रोम के शिकार तो नहीं हो रहे हैं। कहीं ये लाइक्स, सुपरलाइक्स की दुनिया जिंदगी में दीमक बनकर तो नहीं लग रही। यह ठीक है कि अभिव्यक्तियों को जगह मिल रही है लेकिन उस जगह को भर लेने की हड़बड़ी में काफी कुछ गड़बडि़यां भी हो रही हैं। रात दिन की आॅनलाइन मसरूफियत ने एक किस्म का दबाव भी बनाना शुरू कर दिया है, कुछ अवसाद को भी जन्म दिया है, जीवन में एक अजीब सा छद्म पाॅपुलैरिज्म पैबस्त होने लगा है....जिंदगी ही क्यों कई बार तो मौत भी यहां दर्ज होती नजर आती है....
एक- एक रात तकरीबन डेढ़ बजे किसी की वाॅल पर मैसेज चमकता है, तंग आ गया हूं जिंदगी से...बहुत हुआ अब....और सुबह पता चलता है कि उस शख्स ने मैसेज लिखने के करीब दो घंटे के भीतर फांसी लगाकर जिंदगी खत्म कर ली।
फेसबुक पर लोग उसे समझाते रहे, कुछ चुटकियां लेते रहे...कुछ वजहें पूछते रहे...लेकिन वो जवाब देने के लिए नहीं लौटा...जिस अनहोनी की खबर उसने सारी दुनिया को कर दी थी उसी से अनजान उसके घर वाले दूसरे कमरों में सोए हुए थे।
दो- पिछले कई दिनों से उसकी वाॅल पर लगातार अपडेट्स बढ़ गये थे। कुछ नहीं तो तस्वीरें ही बदली जा रही थीं, गाने शेयर किए जा रहे थे। एक दिन में चार-पांच-छह बार तक स्टेटस अपडेट हो रहे थे। एक दिन तो हर घंटे पर अपडेट। वो खुशी की बात करता था, जिंदगी की बात करता था, जुमलों में बात करता था....फिर अचानक एक दिन सब खत्म हो गया....कोई अपडेट नहीं आया...कभी भी नहीं...कोई नहीं समझ पाया कि उसकी जिंदगी में कौन सा अवसाद उसे निगल रहा है।
तीन-उसकी शादी की तैयारियां जोरों पर थी। फेसबुक पर होने वाले पति की बातें, लहंगों के रंग, मेंहदी की डिजाइन सब शेयर हो रहा था। लेकिन एक रोज जो शेयर हुआ वो यह था कि उसके होने वाले पति की एक्सीडेंट में मौत हो गई। जाहिर है पूरी वाॅल संवेदनाओं से पट गई। काफी दिनों तक लोग फेसबुक वाॅल पर उसे सहेजते रहे, संभालते रहे। बहुत बाद में किन्हीं और सूत्रों से पता चला ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था। यह सारा किस्सा लोगों का ज्यादा से ज्यादा अटैंशन पाने के लिए गढ़ा गया था। यह हैं बीमारी के लक्षण। किसी भी कीमत पर अटैंशन चाहिए ही चाहिए। अपनी जिंदगी के निजतम लम्हों को दर्ज करने की कीमत पर भी। 

फेसबुक हिंदुस्तान के लिए नया ही है अभी। अभिव्यक्ति का नया माध्यम। मैं इसे चैराहा कहा करती थी। मुझे याद है कि मुझे यह पसंद भी नहीं था कि चैराहे पर जाकर अपनी बात को रखना। यह बात तो कभी समझ ही नहीं आई कि जिस जिंदगी में एक खालिस दोस्त को तरसते हों, उसमें हजारों दोस्त होने के क्या मायने होते हैं। बावजूद इसके फेसबुक जिंदगी में दाखिल हो ही चुका है।
यह अभिव्यक्ति का सुंदर संसार है अपने तमाम जोखिम के साथ। जोखिम, जिन पर अक्सर नजर नहीं जाती। यह सुनकर मुझे तो आश्चर्य ही हुआ था जब मेरी एक मनोचिकित्सक दोस्त स्नेहा बनर्जी ने बताया कि उसके पास आजकल फेसबुक सिंड्रोम के शिकार लोगों की संख्या बढ़ने लगी है। दूसरी तमाम मनोवैज्ञानिक बीमारियों की तरह फेसबुकिया सिंड्रोम को भी पकड़ पाना आसान नहीं। समझ ही नहीं आता कि एक स्वस्थ संवाद के इरादे से जिस दुनिया में प्रवेश किया था, जहां अपनी बात को रख पाने का सुख मिला था, जहां तमाम जाने अनजाने दोस्त मिले थे, जो हमारी बात को हर वक्त सुनने को तत्पर रहते थे कभी लाइक का बटन दबाकर कभी कमेंट करके, वही दुनिया कब बीमारी बनने लगी।
यह मन के उबाल का ठीहा है। जो मन में आया झट से उड़ेल दिया। अब मन के उबाल का ठीहा है तो जाहिर है मन की तरह चंचल भी होगा। हर तरह के भाव दुनिया के सामने झट से रख दिए जाते हैं। पूरी दुनिया, माने आपके आभासी दोस्तों की दुनिया। ये आभासी दोस्त मन के भावों को अलग-अलग तरह से ले रहे होते हैं। किसी को आप दुखी नजर आते हैं अपने स्टेटस में तो सांत्वना के, समझाने के लिए लोग बढ़ते चले आते हैं। कोई मसखरी करता है, टांग खींचता है। मन के नितांत अकेलेपन में यह झूठे-सच्चे लाइक्स, कमेंट्स फौरी तौर पर तो राहत देते से मालूम होते हैं लेकिन खतरा तब बढ़ता है, जब इनकी आदत होने लगती है। इनका नशा होने लगते हैं। लाइक्स कम होने पर विचित्र सी उपेक्षा का भाव हावी होने लगता है। चिड़चिड़ापन होने लगता है। लोग यहां तक स्टेटस पर लिखने लगते हैं कि इतने दिनों में मुझे किसी ने मिस भी नहीं किया। मेरे इतने सारे फेसबुक फ्रेड्स में से कितनों ने मेरा हाल पूछा जब बुखार हुआ, कितनों ने जब फ्रैक्चर हुआ। सुबह की चाय से लेकर रात के खाने तक का मेन्यू फेसबुक पर देखा जा सकता है। इतनी बात तो कभी मां-बाप, भाई बहन, चाचा-ताऊ या दोस्तों से भी नहीं की होगी। लेकिन यहां लम्हा-लम्हा जिंदगी खुल रही है, बिखर रही है।

मन खोलने के इस ठीहे में और भी चीजें दर्ज हो रही हैं, शादी की सालगिरह, पत्नी से प्रेम, गर्लफ्रेंड के लिए लिखा गया खत, इतिहास से उठायी गई कविता, किसी का कोई शेर...सुबह का नाश्ता, दोपहर का खाना, सिटी बस का छूट जाना, मेट्रो में टकराना किसी पुराने दोस्त से, देखना कोई अच्छी सी फिल्म, गरिया देना राजनीति को....कुछ भी। सब कहने की आजादी है...इधर स्टेटस अपडेट हुआ उधर लाइक्स गिरने शुरू। कभी-कभी तो हैरत होती है कि जिस स्टेटस पर झट से लाइक मिलने शुरू हो गये हैं, उसे तो पढ़ने में ही कम सम कम दो मिनट लगते, फिर सेकेंड्स में कोई लाइक कैसे कर सकता है।
अब तक अपने मन की कहने सुनने को जिस एक दोस्त की तलाश में हम जिंदगी के चक्कर काटते फिरते थे, उसे एक भीड़ रिप्लेस करने की छद्म भूमिका निभा रही है। जब तक इस सबका आनंद मुट्ठियों में है ठीक है लेकिन जैसे ही यह आनंद, कमजोरी बनने लगता है एक अवसाद, एक खालीपन घेरने लगता है। तब हजारों दोस्तों के सैकड़ों कमेंट्स और लाइक्स मददगार साबित नहीं होते....
हां, मुझे आदत है फेसबुक की- सत्रह बरस का अनुज सुबह-सुबह अपनी मां से झगड़ रहा है, हां, मुझे आदत है फेसबुक की। तो क्या करूं, आपके पास तो वक्त रहा नहीं कभी मेरे लिए। आपको और पापा को कभी फुरसत होती है मुझसे बात करने की। जब बात करते हो बस डांटने के लिए या मुझे मेरी कमियां बताने के लिए। जैसे मुझमें सिर्फ कमियां ही हैं, मैं सिर्फ गलतियां ही करता हूं, अच्छा तो कुछ करता ही नहीं। मेरे फेसबुक के दोस्त मेरी कितनी तारीफ करते हैं पता है। मुझे काॅन्फिडेंस आया है कि मैं भी अच्छा लिख सकता हूं, मेरे पास भी ऐसी बात है कहने को जिसे लोग पसंद कर सकते हैं। कितने सारे, कितने अच्छे दोस्त मिले हैं मुझे....
यह भागते-दौड़ते जीवन का एक सिरा है। दौड़ते-भागते हम अपनों से ही कितनी दूर निकल आये हैं। उस अकेलेपन ने, खुद को प्रशंसित करने की इच्छा ने, दूसरों द्वारा स्वीकृत होने और पीठ थपथपाये जाने की आकांक्षा के लिए इस आभासी संसार ने द्वार खोले। जो आपसे कभी मिला नहीं, वो हजारों किलोमीटर दूर बैठकर आपके एक-एक शब्द पर आपको शाबासी दे रहा है। पल भर में निराशा दूर कहीं छिटककर चली जाती है और व्यक्ति खुद को एक नशे में डूबता उतराता महसूस करता है। एक सैलाब, एक कोलाहल बिखरा हुआ है जो हाथ पकड़कर खींच ले जाता है दूर एक आभासी संसार में।
कुछ फासला तो होगा- यह मानवीय स्वभाव है जो लोगों का खिंचाव चाहता है, प्रशंसा चाहता है, खुद को महत्व देना चाहता है और दूसरों से भी महत्व पाना चाहता है। फेसबुक ऐसी ही मानव सुलभ आकांक्षाओं को पूरा करने की जगह है। पल भर में मूड बदलने की जगह। पल भर में अपना गुस्सा उगलने की जगह। जो फेसबुक जिंदगी में शामिल हुआ था, कब वो कब जिंदगी बनने लगता है पता ही नहीं चलता। फेसबुक के जरूरत से ज्यादा जिंदगी में दाखिल होने के तमाम जोखिम हैं जो अक्सर लोगों को पता भी नहीं चलते। लेकिन होता कुछ यूं है कि-
- आसपास के लोगों से कम बात होने लगती है।
- फोन पर बात करना भी कम होता जाता है
- सामाजिक गतिविधियों में भागीदारी कम होने लगती है
- घूमना, फिरना, आउटडोर गेम्स की जगह जिंदगी में कम होने लगती है
- खाना खासकर डिनर का टाइम गड़बड़ाने लगता है
- ज्यादा वक्त इंटरनेट पर बीतने लगता है
- नये-नये फेसबुक फ्रेंड्स में दिलचस्पी बढ़ने लगती है
- घर के लोगों से भी फेसबुक पर बात होने लगती है
- अगर किसी वजह से इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध न हो पाये, कनेक्शन न मिल पाये या नेटवर्क की दिक्कत हो तो बहुत बेचैनी होने लगती है।
- अगर इंटरनेट का इस्तेमाल बंद करने या कम करने को कहा जाये तो चिड़चिड़ापन आने लगता है।
पता नहीं चलता कि कब एक छोटी सी शुरुआत बीमारी बनने लगती है। 

इन सोशल नेटवर्किंग साइट्स का इतना ज्यादा असर है कि लोगों की जिंदगी पर बन आ रही है। अफवाहें...जानलेवा होने लगी हैं। फेसबुक की मोहब्बत को विषाद बनते देर नहीं लगते। जिंदगी इस कदर बिखरी पड़ी है, यहां कि कोई कभी भी कहीं से भी इसे पलटकर देख सकता है। कोई भी आपकी जिंदगी के लम्हों को चुरा सकता है, जिंदगी में सेंध लगा सकता है। पता भी नहीं चलता कि जिन दोस्तों के लाइक्स और कमेंट्स से एनर्जी मिलती थी, आत्मविश्वास मिलता था वही लाइक्स और कमेंट्स बीमारी भी बन सकते हैं। लाइक्स और कमेंट्स में कमी आना उपेक्षित महसूस करवाता है।
अगर गौर से देखें तो हमारे समाज में अभिव्यक्तियों पर हजार पहरे हमेशा से रहे हैं। देश के लोकतंत्र की तरह जिंदगी के लोकतंत्र का भी हाल रहा। लेकिन लोग अपने-अपने लिए रास्ते तलाशते रहे। जीवन के हर पहलू की तरह इस मामले में भी जेंडर बायस था ही। पुरुषों ने चैपालों में, खेत खलिहानों, चाय की दुकानों में, ताश की बाजी के दौरान कहने सुनने का अड्डा खोज लिया था। जहां घर की झंझट, बाॅस से झगड़ा, बिजनेस में हुआ नुकसान, किसी का किसी चलने वाला चक्कर, सब कुछ होता था।
औरतों के पास होते थे बुलौव्वे, कीर्तन, मंदिर, पानी भरने के बहाने कहीं इकट्ठा होना। लेकिन यहां अभिव्यक्तिों को जब चाहे तब कह पाने वाली बात नहीं थी। कभी होता यूं कि अभी, बस अभी कोई बात कहनी है लेकिन महीने भर बाद कहने का मौका मिला...बात भी गई, उसके कहने का महत्व भी। फेसबुक ने शहरी और कस्बाई जीवन में तो जर्बदस्त सेंध लगाई है। अब तो गांवों में भी अपडेटेड मोबाइल नजर आने लगे हैं। लेकिन अभी खेती, बाड़ी, फसलों के बारे में स्टेटस नहीं दिखते, या कम ही दिखते हैं।
सवाल फेसबुक के होने का और उसके सही इस्तेमाल का है। हमारे भीतर की कौन सी जिजीविषा प्रशंसाओं के पीछे भागने को मजबूर करती है। हम लंबे समय से एक उपेक्षित समाज में जीते रहे हैं। नकारात्मकता यहां तरह-तरह से काबिज रही है। कई बार तो पूरी जिंदगी बीत जाती है, लोगों को अपनी एक खूबी के बारे में पता ही नहीं होता। हम किसी के बारे मंे तब बात करते हैं, जब वो कुछ गलती करता है। उसे नीचा दिखाने, उससे जुड़ी दूसरी तमाम कमजोरियों से जोड़ते हुए नकारा साबित करने में माहिर समाज किसी को मान देने में हमेशा संकोच करता रहा है। झूठे बाबाओं के पीछे भागने वाले लोग अपने बच्चे की सच्ची संभावनाओं को देखने, स्वीकार करने और उसका उत्साहवर्धन को जरूरी नहीं समझते। दूसरे के बच्चे से अपने बच्चे का कंपैरिजन करके उसे नीचा दिखाते हुए ही मानो उसे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया जा सकता हो। एक चोपड़ा जी का बच्चा है 90 प्रतिशत नंबर लाया है एक तुम हो....? जैसे बेहद आम जुमले, सोच जीवन जीने का ढंग बन चुकी है। इस नकारात्मकता की हद यह है कि अगर पास पड़ोस में कोई सचमुच ऐसा काम कर ही दे जिसे नकारना मुश्किल हो तो उसमें अपना योगदान खोजने और उसे साबित करने की ताबड़तोड़ काोशिशें शुरू हो जाती हैं।
ऐसे नकारात्मक और अलोकतांत्रिक समाज में फेसबुक एक रिलीफ की तरह आया है। आमतौर पर यहां प्रशंसाओं का राज चलता है। फेसबुक को डिजाइन करते समय भी संभवतः समाज के इस मनोविज्ञान का ध्यान रखा गया है। उसमें लाइक का आॅप्शन है, अनलाइक का नहीं। कमेंट्स में भी नब्बे प्रतिशत कमेंट्स प्रशंसाओं से भरपूर हैं। जिसे प्रशंसा नहीं करनी होती वो चुप रहे....आलोचना, तीखी आलोचना वाला टेंªड लगभग नहीं है। खासकर व्यक्तिगत स्टेटस पर। हां देश की राजनीति और समाज के सवालों पर खुलकर निंदा करने का चलन है जिसमें हमारे जागरूक और बौद्धिक होने की बात सामने आती है।
ढेर सारा नवेतर साहित्य यहां जन्म ले रहा है। गृहिणियां जो वक्त किटी पार्टी में बिताती थीं अब फेसबुक पर कविताएं लिखने में बिता रही हैं। लोग अपनी संभावनाओं को तलाश रहे हैं।

बुरा नहीं है फेसबुक पर दर्ज होना लेकिन किस हद तक ? छद्म प्रशंसाओं के फेर में खुद को खुदा समझ बैठना अपना नुकसान करना ही है। अटैंशन सीकिंग बिहेवियर कहां ले जायेगा पता भी नहीं चलेगा। यह तो ध्यान में रखना ही होगा कि जो जगह हमारी जिंदगी के कुछ लम्हों को हमारी कुछ बातों को कहने सुनने के मंच के तौर पर थी, उसे कहीं जरूरत से ज्यादा महत्व तो नहीं मिलने लगा है। बाकी है तो यह चाकू की तरह ही, सही इस्तेमाल फल काटकर खिलाने के काम आयेगा और गलत इस्तेमाल या लापरवाही से किया गया इस्तेमाल लहू बहायेगा भी और रुलायेगा भी। तो लम्हा-लम्हा जिंदगी दर्ज होने वाली इन फेसबुकिया दीवारों और दीवानों यानी फ्रेंड्स से थोड़ी दूरी भी जरूरी है ताकि जिंदगी के पास आया जा सके।

(आहा जिन्प )

Sunday, March 13, 2016

तो मुझे तुम से कुछ नहीं कहना है...



सर्वेश्वरदयाल सक्सेना




यदि तुम्हारे घर के
एक कमरे में आग लगी हो
तो क्या तुम
दूसरे कमरे में सो सकते हो?
यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में
लाशें सड़ रहीं हों
तो क्या तुम
दूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो?
यदि हाँ
तो मुझे तुम से
कुछ नहीं कहना है।

देश कागज पर बना
नक्शा नहीं होता
कि एक हिस्से के फट जाने पर
बाकी हिस्से उसी तरह साबुत बने रहें
और नदियां, पर्वत, शहर, गांव
वैसे ही अपनी-अपनी जगह दिखें
अनमने रहें।
यदि तुम यह नहीं मानते
तो मुझे तुम्हारे साथ
नहीं रहना है।

इस दुनिया में आदमी की जान से बड़ा
कुछ भी नहीं है
न ईश्वर
न ज्ञान
न चुनाव
कागज पर लिखी कोई भी इबारत
फाड़ी जा सकती है
और जमीन की सात परतों के भीतर
गाड़ी जा सकती है।

जो विवेक
खड़ा हो लाशों को टेक
वह अंधा है
जो शासन
चल रहा हो बंदूक की नली से
हत्यारों का धंधा है
यदि तुम यह नहीं मानते
तो मुझे
अब एक क्षण भी
तुम्हें नहीं सहना है।

याद रखो
एक बच्चे की हत्या
एक औरत की मौत
एक आदमी का
गोलियों से चिथड़ा तन
किसी शासन का ही नहीं
सम्पूर्ण राष्ट्र का है पतन।

ऐसा खून बहकर
धरती में जज्ब नहीं होता
आकाश में फहराते झंडों को
काला करता है।
जिस धरती पर
फौजी बूटों के निशान हों
और उन पर
लाशें गिर रही हों
वह धरती
यदि तुम्हारे खून में
आग बन कर नहीं दौड़ती
तो समझ लो
तुम बंजर हो गये हो-
तुम्हें यहां सांस लेने तक का नहीं है अधिकार
तुम्हारे लिए नहीं रहा अब यह संसार।

आखिरी बात
बिल्कुल साफ
किसी हत्यारे को
कभी मत करो माफ
चाहे हो वह तुम्हारा यार
धर्म का ठेकेदार,
चाहे लोकतंत्र का
स्वनामधन्य पहरेदार।



(बना रहे बनारस से साभार )

Thursday, March 3, 2016

जानती हूं वो जागेगा सारी रात...



कोई सर्पीली सी राह गुजरती है सामने से। एक बूढ़ा दरख्त जो राहगीरों को रास्ता बताया करता था, थक चुका है। वो धूप में अलसाया खड़ा है। दिन भर उंघता रहता है। राहगीर रास्ता पूछने को अब उसके पास नहीं रुकते। उन्हें लगता होगा कि क्यों बेचारे  के आलस में खलल डाले। रास्ता बताने को अब एक नया पेड़ आ खड़ा हुआ है। उससे जरा सी दूरी पर। इन दिनों लहक रहा है। जब मौसम आता है तो नाशपातियां लटकती हैं इस पर। तब वो राहगीरों को राह भटका देता है। बच्चे उसे घेरे रहते हैं और बड़े भी लालच से देखते हैं। कभी हाथ भी बढ़ा देते हैं। कभी मन को रोक भी लेते हैं। हाथ वो राहगीर ज्यादा बढ़ाते हैं जो इस शहर में अजनबी है। जिनकी आंखों के आगे यह शहर किसी नये संसार सा खुलता है।

नया है लेकिन बुजुर्ग दरख्त की सोहबत में वो बहुत कुछ सीख चुका है। भटके हुए राहगीरों को रास्ता बताना नहीं भूलता वो। मन से भटके हुओं को भी। अभी इस पर कोई फल नहीं हैं लेकिन फूलों से लहलहा रहा है ये। धूप की पहली लकीर उसके माथे पर गिरती है और वो झक्क सफेदी में जगमगा उठता है। रात के अंधेरे में चमकता उसका सफेद भोर की गुनगुनी धूप में चमकते सफेद से बहुत अलग है। अभी दो स्कूल की बच्चियां गुजरी हैं यहां से, वो राह नहीं भटकी थीं...बस गुजरी थी यहां से। बच्चे राह नहीं भटकते शायद, बड़े भटकते हैं। 

मैं पलकें झपकाकर बच्चों से दोस्ती करने का तरीका जानती हूँ. जाने क्यों इस फूलों भरे पेड़ पर पहली नज़र पड़ते ही मन वैसा ही किलक उठा जैसे किसी नन्हे बच्चे को देखकर किलक उठता है। वो दूर अपनी मां की गोद में होता है और एक लम्हे में मेरे मन के आंगन में भी चहकने लगता है। मैं पलकें झपकाती हूं वो मुस्कुरा देता है और थोड़ी सी देर में वो भी पलकें झपकाने लगता है। पलकें झपकाने का खेल शुरू हो जाता है। मैं इस पेड़ को देखकर वहीं ठहर जाती हूं...

मैं तो कबसे अपनी सारी राहों से भटकी फिर रही हूं। वो मुझे देखकर पलकें झपका देता है। मैं चौंक  जाती हूं। मेरी वाली ट्रिक मुझ पर ही। मैं हंसती हूं। हम दोनों एक-दूसरे को देखते हैं। देखते जाते हैं। धूप का एक टुकड़ा रेंगते हुए चुपके से मेरी कलाई थाम लेता है, फिर वो धूप कंधे पर आ बैठती है और धीरे-धीरे पूरी तरह से मुझे घेर लेती है। अब हम दोनों धूप की नदी में तैर रहे हैं।

कुछ राहगीर गुजरते हैं उस राह से, वो बिना नजर से नजर तोड़े एकदम सही राह बताता है। कोई बूढ़ी दादी उसके पास बैठ जाती है। थक गई होगी शायद। कोई लड़का गुजरता है अठखेलियां करता सीटी बजाता हुआ और हाथ में पकड़ी हुई लकड़ी को हवा में लहराते हुए। मैं मुग्ध हूं...वो भी। सामान्य जीवन का सादा सौन्दर्य कहां गुमा आये हम। कैसा जीवन उगा लिया है अपने आसपास।

एक पहाड़ी लड़का मुझे पुकारता है, मैम आपका सामान आपके कमरे में रख दिया है। मैं मुस्कुराकर उसे धन्यवाद देती हूं...तभी फोन बजता है...बिटिया पूछती है, ठीक से पहुंच गई? मैं उस पेड़ की ओर देखकर मुस्कुराते हुए कहती हूं ठीक से भी और ठीक ठिकाने  पर भी।

सुबह, दोपहर, शाम, रात...मैं उसे देखती हूं...दोस्ती हो गई है। देर रात तक उससे बातें करती हूं। दिन भर की बातें पूछती हूं उससे। कितने लोगों को राह बताई, कितनों के सर पर हाथ फेरा, कितनी कमसिन लड़कियों की राहों में फूल बिछाये, कितने बुजुर्गों से आशीर्वाद लिया। वो सब बताता है...विस्तार से। मैं भी बताती हूं कि किस तरह दीवानावार शहर के चप्पे-चप्पे को चूम लेना चाहती हूं। किस तरह दौड़ती फिरती हूं ताल के आसपास, किस तरह ठहर जाती हूं नाशपाती, पुलम और आ़ड़ू के झमक के खिले फूलों के आसपास और किस तरह फयूली कि फूलों ने मेरा श्रंगार किया...सब बताती हूं उसे...

सुबह उठने का वक्त बदल लिया है कि उसके माथे पर पहली किरन देखने का सुख छोड़ना नहीं चाहती।
मैं पहले भी आई हूं इस शहर में लेकिन सलीका नहीं था तब शायद आने का। मैं उसे यह बात बताती हूं तो वो ठठाकर हंस देता है। उसकी हंसी में वो जिस तरह लहरा रहा है उसका सौंदर्य लगातार बढ़ता ही जा रहा है। मैं उसकी हंसी से विस्मित हूं...यूं यह समूचा शहर ही यूं ठठाकर हंसता नज़र आता है...बिना शोर वाली हंसी...रगों में उतर जाने वाली हंसी...रंगों में ढल जाने वाली हंसी...हवाओं में घुल जाने वाली हंसी।

उसकी हंसी थमती है पल भर को, मैं इंतजार में हूं कि वो हंसी की वजह बतायेगा शायद। वो नहीं बताता। मैं नहीं पूछती। मुंह घुमा लेती हूं उसकी ओर से, हालांकि नाराज नहीं हूं...वो जानता है...मैं नाराज नहीं हूं सिर्फ मुंह घुमाया है। वो यह भी जानता है कि ज्यादा देर रह नहीं पाउंगी मुंह घुमाकर। वो बिना पूछे कहता है, पहले तुम्हें इस शहर से ऐसी मोहब्बत कैसे होती भला, पहले मैं जो नहीं था...अब मुस्कुराने की बारी मेरी थी। 

चांदनी रात उसके सौन्दर्य को निखारती है...मैं सोने जाती हूं...जानती हूं वो जागेगा सारी रात...

(भीमताल डायरी)