Tuesday, October 29, 2013

असहमतियों का सौंदर्य निखारते थे राजेन्द्र यादव


असहमतियों को इतना व्यापक स्पेस उन्हीं के पास था. उस स्पेस में वो असहमतियों के सौंदर्य को निखारते थे. मेरी पहली कहानी हंस में ही छपी थी. उस छोटी सी उम्र में मुझे पता भी नहीं था कि कहानी क्या होती है. अख़बारों के लिए लिखते-लिखते जाने कैसे एक कहानी लिख गयी. अख़बार में छप गयी तो हौसला देने वालों ने चढ़ा दिया। अगली कहानी 'हंस' में भेज दी. राजेंद्र जी से मिली नहीं थी तब तक. बस उनके सम्पादकीय पढ़ती थी. मेरे कॉलेज के दिनों की बात है. कहानी भेजने के पांच दिन बाद ही उनका पीला पोस्टकार्ड आया. कहानी में कुछ सुधार बताये थे. फिर वो कहानी स्त्री विशेषांक में छप गयी. 

(नए लेखकों के साथ इतनी मेहनत करने वाला दूसरा संपादक भी मिला तो राजेन्द्र नाम का ही. राजेन्द्र राव.)

उसके बाद उनसे मुलाकात हुई. कथाक्रम में. लखनऊ में. अपनी कहानी 'हासिल' को लेकर वो उन दिनों विवादों में थे. वो मेरी उनसे पहली मुलाकात थी और खूब नाराजगी भरी. अगले दिन जो छ्पा वो कड़वा ही था. लेकिन राजेन्द्र जी ने अगले दिन भी पूरी आत्मीयता से ही बात की. मेरी नाराजगी कायम रही. उसके बाद मैंने उनके कई इंटरव्यू किये, पॉलिटिकल, सोशल, इकोनोमिकल लेकिन साहित्य पर कम ही बात की. मुझे याद है मैंने उनका एक लम्बा पॉलिटिकल इंटरव्यू धनबाद में लिया था, वीरेंद्र यादव जी के साथ. उनके पास समाज का एक मॉडल था. उनकी नजर से देखने पर चीज़ें काफी साफ़ नजर आती थी-मैंने उनसे कहा भी था कि मुझे आपकी कहानियों से ज्यादा अच्छा आपके सम्पादकीय पढ़ना लगता है.

मेरी उनसे आखिरी बात जागरण के लिए किये गए इंटरव्यू के दौरान ही हुई थी जिसमे उन्होंने साहित्य और पत्रकारिता के मेल को लेकर बात की थी और मार्खेज को इसका सबसे बड़ा उदाहरण बताया था.

हजार असहमतियां रही हों लोगों की लेकिन इस बात से कोई असहमति नहीं कि उनका जाना बहुत बड़ा नुक्सान है. सब लोग उनके आगामी सम्पादकीय का इंतज़ार कर रहे थे और वो चुपचाप चले गए.

Wednesday, October 23, 2013

प्रेम में 'मैं' नहीं होता....


मैंने कहा राग 
तुमने कहा रंग 

मैंने कहा धरती 
तुमने कहा आकाश 

मैंने कहा नदी 
तुमने कहा समन्दर 

मैंने कहा 'प्रेम' 
तुमने कहा 'मैं' 

इसके बाद 
हम दोनों खामोश हो गए

कि प्रेम में 'मैं' नहीं होता...

Friday, October 4, 2013

रोशनी बहुत चाहिए, सच्ची...


सुबह से तीन बार अखबारों को उलट-पुलटकर रख चुकी हूं। पढे़ हुए अखबारों में भी हमेशा कुछ न कुछ पढ़ने को छूट ही जाता है। हालांकि न पढ़ो तो भी कुछ नहीं छूटता ये अलग बात है। हर छूटी हुई चीज अपनी ओर शिद्दत से पुकारती है। शायद इसीलिए सुबह से तीन कप चाय से कलेजा जला चुकने के बाद भी घूमफिर कर अखबार उठा लेना किसी ढीठता सा ही लगता है।

कभी-कभी कैसे हो जाते हैं हम, जो एकदम नहीं करना चाहते उसमें ही खुद को झोंक देते हैं। जी-जान से। फिर उस न चाहने वाले काम में उलझे-उलझे भीतर ही भीतर कुछ रिसने लगता है। बाहर से काम के नतीजे तो अच्छे आ रहे होते हैं लेकिन अंदर से जो रिसाव है वो उस अच्छे को चिढ़कर देखता है। उस चिढ़कर देखने के बाद हम खुद को और ज्यादा झोंकने लगते हैं।

इस लड़ाई में हमें मजा आने लगता है। इस चिढ़ने में भी। सफलता और चिढ़ एक साथ बढ़ने लगती हैं। मुस्कुराहटों की तादाद एकदम से बढ़ जाती है कभी-कभी खिलखिलाहटों और कभी तो ठहाकों तक जा पहुंचती है। चिढ़ संकुचित होने लगती है। उसका आकार छोटा होता जाता है और गहनता बढ़ती जाती है। उसका कसाव मुस्कुराहटों के एकदम अंदर वाली पर्त में अपनी जगह बनाने लगता है। धीरे-धीरे उसका कसाव संपूर्ण जीवन में अपना कसाव बढ़ाने लगता है। यह तरह-तरह से दिखता है। कभी ज्यादा खुशियों, ज्यादा काम के बीच। कभी कुछ न करने या न कर पाने के आलसीपन या तकलीफ के बीच और कभी-कभार लंबे मौन के बीच खिंची किसी स्याह लकीर की तरह।

लकीरें... आजकल कागज पर भी खूब दौड़ती फिरती हैं। ठीक उसी तरह जैसे बचपन में पेंसिल लेकर पूरे कागज को गोंचने के लिए दौड़ती फिरती थीं। वो शायद पढ़ने का मन न होने पर होता होगा। या फिर किसी से नाराज होने पर। या अपनी कोई इच्छा पूरी न होने पर भी शायद। हमारे बचपन को नाराजगियां जाहिर करने की आजादी कहां थी। खैर, आजकल चिढ़ को थोड़ी रिसपेक्ट दे रखी है मैंने। उसकी सुनती हूं, कहती कुछ नहीं। कोशश करती हूं उसकी वजह समझ सकूं। काम करती हूं लेकिन उसे पलटकर देखने का मन नहीं करता। कुछ भी पलटकर देखने का मन नहीं करता। यहां तक दोपहर आते-आते सुबह की तरफ देखने का मन नहीं करता।

कोरे कागजों पर ढेर सारी लकीरें उगा रखी हैं। एक लकीर दूसरी को काटती है। दूसरी तीसरी को। तीसरी लकीर चौथी को काटती और इस तरह कोई लकीर सौवीं लकीर को भी काटती है।
इन कटी हुई लकीरों में बहुत सारी नई लकीरों का अक्स उभरता है। वो अक्स जाना-पहचाना सा लगता है। हालांकि उन नई लकीरों को मैंने नहीं बनाया उन्होंने खुद जन्म लिया है।

खूबसूरत मौसम जिस तरह आहिस्ता-आहिस्ता करीब आ रहा है, उसे छूने को जी चाहता है। ढेर बारिषों के बाद धूप के टुकड़े पकड़ने को जी चाहता है। बहुत सीलन भर गई है हर तरफ, अंदर बाहर, अखबारों के अंदर भी....बहुत धूप चाहिए। तरह-तरह की धूप चाहिए। बहुत उजाला चाहिए....ढेर सारा उजाला। खिड़की के सारे पर्दे हटा देने पर कमरे रोशनी से नहा जाते हैं....काश हर अंधेरे को दूर करने के लिए कुछ पर्दे होते, जिन्हें इतनी ही आसानी से हटाया जा सकता। अखबार को फिर से टेबल से उठाकर सोफे पर रख देती हूं। रोशनी बहुत चाहिए सच्ची...

दिन में किसी बच्चे ने धूप के कुछ टुकड़े दिए थे। प्राइम टाइम देखते हुए उन्हें अपने पर्स में तलाश रही हूं...