Friday, December 31, 2010

रात में वर्षा- सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

मेरी साँसों पर मेघ उतरने लगे हैं,
आकाश पलकों पर झुक आया है,
क्षितिज मेरी भुजाओं में टकराता है,
आज रात वर्षा होगी।
कहाँ हो तुम?

मैंने शीशे का एक बहुत बड़ा एक्वेरियम
बादलों के ऊपर आकाश में बनाया है,
जिसमें रंग-बिरंगी असंख्य मछलियाँ डाल दी हैं,
सारा सागर भर दिया है।
आज रात वह एक्वेरियम टूटेगा-
बौछारे की एक-एक बूँद के साथ
रंगीन मछलियाँ गिरेंगी।
कहाँ हो तुम?

मैं तुम्हें बूँदों पर उड़ती
धारों पर चढ़ती-उतरती
झकोरों में दौड़ती, हाँफती,
उन असंख्य रंगीन मछलियों को
दिखाना चाहता हूँ
जिन्हें मैंने अपने रोम-रोम की पुलक
 से आकार दिया है।

Thursday, December 30, 2010

कितना अच्छा होता है- सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

एक-दूसरे को बिना जाने
पास-पास होना
और उस संगीत को सुनना
जो धमनियों में बजता है,
उन रंगों में नहा जाना
जो बहुत गहरे चढ़ते-उतरते हैं ।
शब्दों की खोज शुरु होते ही
हम एक-दूसरे को खोने लगते हैं
और उनके पकड़ में आते ही
एक-दूसरे के हाथों से
मछली की तरह फिसल जाते हैं ।
हर जानकारी में बहुत गहरे
ऊब का एक पतला धागा छिपा होता है,
कुछ भी ठीक से जान लेना
खुद से दुश्मनी ठान लेना है ।
कितना अच्छा होता है
एक-दूसरे के पास बैठ खुद को टटोलना,
और अपने ही भीतर
दूसरे को पा लेना ।


हम जीते जी मसरूफ़ रहे...

दाल धोकर कुकर में चढ़ा ही रही थी कि फोन की रिंगटोन बज उठी... फोन उठाया तो उधर से शहरयार जी की आवा$ज थी. तुम्हें कभी फुर्सत नहीं मिलेगी? आवाज में वही पुराना उलाहना और मेरी खुद से मुंह चुराती मेरी आवाज. दो मिनट का वक्त है तुम्हारे पास? उनकी आवाज से नाराजगी छलक रही थी. मैंने कुकर का ढक्कन लगाया, गैस धीमी की और फोन पर ध्यान लगाया. जी बताइये, मैं नज्म पढ़ रहा था फैज की. क्या तो कमाल का शायर था. तुमने पहले भी सुनी होगी लेकिन फिर से सुनो इसे- 

वो लोग बहुत ख़ुश$िकस्मत थे
जो इश्$क को काम समझते थे
या काम से आशि$की करते थे
हम जीते जी मसरूफ़ रहे
कुछ इश्क़ किया, कुछ काम किया.

काम इश्क़ के आड़े आता रहा
और इश्क़ से काम उलझता रहा
फिर आखिऱ तंग आकर हमने
दोनों को अधूरा छोड़ दिया...

मैंने कहा, इसे सुना तो पहले भी कई बार था लेकिन आपकी आवाज और अंदाज में सुनना अच्छा लगा. वो बोले, मैं तो बहुत बुरा पढ़ता हूं. उतना ही बुरा जितना बुरा फैज पढ़ते थे. एक बार किसी ने फैज से कहा था कि काश आप जितना अच्छा लिखते हैं, उतना अच्छा पढ़ते भी. तो फैज ने जवाब दिया, सब काम हम ही करें क्या? अच्छा लिखें भी हम, अच्छा पढ़ें भी हम? सब लोग हंस दिये. मैं भी फैज का यही तर्क लोगों को देता हूं.

दो शायरों की स्मृतियां दो मिनट की छोटी सी कॉल में सिमट आई थीं. शहरयार की जानिब से फैज साहब की ये नज्म एक बार फिर सबके हवाले....

Wednesday, December 29, 2010

जाने कितने बिनायक सेन और चाहिए

हमें फख्र है
तुम्हारे चुनाव पर साथी
कि तुमने चुनी
ऊबड़-खाबड़
पथरीली राह.

हमें खुशी है कि
तुमने नहीं मानी हार
और किया वही,
जो जरूरी था
किया जाना.

तुम्हें सजा देने के बहाने
एक बार फिर
बेनकाब हुई
न्याय व्यवस्था.
जागी एक उम्मीद कि
शायद इस बार
जाग ही जाएं
सोती हुई कौमें.

तुम्हें दु:ख नहीं है सजा का
जानते हैं हम,
तुमने तो जान बूझकर
चुना था यही जीवन.
दु:ख हमें भी नहीं है
क्योंकि जानते हैं हम भी
सच बोलने का
क्या होता रहा है अंजाम
सुकरात और ईसा के जमाने से.

हमें तो आती है शर्म
कि लोकतंत्र में
जहां जनता ही है असल ताकत
जनता ही कितनी बेपरवाह है
इस सबसे.

न जाने कितने बलिदान
मांगती है जनता
एकजुट होने के लिए,
एक स्वर में
निरंकुश सत्ता के खिलाफ
बिगुल बजाने के लिए,
खोलने के लिए मोर्चा
न जाने कितने बिनायक सेन
अभी और चाहिए.

Monday, December 20, 2010

सर्द रातें, आलू-गोभा की सब्जी और प्रेम की छुअन

न जाने कब, कितनी बार प्रेम हमारे जीवन से टकराता रहता है. प्रेम का यूं हमसे टकराना हमारे जीवन को प्रेम से भरे या न भरे लेकिन जीवन के मरुस्थल में रूमानियत की कुछ नमी तो छोड़ ही जाता है. सारंगा तेरी याद में नैन हुए बेचैन...बांचते हुए न जाने कितनी बार रोएं खड़े हुए. गुनाहों का देवता पढ़ते हुए रात का कलेजा चीर देने वाली सिसकियों को रोकने की मुश्किल से गुजरते हुए, चार दिनों दा प्यार ओ रब्बा बड़ी लंबी जुदाई...सुनते हुए अपनी कोरों पर कुछ चलते हुए महसूस करते हुए न जाने कितनी बार प्यार हमें छूकर गुजरता रहा.
प्रेम कहानियों का पिटारा खोलें तो भरभरा कर ढेर सारी कहानियां उपस्थित हो जाती हैं. कविताओं का सुंदर बागीचा उग आता है आसपास. खूब-खूब प्रेम से लबरेज कहानियां, कविताएं. आज एक कहानी के बहाने एक बचपन का एक टुकड़ा याद आ गया. बचपन के इस टुकड़े में एक कहानी है और हैं मेरे नाना जी. यह कहानी मेरी स्मृतियों के सिवाय कहीं दर्ज नहीं है. यह मेरे जीवन की पहली प्रेम कहानी है. इसे मुझे तक पहुंचाने वाले मेरे नाना जी थे. जिन्हें हम प्यार से नन्ना कहते थे. सर्द रात में अलाव के पास बैठकर सुनी गई जिन कहानियों का स्वाद अब तक जबान पर है उनमें से एक है यह कहानी.

यह एक राजकुमारी की कहानी थी. राजकुमारी का नाम याद नहीं. कहानी का भी नहीं. इसमें एक राजकुमारी को गरीब लड़के से प्रेम हो जाता है. राजा राजकुमारी को कैद कर देता है. उस गरीब लड़के को मरवाने का हुकुम देता है. फिर किस तरह राजकुमारी अपने प्रेमी को बचाने के लिए लाख जतन करती है. जंगलों की खाक छानती है, जादुई शक्तियां हासिल करती है और अपने प्रेमी को बचाती है... कहानी काफी लंबी थी. उसने कितने पहाड़ लांघे, कितने समंदर के भीतर की यात्राएं कीं. कितने राक्षसों का सामना किया. कैसे जादुई शक्तियां अर्जित कीं, यह सब सचमुच काफी रोचक होता था. नाना जी कहानी इस तरह सुनाते थे मानो हम कहानी सुन नहीं रहे, देख रहे हों. जैसे ही अचानक बड़ा सा राक्षस राजकुमारी के सामने आता, हम सब घबरा जाते. सुंदर राजकुमारी जब लाल रंग के लिबास में बागीचे में रो-रोकर अपने गरीब प्रेमी को याद करती तो हम भी उदास हो जाते. और जब जालिम पिता उसे कैद में डलवा देता तो हमारे भीतर एक आक्रोश जन्म लेता राजा के खिलाफ.

यह उनकी किस्सागोई का निराला अंदाज था. सब हू-ब-हू याद है अब तक. नाना जी के अंदाज-ए-बयां में यह तक शामिल होता था कि लड़के को आलू गोभा (वे ऐसे ही बोलते थे) की सब्जी और नरम-नरम पूडिय़ां बहुत पसंद थीं. जिस तरह वो बताते लगता आलू गोभा की सब्जी और पूरियां दुनिया के सबसे स्वादिष्ट व्यंजन हैं. वे बताते कि राजकुमारी को गोभा की सब्जी एकदम पसंद नहीं थी. लेकिन किस तरह राजकुमारी हर रोज गोभा की सब्जी खाते हुए प्रेम को बूंद-बूंद महसूस करती थी. उस सर्द रात में, छोटी सी उमर में प्यार क्या होता है, यह तो समझ में नहीं आया था लेकिन प्यार के लिए मन में सम्मान बहुत महसूस हुआ. उसका असर यह हुआ कि तबसे जब भी गोभी की सब्जी खाती हूं, उस राजकुमारी की याद आ जाती है.

हमारा संसार किस्सों और कहानियों का संसार है. हर किसी के पास हजारों किस्से हैं और उन्हें कहने के एक से एक निराले अंदाज. आंचलिकता के हिसाब से कहानियों के कहन-सुनन का ढंग तो बदला लेकिन मिजाज नहीं. दुनिया भर की न जाने कितनी प्रेम कहानियों को पढ़ते हुए न जाने कितनी बार प्रेम को अपनी देह पर रेंगते हुए महसूस किया. आज जब स्मृतियों की गठरी को जरा सा खोला तो नाना जी की याद के साथ यह कहानी भी निकल आई. एक सुंदर कहानी. एक सुंदर याद!

Sunday, December 5, 2010

एक रोज

एक रोज
मैं पढ़ रही होऊंगी
कोई कविता
ठीक उसी वक्त
कहीं से कोई शब्द
शायद कविता से लेकर उधार
मेरे जूड़े में सजा दोगे तुम.
एक रोज
मैं लिख रही होऊंगी डायरी
तभी पीले पड़ चुके डायरी के पुराने पन्नों में
मेरा मन बांधकर
उड़ा ले जाओगे
दूर गगन की छांव में.
एक रोज
जब कोई आंसू आंखों में आकार
ले रहा होगा ठीक उसी वक्त
अपने स्पर्श की छुअन से
उसे मोती बना दोगे तुम.
एक रोज
पगडंडियों पर चलते हुए
जब लड़खड़ायेंगे कदम
तो सिर्फ अपनी मुस्कुराहट से
थाम लोगे तुम.
एक रोज
संगीत की मंद लहरियों को
बीच में बाधित कर
तुम बना लोगे रास्ता
मुझ तक आने का.
एक रोज
जब मैं बंद कर रही होऊंगी पलकें
हमेशा के लिए
तब न जाने कैसे
खोल दोगे जिंदगी के सारे रास्ते
हम समझ नहीं पायेंगे फिर भी
दुनिया शायद इसे
प्यार का नाम देगी एक रोज....

बदला-बदला सा लखनऊ

आज यूं ही शहर के मुआयने का मन हो आया. गाड़ी निकाली और निकल पड़े लखनऊ भ्रमण पर. अपना ही शहर ऐसे देख रहे थे मानो पहली बार देख रहे हों. मायावती ने शहर की शक्लो-सूरत कुछ इस कदर बदली है कि देखना बनता है. कल बाबा अम्बेडकर का परिनिर्वाण दिवस भी है. (अब तो महापुरुषों का पेटेंट कुछ पार्टियों ने ऐसे करा लिया है कि उनके बारे में बात करना किसी पार्टी के बारे में बात करना सा लगता है.) एक-एक पत्थर, पार्क में लगे एक-एक पौधे की फुनगी को धो-पोंछकर चमकाया जा रहा था. ऐसा लग रहा था कि पहले से सजी संवरी दुल्हन का बार-बार मेकअप ठीक किया जा रहा हो. कुंटलों फूल रखे थे जिनसे शहर को सजाया जाना था. न जाने कितनी लाइट्स. यकीनन आज रात का न$जारा देखने लायक होगा. 
एकाएक ख्याल आया कि ये वही जगह है जो कभी माफियाओं के नाम से जानी जाती है. मैं जियामऊ की बात कर रही हूं. मेरा निवास स्थल. (अम्बेडकर पार्क से जरा सी दूरी पर) रात तो दूर, दिन में भी रिक्शेवाले यहां आने के नाम से कांप उठते थे. न जाने किसका दिमाग सटक जाये, और रिक्शेवाले के मेहनताना मांगने पर उसे टपका दिया जाए. हमारा वहां आकर बसना एक डेयरिंग स्टेप था, जिसकी हमने बड़ी कीमतें भी चुकाईं. खैर, आज यह पॉश इलाका है. सुपर पॉश. पहले से ठीक सड़कों में रोज क्या ठीक होता रहता है, पता ही नहीं चलता. हमेशा सजी-संवरी बिल्डिंगों का कौन सा श्रृंगार होता है हम कभी समझ नहीं पाते. पर इतना पता है कि आप इन सड़कों से निकलिए तो ऐसा मालूम होगा कि कालीन पर चल रहे हों.
समय सचमुच बहुत बदल चुका है. इस बदले हुए समय में लखनऊ का चेहरा भी बदला है. कितने घोटाले, कितना करप्शन, किसका कितना हिस्सा ये किस्सा तो अपनी जगह ठहरा. फिलहाल, लखनऊ चमक रहा है. संगीत नाटक एकेडमी के रूप में एक ऐसा सुंदर ऑडिटोरियम बना कि पुराने रवींद्रालय की यादें धुंधली पडऩे लगीं. लोगों ने भी इन सारे बदलावों का साथ दिया. वे बदलावों को दिल से लगाने के लिए दौड़ पड़े. नदी में डूबते सूरज को देखने, बाइक्स की रेस लगाने, परिवार के साथ वक्त बिताने और कभी-कभी डूबते सूरज की गवाही में अपने इश्क का इ$जहार करने वालों की भीड़ यहां लगातार बढ़ती ही जा रही है. लगता है कि लोग सचमुच जीना चाहते हैं.
कोई मायावती को कितनी भी गालियां दे, कोसे, लानतें भेजे लेकिन जो एक बार इस मायानगरी में प्रवेश करता है शहर की खूबसूरती उसे हिप्नोटाइज करती है. सीमेंट, सरिया और पत्थरों से तैयार बड़ी-बड़ी इमारतों के बीच भी यह शहर खुलकर सांस लेता न$जर आता है. ढेर सारे ओवरब्रिज ट्रैफिक जाम से निपटने को तैयार हैं. लोग दूर-दूर से आते हैं मायानगरी के दर्शन के लिए. अब लोग लखनऊ को सिर्फ भूलभुलैया, सतखंडा पैलेस, रूमी गेट के लिए ही नहीं जानते. पुराने लखनऊ की ऐतिहासिक इमारतों के साथ नये लखनऊ में उगा यह कंक्रीट का जंगल लोगों को लुभा रहा है. ऊंची इमारतें $जरूर हैं लेकिन किसी के हिस्सा का सूरज फिलहाल नहीं खा रही हैं. (नये लखनऊ में) हजरतगंज का भी रंग-रोगन हो रहा है. उसकी रंगत को लौटाए जाने की तैयारी चल रही है. यानी शहर बदल रहा है. साथ ही हम भी बदल रहे हैं. सरकारों का क्या है वे तो हमेशा से बदलती आयी हैं. सोचती हूं कि अगर हर पॉलीटीशियन अपने-अपने क्षेत्र को लेकर प$जेसिव होने लगे तो कितना अच्छा हो ना? इस बहाने ही सही सबके हिस्से में कुछ खुशहाली तो आयेगी. देश का हर कोना चमक तो उठेगा.

Thursday, December 2, 2010

मम्ताज भाई पतंगवाले...

किसी भी नाटक को देखना असल में कई स्तरों पर खुद को देखना भी होता है. कितनी लेयर्स पर कोई व्यक्तित्व खुलता है, समाज खुलता है और बात पूरी होती है. एक बात को कहने के कितने ढंग हो सकते हैं यह देखने का आनंद थियेटर में मिलता है. कथानक, अभिनय, मंचसज्जा, संगीत, नाटक में किये गये अभिनव प्रयोग और दर्शकों से लगातार संवाद बनाये रखना (कि दर्शक पल भर को भी नाटक की लय से छिटककर दूर न हो जायें) ही किसी नाटक की संपूर्ण सफलता का कारण बनते हैं. पिछले दिनों मानव कौल का नाटक मम्ताज भाई पतंगवाले को देखते हुए एक प्रयोगधर्मी, संवेदनशील नाटक देखने का सुख तो मिला ही, साथ ही विश्वास भी पक्का हुआ कि नये लोग सचमुच नया मुहावरा गढ़ रहे हैं. बनी-बनाई लकीरों से अलग लकीरें खींचने, नई पगडंडियों पर चलने के अपने जोखिम भी होते हैं और सुख भी. मानव इन जोखिमों से खेलने में यकीन करते हैं. अच्छी बात यह है कि ज्यादातर मौकों पर वे सफल होते हैं.
मम्ताज भाई दमित इच्छाओं, आकांक्षाओं के बीच से पनपे व्यक्तित्व की कथा है, जो सक्सेस के हाईवे पर फर्राटे से गाड़ी दौड़ाते हुए भी गांव की टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों को हर पल याद करता है. मम्ताज भाई और उनकी पतंग व्यक्ति की असीम आकांक्षाओं के प्रतीक हैं जो पूरे आसमान पर उडऩा चाहती हैं. जिन्हें हमेशा पहले से तय पगडंडियों पर चलने के दबाव के चलते नोचकर फेंक दिया जाता है. मानसिक हलचल, अंतद्र्वद्व, स्वगत कथनों को मंच पर जिस खूबी से मानव ने दिखाया वह कमाल है. मंचसज्जा, पग ध्वनि, लाइट एंड साउंड के खूबसूरत उपयोग से यह नाटक जीवंत हो उठा. पोलिश थियेटर के इफेक्ट्स ने नाटक को ताजगी दी.
चुटीले संवादों ने गंभीर विषय को रोचक बना दिया. लगभग हर दूसरे दृश्य पर तालियों की गडग़ड़ाहट या हंसी की फुहार ने कलाकारों की हौसला अफजाई जारी रखी. सभी कलाकारों ने शानदार अभिनय किया. सबसे सुंदर बात रही नाटक का चुस्त संपादन. एक बार फिर मानव का जादू चल ही गया.