Saturday, October 27, 2012

आकाश से टकराती खिलखिलाहटें


मासूम खिलखिलाहटों के एक रेले ने जिस मजबूती से मुझे अचानक आ पकड़ा था कि व्यक्तित्व में समाई शाश्वत उदासियां भी भाग खड़ी हुईं. कैसा अजूबा था. उन चेहरों से, उन नामों से कोई पहचान नहीं थी सिवाय इसके कि वो बच्चे थे और मुझे बच्चों से बेहद प्रेम. बच्चे प्रेम को सूंघ लेते हैं. शुरूआती संकोच बमुश्किल दस मिनट में धराशायी हो चुका था.

मैं ऊधमसिंह नगर से थोड़ी ही दूर स्थित प्राथमिक विद्यालय रामसजीवनपुर में एक छात्र बनकर गई थी. उनके बीच बैठी, उनकी किताबें पलटते हुए. उस स्कूल में बच्चे एक अखबार निकालते हैं. हर रोज वो गांव के कोने-कोने में फैल जाते हैं और खबरें लेकर आते हैं. फिर उन खबरों को लिखते हैं और एक चार्ट पेपर पर उन खबरों को चिपकाते हैं. बच्चों की खबरों को चिपकाते हुए अपनी पहली अखबार की नौकरी की याद ताजा हो आई जब कंप्यूटर का जमाना नहीं था. 

अखबार बोर्ड पर चिपका कर बनते थे. मैं कैंची से खबरों की कटाई-छंटाई करके खबरों को चिपकाती हूं. उनसे पूछते हुए कि कौन सी खबर कहां लगेगी. बच्चों का उत्साह इस कदर उफन रहा था कि वो मुझ पर गिरे जा रहे थे. हर बच्चा करीब बैठना चाहता था. मुझे छूना चाहता था. मैं बीच-बीच में सबके किसी के सर पर हाथ फिरा रही थी, किसी के गाल छू रही थी. हम सब कितने गहरे दोस्त हो गये थे.
हमारे एक साथी को इन बच्चों के शिक्षक राघवेन्द्र का साक्षात्कार रिकार्ड करना था, मैं उस साक्षात्कार को सुनना चाहती थी. बच्चों के हुजूम को मैं उंगली से इशारा करके चुप रहने को कहती हूं. वो सब मुझे घेरे हुए थे. मैं जैसे उस हुजूम में घिर गई थी. ये कैसी नाइंसाफी थी कि इतने सारे बच्चों को चुप रहने को कहा जाए. उंगली के इशारे का असर कुछ सेकेंड्स में गुम हो जाता. आखिर मुझे क्लास से बाहर आना पड़ा ताकि साक्षात्कार आसानी से हो सके.

बाहर बड़ा सा आसमान और बड़ी सी जमीन थी. लेकिन मेरे इन बच्चों की खिलखिलाहटों के शोर को समेट पाने को आज धरती छोटी पड़ रही थी. बच्चे मुझे खींच रहे थे. मैडम जी, आपको नहर दिखायेंगे. मैंने देखा मना करते-करते भी मैं नंगे पांव आधा रास्ता तय कर चुकी हूं. आधे रास्ते से लौटती हूं. मैडम जी, हम आपको डांस दिखायें कुछ बच्चे नाचने लगते हैं. तभी कोई मेरी हथेली पर एक टाॅफी रख जाता है. डांस खत्म हो जाता है, अंताक्षरी शुरू होती है...मजा नहीं आता. उनका उत्साह आसमान छूने वाला था. सुभाष जी को आती है कला बच्चों का हाथ पकड़कर आसमान छूने की मैं तो बस हक्का बक्का थी. मुझे बस प्यार करना आता है, कई बार उस प्यार को भी संभाल नहीं पाती. आज भी वही हाल था. बच्चों के प्यार से मेरा दिल भरा था लेकिन मैं उन्हें संभाल नहीं पा रही थी.

मैडम जी, हमें कोई खेल खिला दो ना? बच्चे मेरी मुश्किल समझ गये थे शायद. मैं कौन सा खेल खिलाउं....अपने बचपन में लौटती हूं...खो-खो, कबड्डी...अचानक याद आता है कि सुभाष जी ने बच्चो से हाथ पकड़कर गोला बनवाया था. मैं कहती हूं चलो सब एक दूसरे का हाथ पकड़ो और गोला बनाओ. सेकेंड्स में गोला बन गया. बच्चे इतने ज्यादा थे कि धरती कम पड़ गई. मैं अनाड़ी थी. अंदाजा ही नहीं मिली कि मेरे बच्चों के कदमों को ये धरती तो बहुत कम है. मैंने थोड़ी सी अक्ल का इस्तेमाल करते हुए कहा दो गोले बनाओ. वाह! सेकेंड्स में दो गोले तैयार हो गये. बाहर वाला गोला घूमता तो अंदर वाला गोला तालियां बजाता. फिर अंदर वाला गोला घूमता और बाहर वाला गोला तालियां बजाता. मैंने चैन की सांस ली....बच्चे इतने खुश थे कि चिल्ला रहे थे. उनका शोर आसमान से भी ऊंचा जा रहा था. कुछ बच्चे बीच बीच में गोले से बाहर आकर मेरे करीब बैठ जाते. मैडम जी, आप जाना मत...उसने मेरा हाथ पकड़कर कहा. मैंने कहा, नहीं जाउंगी...अपने झूठे शब्दों पर मुझे खुद हैरत थी क्योंकि मेरे आना भले ही तय नहीं था लेकिन जाना तो तय था ही. आप झूठ बोल रही हो आप चली जाओगी...एक लड़की उदास हो जाती है. मेरी गोद में सर रखती है. कोई आकर मेरी हथेली पर हाजमोला की गोली रख देता है. उधर गोले वाला खेल भी अब बिगड़ चुका था और सब के सब फिर मुझे घेरे बैठे थे.

तभी स्कूल की घंटी बजी और इंटरवल हो गया. मैंने राहत भरी नजरों से बच्चों को देखा. लेकिन ये बच्चे हमें हमेषा गलत साबित करते हैं. बहुत सारे बच्चों ने घोशणा कि उन्हें भूख ही नहीं लगी है. वो खाना नहीं खायेंगे. मैं समझ गई थी कि ये और कुछ नहीं मुझे न छोड़ने का लालच था. मैं कहती हूं खाना खाओ तुम लोग फिर खेलेंगे. नहीं,,,,फिर आप चली जाओगी...मैं उदास हो गई थी कि मुझे सचमुच ही जाना था. बच्चे खाना छोड़े बैठे थे. मैंने कहा, मुझे बहुत भूख लगी है चलो सब मिलकर खाना खाते हैं. मिड डे मील खाने का सिलसिला तो उत्तरकाशी के स्कूल से शुरू हो ही चुका था. बच्चे यह सुनकर बेहद खुश थे कि मैं उनके साथ खाना खाने वाली हूं. मिनटों में सबके हाथ में खाना था. गर्मगर्म उरद की दाल और चावल. सच कहूं...बच्चों के प्यार में याद ही नहीं रहा था कि हम बिना एक कप चाय पिये ही इस सफर को निकल पड़े थे. खाने की खुशबू ने याद दिलाया कि पेट को कुछ चाहिए. बच्चों की थालियां बढ़ी हुई थीं. मैं सबकी थाली से एक एक कौर खाती हूं और तृप्त होती हूं. आत्मा की भूख शांत हो रही थी उन निवालों से. जाने कितनों ने कितने ढंग बताये, योग, ध्यान, पूजा, अर्चना, मुझ पर कभी कुछ असर नहीं किया....लेकिन बच्चों की उस दुनिया में जाकर लगा कि आत्मा पर जितने घाव थे वो भर गये हों जैसे. मन उस मुक्ति ओर प्रस्थान कर चुका था जिसकी तलाष में जाने कितने सदियों से ऋषी मुनि, संतजन भटक रहे हैं. यही वो शोर था जो भीतर के कोलाहल को शांत कर रहा था. हां, बिना धार्मिक हुए भी संत हुआ जा सकता है...बरबस खुद से कह उठती हूं.

हमारे स्कूल से जाने का वक्त था. बच्चे हाथ छोड़ने को तैयार नहीं. मैं एक झूठा वादा बोकर उठती हूं कि फिर आउंगी जल्दी ही. जानती मैं भी हूं कि उत्तराखंड के इस सुदूरवर्ती गांव के छोटे से स्कूल में दोबारा आउंगी या नहीं पता नहीं...बच्चे भी इस सच को जानते हैं. वो इस झूठ का बुरा नहीं मानते. नजर की आखिरी हद तक वो हाथ हिलाते रहते हैं. मैं जानती हूं वो बच्चे हैं. वो अब तक मुझे भूल भी चुके होंगे लेकिन उन्होंने उन चंद घंटों में जो मुझे दिया उसे मैं उम्र भर नहीं भूल सकती.

नाम, पता, ओहदा उन्हें किसी बात से मतलब नहीं था उन्हें मतलब था बस प्यार से. ऐसा निष्छल संसार बच्चों का ही हो सकता है. समंदर, रेगिस्तान, जंगल पहाड़ न जाने कितनी यात्राएं एक टुकड़ा षान्ति के लिए कर डाली थीं. वह शांति यहां मिली. मैं खाली हाथ गई थी और भरे मन लौटी...

उस रात जिंदगी ने एक टुकड़ा नींद बख्शी थी मुझे.

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

बचपन की निश्चिन्त जिन्दगी,
सब रंग भाते, आते जाते।

आनंद said...

मन भर आया ....

नाम, पता, ओहदा उन्हें किसी बात से मतलब नहीं था उन्हें मतलब था बस प्यार से. ऐसा निष्छल संसार बच्चों का ही हो सकता है. समंदर, रेगिस्तान, जंगल पहाड़ न जाने कितनी यात्राएं एक टुकड़ा षान्ति के लिए कर डाली थीं. वह शांति यहां मिली. मैं खाली हाथ गई थी और भरे मन लौटी...

उस रात जिंदगी ने एक टुकड़ा नींद बख्शी थी मुझे.....