मेरे कानों में कुछ गिरने की आवाजें थीं..सफ़र के दौरान क्या गिरा होगा भला. चौंक के देखती हूँ आस पास. सब सलामत है. ट्रेन अपनी गति से चल रही है. चीज़ें अपनी गति से छूट रही हैं. लोग नींद की ताल से ताल मिला रहे हैं..मैं रात भर कुछ गिरने की आवाजें सुनती हूँ. खुद को टटोलती हूँ बार-बार. गिरने की आहटें बीनते-बीनते रात बीत जाती है. सुबह झांकती है ट्रेन के डिब्बे में. पर्दा हटाते ही वो इत्मिनान से भीतर चली आती है. मेरी आँखों में भी कोई हैरानी नहीं, उसकी आदत से वाकिफ हूँ सदियों से. सुबह ही क्या कुदरत की हर चीज़ हम तक आने को बेताब ही रहती है हमेशा. हम ही न जाने कैसे रेशमी पर्दों की छांव में खुद को छुपाये फिरते हैं.
बीच के सारे शहर छूट गए थे. दौसा...गुजर रहा था. लोग अपना सामान समेट रहे थे और मैं ख़ुद को. तभी एक नन्ही बच्ची (जिससे आँखों ही आँखों में लुका-छिपी का खेल खेला था शाम को) चुपके से आकर पीछे खड़ी हो जाती है. मेरे बालों को छूती है. मैं अनजान होने का मुखौटा पहनती हूँ. वो और करीब आ जाती है. मैं और अनजान, वो और करीब. एकदम सटकर बैठ जाती है. झांककर देखती है मेरे चेहरे की ओर. मैं ध्यान खिड़की के बाहर के मौसम पर टिकाती हूँ...हालाँकि ध्यान वहीँ है पूरा, उस बच्ची के पास. शायद दुनिया ने हमसे पहले उस बच्ची की सिखा दिया है कि हमें खतरा अनजान लोगों से नहीं जान पहचान वालों से ज्यादा है. अजनबी सूरतों में हम सहज होते हैं और किसी जानने वाले को देखते ही अपने मुखौटे सँभालते फिरते हैं. मैंने उस बच्ची को अपने अजनबी होने की सहजता दी और उसने अपनी खुशबू से मुझे नवाज़ दिया. सुबह वाकई बेहद खुशनुमा हो उठी. मैंने उसके गाल खींचे. उसने मेरे बाल. हिसाब बराबर. हम दोनों हंस दिए.
जयपुर आ गया....मैं इत्मिनान से उतरती हूँ. टैक्सी एयरपोर्ट की ओर दौड़ रही थी....उस बच्ची की खुशबू मानो फिजाओं में घुली हुई थी. मैंने महसूस किया कि रात भर जो गिरने कि आवाजें बीनी हैं वो असल में मेरे भीतर के तमाम विकारों के किले के ध्वस्त होने की आवाजें थी..मन एकदम शान्त...धुला धुला सा.
वो नन्ही परी अपने पापा की बाँहों में सिमटे हुए मुझे देखे जा रही थी...
10 comments:
बहुत बढ़िया संस्मरण!
सुबह वाकई बेहद खुशनुमा हो उठी. मैंने उसके गाल खींचे. उसने मेरे बाल. हिसाब बराबर. हम दोनों हंस दिए.
मासूम यादें जिन्हें कभी नहीं भूला जा सकता...
ये एक अनकही से किसी और आयाम की दुनिया है ।
मन जिन किलों में कैद है, वे दीवारें टूट जाना ही श्रेयस्कर..
बेहद गहन
so sweet..
:-)
anu
lovely..
सुंदर अभिव्यक्ति !
अजनबी सूरतों में हम सहज होते हैं और किसी जानने वाले को देखते ही अपने मुखौटे सँभालते फिरते हैं.
कभी- कभी यही सच लगता है कि खतरा जानपहचान वालों से ज्यादा होता है !
राजस्थान मत जाया करो आप ! वो न बड़ा छलिया प्रदेश है कभी जितना जाओ उतना वापस नहीं आने देता ...अपने लिये कुछ न कुछ जरूर बचा लेता है !
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