कितनी ही बार दिल किया कि अपने चेहरे से पोंछकर पहचान मिटा दूँ, गुमा दूँ तमाम आवाजें, मुंह फेर लूँ समझदारियों से। मगर ये हो न सका। चंद परछाइयों ने हमेशा पीछा किया, कुछ आवाज़ों ने हमेशा पुकार की जंजीरें से बांधकर रखा, कुछ आँखों ने कभी ओझल न होने का वादा थमा दिया। सोचती हूँ जिन चीजों से भागती रही उम्र भर उन्हीं चीजों ने ज़िंदगी में रोका हुआ है। और ज़िंदगी तो कितनी खूबसूरत है। तो शुकराने में आँखें भर आती हैं उन सब मोह की जंजीरों के प्रति जिनसे भागती फिर रही हूँ।
Thursday, May 9, 2024
भला हुआ मोरी गगरी फूटी....
कितनी ही बार दिल किया कि अपने चेहरे से पोंछकर पहचान मिटा दूँ, गुमा दूँ तमाम आवाजें, मुंह फेर लूँ समझदारियों से। मगर ये हो न सका। चंद परछाइयों ने हमेशा पीछा किया, कुछ आवाज़ों ने हमेशा पुकार की जंजीरें से बांधकर रखा, कुछ आँखों ने कभी ओझल न होने का वादा थमा दिया। सोचती हूँ जिन चीजों से भागती रही उम्र भर उन्हीं चीजों ने ज़िंदगी में रोका हुआ है। और ज़िंदगी तो कितनी खूबसूरत है। तो शुकराने में आँखें भर आती हैं उन सब मोह की जंजीरों के प्रति जिनसे भागती फिर रही हूँ।
Tuesday, May 7, 2024
उसके चेहरे में कई चेहरे थे...
Saturday, May 4, 2024
अच्छा लगने की उम्र कम क्यों होती है....
गालों पर बहती इस नदी पर सूरज की किरणों का पड़ना कितना सुंदर होता होगा नहीं जानती थी। चायल के उस नगाली गाँव की मुट्ठी में जो सुबह छुपी थी उसके पास हुनर थे तमाम उधड़ी रातों को रफू करने के। ठंडी हवा और मध्धम धूप मिलकर बालों से खेल रहे थे। ऐसी बेफिक्र सुबहें कितनी कम आती हैं। कम क्यों आती हैं भला ये सवाल पूरी दुनिया के लिए है।
पेट में भूख की कुलबुलाहट शुरू हुई तो घड़ी पर नज़र पड़ी। ओह दस बज गए। 4 घंटे हो गए यूं आवारगी करते हुए। वापस लौटी तो आर्यन ने पूछा नाश्ते में क्या खाएँगी? मैं अकेली ही रुकी थी यहाँ तो जो मैं बोलती थी वही बन जाता था। इस जो बोलती हूँ बन जाने में कद्दू भी शामिल है।
मैंने कहा, 'क्या बना सकते हो जल्दी से, तेज़ भूख लगी है।' उसने हँसते हुए कहा, 'जो आप कहें।
वैसे छोले पूड़ी बनी है अगर आप खाना चाहें'। उसने सूचना भी जोड़ दी। तेल मसाले के खाने से बहुत दूर रहती हूँ मैं इसलिए छोले पूड़ी का नाम सुनते ही सिहरन सी हो गयी। फिर सोचा चलो कोई बात नहीं आज ये भी सही। उसे कहा 'ठीक है जो बना है वही ले आओ अलग से क्यों बनाना'।
वो खुश हो गया।
जब वो छोले पूड़ी का नाश्ता बालकनी में टेबल पर रख रहा था तब उसने बताया एक और मैडम आई हैं कल रात। उन्होंने ही रात ही बोल दिया था छोले पूड़ी के लिए। वैसे आपको अच्छा लगेगा। मैंने मुस्कुराकर उसके गाल थपथपा दिये। सत्रह बरस का वो किशोर शरमा गया।
छोले सच में अच्छे बने थे हालांकि पूड़ी की साइज़ ने डरा दिया। लेकिन भूख और शायद लगातार चलते रहने के कारण मैं जिन दो पूरियों को देखकर घबरा रही थी आराम से डकार गयी। नाश्ते के बाद वहीं लुढ़क गयी...हाथ में थी 'धुंध से उठती धुन....'साहित्य हमें पानी नहीं देता, वह सिर्फ हमें अपनी प्यास का बोध कराता है। जब तुम स्वप्न में पानी पीते हो तो जागने का सहसा एहसास होता है कि तुम सचमुच कितने प्यासे हो।'
निर्मल को पढ़ना जैसे अपने ही खोये हुए मन को पा लेना। जब सफर के लिए घर से निकली थी तो लोर्का और निर्मल वर्मा साथ हो लिए थे। आज नगाली गाँव के इस कोने में देवदारों की छाया में गुनगुनी धूप में लेटे हुए न जाने कितनी बार पढ़ी हुई इन लाइनों को फिर से पढ़ना सुख दे रहा था। पढ़ते-पढ़ते आँख लग गयी। बालकनी में झुक आई शाखें लगातार पंखा झल रही थीं।
मौसम बदला, बदली घिरी और ठंडी हवा ने गुदगुदाया। भीतर जाकर रज़ाई में धंस जाना आह, कैसा तो सुख था। हालांकि नींद जा चुकी थी लेकिन यूं लेटे रहना अच्छा लग रहा था। ऐसा बेफिक्र समय कितना कीमती होता है। कबसे तो चाहती थी कि काश! बस चंद लम्हों को तमाम जिम्मेदारियों से, दुश्वारियों से आज़ाद हो सकूँ।
चाय पीने की इच्छा हुई लेकिन बनाने की नहीं हुई...
घड़ी में सिर्फ 12 बजे थे। एक पूरा दिन सामने था और मैं थी। चाय बनाई और बाहर छाई बदलियों को देख मुस्कुरा दी। स्वाति की आवाज़ में 'कहाँ से आये बदरा...' बजा लिया। फुर्सत तलाशती तो रहती हूँ लेकिन फुर्सत से बनती नहीं है मेरी। वर्कोहलिक का टैग बहुत पहले ही लग चुका है। कमरे से लेकर देह तक रेंगती फुर्सत में स्मृतियों का पानी घुलने लगा। लिखने का सुर तो जाने कबसे रूठा हुआ है लेकिन उस रोज कुछ लिखने का दिल चाहा। लैपटॉप लेकर छत पर चली गई। लिखने का दिल चाहना, लैपटॉप खोलने का अर्थ यह बिलकुल नहीं कि लिख ही पाऊँगी ये जानती हूँ क्योंकि यह खेल अब पुराना हो चला है। खाली स्क्रीन को ताकते रहना, वाक्यों को लिखना मिटाना और हारकर आसमान देखने लगना।
लिख रही हूँ के ढोंग से जरा राहत मिली। हंसी भी आई कि कितने आवरण बेवजह ओढ़ने के आदी हम अनजाने ही ऐसा व्यवहार करते हैं जिसकी हमें खुद से भी उम्मीद नहीं होती।
ज़ेहन में कितना कुछ चलता है लिखने बैठो तो एक शब्द पर टिकने का मन न करे...कैसी तो धुंध होती है ये। न लिख पाने की पीड़ा को सहना जबरन लिखने की कोशिश से बेहतर हमेशा ही पाया है। कोशिश करके कभी एक वाक्य न लिख पायी हूँ। हालांकि न लिख पाने की पीड़ा की किरचों की चुभन को खूब सहा है।
मैंने अपना नाम बताया और उसके चेहरे पर आँखें गड़ा दीं। उस साँवले चेहरे पर उदासी की लकीरें साफ नज़र आ रही थी...उन लकीरों में कई कहानियाँ छुपी थीं...
(जारी...)
Wednesday, May 1, 2024
विदाई का नेग बारिश...
सा...गा...म...ध...नी....स...
ध....नी...स...म...ग...म...ग...स
स...म..म...ग...म...ग ...स....
Monday, April 29, 2024
ख़ुशबू लिखना चाहती हूँ...
लिखने की यह बेचैनी इसलिए है कि मैं ख़ुशबू लिखना चाहती हूँ...देवदार के जंगलों की वो ख़ुशबू जो दुनिया भर के दर्द निवारकों से कहीं आगे की चीज़ है। उस ख़ुशबू की स्मृति इस लम्हे में मुस्कुराकर मुझे देख रही है। 'सब कुछ लिखा नहीं जा सकता, कुछ सिर्फ जिया जाता है,' उसने कहा। मैंने पलकें झपकायीं और उस सुबह की स्मृति की खिड़की खोल दी सुबह पूरी तरह से कमरे में बिखर गयी। स्मृति की सन्दूक बहुत बड़ी होती है इसमें पूरे पहाड़, नदियां, जंगल अपने पूरे वैभव के साथ समा जाते हैं।
सुबह उठी तो हरारत बाकी थी देह में। माँ ने फोन पर डपटा और कहा 'आज कहीं मत जाना, आराम करो'। मैंने मिमियाई सी आवाज़ में कहा 'ठीक है'। यूं भी मुझे जाना ही कहाँ था। और सुबह की एक सुंदर सैर तो मैं कर ही आई थी। सो रज़ाई में घुसकर चाय सुड़कना और सामने की खिड़की से देवदार के पेड़ों पर हवा और पंछियों के खेल देखना अच्छा विकल्प लगा।
लेकिन वो इश्क़ ही क्या जो तमाम सोचे-विचारे की तोड़-फोड़ न करे, तमाम योजनाओं की बैंड न बजा दे। देर तक बिस्तर पर पड़े-पड़े हिम्मत कर खिड़की के थोड़ा और करीब जा बैठी। बहुत सुंदर लग रहा था सब लेकिन इस देखने में हवा का स्पर्श और महक नहीं थी। लालच बढ़ा तो थोड़ा दरवाजा खोला...जैसे हवा भी इसी फिराक में हो कि कब मौका मिले और वो मुझे सराबोर कर दे। हवा का झोंका किसी नशे सा था...कुछ देर सुध-बुध खोये दरवाजे पर ही खड़ी रही। और कुछ ही देर बाद हथेली में पैरासीटामाल और पैरों में जूते देखे। 'तेरा प्यार पैरासीटामाल' वाली एक पुरानी बात याद आ गयी...किसी शरारती लम्हे की वो बात चेहरे पर खेलने लगी।
कल से अब तक इस जगह के लगभग के हर हिस्से तक मैं कई-कई बार जा चुकी थी। एक पगडंडी थी जो बची हुई थी। मेरे कमरे के सामने से दूर एक हरा बगीचा मुस्कुराता दिखता था। अकेले होने पर तनिक हिचक भी हुई कि कहीं अनजान रास्ते पर भटक न जाऊँ, तिस पर फोन में सिग्नल भी नहीं थे। देर रात तक पार्टी करने वाले बच्चे शायद सोये होंगे तो आसपास होने वाली थोड़ी सी हलचल भी बंद ही थी। ऐसी खामोशी कि पुकारूँ तो अपनी ही आवाज़ जरा अलसाकर ही लौटे अपने पास। संज्ञा ने ताकीद की थी जब निकलना तो एक छड़ी रखना हाथ में। सो एक छड़ी तलाशी और चल पड़ी उस पगडंडी पर। जैसे-जैसे आगे बढ़ती जाती, अच्छा लगता जाता।
एक जगह जाकर एक छोटा सा लकड़ी का गेट मिला जो न बंद था, न खुला। सोचा जाऊँ या न जाऊँ। फिर जाने का ही तय किया, कोई रोकेगा तो देख लेंगे यही तय किया मन में। लेकिन यह जो छोटा सा लकड़ी का गेट था असल में रोकने के लिए नहीं था यह बताने के लिए था कि अब आप एक दिव्य दुनिया में प्रवेश करने वाले हैं। उलझनें वुलझनें उतार फेंकिए। शानदार मंजर था। नीले और पीले फूलों की क्यारियां हाथ पकड़कर ले जाती हैं और वहाँ ले जाकर बैठा देती हैं, जहां होना असल में जहां में न होना है।
मंत्रमुग्ध उस मंज़र के आगे देर तक खड़ी रही। बैठना है, चलना है, आगे जाना है सब भूल गयी। आँखें झरना हो चुकी थीं। कुछ देर बाद होश आया तो मैं पहले वहाँ बनी बेंच पर बैठी फिर ज़मीन पर और फिर सचमुच वहीं लेट गयी। हरे कालीन पर नीले फूलों की ख़ुशबू के बीच। देवदार मानो पंखा झल रहे हों...और तभी सूरज के उगने की आहट हुई। सुबह से बादलों का खेल चल रहा था तो सूरज मियां आज तनिक देर से आए थे। सूरज की पहली किरन के साथ ही पूरा मंज़र अलौकिक हो गया। अंखुयाए हरे पर जब सूरज की पहली किरण झरती है तो कैसा दिप दिप कर उठता है संसार। हर उस सुनहरी रंगत में ज़िंदगी के हर गम को हर लेने वाली औषधि बन जाता है। मैं भागती फिरती थी यहाँ से वहाँ, नंगे पाँव। इस सुबह को अकोर लेने को व्याकुल, इसमें धंस जाने को बेताब। धूप ने माथा सहलाया और कहा, 'यह सुबह तुम्हारी ही है, यह सूरज तुम्हारा है। यह दृश्य, यह ख़ुशबू सब सिर्फ तुम्हारे हैं।' मैं फफक पड़ी। मैंने पाया कि सचमुच मेरे सिवा यहाँ कोई भी तो नहीं हैं। तितलियाँ हैं, भँवरे हैं और मैं हूँ।
भीतर एक लंबी रुलाई धँसी हुई थी जिसे मैं लंबे समय से मुस्कुराहट बनाकर लोगों के बीच बाँट रही थी। लेकिन इस यात्रा में उस रुलाई को ठौर मिल रहा था। मैंने भीतर एक कंपन महसूस किया... किसी के आसपास न होने ने मुझे और आज़ाद किया। उस सुबह मैं उस सूरज के आगे फूट-फूटकर रोयी। जाने कितने बरसों की रुलाई थी वो। रोने की आवाज़ वादियों में घुल रही थी। कितनी देर तक रोई याद नहीं कि रोते-रोते वहीं सो गयी।
कोई होता तो पूछता कि क्या हुआ और शायद मैं झेंप जाती, असल में क्या हुआ जैसा कुछ नहीं होता। रोजमर्रा का जीवन जीते हुए हमारे भीतर न जाने कितना स्याह एकत्र होता रहता है क्योंकि दुनिया को मुस्कुराहटें चाहिए वो उदास होने को सामान्य होना नहीं मानती इसलिए हम खुश मुखौटों में खुद को कैद करते जाते हैं।
खैर, एक अच्छी मीठी नींद सो चुकने के बाद मेरी आँख खुली तो दस बज चुके थे। तीन घंटे हो चुके थे, पता ही नहीं चला। धूप की चादर पूरी देह को ढंके हुए थी। पैरासीटामाल भी अपना असर कर ही चुकी थी। मैं सोकर उठी तो लगा कोई और मैं हूँ। बहुत खुश और बहुत हल्कापन लिए। इस पल में मैंने माँ, बेटू, संज्ञा, देवयानी, श्रुति, पल्लवी, ज्योति और माया आंटी को याद किया, जरूर उन्हें हिचकी आई होगी।
मेरा उठकर जाने का मन ही नहीं कर रहा था। लेकिन कोई था नहीं कहने वाला कि जल्दी करो, वरना ब्रेकफ़ास्ट खतम हो जाएगा। इसलिए यह खुद ही कहना था खुद से। जाने से पहले एक बार फिर हर पेड़ के गले लगी, पत्तियों को छुआ और नंगे पाँव घास पर एक चक्कर लगाया और बेमन से लौटने लगी...
आड्रिक बार बंद करके निकल रहा था। मुझे अकेले जाता देख उसने पूछा, 'कोई परेशानी है? आपको कोई मदद चाहिये?' मैंने कहा मदद तो नहीं जरा सा साथ चाहिए। इस रास्ते पर अकेले जाने में वो भी इतनी रात में थोड़ी सी हिचक हो रही है। उसने कहा, 'मैम आपको होटल की गाड़ी से भी छोड़ा जा सकता है, किसी स्टाफ को आपके साथ भेज सकते हैं। या आप कहें तो मैं आपको छोड़ दूँ, मैं भी उधर ही जा रहा हूँ।'
मैंने मुस्कुराहट को छुपाते हुए कहा, लास्ट ऑप्शन ठीक रहेगा। उसने कहा, मुझे दो मिनट दीजिये मैं रजिस्टर पर साइन करके और बैग लेकर आता हूँ।
सच कहूँ, इस समय आड्रिक का होना बड़ा अच्छा लग रहा था। रास्ते भर हम बातें करते रहे। उसने बताया कि वो यह काम अपनी च्वायस से करता है। नए लोगों से मिलना, घूमना उसे पसंद है। उसने एमबीए किया, कुछ जगह नौकरी की लेकिन मन लगा नहीं। उसे दुनिया भर की शराब के बारे में भयंकर जानकारी थी। कई सारे कोर्स किए हुए हैं जनाब ने। अच्छा शराब की जानकारी के लिए भी कोर्स होते हैं ये मुझे नहीं पता था।
उसने हँसकर कहा, 'यह एक ज़िम्मेदारी वाला काम है, खुशी की तलाश में आने वालों को खुशी देना। बात सिर्फ ड्रिंक की नहीं होती उस माहौल की, व्यवहार की भी होती है जिससे कस्टमर स्ट्रेस फ्री रहे।'
'अच्छा, तुमने मेरी पसंद के गाने कैसे बजाए?' उन पगडंडियों पर चलते हुए मैंने उससे पूछ ही लिया। उसने कहा, 'कुछ राज बताने के नहीं होते मैम।' यह कहकर वो जरूर मुस्कुराया होगा जिसे अंधेरे ने ढँक लिया था।
'आप सोलो ट्रैवल पर हैं न?' उसने मुझसे पूछा। मैंने कहा 'हाँ'। 'ये बेस्ट होता है'। उसकी आवाज़ में चहक थी। 'आप क्या करती हैं'? उसने पूछा तो मुझे समझ ही नहीं आया, मुझे इस सवाल का जवाब कभी समझ नहीं आता। मैंने कहा 'नौकरी करती हूँ वैसे तो और ज़िंदगी जीने की कोशिश करती हूँ सुंदरतम तरह से'।
'आह, आप तो पोयट हैं'। उसकी आवाज़ पिघलने लगी थी। मैंने शरारत में कह दिया 'हाँ, हूँ शायद'।
'मुझे लगा था, आप पोयट ही हो सकती हैं।'
मैंने कहा, 'अच्छा है ये फ़्लर्ट। मुझे बुरा नहीं लगा'। और मैं ज़ोर से हंस दी। इतनी रात गए चायल के घने जंगलों में मेरी हंसी गूंज रही थी। मैं खुद अपनी ऐसी मुक्त हंसी को सुनकर हैरत में थी। हंसी रुक ही नहीं रही थी। 'आप हंस लीजिये फिर बताता हूँ,' उसने तसल्ली भरी आवाज़ में कहा।
'बताओ, चलो मैं रुक जाती हूँ।' यह कहकर फिर से हंसी का झरना फूट पड़ा...ये मुझे हुआ क्या है। मैं खुद हैरत में थी। मैंने महसूस किया कि रात के जंगल दिन के जंगलों से अलग होते हैं....चाँदनी में नहाये जंगलों में मेरी हंसी ज्यादा ही गूंज रही थी।
हम रुक गए थे, क्योंकि मेरी हंसी मुझे चलने नहीं दे रही थी। ज़िंदगी की किस शाख पर कब कौन सा लम्हा बैठा मिलेगा कोई नहीं जानता। आड्रिक पहाड़ी दीवार से टिककर मुझे देख रहा था और शायद सोच रहा होगा, कि ये रुके तो हम आगे बढ़ें।
खैर, हंसी का तूफान थमा और हम आगे बढ़े। उसने कहा, 'मैं फ़्लर्ट नहीं कर रहा था। हालांकि अब लग रहा है कि काश वो फ़्लर्ट ही होता...' कहकर वो मुस्कुराया। इस बार अंधेरे में भी उसकी मुस्कुराती आँखें छुप न सकीं या शायद उसने छुपाया नहीं। क्योंकि ऐसा कहते वक़्त पहली बार वो मेरे चेहरे की ओर देख रहा था। अब अचकचाने की बारी मेरी थी।
उसने बात का सिरा बदला और आवाज़ में चहक लाते हुए बोला, 'आप कैसी पोयट्री लिखती हैं?'
मैंने कहा, ' आड्रिक, अभी तुम ऑन ड्यूटी नहीं हो कि खुश रखना तुम्हारा काम हो। ईज़ी रहो।
कुछ देर चुप्पी हमारे साथ चली हवा की आवाज़ और तेज़ और साफ सुनाई दे रही थी। मेरा ठिकाना आने ही वाला था। मुझे वहाँ छोड़कर जाते वक़्त गुड नाइट से पहले आड्रिक ने कहा, 'आप हँसती रहा करिए, अच्छी लगती हैं।'
मैंने उसकी मुस्कुराहट को आँखों में भर लिया और सोचा रिवर्स बैक वाला कॉम्प्लीमेंट नहीं करूंगी। रात नींद देर से आई थी...
नाश्ते के टेबल पर मैंने उससे कहा, 'तुम्हारे नाम का उपयोग अपनी कहानी में करूंगी।' तुम रोक नहीं सकते। 'श्योर मैम' कहकर वो फिर एक बार नाश्ते के साथ मुस्कुराहट रखकर चला गया। नाश्ते के वक़्त मुस्कुराहटों का यह खेल चलता रहा। जिसका नतीजा यह हुआ कि मुझे ज्यादा खाना पड़ा और दो बार चाय पीनी पड़ी। खुद की ही शरारतों पर खुद ही हँसते हुए वहाँ से निकली।
कुछ देर धूप में बैठने के बाद एक और ट्रैक की तरफ पैर बढ़ गए, बढ़ते गए...अनजान रास्तों की पुकार में अजीब सा आकर्षण होता है, आप रुक नहीं सकते...
(जारी...)
Saturday, April 27, 2024
तुम्हें जिंदगी से क्या चाहिये?
'तुम्हें ज़िंदगी से क्या चाहिए...' सवाल पर मैं मुस्कुरा दी। कोई और पल होता या कोई और मौका तो शायद अचकचा जाती, भ्रमित हो जाती, थोड़ी उदास भी लेकिन अभी इस लम्हे में यह सवाल ऐसा लगा जैसे किसी बच्चे की गेंद मेरी गोद में आ गिरी हो और मैंने उस गेंद को वापस करने के बहाने से बच्चे के गाल छू लिए हों। मियां चायल की हथेलियों में मुस्कुराकर अपना जवाब रख दिया...'मुझे जिंदगी से चाहिए था यह लम्हा' कहते हुए मेरी पलकें भीगी हुई थीं। तेज़ हवा का झोंका कुछ इस कदर लिपटा मुझसे कि कसकर लपेटी हुई शॉल मनोकामिनी की खुशबू सी बिखरने लगी। देवदार के जंगलों की मुस्कुराहट चाँदनी के गुच्छों समेत सर पर बरस रही थी। उफ़्फ़...वो लम्हा...उसे दर्ज करते हुए भी इस लम्हे में सारे रोएँ खड़े हैं।
Friday, April 26, 2024
बात कुछ बन ही गयी
नींद वक़्त से पहले ही आ चुकी थी। हालांकि इन दिनों नींद से मेरे रिश्ते अच्छे नहीं चल रहे हैं फिर भी सफर में मोहतरमा मेहरबान रहीं। मैंने आँख भर शीशे के बाहर टिमटिमाते कसौली को देखा और खरगोश की तरह नींद की चादर में दुबक गयी।
सुबह उठी तो मौसम बदला सा लगा। एक खुशमिजाजी तारी थी मौसम पर। कुछ शरारत भी। मुस्कुराकर मैंने सुबह को 'हैलो' कहा और लैपटॉप खोलकर बालकनी में कुछ लिखने बैठ गयी। सुबह ने हाथ पकड़कर कमरे से बाहर खींच लिया। मैं सुबह का हाथ थाम कसौली में मटरगश्ती करने निकली। मैंने महसूस किया ये कोई और मैं हूँ। बेफिक्र, शरारती, अल्हड़ और मस्तीखोर। सचमुच शहर छोड़ने से सिर्फ शहर नहीं छूटता चिंताएँ भी छूटती हैं। थोड़े से बोझिल वाले हम भी छूट जाते हैं, एक अनमनापन भी छूटता है।
होटल की चाय कुछ खास थी नहीं तो सोचा कि किसी टपरी में चाय सुड़की जाएगी। कमरे की बालकनी से जो खेत और जंगल दिख रहे थे उनकी चाह ऐसी हुई कि रास्तों के भीतर रास्तों में घुसते हुए वहाँ जा पहुंची। नयी जगह जाने पर हर अगले पल क्या होगा, कौन सा रास्ता खुलेगा, कौन सा बंद मिलेगा सब किसी रहस्य सा होता है। ये रास्ते कई बार लगा कि लोगों के घर से होकर गुजर रहे हैं। कहीं किसी चूल्हे पर बनती रोटी की खुशबू मिलती कहीं कुकर में उबलते आलू पुकारते। मैं चलती ही जा रही थी। इस बीच बादलों ने भी मटरगश्ती शुरू की और मैंने जंगल और खेतों के ठीक बीच में खुद को भीगते हुए पाया। सच कहती हूँ, देवयानी की ज़ोर से हुड़क लगी, हमारे उत्तराखंड में इसे खुद लगना कहते हैं। हिमाचल में क्या कहते होंगे नहीं जानती। देवयानी का कहा हर शहर में साथ चलता है कि ये लड़की अपनी बारिशें, अपने मौसम साथ लेकर चलती है। मैंने चेहरा ऊपर किया और बाहें फैला दीं। पहाड़ों की बारिशें किसी आशीर्वाद सी लगती हैं जो मन की सारी धुंध को दूर कर दें। मैंने मुस्कुराकर कसौली के मौसम का शुक्रिया अदा किया और बारिश से कहा, 'लौट जाओ प्रिये कि खेतों में अभी पका हुआ गेहूं खड़ा है।' बारिश समझदार थी, सर पर हाथ फेरने ही आई थी जैसे। मुझे बाहों में समेटकर, माथा सहला कर चली गयी।
अब भीगने के बाद वाली सड़कें, पेड़, पंछी मेरे साथ थे। दूर तक जाती लंबी सड़क पर खुद को रख दिया और कुछ ही देर में खुद को बौराता हुआ पाया। नहीं जानती थी कि ऐसी किसी सुबह का मुझे इस कदर इंतज़ार था। इस पूरी यात्रा में यह बौराहट बढ़ती ही गयी जिसके किस्से आगे भी खूब मिलेंगे।
ध्यान ही नहीं रहा कि कितनी दूर निकल आई हूँ। दूर निकलने ही तो आई हूँ सोचकर सड़क के किनारे एक पत्थर पर कुछ देर बैठ गयी और चिड़ियों का खेल देखने लगी। थोड़ी देर उन्हें ताकते रहने के बाद लगा असल में वो सब मिलकर मुझे देख रही हैं। वो मुझे देखकर क्या सोच रही होंगी, आपस में क्या बतिया रही होंगी मैंने मन ही मन सोचा और हंस दी। चाय की तलब बढ़ गयी। अब तक जितनी भी दुकानें व गुमटियां मिलीं सब बंद मिलीं थीं तो सोचा चाय मुश्किल है मिलना कि ठीक उसी वक़्त थोड़ा और आगे बढ़ने पर एक छोटी सी दुकान खुलती नज़र आई। मैंने दो चाय ली और जंगल के भीतर समा गयी। अपने भीतर के जंगल से निकलकर कसौली के रास्ते के किनारों पर सजे जंगलों में। जिस चाय में शहर की मोहब्बत घुली हो सुबह की खुशबू उससे ज्यादा अच्छी चाय भला कहाँ मिल सकती है।
इस शहर को मैंने एक दिन का ठिकाना बनाया था। मुझे कहीं जाना नहीं था, कहीं पहुँचना भी नहीं था बस होना था उन लम्हों में, उन पलों में खुद के साथ। और बीती शाम ही समझ आ गया था कि वो सुर तो लग चुका है. पहले भी कई बार हिमाचल आई हूँ लेकिन मेरा रिश्ता बन नहीं पा रहा था हिमाचल के साथ। टूरिस्ट की तरह जगहें घूमकर लौट जाती रही। सारा दोष मेरा भी तो नहीं रहा होगा, मैंने टेढ़ी आँखों से हिमाचल की तरफ देखते हुए कहा। उसने कहा, 'घूमने आओगी, तो घुमा देंगे और दोस्ती करने आओगी तो गले से लगा लेंगे।' समझ गयी, गलती मेरी ही थी। इस बार घूमने नहीं आई थी हिमाचल के साथ दोस्ती करने, रिश्ता बनाने आई थी। एक और मौका देने खुद को भी और हिमाचल को भी। बात कुछ बन ही गयी सी लग रही थी।
धूप बिखरी तो सिमटा जरा बिखरा हुआ मन। लौटकर कमरे में लेटे हुए घंटों राग मालकोश सुनती रही। कितना अरसा हुआ ऐसे संगीत और प्रकृति की सोहबत में हुए। पनीली आँखों में कई ख़्वाब उगने लगे थे...चायल की पुकार कानों में घुल रही थी। मैंने कहा, 'ठहरो भी, आती हूँ न तुम्हारे पास। इतनी भी क्या बेसब्री'। तेज़ हवा के झोंके ने बताया कि पैगाम पहुँच चुका है और जनाब चायल इंतज़ार में हैं....
जारी...
Wednesday, April 24, 2024
कसौली की खुशबू ने थाम लिया था...
इस दुनिया को सुंदर बनाने के लिए कितनी कम मेहनत करनी होती है। बस ये जैसी है, उसे वैसी ही बने ही तो रहने देना है। इतना ही तो। लेकिन दुनियादार लोगों ने ठीकरा उठाया और सुंदर सी दुनिया की काँट-छाँट शुरू कर दी। भीतर कोई रोशनी उग रही थी बाहर सूरज ढल रहा था।
लेकिन मैंने फोन नहीं किया। इस न करने में इतना कुछ गुंथा हुआ है। कितना कुछ बचा लेना है। बात करो तो कितना सारा बोलना पड़ता है।
घर से निकलने से पहले कितने ही ऊहापोह थे, कितनी आनाकानियां। इस पल में वो सब औंधी पढ़ी थीं। मैंने अपनी कलाई को थामा और मुस्कुरा दी।
वहाँ आसपास के लोगों को देखकर सोचने लगी इनके भीतर क्या चल रहा होगा। इन मुस्कुराते चेहरों के पीछे क्या पता कोई उदास हो। क्या मेरी मुस्कुराहटों के भीतर कोई उतर पाया होगा, रंगीन, खूबसूरत तस्वीरों, मुस्कुराहटों और गुनगुनाहटों से जब मैं खुद को ही भरमा रही हूँ तो किसी और का क्या ही कहना।
हम अपने निज में किस कदर कैद हैं...पिछले दिनों यह बात और ज्यादा समझ आई। पहले भी गाज़ा की तस्वीरें देखकर उदास होती थी, किसानों की फसल बर्बाद होने के दर्द को समझती थी, जब कभी किसी भी वजह से किसी के घर टूटने की तस्वीरें देखती थी फफक उठती थी कि बचपन में ही अपना घर टूटते देखना शायद इसका कारण हो। किसान परिवार से ताल्लुक रखना शायद इसका कारण हो कि हर मौसम की बरसात से खुश नहीं होता मन, फसल का खयाल आता है सबसे पहले। लेकिन पिछले दिनों यह सब महसूस होना अपनी सघनता के साथ और करीब आया।
हर रात मेरी आँखों के आगे बेघर हुए लोग, टूटते घर, बिखरते लोग, उदास चेहरे तैरते। अपनी उदासी बौनी लगती इन सबके आगे। 'घर' शब्द को नए ढंग से समझना शुरू किया है फिर से और पाया है कि कसौली के उस छोटे से कमरे में जहां चिड़िया फुदककर बेधड़क कमरे में आ जाया करती थी, कितना सुंदर घर था वो।
चलते-चलते एक कप चाय की ख्वाहिश हुई...रात करीब सरक आई थी...
Monday, April 22, 2024
हाँ, हम फिर तैयार हैं
Friday, April 5, 2024
सब ठीक ही तो है
Wednesday, March 6, 2024
उम्मीद
एक रोज जरा सी लापरवाही से
उम्मीद के जो बीज
हथेलियों से छिटक कर
सोचा न था
कि वो इस कदर उग आएंगे
और ठीक उस वक़्त थामेंगे हाथ
जब मन काआसमान
डूबा होगा घनघोर कुहासे में
डब डब करती आँखों के आगे
वादियाँ हथेलियाँ बिछा देंगी
और समेट लेंगी आँखों में भरे मोती सारे
स्मृतियों में ठहर गए गम को
कोई पंछी अपनी चोंच से
कुतरेगा धीरे-धीरे
जब कोई सिहरन वजूद को घेरेगी
मौसम अपने दोशाले में लपेटकर
माथा चूम लेगा
उगता हुआ सूरज
Friday, March 1, 2024
अपनेपन की रोशनी
सांत्वना और सहानुभूति के शब्दों की हथेलियाँ
खाली ही मिलीं हमेशा की तरह
उनके चेहरे पर अपनेपन का आवरण था
उनके दुख जताते शब्दों में
छुपा था एक मीठा सा सुख भी
अक्सर वे कंधे ही सबसे कमजोर मिले
जिन्होंने कंधा बनने की खूब प्रैक्टिस की थी
और जिन्हें अब तक नहीं मिला था मौका
अपनी प्रतिभा दिखाने का
'सब ठीक हो जायेगा' की अर्थहीनता
किर्रर्रर्रर्र की आवाज़ की तरह
कानों को चुभ रही थी
'मैं हूँ न, परेशान न हो' कहकर जो गए
वो कभी लौटे नहीं फिर
इन सबके बीच
कुछ निशब्द हथेलियाँ
हाथों को थामे चुपचाप बैठी रहीं
अंधेरा घना था लेकिन
अपनेपन की रोशनी भी कम नहीं थी।
Wednesday, February 7, 2024
साथ ही साहस है
क्या मैं उदास हूँ?
Monday, January 8, 2024
आने से ज्यादा जरूरी है आने की इच्छा
तुम्हारा आकर जाना