Saturday, October 31, 2009

मरने की तुम पे चाह हो

सुनना मेरी भी दास्तां, अब तो जिगर के पास हो,
तेरे लिए मैं क्या करूं, तुम भी तो इतने उदास हो.

कहते हैं रहिए खमोश ही, चैन से जीना सीखिए
चाहे शहर हो जल रहा, चाहे बगल में लाश हो।

खूं का पसीना हम करें, वो फिर जमायें महफिलें,
उनके लिए तो जाम हो, हमको तड़पती प्यास हो।

जंग के सामां बढ़ाइये, खूब कबूतर उड़ाइये,
पंखों से मौत बरसेगी, लहरेगी जलती घास हो।

हाथों से जितने जुदा रहें, उतने ख्याल ठीक हैं,
वरना बदलना चाहोगे, मंजर ये बदहवास हो।

धरती समंदर आसमां राहें, जिधर चले, खुली
गम भी मिटाने की राह है, सचमुच अगर तलाश हो।

है कम नहीं खराबियां, फिर भी सनम दुआ करो,
मरने की तुम पे चाह हो, जीने की सबकी आस हो।
- गोरख पांडे

Thursday, October 22, 2009

तेरी जीत में मेरी हार है

कैसे अपने दिल को मनाऊं मैं,
कैसे कह दूं कि तुझसे प्यार है,
तू सितम की अपनी मिसाल है,
तेरी जीत में मेरी हार है।

तू तो बांध रखने का आदी है,
मेरी सांस-सांस आजादी है,
मैं जमीं से उठता वो नग्मा हूं,
जो हवाओं में अब शुमार है।

मेरे कस्बे पर, मेरी उम्र पर,
मेरे शीशे पर, मेरे ख़्वाब पर
ये जो पर्त-पर्त है जम गया,
किन्हीं फाइलों का गुबार है।

इस गहरे होते अंधेरे में,
मुझे दूर से जो बुला रही,
वो हंसी सितारों की जादू से भरी,
झिलमिलाती कतार है।

ये रगों में दौड़ के थम गया,
अब उमडऩे वाला है आंख से,
ये लहू है जुल्म के मारों का
या फिर इंकलाब का ज्वार है।

वो जगह जहां पे दिमाग से
दिलों तक है खंजर उतर गया,
वो है बस्ती यारों खुदाओं की,
वहां इंसा हरदम शिकार है।

कहीं स्याहियां, कहीं रोशनी,
कहीं दोजख़ और कहीं जन्नतें
तेरे दोहरे आलम के लिए,
मेरे पास सिर्फ नकार है।
- गोरख पांडे

Thursday, October 15, 2009

रिश्ता रोशनी से

क्या यह अजीब बात नहीं है कि जिंदगी के तमाम दर्द लेकर भी पूरा देश एक साथ रोशनी बिखरने का इंतजार करता है. अपने कंधे पर न जाने कितने घायल दिन और रात लिए उस एक शाम जब हर कोई हर दीये से रोशन करता है सूरज. और समय के आर-पार झिलमिलाने टिमटिमाने लगती हैं मानवीय संवेदनाएं. क्या यह बात चौंकाती नहीं कि जब रोज रात का अंधेरा फुंफकारता हो, समय पर कुंडली मारकर बैठा हो तब एक शाम, सारी शाम, एक रात, सारी रात सूर्य की अंतिम किरण का सूर्य की पहली किरण का सूर्य की पहली किरण तक हरी भरी इंसानियत दीये से कुछ उजाला और ऊष्मा मांगकर रोशनी की लकीर खींच देती है. कैसी है यह इमोशनल बॉन्डिंग? शायद, बहुत बड़े रिश्ते की गाथा है-नेचर और ह्यूमन इमोशंस के बीच।

एक घटना शेयर करने को जी चाहता है. इसे विश्वविख्यात नाट्य निर्देशक पीटर ब्रुक ने थियेटर क्रिटिक जयदेव तनेजा को सुनाया था. बात उन दिनों की है जब वियतनाम युद्ध चल रहा था. ब्रिटेन के लोग खुद को अलग-थलग उदास हीन अनुभव कर रहे थे. उन दिनों पीटर ब्रुक जो महाभारत नाटक के लिए भी दुनिया भर में बहुचर्चित रहे हैं, ने ब्रिटेन के लोगों को वियतनाम पर आधारित एक नाटक दिखाया, किसी उद्देश्य को $जाहिर किए और बिना किसी उत्तेजना के, एकदम खामोशी से. नाटक के अंत में एक दृश्य था जिसमें एक पात्र सेंटर स्टेज पर आता है और एक बॉक्स खोलता है. उस बॉक्स में से अचानक ढेरों रंग-बिरंगी तितलियां निकल-निकलकर पूरे ऑडिटोरियम में इधर-उधर कूदने लगती हैं. पूरे ऑडिटोरियम में दर्शकों की खुशी और हंसी तैर जाती है. तभी अचानक, वह ऐक्टर एक हाथ में एक तितली के पंखों को पकड़कर खड़ा हो जाता है और दूसरे हाथ से जेब में रखा लाइटर निकालता है. वह जलता हुआ लाइटर तितली के नजदीक ले जाने लगता है. दर्शक खामोश हो जाते हैं, ज़रा भी आवाज़ नहीं. लोग चुपचाप तितली को जलता हुआ देखकर हतप्रभ रह जाते हैं और धीरे-धीरे ऑडिटोरियम से बाहर निकल जाते हैं. मन पर न जाने कितना बोझ और अवसाद लिए. यह दृश्य कई प्रदर्शनों में दोहराया जाता रहा लेकिन एक दिन अचानक वहां विचित्र घटना घटी. यह दृश्य चल ही रहा था कि दर्शकों के बीच से एक महिला तेजी से निकली और तितली को मंच पर खड़े हुए एक्टर के हाथों से मुक्त कराते हुए बोली आपने देखा, खराब से खराब हालात में कुछ तो किया ही जा सकता है।

थियेटर और समाज की संवेदनशीलता को लेकर इस घटना के कई मायने हैं लेकिन उस लाइटर की आग से तितली को बचाने की पहल एक रोशनी की लकीर खींच देना इस बेरुखे और बेजान होते जा रहे समय में.ऐसे किसी उजाले की तलाश या उजाले की पहल या पटाखों-मिठाइयों के बहाने खुशियां लुटाने के अवसर ढेरों उलझनों एवं तनावों से मुक्ति का रास्ता बनकर आता हे- दीवाली पर. साथ ही, जाति, म$जहब, नस्ल के पार जाकर सामूहिकता और सामूहिक प्रसन्नता के सुर में सुर मिलाना भी है. भारतीय लोक जीवन की इस चरम सामूहिक उपलब्धियों में दीपावली का ही पर्व है जिसमें जन समुदाय अपने रीति रिवाज एग्जॉटिक लाइफ स्टाइल के साथ वृहत्तर सामाजिक जीवन के उत्सवधर्मी पहलुओं को उजागर करता है.दीपोत्सव, भारतीय मन के लिए, कठिन से कठिन परिस्थितियों में जीवन जी रहे लोगों के लिए रंगारंग जीवन संसार रचने का पर्व है. सपनों, फैंटेसी, खुशियों का एक प्रकार का बाईपास है जिस पर गुजरकर लोग सुखद सुकून हासिल करते हैं जीवन के साथ दीपावली का रिश्ता बनाते हैं रोशनी अच्छी लगती है इंसान को भी और धरती को भी. चांद-सूरज की रोशनी धरती के प्रभावित करती है. इंसान को दीयों की रोशनी में चैन मिलता है, रूह को आराम मिलता है. यही सुकून देने का काम दीपक करते हैं. यह जलते हुए यह दीपों से रोशनी हासिल करने का पर्व है. रोशनी और इंसान का रिश्ता न जाने कब से सदियों की छाती में धड़क रहा है.हमारे गांव में एक पागल थे रामजतन. गांव के बच्चों के लिए राम जतन खिलौना थे, जीता-जागता खिलौना और बड़ों के लिए पागल, सिर्फ पागल. छोटे डिब्बे, टूटी टोकरी, फटे कनस्तर, रद्दी की किताबें, मोरपंख, चिथड़ा कोट, पतलून, फटी टोपी, बेकार लोटा आदि बहुतेरी चीजों से लदे-फंदे. गांव की गलियों में उनकी आउटफिट्स की आवाज़ से लोगों को पता चल जाता था कि रामजतन गुजर रहे हैं. पुरानी हिंदी फिल्मों के गीतों से वह अपने होंठों को सजाया करते थे लेकिन छेड़छाड़ करने वालों के लिए मौलिक किस्म की ढेरों गालियां राम जतन की डिक्शनरी में थीं. बच्चों के वह खिलौना थे और कौन बच्चा चाहता है कि उसका खिलौना टूट जाए, सो कोई बच्चा राम जतन को परेशान नहीं करता था. यह काम बड़े और समझदार खेतों बाग-बगीचों में दीये जलाते थे ताकि लक्ष्मी की किरपा बनी रहे और घर अन्न फल-फूल से भरा रहे. भोर होते ही, जब सारा गांव रात भर दीपावली मनाने एवं पटाखों से खेलने के बाद मीठी नींद में डूबा होता, राम सारे खेत के जल चुके सूखे दीये बीन लाते. अगले दिन वह उन दीयों में गांव से ही बटोरे टॉफी के रैपर व ऐसी कुछ और चीजों को रखकर बच्चों को गिट (गिफ्ट) देते थे. रामजतन जिसकी जिं़दगी में अंधेरों के सिवा कभी कुछ रहा ही नहीं, वह बच्चों के लिए खुशियां बुनता था, बीनता था ख्ेातों से, बागों से. रामजतन रोशनी और किरणों से मोहब्बत बुनते थे, जिसे वह बच्चों में भर देते थे।
ऐसी सुकोमल स्मृतियां आज भी दीपावली को जग मग कर देती हैं।
- प्रवीण शेखर

Saturday, October 10, 2009

मालगुड़ी की याद में

आर.के.नारायन - जन्मदिन पर
हिन्दुस्तान के नक्शे में भले ही नदारद हो मगर मालगुड़ी और उसके बाशिंदों से दुनिया भर के लोग वाकिफ़़ हैैं। मालगुड़ी के लोगों की जि़न्दगी की बेशुमार कहानियां उन्हें याद भी हैैं। मालगुड़ी का स्टेशन, वहां के बाज़ार, स्कूल, सैलून, डाकख़ाना, हलवाई, नानबाई, मोची, मोटर मैकेनिक, टीचर, पेंटर, बुक सेलर और ऐसे ही तमाम पात्र पढऩे वालों के ज़ेहन में इस क़दर पैवस्त हैैं कि वक़्त की गर्द में भी उनकी याद कभी धुंधलाई नहीं। दूरदर्शन के ज़माने वाली पीढ़ी की स्मृति में ये ही पात्र 'ताना न ताना नाना न...Ó की धुन के साथ और जुड़ गए।

दूरदर्शन के लिए बनाए गए शंकर नाग के सीरियल 'मालगुड़ी डेज़Ó का यह कास्ंिटग म्यूजि़क आज भी मालगुड़ी के मुरीदों के मोबाइल फोन पर रिंग टोन के तौर पर बजता सुनाई देता है। इस काल्पनिक क़स्बे के सर्जक आर।के. नारायन ने अपने 50 सालों के लेखकीय जीवन में 14 उपन्यासों के साथ ही कई कहानी संग्र्रह, ट्रेवेलॉग लिखे, रामायण व महाभारत जैसे एपिक का पुनर्पाठ किया. मगर मालगुड़ी के लोगों के जीवन का जो संसार उन्होंने रचा, वह किसी क्षेत्र, भाषा या उम्र की हदबंदी के बाहर समान रूप से पढ़ा-गुना गया. इन कहानियों की पृष्ठभूमि भले ही दक्षिण भारत की हो मगर पढऩे वालों को यह आम हिन्दुस्तानी की जि़न्दगी के आख्यान के सिवाय कुछ और नहीं लगता. आख्यान भी ऐसा कि जिसमें डूबा हुआ पाठक कहानी ख़त्म होने के बाद अपनी दुनिया में लौटते हुए एक बार यह ज़रूर सोचता है कि कहानी और आगे जाती तो अच्छा होता.

नारायन की कहानियां हों या उपन्यास-भाषा की सादगी, उसकी रवानी और ह्यïूमर के फ्लेवर का तिलिस्म पाठकों पर छा जाता है. उनकी कहानियों के पात्र ऐसे आम लोग हैैं, जो ख़ामोशी और सादगी भरी जि़न्दगी के क़ायल हैं. अपने आसपास के बदलते परिवेश में परंपरा और आधुनिकता के बीच तालमेल बैठाने की कोशिश में कई बार वे विचित्र परिस्थितियों में फंसे दिखाई देते हैैं. ऐसी परिस्थितियां जो हास्य पैदा करती हैैं मगर करुणा का भाव भी जगाती हैैं. गज़़ब की किस्सागोई है उनकी. आम जन के बीच भारी लोकप्रियता के बावजूद उनके कहन की यही सादगी साहित्य में भाषाई अभिजात्य के हामी लेखकों को कभी नहीं सुहाई. उनकी सादी ज़बान और क़स्बाई जीवन के चित्रण को उनकी कमी बताया जाता रहा. इस सबसे इतर देखें तो आमफ़हम ज़बान में किस्सागोई का यह तत्व ही उन्हें अंग्र्रेजी में लिखने वाले दूसरे भारतीय लेखकों से अलग क़तार में खड़ा करता है. तब भी जब हिन्दुस्तान और इंग्लैण्ड के तमाम पब्लिशर्स के अस्वीकार के बाद उनके पहले उपन्यास 'स्वामी एण्ड फ्रेंड्सÓ को पढ़कर ग्र्राहम ग्र्रीन इस क़दर प्रभावित हुए थे कि उन्होंने इसे छापने के लिए इंग्लैण्ड के एक पब्लिशर से सिफारिश की. यह बात 1935 की है. और तब भी जब आर.के.नारायन अपने उपन्यास 'गाइडÓ की पाण्डुलिपि के साथ विलायत में थे और अख़बार में छपी सूचना के आधार पर यह उपन्यास छापने के लिए तमाम पब्लिशर्स उनके होटल के कमरे के बाहर जुट गए थे. 'माई डेटलेस डायरीÓ में उन्होंने इस प्रसंग का बेहद दिलचस्प ब्योरा दिया है. बाद में देवानंद ने इस उपन्यास पर 'गाइडÓ नाम से हिन्दी और अंग्र्रेज़ी में फिल्म भी बनाई. फिल्म ख़ूब चली मगर आर.के.नारायन अपने उपन्यास के इस फिल्मी अडॉप्शन से ख़ुश नहीं थे. वजह साफ है, फिल्म के कथानक में वे तत्व नदारद थे, जो उनकी कहानी की आत्मा थे. आर्टिफिशियलिटी उन्हें सख्त नापसंद थी. चाहे उनकी कहानियों पर फिल्में-सीरियल हों या फिर बुक रिलीज़ के भव्य आयोजन. कहते थे कि कि़ताबें रिलीज़ के लिए नहीं होतीं, कि़ताबें तो बुक स्टोर या लाइब्रेरी में शेल्फ से उठाने के लिए हैैं. वह मानते थे कि हिन्दुस्तानी संस्कृति इतनी वैविध्यपूर्ण है कि कहानी लिखने वालों के लिए विषय की कोई कमी नहीं. हर शख़्स दूसरे से अलग है, सिर्फ आर्थिक दृष्टि से नहीं बल्कि अपने बात-व्यवहार, दृष्टिकोण और रोज़मर्रा की जि़न्दगी के दर्शन के लिहाज़ से भी. ऐसे समाज में कहानी का विषय ढूंढने के लिए लेखक को कहीं जाने की ज़रूरत नहीं, घर की खिड़की से बाहर देखने की आदत डाल लेने से भी कहानी के चरित्र मिल जाते हैैं. उनकी कहानियां उनके इस विश्वास का साक्ष्य bhi हैं।

आर
.के.नारायन की साहित्यिक उपलब्धियों का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि आधुनिक भारत के वह पहले अंग्र्रेज़ी लेखक थे, जिन्होंने लेखन को कॅरियर के तौर पर चुना. यह वो दौर था जब अंग्र्रेज़ी में इंडियन फिक्शन खरीदने-पढऩे वाले बहुतायत में नहीं थे. अख़बारों में छपने वाली कहानियों का पारिश्रमिक भी बहुत मामूली होता. शुरुआती दिनों के संघर्ष को याद करते हुए ही वह मज़ाक करते, 'पता नहीं यह क्रेज़ी फैसला मैैंने कैसे किया मगर फिर से चुनने का मौक़ा मिले तो सोचूंगा.Ó एक तरह से यह अच्छा ही है कि आर.के.को यह मौक़ा नहीं मिला वरना कौन कहता मालगुड़ी के किस्से।
- प्रभात

Friday, October 9, 2009

चे को सलाम!

पिछले दिनों एक चैनल पर विनोद दुआ पुरी की सैर करा रहे थे. रिमोट वहीं रुक गया. पुरी घूमने के लिए नहीं, न ही विनोद दुआ के कारण बल्कि उस बैग के कारण जो विनोद जी के हाथ में था. वह एक मामूली शॉपिंग बैग था. उस मामूली से शॉपिंग बैग पर चे की तस्वीर बनी थी. चे यानी चे ग्वेरा. चे ग्वेरा यानी युवा सोच का चेहरा. विनोद दुआ भी उस शॉपिंग स्टोर में चे ग्वेरा के कारण ही रुके थे. उन्होंने भरे उत्साह से दुकान वाले से पूछा कि ये किसकी तस्वीर है? दुकान वाले ने बताया चे गुवेरा. यह चे की पॉपुलैरिटी है. चे फैशन स्टेटमेंट भर नहीं हैं कि बाइक पर उनकी तस्वीर चस्पा करना, उनकी टी-शर्ट पहनना, कैप लगाना भर काफी हो. वे एक विचार हैं, एक लाइफस्टाइल हैं. वे यूथ आइकॉन हैं. चे यानी युवा, ऊर्जा, नई सोच, तूफानों से टकरा जाने का माद्दा, पहाड़ों का सीना चीर देने का हौसला, आसमान को अपनी मुट्ठी में समेट लेने का जज़्बा और अपनी जान से किसी खिलौने की तरह खेलने की बेफिक्री।

चे ग्वेरा ऐसा युवा चेहरा है जिसका नाम भर रगों में सनसनी भर देता है. कॉलेजों, यूनिवर्सिटियों के कैम्पस चे ग्वेरा के संदेशों से यूं नहीं पटी पड़ी हैं. भले ही कुछ लोग उनके बारे में ज्यादा जानकारी न रखते हों लेकिन अधिकांश युवा चे को अपना आइडियल मानते ही हैं. बावजूद इसके कि वे जानते हैं कि चे होने के जोखि़म भी कम नहीं हैं. क्या था इस युवक में कि यह युवक अपनी मौत के कई सालों बाद भी अतीत नहीं भविष्य के रूप में देखा जाता है. उसका वह ठोस सपाट चेहरा, चौड़ा माथा, और ढेरों सपनों से भरी आंखें. उन आंखों के वही सपने हमारे सपने हैं. युवा पीढ़ी के सपने. 39 वर्ष की उम्र में क्यूबा की क्रांति का यह महान नायक साम्राज्यवादियों का शिकार हुआ और 9 अक्टूबर 1967 को. लेकिन मारने वालों को कहां पता था कि ऐसे लोगों को मारना आसान नहीं होता. वे देह को मार सकते थे सो मार दिया लेकिन चे एक विचार था, एक तरीका था जीने का जो पूरी दुनिया में बिखर गया. कुछ इस कदर कि युवा का अर्थ ही चे होना मान लिया जाने लगा।

विद्वानों का कहना है कि चे शब्द अर्जेंटाइना वालों ने गौरानी इंडियनों से सीखा है, जिसका तात्पर्य होता है, मेरा. लेकिन पांपास के निवासी चे शब्द का उपयोग संपूर्ण मानवीय भावनाओं-मसलन आश्चर्य, प्रमोद, दुख, कोमलता, स्वीकृति और प्रतिरोध को व्यक्त करने के लिए लय और संदर्भ के अनुसार कर सकते हैं. इस विस्मयकारी शब्द से इतना स्नेह होने के कारण ही क्यूबा के विद्रोहियों ने डॉन अर्नेस्टो के बेटे अर्नेस्टो ग्वेरा को चे का उपनाम दिया जो युद्ध के दौरान उसका छद्म नाम बन गया और उनके नाम के साथ पक्के तौर से जुड़ गया. क्यूबा और पूरी दुनिया में वह अर्नेस्टो चे ग्वेरा के नाम से प्रसिद्ध हुए. क्रांति के नायक के जीवन में प्रेम जैसी नाजुक भावना ने भी अलग ही अंदा$ज में दस्तक दी।

चे को चिनचीना नामक लड़की से अगाध प्रेम था. चिनचीना बेहद खूबसूरत और नाजुक लड़की थी. वह सभ्य, सुसंस्कृत सामंती परवरिश में पली थी. जबकि चे को हमेशा अपने पुराने फटे कोट और खस्ताहाल जूतों से रश्क रहा. उसने एक दिन चिनचीना से कहा कि वह अपने पिता का घर छोड़ दे, धन-दौलत के बारे में भूल जाए और उसके साथ वेनेजुएला चले, जहां वह अपने मित्र अल्बर्टो ग्रैनडास के साथ कोढिय़ों की बस्ती में रहकर उनकी सेवा करेगा. चिनचीना एक सामान्य लड़की थी और उसका प्यार भी सामान्य ही था. वह इस प्रस्ताव को मान नहीं सकी।

चे को कविताओं से बहुत प्यार था. वह बादलेयर, गार्सिया लोर्का और एंतोनियो मचाडो की कृतियों का अच्छा जानकार था. पाब्लो नेरूदा की कविताओं से बेपनाह मोहब्बत थी. उसे पाब्लो की बहुत सारी कविताएं जबानी याद थीं. उसने खुद भी कविता लिखने की कोशश की लेकिन माना खुद को असफल कवि ही. चे का छोटा सा जीवन बेहद रोमांचक था. हर युवा दिल के साथ चे के विचार भी धड़क रहे हैं. यही होता है सचमुच जीना. चे को सलाम!
- प्रतिभा कटियार

Thursday, October 8, 2009

शरद में बसंत

इतनी आसानी से जीवन में बसंत आता नहीं
पहले पत्ता-पत्ता झरने का सलीका सीख लो...
- विवेक भटनागर

Sunday, October 4, 2009

आवाज़ का पैरहन

यहां...यहां...यहां...यहां भी नहीं है. वहां भी नहीं है...आखिर कहां रख दी. ऐसा तो कभी नहीं हुआ. कबसे ढूंढ-ढूंढ कर परेशान हूं. कम्बख्त मिल ही नहीं रही. मां हमेशा कहती रहीं, तुम लापरवाह हो बहुत. अपने $जेवर यूं फेंक देती हो. कहीं भी पड़े रहते हैं. गुम हो जायेंगे कभी सारे के सारे. मां की डांट के चलते ज़ेवर संभालना तो नहीं सीखा हां यह $जरूर सीखा कि कीमती चीजों को यूं ही इधर-उधर नहीं छोड़ दिया जाता, संभालकर रखा जाता है. ज़ेवर मेरे लिए कीमती थे ही नहीं, सो उन्हें संभालने की आदत नहीं ही पड़ी. लेकिन एक आवा$ज थी बेशकीमती. उसे ही संभालती फिरती थी।
जबसे वो आवा$ज जिं़दगी में दाखिल हुई कीमती चीजें क्या होती हैं यह अहसास हुआ. मां की सारी नसीहतों को सिरे सहेजना शुरू किया. उस आवा$ज को हमेशा अपने दामन में समेटकर रखा. कभी आंखों में बसाया उसे तो कभी कानों में पहन लिया. कभी माथे पर सूरज की तरह उग आती थी वो, तो कभी ओढऩी बनकर समेट लेती थी पूरा का पूरा वजूद अपने भीतर. वक्त मुश्किल हो तो कंधे पर हाथ सा महसूस होता था उसका. कभी खिलखिलाहटों में भरपूर साथ भी दिया. अकेली नहीं हुई कभी भी, जबसे उसका साथ मिला. कोई किसे ढूंढे, कहां रखे. रूठती भी वो थी और मनाती भी।

हां, यह ठीक है कि उस आवा$ज के चंद वक्$फे ही हिस्से में आये थे, तो क्या हुआ? इस बात की कोई शिकायत तो नहीं थी. सोचा था उन चंद वक्फ़ों को बो दूंगी. उग आयेंगी खूब सारी आवाजें. आवा$जें....मीठी...मीठी...मीठी...कोलाहल नहीं, आवा$ज. वो आवा$ज जिसमें रूह को विस्तार मिले. जिसे कमर में बांध लो तो आत्मविश्वास से भर जाये मन. पांव की पा$जेब बने कभी, तो कभी पवन बन उड़ा ही जाये अपने संग. आवा$जों की इस भीड़ में ऐसी कीमती आवा$जों का मिलना कितना मुश्किल है... तभी तो सारे ताले-चाभी निकाल लिये थे. कभी आंचल में बांधकर रखती तो कभी तकिये के नीचे छुपाकर. उसे सहेजकर रखने में कोई चूक नहीं की. कभी भी नहीं. लेकिन आज न जाने कैसा मनहूस सा दिन है. सुबह से ढूंढ रही हूं, मिल ही नहीं रही. घर का कोना-कोना तलाश लिया. मन की सारी पर्तें झाड़कर देख लीं. आंचल के सारे सिरे तलाश लिये. तकिये के नीचे...वहां तो सबसे पहले देखा था. क्या कहूं... क्या हुआ. आवा$जों की गुमशुदगी की तो रिपोर्ट भी नहीं लिखवाई जा सकती. थक-हार कर बैठी हूं, निराश...बेहाल......$िजंदगी से बे$जार... $िजंभी तो उसी आवा$ज में रख दी थी. क्या करूं...क्या कहूं...कहां ढूंढूं...?
न कोई रूप उस आवा$ज का...न चेहरा कोई...कैसे कोई और ढूंढ पायेगा।