Thursday, February 25, 2016

मुक्कमल सुबह सबका हक़ है



रात को अचानक नींद खुल जाती है. स्याह साये से आसपास मंडराते नज़र आते हैं. तुम्हारा नाम क्या है? कोई सख्त आवाज में पूछता है. मैं हड़बड़ा जाती हूँ. हड़बड़ाई आवाज़ में नाम बताती हूँ तो वो साये ठठाकर हँसते हैं, अपना नाम भी ठीक से बता नहीं रही हो. हड़बड़ा रही हो. कुछ तो गड़बड़ है. फिर सवाल पर सवाल और मैं अपना होना अपने नाम का अपने चेहरे से मिलान का होना, वो आरोप पर आरोप लगाते हैं, मैं उलझती जाती हूँ. अपने ही घर में अचानक गुनहगार करार दे दी गयी हूँ. जानती हूँ इस देश में, इस व्यवस्था में अपना होना और अपना गुनहगार न होना सिद्ध करना कितना मुश्किल है. 

उधड़ी हुई नींद से उठकर खिड़कियां खोलती हूँ,  चाँद आसमान पे टंगा हुआ है. बेचारा चाँद। मैं तो बेचारी नहीं हूँ. अपनी रगों में दौड़ते लहू को महसूस करती हूँ. मरी नहीं हूँ अभी. इसलिए बेचैन हूँ. कमरे में रौशनी भर चुकी है, अब कोई साये नहीं हैं. अख़बार दूर पड़ा है, टीवी चैनल देखने का मन नहीं, अंदर का धुआं, गुस्सा, हताशा, झुंझलाहट सब मिलजुलकर जिद्दी बनाते जा रहे हैं. बालकनी में खूब फूल खिले हैं.... खूब, वो मेरा गुस्सा थामते हुए कहते हैं कि जिस बसंत में हवाओं में 'इंक़लाब' की खुशबू हो उसमें निराश नहीं हुआ जाता। मेरी मुठ्ठियाँ कसती जाती हैं, आँखों के आसपास जो अटका हुआ था उसे राह मिल जाती है...

सामने एक राह खुलती है, पीठ पर फिर बैग रखा है, हाथ में फिर एक टिकट है, दिल में एक नए सफर का सुकून है, एक सफर ही है जो हौसला देता है और हमारा राहगीर होना बचाये रखता है... ''हम लड़ेंगे साथी,' घर से निकलते हुए अनजाने ही होंठ बुदबुदाते हैं.... मुक्कमल सुबह की तलाश सबका हक़ है.... सबका हक़... कमज़र्फ अँधेरे के आगे घुटने नहीं टेकेंगे, कभी नहीं...


Monday, February 22, 2016

सवाल तुम सवाल हम



शिक्षा हमें समझ देती है, संवेदना देती है, सवाल देती है, सवालों से जूझने की ताकत देती है, रास्तों को ढूंढने की ओर अग्रसर करती है। शिक्षा हमें तर्कशील बनाती है, विवेकशील बनाती है और खुद अपना नजरिया बनाने के लिए हमारे जेहन को तैयार करती है। शिक्षा जो हम पर निर्णय थोपती नहीं, निर्णय लेने की योग्यता तैयार करती है। लेकिन जब भी लोग भीड़ बनकर किसी तय किये गये एजेंडे पर प्रायोजित तरह से रिएक्ट करें तो शिक्षा पर सवाल उठते हैं। उठते ही हैं।

 पिछले दिनों एक रेल यात्रा के दौरान मन में फिर से वही सवाल खुदबुदाने लगे कि क्या अर्थ है शिक्षित होने का आखिर? कब कहेंगे कि हम शिक्षित हैं और कब कहेंगे कि नहीं।

वो चार युवा थे। दो लड़कियां, दो लड़के। अस्सी प्रतिशत अंग्रेजी में सारी बातचीत हो रही थी। चूंकि वो युवा थे जाहिर है उनके भीतर काफी एग्रेशन भी था। उन्हें इस बात से काफी दिक्कत हो रही थी कि ष्यह कैसा समय आ गया है जब लोग बराबरी की बात करने लगे हैं। बराबरी जैसी कोई चीज नहीं होती। न कभी हो सकती। लड़की कह रही थी कि उनसे जरा से प्यार से बात कर लो तो सर पर ही सवार होने लगते हैं। हद है। अपनी हैसियत ही भूल जाते हैं। दुनिया में किसी देश में बराबरी नहीं है। बराबरी, समता, एकता ये सब सुनने में अच्छे लगते हैं इनके पीछे भागने वाले लोग मूर्ख हैं। समाज की व्यवस्था को ठीक से चलते रहने क्यों नहीं देते ये लोग। आरक्षण लेकर कहीं पहुंच भी गये तो कर क्या लेंगे? वो क्लास कहां से लायेंगे जो हमारे पास है?

जाहिर है पूरी बातचीत में संभ्रांतीय अहंकार छलक रहा था। पता चला कि वो सब अच्छे स्कूल काॅलेजों से पढ़े हुए स्टूडेंट्स हैं। सोचने पर बाध्य हूं कि यह कैसी शिक्षा है जो छात्रों को संवेदना के उस स्तर तक नहीं ले जा पा रही जहां यह विचार पल्लवित हो कि इंसान और इंसान के बीच उसके अधिकारों के बीच जन्म के आधार पर, धर्म के आधार पर, जाति के आधार पर, लिंग के आधार पर कोई फर्क नहीं होना चाहिए। तो दिक्कत कहां है आखिर? क्या हमारे स्कूल, काॅलेज शिक्षित होने के प्रमाणपत्र, नौकरी पाने के प्रमाणपत्र भर बांट रहे हैं या वो हमें एक बेहतर, संवेदनशील इंसान बनाने की ओर भी अग्रसर हैं?

चीजें हमें वो दिखती हैं जिन्हें हम जिस नजरिये से देखना चाहते हैं। शिक्षा हमें पूर्वाग्रहों से मुक्त नजरिये की ओर ले जाती है, उसे ले जाना चाहिए। अगर हमारी शिक्षा पूर्वाग्रहों के चश्मे ही बांट रही है तो सोचना पड़ेगा। हिंदी, अंग्रेजी, गणित, विज्ञान में आने वाले 98 प्रतिशत अंक किस काम के जब बतौर इंसान हम दूसरे को उसका सम्मान देने के काबिल बन ही न सकें?

Monday, February 8, 2016

हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा


कोई खिड़की से झांककर कहता है, 'गाड़ी आराम से चलाना, आहिस्ता' मैं मुस्कुराकर देखती हूँ. वो निदा फ़ाज़ली से आखिरी मुलाकात का आखिरी लम्हा था. उनकी मुझसे कही गयी आखिरी बात. यह उनसे अखबार के नुमाइंदे की मुलाकात नहीं थी, प्रतिभा की थी. उन्होंने शहर पहुँचते ही फ़ोन किया था. शाम के वक़्त अख़बार की मसरूफियत से वक़्त निकालना खासा मुश्किल होता है लेकिन निदा साहब से मिलने का लालच सबसे बड़ा था.

वो मेरी उनसे हुई तमाम मुलाकातों में से सबसे लम्बी मुलाकात थी. उस रोज़ उन्होंने समकालीन हिंदी और उर्दू कविता पर काफी बात की थी. उन्हें चिंता होती थी कि आजकल के लोग पढ़ते नहीं, लिटरेचर की गहराई में नहीं उतरते, एक हड़बड़ी सी रहती है, इससे पोयट्री को बहुत नुकसान हो रहा है. विदेशी कवियों का जिक्र करते हुए उन्होंने अफ़्रीकी कविताओं का खासकर जिक्र किया था. देश के ताजा हालात से बहुत दुखी थे वो कि हर शब्द, हर बात धर्म के चश्मे से देखी जाती है और साम्प्रदायिकता के खांचे में जड़ दी जाती है. न कोई टोपी में सुरछित है, न भगवा दुपट्टे में, फिर भी सब आपस में भिड रहे हैं,

उस पूरी मुलाकात में वे काफी उदास थे, चिंतित थे. मुझसे उन्होंने खूब पढने को कहा था, लिटरेचर की कोई सरहद नहीं होती, कोई भाषा नहीं, उसके करीब जाना चाहिए, उससे सीखना चाहिए, प्यार करना चाहिए. जाने कैसी उदासी तारी थी उस रोज कि तीन कप चाय और दुनियाभर की बातों के दरम्यान मौजूद ही रही. जैसे उनका दिल बहुत भरा हुआ हो. मुशायरों के स्तर में आई कमी से भी कुछ उदासी थी.. पुराने बीते मुशायरों की, उनके दोस्तों की यादें ज़ेहन में ताज़ा थी.

जगजीत सिंह की रवानगी के कुछ ही रोज बाद की इस मुलाकात में जगजीत की जुदाई भी का भी गम शामिल रहा. उन्होंने कहा, पक्का यार चला गया. उसी ने मेरी ग़ज़लों को लोगों तक पहुँचाया, पॉपुलर बनाया. जगजीत सिंह भी उन्हें अपनी हर मुलाकात में इसी तरह याद किया करते थे, मैं मुस्कुराई, दोनों की यादों में दोनों को यूँ आपस में घुलते देखना सुखद जो था. तक़रीबन ढाई घंटे की वो मुलाकात जो अख़बार में कही दर्ज नहीं हुई. ये पहले से तय था कि ये निजी बातचीत है. वो निजी ही रही. अनौपचारिक...मुझे आपको याद करना हमेशा अच्छा लगता था निदा साहब लेकिन सिर्फ आपका याद बनकर रह जाना अच्छा नहीं लगा. अभी इंतजार हुसैन साहब की स्मृतियां तारी ही थीं कि आप का दिल भी अटक गया. जानती हूँ, बहुत बहुत बहुत याद आयेंगे आप....

हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा
मैं ही कश्ती हूँ मुझी में है समंदर मेरा...

(तस्वीर दूसरी मुलाकात की है, इस मुलाकात की हर बात सिर्फ जेहन में है)


Sunday, February 7, 2016

इतवारी खुराफात, शरत बाबू, देवदास और बारिश



पिछले दिनों बातों बातों में देवदास का जिक्र चला तो बैशाख की किसी दोपहर से दौड़कर आया देवदास और साथ बैठकर कॉफी पीने की दिक करने लगा. मैंने कहा बिज़ी हूँ अभी, नहीं सुनने तुम्हारी उदासी के किस्से, वो माना ही नहीं, सिगरेट पर सिगरेट फूंकता रहा. मैंने कहा क्यों दाढ़ी बढ़ाये घूम रहे हो मियां, सिगरेट शराब में डूबे हुए होना भर देवदास होना है क्या? वो बोला नहीं संसार में रहकर बैरागी होना सीख रहा हूँ... देवदास का चोला भर पहनना नहीं है देवदास होना उसकी मोहब्बत को शिद्दत को सहेजना, जीना सीख रहा हूँ. बैसाख कब का बीत गया, बसंत की गमक है आसपास और ये देवदास, कमबख्त चाय की धुन पे अटका ही हुआ है. चल, तेरे संग चाय पीते हैं फ़िलहाल, और कोई काम इस इतवार ये जनाब होने नहीं देंगे-

जब बात मोहब्बत की होगी तो मुस्कुराहटों का सैलाब उमड़ेगा। कुछ किस्से दर्ज होंगे, कुछ नग्मे गाये जायेंगे, कायनात मुस्कुरायेगी, ये धरती गुनगुनायेगी... लेकिन कुछ और भी होगा इस सबके साथ। कुछ जख्म भी उभरेंगे, कुछ स्मृतियां भी चहलकदमी करेंगी, कुछ टूटे दिल के टुकड़ों में भी स्पंदन होगा...देवदास की याद भी आयेगी। वही अपना देवदास जो बैसाख की कोई दोपहर में स्कूल से भाग जाया करता था, वही देव जो पत्तो यानी पारो की चोटी भी खींचता था और उसे कूटता भी था, वही देव जो जमाने से हमकदम होकर चलने मजबूर किया तो गया लेकिन ज्यादा दिन चल न सका...वही देव जिसने पारो के अभिमान पर चोट का टीका लगाकर विदा किया और उसकी मोहब्बत सीने में लिए जिंदगी भर सुलगता रहा...शरत बाबू का उपन्यास में भले ही मोहब्बत में जान दे बैठा हो लेकिन वो मरा नहीं। देवदास मरा नहीं...क्योंकि देवदास मरते नहीं...
आज भी जब कोई प्रेमिका अपने प्रेमी से रूठती है तो किसी रेल की पटरी के किनारे, किसी अंधी सड़क पर, शहर के सबसे वीरान कोने में कोई देवदास सुलग रहा होता है। आशिकी में दर्द सहने वाला हर आशिक देव है, पारो मिले या न मिले उसे अपने सीने में छुपाये दौड़ता फिरता हर प्रेमी देव है... दाढ़ी बढ़ाये, आंखों में रुका हुआ सा सैलाब लिए, भूख-प्यास से बेजार कहीं भटकता नज़र आता है। शरत बाबू की दुनिया से आज यूनिवर्सिटी कॉलेज, दफ्तरों तक पहुंचते-पहुंचते यह देव थोड़ा दुनियादार भी हुआ है। अब वो जानता है कि प्रेम माने मजबूत आर्थिक आधार। वो भुवन बाबू जैसे दोस्तों के साथ चंद बूंदें गटक लेने में बुराई नहीं मानता लेकिन उसे उठकर सुबह वक्त पर ऑफिस पहुंचने की पाबंदी याद रहती है। मोहब्बत के नशे में डूबा आज का देव अक्खड़ भी है, गर्वीला भी और मोहब्बत से सराबोर भी। देवदास इश्क में दर्द सह रहे आशिक का मिथक बन चुका है। आज हर इश्कज़दा लड़का इश्क में ज़रा सी खरोंच आते ही ष्देवदास हो गयाष् जैसे जुमलों से नवाजा जाता है। हर आशिक के पिता के भीतर नारायण मुखोपाध्याय संास ले रहा है... पारो तब भी निर्भीक थी, जमाने के कहे-सुने से बेपरवाह, आत्मसम्मान से भरपूर और सांस-सांस मोहब्बत करने वाली वो अब भी निडर है। प्रेम में समर्पण करने को दिलो-जान से आतुर भी, आत्मसम्मान बचाने को कटिबद्ध भी और मोहब्बत को इबादत बनाकर जीने का सलीका बना लेने वाली भी।

कभी जमाने के आगे, जाति-पाति, वर्ग भेद की दीवारों और अहंकार से चाहते हुए भी न भिड़ पाने वाले, जमाने के साथ चलने की कोशिश करने वाले लेकिन इश्क के जुनून में सब कुछ लुटा देने वाले देवदास को तो जमाने के साथ बदलना था। कुछ हैं जो बदल पा रहे हैं कुछ अब भी हार मान लेने को मजबूर हैं।
जमाने के एक सिरे पर खड़ी पारो देवदास से कहती है मैं अपनी यात्रा पूरी करने को तैयार हूं? क्या तुम हो? नये जमाने के देवदास के पास अब नारायाण मुखोपाध्याय यानी अपने पिता का मुंह देखने की फुरसत नहीं। उनके फरमान पर जबरन कलकत्ता चले जाने की बेचारगी नहीं। आज का देवदास दर-दर भटककर पारो के लिए बिसूरना नहीं चाहता। वो बिसूरने को, जुदाई को उठाकर परे रख आना चाहता है। वो पिता की संपत्ति चंद्रमुखी पर लुटाकर, अपनी जिंदगी को बीमारियों के हवाले करके मौत के हवाले करने को, अपनी पारो को किसी और के साथ जाते देखने को राजी नहीं।
यह सच है कि 1917 से 2016 तक देवदास की मिथकीय अवधारणाओं ने एक लंबी यात्रा तय की है लेकिन जो एक बात तब भी थी, अब भी है वो है मोहब्बत की शिद्दत। कोई फर्क नहीं पड़ता कि प्रेम को जाहिर किस तरह किया गया, बात तो सिर्फ इतनी है कि प्रेम है किस कदर गहन। गुलाब के फूल, टेडी बियर, चॉकलेट, सिनेमा, वॉट्सएप, फेसबुक ऐसा नहीं कि इनमें प्यार की खुशबू नहीं होती होगी लेकिन ये हैं महज इजहार के माध्यम ही। लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ने और बहुत सारे माध्यमों ने एक काम बुरा किया कि मोहब्बत के बीज को मन की, जेहन की धरती के अंदर ठीक से पनपने नहीं दिया। इससे पहले कि ठीक-ठीक महसूस हो सके कि हां, यही प्यार है...इसके पहले कि मोहब्बत रगों में दौड़े और आंखों में तकलीफ का समंदर उमड़ आये, इसके पहले कि खुद को समझ सकें भावनाएं अभिव्यक्त हो चुकी होती हैं। कच्चे अहसासों की कच्ची अभिव्यक्ति का सफर बीच में ही डगमगाने लगता है और इल्ज़ाम प्यार के माथे पर आता है।
जो बीच सफर से लौट रहे हैं वो नहीं जानते देव होने का असल अर्थ। कि देव होना इश्क के कभी न उतरने वाले नशे में उतरना है, जिसमें बीच से लौट जाने का या रास्ता बदल लेने का कोई चुनाव नहीं। उन्हें समझना भी है कि दाढ़ी बढ़ाकर घूमना, नशे में सराबोर होना और चंद दिन पारो की याद में बिताकर नई पारो या चंद्रमुखी की तलाश में निकल पड़ना नहीं है देव होना।
शरत बाबू के देवा ने आज के देव डी तक तमाम तमाम यात्राएं तय की हैं। देह की वर्जनाओं में उसे अब यकीन नहीं। मरने को वो तैयार नहीं जीने में यकीन करता है, पारो को किसी कीमत पर किसी भुवन बाबू के संग ब्याह दिये जाने को चुपचाप देखने को वो राजी नहीं। हालांकि प्रेम का अभीष्ट विवाह नहीं है फिर भी आज प्रेम विवाहों की संख्या बढ़ रही है। भले ही देवदास एक टूटे हुए आशिक का मिथक बन चुका हो लेकिन सच यह भी है कि देवदास होना आसान नहीं। मोहब्बत को, दर्द को, जुदाई को बूंद-बूंद पीना आसान नहीं। सामने प्राणप्रण से न्योछावर चंद्रमुखी हो तो भी पारो के प्रति एकनिष्ठता को गले लगाये रखना आसान नहीं। देवदास होना, अफेयर होने और ब्रेकअप होने जैसी शब्दावलियों से बहुत पार की चीज है। यह एक ब्रेकअप के चंद लम्हो या महीनो बाद ही इन अ रिलेशनशिप जैसे स्टेटस से बहुत दूर की बात है। देव या पारो होना इश्क के समंदर में बिना तैरना आये कूद जाने जैसा है...आज का देव तनिक हड़बड़ी में है...ऐसे में शरत बाबू का देवा मुस्कुराकर कहता है, तुम मत जाने देना पारो को...किसी के भी कहे सुने में आकर...नए जमाने के देव और पारो दोनों मुस्कुरा कर कहते हैं, फिकर नॉट...

( अगडम बगडम )


Saturday, February 6, 2016

फसलों से लहलहाते दुपट्टे


दुपट्टे सबको अच्छे लगते हैं

समाज को अच्छे लगते हैं
लड़कियों की देह की मांसलता को छुपाते दुपट्टे
उन्हें शर्म और हया में लिपटाये रखने वाले
नैतिकताओं के पहरेदार दुपट्टे
उन्हें हर पल शालीनता का पाठ पढ़ाते
दायरों में कैद रखते दुपट्टे

लड़कों को अच्छे लगते हैं
रह-रह कर ढलक जाने वाले दुपट्टे
कुछ छुपाते, कुछ दिखाते दुपट्टे
सपनों में आते, ललचाते दुपट्टे
उन्हें फैंटेसी की दुनिया में ले जाते दुपट्टे

लड़कियों को अच्छे लगते हैं
रंग-बिरंगे, फसलों से लहलहाते दुपट्टे
किनारियों मे मुस्कुराहटों के घुंघरुओं की रुनझुन से
धरती और आसमान को गुंजाते दुपट्टे
उन्हें बालकनी से बांधकर आज़ादी के रास्ते दिखाते दुपट्टे अच्छे लगते हैं
आसमान में आज़ादी का परचम बन लहराते दुपट्टे

उन्हें पंखों से लटके हुए दुपट्टे अच्छे नहीं लगते।