Friday, August 22, 2008

गोलबंद स्त्रियों की नज़्म


कुछ हंसती हैं आँचल से मुह ढंककर
तो कुछ मुंह खोलकर ठहाके लगाती है
गोलबंद होकर स्त्रियाँ
जाने क्या क्या बतियाती हैं

बात कुए से निकलकर
दरिया तक पहुचती है
और मौजों पर सवारी गांठ
समंदर तक चली जाती है

समंदर इतना गहरा
की हिमालय एक कंकड़ की तरह डूब जाए
ऊँची ऊँची उसकी लहरे
बादलों के आँचल पर
जलधार गिरती
वेदना की व्हेल
दुष्टता की सरक
छुपकर दबोचने वाले
रक्तपायी आक्टोपस
जाने और भी क्या क्या
उस समुद्र में

गम हो या खुशी
चुपचाप नही पचा पाती है स्त्रियाँ
मिलकर बतियाती है मिलकर, गाती है
इसीलिए तो इतना दुःख उठा पाती है
स्त्रियों ने रची है दुनिया की सभी लोककथाएं।
उन्हीं के कंठ से फूटे है अरे लोकगीत
गुमनाम स्त्रियों ने ही दिए है
सितारों को उनके नाम

- दिनेश कुशवाह 

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