Tuesday, April 15, 2014

इन सपनों को कौन गाएगा...अजेय


बाद मुद्दत कुछ पन्नों को पलटते हुए नदी की कल-कल की आवाज सुनाई दी...। बाद मुद्दत 'गांव' सिर्फ शब्द की तरह नहीं गुजरा आंखों के सामने से, खुलने लगा अपनी पगडंडियों, झरती हुई ओस, लड़कियों के झुंड उनकी मुस्कुराहटों, मौसम के घटते-बढ़ते ताप के साथ...। बाद मुद्दत अंजुरी में कुछ जिंदा शब्द आये...अजेय की कविताओं के जरिये। उनका कविता संग्रह इन सपनों को कौन गाएगा...भोली कामनाओं, मजबूत इरादों, समय के साथ मुठभेड़ करने की ताकत, अपने समय की तमाम खूबसूरत चीजों को सहेज लेने की इच्छा और जीवन को सहजता में महसूस करना सिखाता है। अगर बहुत दिनों से जिंदगी की आपाधापी से मुक्त होकर किसी नदी के किनारे, खुली हवा में सांस लेने की इच्छा हो तो इन कविताओं का हाथ थामना बनता है।

संग्रह की पहली कविता में कवि ईश्वर को बीड़ी ऑफर करता है...और यहीं से कवि का खिलंदड़ा अंदाज, उसकी सहजता और समय से टकराने का माद्दा नज़र आता है। पूरे संग्रह से गुजरते हुए कहीं भी जबरन उकेरे गए बिम्ब, भाषा का अनूठा लालित्य गढ़़ने की कोशिश, कविता के नये पुराने मापदंडों की परवाह नहीं नज़र आती और यही इस संग्रह को सौम्य, सुंदर और ग्राह्य बनाता है।

अजेय संवेदनाओं को रीसेंसटाइज (पुर्नसंवेदित) करने की बात करते हैं...लेकिन मुझे तो उससे आगे जाकर यह संवेदनाओं को जन्म देने वाली बात भी नजर आती है। कि चीजों को महसूस करना हमने अभी ठीक से सीखा ही कहां है। किसी फिल्म में नायिका जब कहती है कि मेरा सपना है कि दूर कहीं पहाड़ी पर मेरा एक छोटा सा घर हो, तुम भेड़ें चराओ और मैं तुम्हारे लिए खाना पकाउं....तो सिनेमा के बड़े पर्दे से उतरता हुए एक रूमान हमारे जेहन में भी शामिल होता है...लेकिन पहाड़ पर घर होना महज एक रूमान नहीं एक संघर्ष भी है...अजेय की कविताओं में पहाड़ अपने डिफरेंट शेड्स के साथ आता है....'रंग-बिरंगे पहाड़,/रूह न रागस/ढोर न डंगर/ न बदन पे जंगल/ अलफ नंगे पहाड/ सांय-सांय करती ठंड में/ देखो तो कैसे ठुक से खड़े हैं/ ढीठ बिसरमे पहाड़...' या फिर पहाड़ी खानाबदोशों के गीत को गुनगुनाते हुए हथेलियों पर पहाड़ की खुशबू उगती हुई महसूस होती है...रोहतांग पर शोधार्थियों के साथ पदयात्रा करते हुए साथ चल पड़ती है एक और कविता कि 'पहाड़ के पीछे छिपा होगा इसका इतिहास...मुझसे क्या पूछते हो, इस दर्रे की बीहड़ हवाएं बताएंगी तुम्हें, इस देश का इतिहास...'

गाढ़े रूमान में रची-बसी ये कविताएं उतने ही गहरे संघर्ष में भी हैं। उन संघंर्षों से जन्मते हैं कई सवाल, 'मैत्रेय क्या तुम भी राजा की तरह आओगे...' दलाई लामा के आने पर किये जाने वाले इंताजामात के मद्देनजर कवि के अंतस में कुछ वाजिब से सवाल इस कविता में उगे हैं...जो मौजूदा हालात के न जाने कितने प्रसंगों, घटनाओं और लोगों से जुड़ते हैं। एक बुद्ध कविता में करुणा ढूंढ रहा है....'एक ढहता हुआ बुद्ध हूं मैं अधलेटा...' एक कविता में न जाने कितनी कविताएं गढ़ने वाला यह कवि कविता में ही सांस लेता मालूम होता है...

कविताओं के बारे में कविताएं लिखते हुए वो इस धरती को कविताओं से भर देना चाहता है। साथ ही वो यह भी कहता है कि 'मुझे नहीं मालूम था कि हवा से पैदा होती हैं कविताएं...या हवा के सामने कविता की क्या बिसात...हवा चाहे तो कविता में आग भर दे/ हवा चाहे तो कविता को राख कर दे/हवा के पास ढेर सारे डाॅलर हैं/ आज हवा ने कविता को खरीद लिया है', जबकि एक बुद्ध कविता में करुणा ढूंढ रहा है...

यूं उनकी तमाम कविताओं को बार-बार पढ़ते हुए हर कविता के संग अलग-अलग समय में घंटों रहने का जी चाहता है लेकिन संग्रह की दो कविताएं एक नदी जिसे हम पीना चाहते हैं और चूक गए कितनी ही नदियां...देर तक अपने किनारों पर जमे रहने का इसरार करती हैं. 'हमें चाहिए एक नदी/ एकमुश्त अभी/ इस चिलचिलाते समय में/ कि पीते रहें उसे किस्तों में/ ताउम्र/ आहिस्ता-आहिस्ता...' 'कितनी ही नदियां कितनी-कितनी बार हमसे/ कितनी तरह से जुड़ती रहीं/ और हमारा अथाह खारापन/ चूक गया हर बार/ उन सबकी ताज़गी.../ हर बार चूक गए हम एक मुकम्मल नदी...'

अजेय को चिंता है कि मासूम आँखों के इन सपनों को कौन गायेगा, जवाब इसी संग्रह की कविताओं में है कि धरती एक दिन कविताओं से भर उठेगी और हर कोई गायेगा इन सपनों को.…


इसी संग्रह से कुछ टुकड़े -

सुविधाएं फुसला नहीं सकतीं
इन कवियों को
जो बहुत गहरे में नरम और खरे हैं...

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महसूस करो
वह शीतल विरल वनैली छुअन
कहो
कह ही डालो
वह सबसे कठिन कनकनी बात...
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(आदिवासी बहनों के लिए)

हम ब्यूंस की टहनियां हैं
रोप दी गई रूखे पहाड़ों पर
छोड़ दी गई बेरहम हवाओं के सुपुर्द...

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मुझे तुम्हारी सबसे भीतर वाली जेब से
चुराना है एक दहकता सूरज...
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कि कविताएं 
पुस्तकालयों की अल्मारियां तोड़ भागतीं
धूल झाड़तीं
गलियों, नुक्कड़ों, अड्डों और ढाबों में
घूमती बतियाती नज़र आएं...
चुनावी पर्चों की जगह बंटे कविताएं ही
चिपक जाएं कस्बों की दीवारों पर
गांव की किवाड़ों पर
और उड़ें कागज के जहाज बनकर
हवा और बारिश में
संवेदना की महक बिखेरें...
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बरफ की डलियां तोड़ों
डैहला के हार पहनो
शीत देवता
अपने ठौर जाओ
बेजुबानों को छोड़ो
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सारा खेल वक्त का है
वक्त सूरज तय करता है
सूरज हवाएं पैदा करता है
हवा समुद्र को छेड़ता है
समुद्र ने बर्फ को तोड़ना शुरू कर दिया है
बर्फ पिघलते ही हरी काई के फीते तैरने लग जाएंगे...
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आज प्रार्थना नहीं सुनी जाएगी
ईश्वर व्यस्त है...
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उन दिनों मैंने तुम्हें घूंट-घूंट पिया
दारू की तरह
और तुम्हारा दिया अल्सर
आज भी सुलग रहा हे
मेरे जिस्म के भीतर

Monday, April 7, 2014

धरती मुस्कुरा रही है इन दिनों....


ये कौन अपनी नींदें यहाँ भूल के चला गया है. ये कौन है जिसने शहर को पीले फूलों वाला गुलदस्ता बना दिया है. ये कौन है जिसने सड़कों को रंग-बिरंगे फूलों से भर दिया है, किसने  बादलों के कानों में मोहब्बत का राग छेड़ दिया है, ये कौन है जिसने हवाओं के पैरों में खुश्बुओं की पाज़ेब बाँध दी है, किसने सपनों को पंख लगाकर उन्हें आसमान में ऊंचा उड़ने को छोड़ दिया है, कहाँ से आ गयी हैं इतनी खिलखिलाहटें कि उदासियाँ घबराने लगी हैं....उफ्फ्फ !

दूर कहीं बज रही है एक पहाड़ी धुन. एक लड़की पहाड़ से नीचे उतर रही है, एक पहाड़ उसके भीतर उतर रहा है, धरती की सारी नदियां उसकी आँखों में समायी हैं और वो अपनी आँखों की मशक से छिड़क रही है मोहब्बत के सूखे दिलों पर प्रेम का जल....धरती मुस्कुरा रही है इन दिनों, सुना तुमने!


Thursday, April 3, 2014

ईश्वर उदास है....


कितनी सुबहें दहलीज पर रखे-रखे मुरझाने को हुई हैं....कि वो वक्त पे आती हैं....मुस्कुराती हैं...हाथ आगे बढ़ाती हैं....लेकिन जल्द ही उन्हें समझ में आ जाता है कि उनकी सुनने वाला कोई नहीं. किसी को अब सुबहों का इंतजार नहीं....रातें जब तक विदा नहीं होतीं सुबहों का कोई अर्थ नहीं...मुट्ठी भर उजास को सुबह मानने का वक्त अब जा चुका...अब तो रोशनी का समंदर चाहिए...

सुबहों की रातों से जंग है इन दिनों...इधर रातें अपना आंचल फैलाती जाती हैं उधर सुबहें थोड़ा और तनकर खड़ी होती हैं. एक न जाने की जिद में है और दूसरी आकर मानने की जिद में। इनके इस जिद के खेल से दूर मौसमों की ओढ़नी ओढ़े वो शहरों शहर भटकती फिरती है....

उसने कदमों में बांध लिया है सफर और कंधे पर रखी है हमसफर की याद...आंखों में पहना है उदासियों का काजल....झरते हुए पत्तों में, छूटते हुए सफर में, राह में मिलनी वाली मुस्कुराहटों में, अंजुरी भर उम्मीदों, पेड़ों पर उगती कोपलों, पहाड़ों पर झरती बर्फ, रेत के धोरों, समंदर की लहरों के बीच अपने भीतर के घने बियाबान को लिये घूमते-घूमते उसे एक दरवेश मिला...वो मुस्कुराई...दरवेश खामोश रहा...

जा तू भटकती ही रहे हमेशा....ऐसा कहकर दरवेश ने अपनी आंखें फिरा लीं...वो जानती थी कि यह दुआ देते हुए दरवेश की आंखों में भी एक नदी उतर आई थी...उसने दरवेश की दुआ को पलकों पर उठाया और चल पड़ी नये सफर पर....

आसमान से लम्हे टूट-टूटकर उसके कांधों पर बरसते रहे...वो अपनी खामोशी की ओढ़नी में उन लम्हों को समेटती रही...चलती रही...

उसे ये तो पता है कि मरने के लिए जीना जरूरी है...लेकिन जीने के लिए...?

दूर कहीं कोई क्रान्ति की बात कर रहा है, और वो नम मुस्कुराहटों से धरती पर लिख रही है प्रेम...जिसे पढ़ते हुए ईश्वर उदास है....