Monday, November 14, 2011

तुमने उसे कहीं देखा है क्या...


वो रात का मुसाफिर था. उसके कंधे पर एक पोटली रहती थी. जो खासी भारी सी मालूम पड़ती थी. उस पोटली के बोझ से मुसाफिर अक्सर झुककर चलता था. अपने कंधे के बोझ को अपने दूसरे कंधे पर रखकर पहले कंधे को बीच-बीच में आराम देता था. रास्ते में कोई कुआं या बावड़ी मिलती, तो उस पोटली को वहीं रखकर पानी को हसरत से देखता. पानी पीने के लिए वो बावड़ी में उतर नहीं सकता था और कुएं से पानी खींचने के लिए उसके पास कुछ भी नहीं होता था. पोटली की निगरानी की ताकीद इतनी सख्त थी कि वो पलक झपकाये बगैर उसे देखता रहता. कभी थकान से जब जिस्म दोहरा हो जाता तो उसी पोटली पर सर रखकर कुएं की जगत पर चंद नींद की झपकियां लेता. फिर किसी सपने के बीच से हड़बड़ाकर उठ बैठता. वो सपने में देखता कि कोई उसकी पोटली लेकर भागा जा रहा है. वो उसके पीछे दौड़ रहा है. चिल्ला रहा है...अरे सुनो. रुको तो सही. उसमें तुम्हारे काम का कुछ भी नहीं है. पर जो पोटली लेकर भाग रहा था, उसके कदमों में ताकत भी बहुत थी और उसकी टांगें काफी लंबी थीं. मुसाफिर अपनी पूरी ताकत से दौडऩे के बावजूद लगातार पीछे छूटता जा रहा था...और एक मोड़ पर अचानक वो किसी चीज से टकराकर गिर पड़ा. उसके दोनों घुटनों से खून निकलने लगा...आ....ह. उसके हलक से दर्द भरी एक चीख निकली और वो चौंककर जाग गया. उसका पूरा जिस्म पसीने से भीगा था लेकिन उसका सर उसकी पोटली पर. ऐसे सपने टूटने के बाद उसे हमेशा सपने टूटने के सुख का अहसास होता. उसे समझ में नहीं आता था कि लोग ख्वाब टूट न जाने को लेकर इतने परेशान क्यों रहते हैं, जबकि उसे अपना सपना टूटने में जो सुख मिला वो कहीं नहीं मिला. बचपन में वो जब मां के मर जाने का सपना देखता था और नींद खुलने पर खुद को मां की छाती से चिपका पाता, तो चैन की सांस लेता था. मां की सांसों को चूमता, उसके दिल की धड़कनों पर अपना सर रख देता और मन ही मन उस खुदा का शुकराना करता, जिसे उसने कभी देखा नहीं है.
एक रोज उसे एक बावड़ी से निकलती हुई एक स्त्री मिली. रात इतनी गाढ़ी थी कि हाथ को हाथ न सूझता था. इसलिए मुसाफिर को उस परछांई के पहनावे से यह अंदाजा हुआ कि वो कोई स्त्री है. उसकी चाल में एक आत्मविश्वास था. उसका आंचल हवा के नामालूम से झोंकों में भी खूब लहरा रहा था. उसने उस परछाई को अपने करीब आते देखा और पोटली को कसकर पकड़ लिया. उसने सुना था रात-बिरात पीपल के पेड़ और कुएं बावडिय़ों के आसपास कुछ बुरी आत्माएं भटकती रहती हैं. वो डरकर अपनी तावीजों पर हाथ रखने लगा.
उस परछाई ने पास आकर पूछा, प्यास लगी है क्या?
मुसाफिर ने हकलाते हुए कहा, हां लगी तो है लेकिन...
लेकिन क्या. जाओ और पानी पीकर आओ. बावड़ी गहरी होगी ना? मुसाफिर ने पूछा.
यह सुनकर परछाई हंस दी. उस हंसी की खनक से उसे अंदाजा हुआ कि वो निहायत खूबसूरत होगी. मुसाफिर ने फिर डरते-डरते कहा, मैं नहीं जा सकता. मेरी ये पोटली है ना, मैं इसे जब तक इसके मालिक तक सही सलामत ना पहुंचा दूं, मैं कहीं नहीं रुक सकता. और यह सफर रात भर में ही पूरा करना है. मैं प्यासा रह लूंगा. कहते हुए मुसाफिर ने अपना हलक सूखता हुआ महसूस किया. तुम जाओ पानी पीकर आओ मैं संभालती हूं पोटली. परछांई ने उसे आश्वस्त किया. मुसाफिर एक पल अपनी प्यास देखता, दूसरे पल पोटली. इन दोनों के बीच एक बार उसकी न$जर परछाई से भी टकरा गई. उसी पल मुसाफिर उस परछाई की बात मान गया. उसने उस स्त्री को पोटली थमाई और कहा, तुम यहीं बैठो मैं आता हूं प्यास बुझाकर. स्त्री ने अपने दोनों हाथों से पोटली को थाम लिया. वहीं सीढिय़ों पर बैठ गई. मुसाफिर बावड़ी की तरफ बढ़ा. बीच-बीच में पीछे मुड़कर देखता. उस अंधेरे में जाने क्यों उसे कोई मुस्कुराहट सी खिलती न$जर आती. उसे लगता कि वो मुस्कुराहट उसे छू रही है. वो कोई तिलिस्मी रात थी शायद. आसमान चांद सितारों से खाली था. बस एक सितारा टिमटिमा रहा था. पूरे आकाश पर आज उस अकेले का राज था. वो स्त्री उस अकेले तारे से न$जर जोड़ बैठी. उसने पोटली पर सिर टिकाया और आंचल को हवा से खेलने के लिए छोड़ दिया. उस रात उस अकेले तारे को देखते हुए उसे बीते जमाने की सारी चांद रातें याद आने लगीं. वो रातें जब वो आसमान के इस तारे की तरह अकेली नहीं हुआ करती थी. इसी बावड़ी में एक जोड़ी हंसी खिलखिलाती फिरती थी. स्त्री की आंखों से बहते हुए एक बूंद उस पोटली में जा समाई.
उधर मुसाफिर की प्यास बुझने को न आती थी. वो बावड़ी में उतरता जाता. अंजुरी में भर-भरकर पानी पीता जाता. न जाने कितने जन्मों की प्यास थी जो बुझने को राजी ही न थी. वो भूल गया कि वो रात का मुसाफिर है. सुबह होते ही उसका और उसके सफर का कोई वजूद न रह जायेगा. वो पोटली वहां तक न पहुंच पायेगी, जहां उसे पहुंचना है. वो बावड़ी की ओर बढ़ता गया, स्त्री पोटली हाथ में लिये उसके लौटने का इंत$जार करती रही. इस बीच रात का सफर पूरा हुआ.
सुबह की किरन देखते ही स्त्री ने बावड़ी का रुख किया. मुसाफिर का कोई पता न था. वो बावड़ी के और करीब गयी...उसने उसे आवाजें दीं, अरे ओ मुसाफिर...कहां हो तुम. अपना सामान तो ले जाओ... लेकिन वो तो रात का मुसाफिर था. स्त्री को यह भी पता नहीं था कि यह पोटली किसके लिए है. किस पते पर इसे जाना है. उसने बावड़ी की उन्हीं सीढिय़ों पर पोटली को खोलकर देखा. उसमें चमकते हुए गहने थे, बड़े-बड़े हार, कानों के कुंडल, हाथों के कंगन, पैरों की पायल...श्रृंगार का सामान भी था सारा. लिपिस्टिक, बिंदी, पाउडर, आलता और भी न जाने क्या-क्या. कीमती साडिय़ां भी थीं. एक छोटा बॉक्स भी था उसमें. उसने डरते-डरते उस बॉक्स को खोला. उसमें से चमचमाते हुए व्रत, त्योहार, रीति-रिवाज, परंपराएं, नैतिकताएं, नियम-मर्यादाएं निकल पड़े. स्त्री ने उस बॉक्स को झट से बंद कर दिया. पोटली को समेटा. उसे बांधा और सर पर रख लिया. रास्ते भर वो मुसाफिर को तलाशती रही. जिंदगी के सफर में तबसे हर स्त्री अपने सर पर वो पोटली लिए घूमती है, एक मुसाफिर की तलाश में. जो आकर उसके बोझ को कम करे...उसका सफर और तलाश दोनों जारी है...

(13 नवम्बर को जनसंदेश टाइम्स में प्रकाशित)

Friday, November 11, 2011

छूटना...


यात्राओं में सबसे सुन्दर क्या लगता है? ये मैंने अपने आपसे पूछा. एक चुप्पी जो मेरे ही भीतर थी, उसने भीतर ही भीतर चहलकदमी शुरू कर दी. जवाब जल्दी ही मिल गया. छूटना...मुझे यात्राओं में छूटना अच्छा लगता है. घर से छूटना, रिश्तों से छूटना, शहर से छूटना, रास्ते में मिलने वाले पेड़, पौधे, खेत, जानवर, नदी, पहाड़ सबका छूटना. यात्राओं की मंजिल का तय होना ज़रूरी नहीं लेकिन उस मंजिल का भी छूटना तय है. मै छूटती हुई चीज़ों को प्यार से देखती हूँ. बहुत प्यार से. आने वाली चीज़ों का मोह छूटने वाली चीज़ें अक्सर कम कर देती हैं. यूँ भी जो चीज़ छूट रही होती है उसका आकर्षण बढ़ता ही जाता है. वो खींचती है अपनी ओर. यही जीवन का नियम है. इस छूटने में एक अजीब किस्म का सुख होता है.जिस चीज के प्रति आकर्षण बढ़ रहा हो, उसका छूटना जीवन का सबसे सुखद राग है. जिसे हम अक्सर विषाद या अवसाद का नाम देते हैं असल में जीवन वहीँ कहीं सांस ले रहा होता है.

होने और न होने के बीच एक जगह होती है. जैसे आरोह और अवरोह के बीच. जैसे स्थायी और अंतरे के बीच. जहाँ हम राग को खंडित किये बगैर साँस लेते हैं. इन्ही बीच के खाली स्पेस में छूटने का सुख रखा होता है. अगर रियाज़ में जरा भी कमी हुई तो वो खाली स्पेस जहाँ छूटने का सुख और सांस लेने की इज़ाज़त ठहरती है वो जाया हो जाती है. मैं इस स्पेस में हर उस सुख को उठाकर रख देती हूँ, जिससे छूटना चाहती हूँ. इसके लिए यात्राओं में होना ज़रूरी नहीं सम पर होना ज़रूरी है. यात्रा इस सम पर होने को नए अर्थ देती है. जीवन को समझने का नया ढंग. ओह, मैं भटक गयी शायद. मैं छूटने की बात कर रही थी. हाँ तो मुझे जवाब मिला कि मुझे छूटना पसंद है यात्राओं के दौरान. जीवन यात्रा हो एक शहर से दूसरे शहर की यात्रा.

सफ़र मुझे ट्रेन से किया हुआ ही पसंद है. दरवाजे पर खड़े होकर घंटो छूटते जा रहे संसार को देखना. हवा को मुठ्ठी में कैद करने की कोशिश करना और उसका लगातार छूटता जाना. ये छूटना छू जाता है दिल को. कभी कभी लगता है हमें जिन्दगी का ककहरा गलत पढाया गया. हम चीज़ों को पाने में सुख ढूँढने लगे, और उसके खोने में दुःख महसूस करने लगे. लेकिन इसके उलट की स्थिति भी कम आनंददायक नहीं थी. बस कि हम उस आनंद को जीना नहीं सीख पाए. जीवन के सफ़र में हर छूटती हुई चीज़ को याद करते हुए लगा कि कितना प्रेम था उन चीज़ों से जो छूट गयीं, उन लम्हों से जो छूट गए, वो लोग जीवन में आते आते रह गए. वो रह जाना, वो छूट जाना ही सुख कि ओर धकेलता है. मिल जाना या पा लेना सुख के प्रति विमुख होना है. तलाश है नए सुख की...मैंने छूटना स्वीकार किया, उसके सुख को सिरहाने रखा और महसूस किया कि हर उलझन से, हर दुविधा से, हर मुश्किल से छूटती जा रही हूँ. ट्रेन चलती जा रही है और मै खुद से भी छूटती जा रही हूँ. बस एक चाँद कमबख्त छूटता नहीं साथ दौड़ता रहता है...मै मन ही मन सोचती हूँ तू मेरा कितना भी पीछा कर ले बच्चू, भोर की पहली किरण के साथ तू भी छूट ही जायेगा. अचानक घडी पे निगाह गयी...सुबह सर पर खड़ी थी. अब चाँद के भी छूटने का समय आ गया था. एसी कम्पार्टमेंट का नीला पर्दा हटती हूँ और छूटते हुए चाँद को हसरत से देखती हूँ...वो मुझे देखकर मुस्कुराता है और बाय कहता है. ठीक इसी वक़्त सूरज की पहली किरण का जन्म होता है.

एक दोस्त की बात याद आती है अगर कुछ छूटता है तो नए के लिए स्पेस बनती है...इसलिए छूटना अच्छा ही होता है...वैसे इस जीवन को जिससे इतना लाड लगाये बैठे हैं इसे भी तो छूटना ही है एक दिन...


(प्रकाशित)

Tuesday, November 8, 2011

पंद्रह साल का समय कितनी कम जगह घेरता है


1832 में एक पोलिश कुलीन महिला बाल्‍ज़ाक का उपन्‍यास 'द मैजिक स्किन' पढ़ती है. अपने प्रिय लेखक द्वारा महिला चरित्र का इतना नकारात्‍मक वर्णन देखकर उसे निराशा होती है. अपनी चिढ़ जताने और लेखक को परेशान करने के लिए वह उसे एक बेनाम ख़त लिखती है, जिसमें पिछले उपन्‍यासों की तारीफ़ और नए की निंदा है. उसने उसमें कोई जवाबी पता नहीं लिखा. बाल्‍ज़ाक को समझ में नहीं आता कि वह कैसे जवाब दें. वह अगले दिन एक फ्रेंच अख़बार में एक विज्ञापन छपवाते हैं और उसके ज़रिए महिला को जवाब देते हैं. वह महिला शायद जीवन-भर उस विज्ञापन को नहीं देख पाती.

कुछ दिनों बाद महिला को अपने लिखे पर अफ़सोस होता है, और वह बाल्‍ज़ाक को फिर ख़त लिखती है, जिसमें उनके लेखन भूरि-भूरि प्रशंसा है. कुछ दिनों बाद और ख़त. और ख़त. लेकिन किसी में भी अपना नाम नहीं लिखती, पता नहीं लिखती. अंत में सिर्फ़ इतना- 'तुम्‍हारी, अजनबी.' लेकिन हर ख़त में वह यह ज़रूर कहती है कि मुझे जवाब देना. बाल्‍ज़ाक उसके सुंदर ख़तों का इंतज़ार करते हैं, लेकिन जवाब कहां दें? अगली बार महिला उन्‍हें वही आइडिया देती है, अख़बार में विज्ञापन छपवा कर जवाब देने का. वह किसी और अख़बार का नाम लेती है. बाल्‍ज़ाक उसमें विज्ञापन छपवाकर जवाब देते हैं.

अगले ख़त में महिला अपना परिचय और पता दे ही देती है- एवेलिना हान्‍स्‍का. वह एक पोलिश सामंत की पत्‍नी है, जो लगातार बीमार रहता है. वह उम्र में बहुत बड़े अपने पति की सेवा करती है और बाक़ी समय में बाल्‍ज़ाक की किताबें पढ़ती है. ख़तो-किताबत होती है और साल-भर में ही बाल्‍ज़ाक उसके प्रति अपने प्रेम का प्रदर्शन कर देते हैं. हान्‍स्‍का भी उनसे प्रेम करने लगती है. बाल्‍ज़ाक उस समय कुछ दूसरे प्रेम-संबंधों में हैं, लेकिन हान्‍स्‍का उनकी स्‍वप्‍नकन्‍या बन जाती है, जिसे उन्‍होंने नहीं देखा है.

अगले साल हान्‍स्‍का कुछ ऐसा मैनेज करती है कि बाल्‍ज़ाक स्विटज़रलैंड में उसके परिवार से मिलने आ जाते हैं. वह छद्म नाम से होटल में रहते हैं और पार्क में बैठ उनकी लिखी किताब पढ़ती स्‍त्री को देख मुग्‍ध हो जाते हैं. पांच दिनों में वह उस परिवार में घुल-मिल जाते हैं, पास के जंगल में भटकते हुए प्रेम करते हैं. अगले दो साल तक उनकी फुटकर मुलाक़ातें होती हैं.

हान्‍स्‍का अपने ख़तों में उन्‍हें नये उपन्‍यासों का आइडिया देती है. वह ख़ुद एक कहानी लिखना चाहती है, जो उसकी अपनी कहानी होगी, जिसमें वह अपने प्रिय लेखक से ख़तों में प्रेम करती है. वह उसे लिखकर जला देती है. तब बाल्‍ज़ाक कहते हैं कि यह कहानी तुम्‍हारे लिए मैं लिखूंगा. वह क्‍लासिक 'मोदेस्‍त मीग्‍न्‍यों' लिखते हैं.

1841 में बीमारी के कारण हान्‍स्‍का के पति मृत्‍यु हो जाती है. बाल्‍ज़ाक को लगता है कि अब वह हान्‍स्‍का से तुरंत शादी कर लेंगे, लेकिन वैसा संभव नहीं, क्‍योंकि हान्‍स्‍का ज़ायदाद के विवाद में फंस गई है. इस समय अगर वह शादी करेगी, तो उसे कुछ नहीं मिलेगा और पहले वह अपनी दोनों बेटियों का भविष्‍य सुरक्षित करना चाहती है. उसे अकेला जान कई लोग उससे प्रणय-निवेदन करते हैं, लेकिन वह सख़्ती से सबको मना करती है और बाल्‍ज़ाक से वफ़ा का वादा करती है. बाल्‍ज़ाक आग्रह करते हैं कि वे सब रूस चलें. ज़ार बाल्‍ज़ाक को पसंद करता है, वह ख़ुद हान्‍स्‍का से शादी करा देगा, लेकिन हान्‍स्‍का मना कर देती है.

1843 में हान्‍स्‍का को अख़बारों के ज़रिए वे ख़बरें मिलती हैं, जिनमें बाल्‍ज़ाक का नाम कई महिलाओं से जुड़ा बताया जाता है. वह बाल्‍ज़ाक से पूछती है, लेकिन वह साफ़ मुकर जाते हैं. एक के बाद एक कई झूठ लिखते हैं. हान्‍स्‍का हर झूठ को जज़्ब कर जाती है, लेकिन कहती है कि वह अपनी नौकरानी को ज़रूर घर से निकाल दें. उसे बार-बार लगता है कि बाल्‍ज़ाक उससे छल कर रहे हैं. वह बमुश्किल इस बात के लिए राज़ी होते हैं और एक दिन अचानक लिखते हैं कि नौकरानी ने उनके ख़त चुरा लिए हैं और उन्‍हें ब्‍लैकमेल कर रही है. हान्‍स्‍का को इस पर भी संदेह होता है, लेकिन वह कुछ नहीं कहती. एक दिन ख़त आता है कि उन्‍होंने हान्‍स्‍का के सारे ख़त जला दिए हैं, क्‍योंकि कोई भी उन्‍हें पढ़ सकता था. उन्‍होंने लिखा, ' ये पंक्तियां लिखते समय मैं इन काग़जों की राख देख रहा हूं और सोच रहा हूं कि पंद्रह साल का समय कितनी कम जगह घेरता है.'

अब तक उन्‍हें रूबरू मिले आठ साल बीत चुके थे. बहुत कोशिशों के बाद उनकी मुलाक़ात हुई. बाल्‍ज़ाक भीषण लेखक थे. लंबी बैठकों में लिखते थे. एक बार लिखने बैठे, तो 46-48 घंटे तक लिखते रहते थे. बीच में एकाध घंटे का ब्रेक. आर्थिक परेशानियां हमेशा रहती थीं और वह मदद के लिए हान्‍स्‍का की तरफ़ भी देखते थे. लेखन की इस मेहनत ने उनकी तबीयत बिगाड़ दी.

ज़ायदाद का निपटारा होने में छह-सात साल लग गए. तब तक वह ख़तों में ही प्रेम करते रहे. 1850 में एक दिन दोनों ने शादी कर ली. 18 साल तक शब्‍दों और ख़तों के ज़रिए एक-दूसरे से जुड़े रहने, इतने बरसों में बमुश्किल पांचेक बार कुछ घंटों के लिए एक-दूसरे से मिल पाने के बाद दोनों ने क़रीब दस घंटे का सफ़र पैदल और घोड़ागाड़ी में तय किया और समारोह में पहुंचे. और अगले ही दिन से दोनों की तबीयत ख़राब हो गई. शादी के सिर्फ़ पांच महीने बाद बाल्‍ज़ाक की मौत हो गई.

(गीत चतुर्वेदी की फेसबुक वॉल से उनकी अनुमति व आभार सहित)

Sunday, November 6, 2011

जीने का सलीका है प्रतिरोध


संकल्प के साथी भोजपुरी गीतों की खुशबू के साथ 
किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार...नरेश सक्सेना 
अनुपमा श्रीनिवासन  
उमा चक्रवर्ती 
रमाशंकर विद्रोही 
नदियों के हमराही अपल 
मैं उन्हें नहीं जानती थी. कभी नाम भी नहीं सुना था. उमा, उमा चक्रवर्ती. संजय जोशी उनकी तारीफ करते नहीं थक रहे थे. उनकी ऊर्जा, उनका स्पष्ट दृष्टिकोण और समाज की नब्ज पर उनकी पकड़. सत्तर बरस की उम्र में पहली डाक्यूमेंट्री बनाने वाली उमा चक्रवर्ती की फिल्म मेरे सामने खुल रही थी. एक-एक दृश्य ऐसे सामने से गुजर रहा था जैसे सर पर कई मटके एक के ऊपर एक रखकर चलती कोई नवयौवना. मटकों का होना उसकी चाल में सौंदर्य और संतुलन की जो रिद्म पैदा करता है वह अप्रतिम होता है. वही सुख था उनकी फिल्म 'अ क्वाइट लिटिल कंट्री' का. नॉस्टैल्जिया का ऐसा पिक्चराइजेशन. एक बक्से में बंद एक स्त्री. उसका मन. कुछ कागज, कुछ स्मृतियां...दिल चाहा उस उर्जावान स्त्री को एक बार बस छू लूं कि उनकी ताकत का कुछ अंश मिल जाए शायद. फिल्म खत्म होते ही लोग उन्हें घेर लेते हैं. मैं पीछे खड़ी उनके खाली होने का इंतजार करती हूं. अचानक भीड़ हमें एक-दूसरे के सामने खड़ा करती है और मैं बेसाख्ता कह उठती हूं, आपको छूना चाहती हूं एक बार. वो हंसकर गले लगा लेती हैं. भींच लेती हैं अपनी बाहों में. मैं देख रही थी तुम्हें देखते हुए...उन्हें गालों को प्यार से थपथपाया. मैंने मानो सचमुच उनकी ऊर्जा को सोख लिया था. 
लखनऊ में हुए जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजित चौथा फिल्म फेस्टिवल अपने सफर के 20वें पड़ाव पर था. यहां ऐसी न जाने कितनी अनुभूतियां बिखरी पड़ी थीं. तीन दिन चलने वाले इस फेस्टिवल की थीम थी फिल्म के जरिये स्त्रियों का संघर्ष. फिल्म फेस्टिवल के इस आयोजन में शिरकत करते हुए एक शब्द लगातार जेहन में कुलबुलाता रहा, रजिस्टेंस...प्रतिरोध. 
लगभग सभी फिल्मकारों ने, जनकवि रमाशंकर विद्रोही ने, भोजपुरी गीतों के साथ बलिया से आई संकल्प टीम के साथियों ने, गंगा, गोमती, ब्रहमपुत्र और जाम्बेजी नदियों की सिरे से अंत तक यात्रा करने वाले फिल्मकार और यायावर अपल में आखिर क्या ऐसा था जो उन्हें आम होते हुए भी खास बना रहा था. जीवन के प्रति नजरिया. गलत के प्रति प्रतिरोध की ताकत. ऋत्विक दा की फिल्म 'मेघे ढाका तारा' की नायिका जब यह कहती है कि उसने गलत का प्रतिरोध न करके पाप किया है तो तस्वीर साफ नजर आती है. पूरी फिल्म में उसकी खामोशी में छुपे दर्द का कारण स्पष्ट नजर आता है. अंत में वो 'मेघे ढाका तारा' होने की बजाय सूरज बनना चाहती है. यही उसके प्रतिरोध का स्वर है. 
अनुपमा श्रीनिवासन अपनी फिल्म 'आई वंडर' में सिर्फ बच्चों से बात करती हैं कि आखिर उन्हें पढऩा लगता कैसा है? वो जो पढ़ रहे हैं, उसे समझ भी रहे हैं क्या? चंद सीधे से सवालों के जरिये वे बिना किसी बैनर पोस्टर या आंदोलन के फिल्म देखने वाले के भीतर प्रतिरोध को भरती हैं कि ऐसी शिक्षा किस काम की जिसमें बच्चों का मन न लगे, पढ़ाये गये पाठ उन्हें समझ में न आयें...वे सचमुच ऐसा कुछ नहीं कहतीं लेकिन यह साफ सुनाई देता है. वसुधा जोशी की फिल्म फार माया चार पीढ़ी की महिलाओं के सामाजिक व पारिवारिक परिवेश का आंकलन करती है.
'ससुराल' मीरा नायर- देखते हुए मन चीत्कार कर उठता है कहां है रजिस्टेंस. क्यों बचपन से स्त्री के मन में प्रतिरोध को दबाना ही सिखाया जाता है. सहना उसके जीवन का गहना क्यों बन जाता है. लड़की एकदम गऊ है...क्या अर्थ है कि जिस खूंटे से बांध दो बंध जायेगी. जिस घर डोली जायेगी वहां से अर्थी निकलेगी...की कहावतें कब तक लड़कियों को सुननी पड़ेंगी. इन्हीं बातों के भीतर प्रतिरोध की आवाज है. जिसे हर स्त्री को सुनना होगा. पायल की जगह प्रतिरोध की आवाज को बांधना होगा. प्रतिरोध न करने के उस पाप से बचना होगा, जिसे नीता ने किया और जीवन भर कष्ट सहा. 
जहां भी, जब भी, जैसा भी गलत घट रहा है उसके प्रति अपने भीतर मुखर होते विरोध के बीजों को सींचना होगा. प्रतिरोध के खतरों का सामना करते हुए आगे बढऩा होगा. जफर पनाही की ईरानी फिल्म 'ऑफ साइड' में प्रतिरोध का यह स्वर किसी फूल का खिलता नजर आता है. यही सुर था इस फिल्मोत्सव का. 21 अक्टूबर से 24 अक्टूबर तक चले इस तीन दिवसीय समारोह का उद्घाटन नरेश सक्सेना जी ने अपने माउथ ऑर्गन से 'किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार...' बजाते हुए किया और कवि रमाशंकर विद्रोही ने समाज को यह चेतावनी देते हुए कि अब वे किसी लड़की को जलने नहीं देंगे इसे विराम दिया. 
- प्रतिभा कटियार
(प्रकाशित)