Thursday, May 9, 2024

भला हुआ मोरी गगरी फूटी....


ये चायल के नगाली गाँव में मेरी आखिरी सुबह थी। जाने से पहले सारी हवा, सारा हरा अकोर लेना चाहती थी। सिर्फ मैं जानती थी कि कितनी बेचैनियां लिए घर से निकली थी इस सफर के लिए। कितनी अनिश्चितता लिए। ऐसी अनमयस्कता कि कहीं न मन लगे न पैर टिकें। अकेले रहते ऊब जाऊँ तो भी किसी से बात करने का जी न करे। जो कभी कर भी जाय बात करने का जी तो समझ न आए कहाँ से शुरू हो संवाद का सिलसिला। दूसरा संभाले ये ज़िम्मेदारी तो लगे थक गयी सुनते-सुनते। बात करना आजकल बात सुनना हो चला है।

कितनी ही बार दिल किया कि अपने चेहरे से पोंछकर पहचान मिटा दूँ, गुमा दूँ तमाम आवाजें, मुंह फेर लूँ  समझदारियों से। मगर ये हो न सका। चंद परछाइयों ने हमेशा पीछा किया, कुछ आवाज़ों ने हमेशा पुकार की जंजीरें से बांधकर रखा, कुछ आँखों ने कभी ओझल न होने का वादा थमा दिया। सोचती हूँ जिन चीजों से भागती रही उम्र भर उन्हीं चीजों ने ज़िंदगी में रोका हुआ है। और ज़िंदगी तो कितनी खूबसूरत है। तो शुकराने में आँखें भर आती हैं उन सब मोह की जंजीरों के प्रति जिनसे भागती फिर रही हूँ। 

हाल ही में देखी हुई फिल्म Irish Wish याद हो आई। सच में, हम कहाँ जानते हैं अपने बारे में कुछ भी...जानता तो कोई और है हम तो बस उसे जीते हैं। तो बस नागली गाँव की उस सुबह के आगे बाहें पसार दी थीं। 

गाँव सब गाँव जैसे ही तो होते हैं। सीधे, सरल मुस्कुराते। उन पगडंडियों पर एक जगह चारा काटने की मशीन देख बचपन की याद खिल गयी जब चारा मशीन में लटक जाने के बावजूद उसे हिला तक नहीं पाती थी। सर पर चारे का गट्ठा लेकर चलने की जिद हो या कुएं से मटकी में पानी भरकर ले जाने की जिद...हर जिद पर होती अपनी मासूम हार की याद खिल गयी। कितना तो खुशकिस्मत बचपन है जो ऐसी प्यारी यादों से भरा हुआ है। 


अभी बचपन की याद का हाथ थाम नगाली गाँव में घूम ही रही थी कि एक अजब सी चीज़ दिखी। कुछ काला गोल जिसमें से धुआँ निकल रहा था और उसमे पानी जैसी टोटी भी लगी थी। पास ही खड़े एक युवक ने बताया यह पानी गरम करने की चीज़ है। भीतर आग जलती हुई किनारे पर पानी जमा होने की व्यवस्था और टंकी से गरम पानी के निकास की तरतीब। यह लोगों का खुद का जुगाड़ है। 

इस देश का वैभव अप्रतिम है। बस हम इस वैभव से इतर न जाने कहाँ उलझे हुए हैं और यही है मूल प्रश्न। इन उलझे सवालों के साथ और ज़िंदगी को खूब जी लेने की कशिश के साथ मैं भागती फिर रही थी गाँव में। तभी मेरा पाँव फिसला और सर्रर्रर्र....गिरी तो कोई उठाने वाला भी नहीं था। खुद उठी और खुद की तलाशी ली। दाहिने हाथ की कलाई ने देह का सारा बोझ उठा लिया था सो मैडम दर्द से कराह उठीं। थोड़ी चिंता तो हुई मुझे कि अभी एक लंबा सफर करना है ऐसे में अगर हाथ ने हाथ खड़े कर दिये तो कैसे होगा। 

कमरे पर लौटी, हाथ धोया और छिली हुई जगह पर डेटोल लगाया। दर्द मूसलसल जारी थी। पैकिंग करते हुए मुस्कुराहट थी इर्द-गिर्द। कल शाम कहानी में विक्टर ऐसे ही फिसल गया था जिसे देख शैलवी देर तक हँसती रही थी और विक्टर नाराज हो गया था। और आज सुबह मैं फिसल गयी। अब मुस्कुराने की बारी विक्टर की थी। 
हाथ में दर्द तो था लेकिन वो मुड़ रहा था और इस बात का सुकून था कि शायद फ्रैक्चर तो नहीं है। कैब आ चुकी थी...चला चली की बेला थी...मिताली आई और मुस्कुराकर गले लगी। मैंने महसूस किया कि वो सिसक रही है। आर्यन बाबू खड़े हुए थे, उनके चेहरे पर मुस्कुराहट भी थी और फिक्र भी। रास्ते के लिए बेसन के चीले पैक करके देते वक़्त आर्यन मूव और पट्टी लेकर भी खड़ा था। मिताली ने मूव लगाया और कॉटन बैंडेज बांधी। 


कुछ ही दिनों में कैसे ये अनजान दुनिया अपनी हो चली थी। मैंने आँख भर सामने खड़े पेड़ों को देखा वो लहरा उठे। कैब सड़क पर दौड़ रही थी मन वहीं छूट रहा था....

मेरे पास वक़्त थोड़ा बचा हुआ था, मैंने संतोष को बोला, कसौली होते हुए चलें तो देर तो न होगी। उसने कुछ कहे बिना कसौली की सड़कों पर कैब मोड दी। कैब में उसने अपनी पसंद के गाने बजाए और मुझे सब अच्छे लग रहे थे। कभी-कभी खुद को दूसरों की पसंद के हवाले भी करना चाहिए। कसौली की सड़कों से फिर से गुजरना यूं लग रहा था मानो अपने ही एक ख़्वाब को फिर से छू लिया हो। 

संतोष ने एक जगह ब्रेक के लिए कैब रोकी और मैं उस कैफे की छत पर पड़ी खाट पर पसर गयी। करीब 40 मिनट बाद आँख खुली। ऐसी गहरी नींद...ऐसे राह चलते मिलेगी सोचा न था। कसौली होते हुए ही कालका स्टेशन समय से पहले ही पहुँच गयी थी। 

वेटिंग रूम में छुपी तमाम कहानियों की स्मृतियाँ कौंध गईं। वापसी की ट्रेन में बैठे हुए देह और मन को जैसे पंख लग गए थे...चलते वक़्त हिमाचल ने नींद साथ रख दी थी। 

देहरादून पहुँचकर ऊँघते हुए सुबह की चाय बनाते हुए कलाई का दर्द किसी तोहफे सा लगा...न कोई फ्रैक्चर नहीं था बस जरा सा दर्द था कुछ दिन साथ रहा और फिर चला गया जैसे भेजने आया हो मुझे मेरे शहर तक। 

Tuesday, May 7, 2024

उसके चेहरे में कई चेहरे थे...


'जिंदा रहना क्यों जरूरी होता है?' कॉफी पीते-पीते मिताली के होंठों से ये शब्द अनायास ही निकले हों जैसे। जिन्हें खुद सुनने पर वो झेंप गयी। शायद यह सोचकर कि भीतर चलने वाली बात बाहर कैसे आ गयी। जबकि सामने कोई अजनबी यानि मैं थी। उसकी झेंप समझ गयी थी इसलिए यूं जताया मानो कुछ सुना ही नहीं मैंने। उसकी आँखों में बादल डब-डब कर रहे थे। वो उठकर छत के किनारे पर टहलने लगी थी।

क्या हुआ होगा कि इस खूबसूरत प्रवास की पहली सुबह में ऐसे सुंदर लम्हों में इस लड़की की उदासी को ज़िंदगी को यूं कटघरे में खड़ा करना पड़ा होगा। अभी इस देश में लड़कियों का अकेले ट्रैवेल पर निकलना बहुत सहज तो नहीं है। 

मिताली की कहानी जानने की इच्छा हो रही थी लेकिन उसकी प्राइवेसी में किसी सवाल को कैसे भेज देती सो चुप रही। कोई पंछी डाल पर बैठा अपने पंख खुजा रहा था, जैसे वक़्त का पंछी हो, खुद में खुद को खँगालता। एक ठंडी आह निकली मन से लड़कियों का अकेले यात्राओं पर निकलना लड़कों के अकेले यात्राओं पर निकलने से काफी अलग होता है। 

इस बीच एक कहानी स्क्रीन के आसपास मंडराने लगी थी। विक्टर और शैलवी की कहानी। उस कहानी की गलियों में घूमना अच्छा लग रहा था। 

दिन रंग बदल रहा था। बदली और धूप का खेल जारी था। मिताली छत पर लगे झूले पर सो गयी थी। बड़ी प्यारी लग रही थी। जी चाहा उसका माथा सहला दूँ फिर देखा मौसम ने ये जिम्मा ले रखा है। वो दे रहा है थपकियाँ और सहला रहा है माथा। उसे सोता छोड़कर कमरे में आ गयी। 

शाम की वाक पर विक्टर और शैलवी साथ थे। उनमें किसी बात को लेकर झगड़ा हो गया था। विक्टर रूठी हुई शैलवी को मनाने की बजाय खुद ही रूठकर बैठा था...ये लड़के भी कमबख्त। इन्हें बिगाड़ना तो आता है, संभालना जाने कब सीखेंगे। अरे, पास जाकर गले से लगा ले या माथा ही चूम ले...बस मान जाएगी वो। लेकिन दुनिया जहान की बातें कर लेंगे बस मना नहीं पाएंगे। शैलवी की बड़ी-बड़ी आँखें विक्टर की बाहों में समा जाने को किस कदर बेताब हैं ये सारे जमाने को दिख जाएगा सिवाय विक्टर के। मैं उनके रूठने मनाने के खेल को देखकर मुस्कुरा दी। 

ऐसी खूबसूरत शाम, ऐसे हसीन रास्ते और ऐसा सूनापन...सड़क के सीने से लगकर पसर जाने का जी किया। इन रास्तों पर घंटों बाद ही कभी कोई गुजरता है सो मैं सड़क पर पसर गयी। 


कुछ देर लेटी ही रही तभी कुछ खिलखिलाहटों का रेला सा आता सुनाई दिया। 4 महिलाएं पैदल गप्प लगाती, हँसती खिलखिलाती चली आ रही थीं। ये कितनी दूर से पैदल आ रही होंगी, कितनी दूर जाएंगी इसका कोई हिसाब नहीं...लेकिन वो सब खुश दिख रही थीं। मुझे सड़क पर पसरे देख वे ठिठक गईं, लेकिन मेरी मुस्कान ने उन्हें सहज किया। मैंने उठते हुए पूछ लिया आप लोग इसी गाँव से हैं? उन्होंने हाँ कहा। उनमें से दो शिक्षिकाएँ थीं। एक युवा लड़की थी जो बार-बार फोन में सिग्नल तलाश रही थी। 

तभी मुझे मिताली आती दिखाई दी...ऐसा लगा कोई अपना आता दिखाई दिया हो। वो भी उसी अपनेपन से मुस्कुरा दी। जाती हुई शाम को हम दोनों ने मुठ्ठियों में बंद कर लिया और एक नए रास्ते पर चल पड़े...मिताली का चेहरा अब थोड़ा रिलेक्स लग रहा था। इन पहाड़ों ने अपना काम कर दिया था। 

शाम मैं और मिताली देर तक साथ बैठे रहे। उसका दिल खुलने को व्याकुल था और मैं भी लंबी चुप्पी से उकता चुकी थी। मिताली की कहानी साझा करना उसके निज की चोरी करने जैसा होगा इसलिए वो बात तो नहीं कर सकती सिवाय इसके कि ज़िंदगी की सताई यह लड़की इन पहाड़ों पर राहत लेने आई है। ऐसा लगता है दुनिया भर की औरतों को ऐसी राहतों की जरूरत है, कुछ को इसका एहसास है, कुछ को नहीं है। लेकिन वो औरतें जो पहाड़ों पर ही रहती हैं उनका क्या। उन्हें भी तो कभी राहत की दरकार होती होगी। 


मिताली की ओर देखकर मैं सोचने लगी, इसका चेहरा तो मेरे जैसा ही है एकदम...इसके चेहरे में न जाने कितनी औरतों के चेहरे हैं जो अपने-अपने जीवन युद्ध में जूझ रही हैं। 

अगले दिन वापसी थी...और नींद दरवाजे पर खड़ी थी...मिताली ने जाते-जाते सिरहाने पानी रखा और नींद को दरवाजे से बुलाकर मेरे पास बैठा दिया। 

(जारी)

Saturday, May 4, 2024

अच्छा लगने की उम्र कम क्यों होती है....



बचपन में ड्राइंग बनाते थे। एक पहाड़, एक नदी, एक घर, घर के आगे पेड़ और पहाड़ के पीछे सूरज हुआ करता था। सूरज की किरणें साइकिल की तीली जैसी नुकीली होतीं और पहाड़ समोसे जैसे तिकोने। ड्राइंग की कॉपी में हमने जैसे भी सूरज, नदी, पहाड़ बनाए हों लेकिन उस ड्राइंग ने जीवन में पहाड़, सूरज, नदी, जंगल सब शामिल कर दिये थे। जैसे ड्राइंग का वो पन्ना ज़िंदगी का बढ़ा हुआ हाथ हो...जिसे थामकर आज इन विशाल पहाड़ों  के सम्मुख बाहें फैलाये खड़ी हूँ। ड्राइंग में बनाई वो टेढ़ी-मेढ़ी नदी कब आकर आँखों में बस गयी पता नहीं। पता तब चला जब वो जब-तब छलकने को व्याकुल होने लगी। ये नदी सुख में ज्यादा लहराती है। इस नदी का बहना जैसे टूटती साँसों को संभाल लेना।

गालों पर बहती इस नदी पर सूरज की किरणों का पड़ना कितना सुंदर होता होगा नहीं जानती थी। चायल के उस नगाली गाँव की मुट्ठी में जो सुबह छुपी थी उसके पास हुनर थे तमाम उधड़ी रातों को रफू करने के। ठंडी हवा और मध्धम धूप मिलकर बालों से खेल रहे थे। ऐसी बेफिक्र सुबहें कितनी कम आती हैं। कम क्यों आती हैं भला ये सवाल पूरी दुनिया के लिए है।

कुछ देर सूरज को ताकने के बाद नई पगडंडी पर कदम रखे। यह पगडंडी गाँव के भीतर उतर रही थी। सुबह का जीवन अंगड़ाई ले रहा था। मवेशियों की जुगाली, बच्चों का स्कूल के लिए तैयार होना, औरतों का जल्दी-जल्दी घर के काम निपटाना...बरतन माँजती सुशीला जी के करीब बैठकर चुपचाप उनका गुनगुनाना सुनती रही। वो मुस्कुराकर मुझे देख रही थीं। मैंने हाथ के इशारे से उन्हें गाते रहने का इसरार किया जिसे उन्होंने मान लिया। गाना बर्तन साफ होने से पहले खत्म हुआ और उन्होंने मुझसे हँसकर कहा, 'आपको समझ तो न आया होगा'? मैंने कहा, 'हाँ, समझ तो नहीं आया लेकिन सुंदर था। आप इतनी खुश दिख रही थीं गाते हुए'। उन्होंने बताया कि इस गीत में हिमाचल की खूबसूरती के बारे में बताया गया है। मुझे अपने नरेंद्र सिंह नेगी जी याद आ गए और उनका गाना...'ठंडो रे ठंडो मेरे पहाड़ का पानी ठंडो हवा ठंडी...'.

पेट में भूख की कुलबुलाहट शुरू हुई तो घड़ी पर नज़र पड़ी। ओह दस बज गए। 4 घंटे हो गए यूं आवारगी करते हुए। वापस लौटी तो आर्यन ने पूछा नाश्ते में क्या खाएँगी? मैं अकेली ही रुकी थी यहाँ तो जो मैं बोलती थी वही बन जाता था। इस जो बोलती हूँ बन जाने में कद्दू भी शामिल है।

मैंने कहा, 'क्या बना सकते हो जल्दी से, तेज़ भूख लगी है।' उसने हँसते हुए कहा, 'जो आप कहें।
वैसे छोले पूड़ी बनी है अगर आप खाना चाहें'। उसने सूचना भी जोड़ दी। तेल मसाले के खाने से बहुत दूर रहती हूँ मैं इसलिए छोले पूड़ी का नाम सुनते ही सिहरन सी हो गयी। फिर सोचा चलो कोई बात नहीं आज ये भी सही। उसे कहा 'ठीक है जो बना है वही ले आओ अलग से क्यों बनाना'।
वो खुश हो गया।

जब वो छोले पूड़ी का नाश्ता बालकनी में टेबल पर रख रहा था तब उसने बताया एक और मैडम आई हैं कल रात। उन्होंने ही रात ही बोल दिया था छोले पूड़ी के लिए। वैसे आपको अच्छा लगेगा। मैंने मुस्कुराकर उसके गाल थपथपा दिये। सत्रह बरस का वो किशोर शरमा गया।

छोले सच में अच्छे बने थे हालांकि पूड़ी की साइज़ ने डरा दिया। लेकिन भूख और शायद लगातार चलते रहने के कारण मैं जिन दो पूरियों को देखकर घबरा रही थी आराम से डकार गयी। नाश्ते के बाद वहीं लुढ़क गयी...हाथ में थी 'धुंध से उठती धुन....'साहित्य हमें पानी नहीं देता, वह सिर्फ हमें अपनी प्यास का बोध कराता है। जब तुम स्वप्न में पानी पीते हो तो जागने का सहसा एहसास होता है कि तुम सचमुच कितने प्यासे हो।'

निर्मल को पढ़ना जैसे अपने ही खोये हुए मन को पा लेना। जब सफर के लिए घर से निकली थी तो लोर्का और निर्मल वर्मा साथ हो लिए थे। आज नगाली गाँव के इस कोने में देवदारों की छाया में गुनगुनी धूप में लेटे हुए न जाने कितनी बार पढ़ी हुई इन लाइनों को फिर से पढ़ना सुख दे रहा था। पढ़ते-पढ़ते आँख लग गयी। बालकनी में झुक आई शाखें लगातार पंखा झल रही थीं।
 
मौसम बदला, बदली घिरी और ठंडी हवा ने गुदगुदाया। भीतर जाकर रज़ाई में धंस जाना आह, कैसा तो सुख था। हालांकि नींद जा चुकी थी लेकिन यूं लेटे रहना अच्छा लग रहा था। ऐसा बेफिक्र समय कितना कीमती होता है। कबसे तो चाहती थी कि काश! बस चंद लम्हों को तमाम जिम्मेदारियों से, दुश्वारियों से आज़ाद हो सकूँ।
चाय पीने की इच्छा हुई लेकिन बनाने की नहीं हुई...

घड़ी में सिर्फ 12 बजे थे। एक पूरा दिन सामने था और मैं थी। चाय बनाई और बाहर छाई बदलियों को देख मुस्कुरा दी। स्वाति की आवाज़ में 'कहाँ से आये बदरा...' बजा लिया। फुर्सत तलाशती तो रहती हूँ लेकिन फुर्सत से बनती नहीं है मेरी। वर्कोहलिक का टैग बहुत पहले ही लग चुका है। कमरे से लेकर देह तक रेंगती फुर्सत में स्मृतियों का पानी घुलने लगा। लिखने का सुर तो जाने कबसे रूठा हुआ है लेकिन उस रोज कुछ लिखने का दिल चाहा। लैपटॉप लेकर छत पर चली गई। लिखने का दिल चाहना, लैपटॉप खोलने का अर्थ यह बिलकुल नहीं कि लिख ही पाऊँगी ये जानती हूँ क्योंकि यह खेल अब पुराना हो चला है। खाली स्क्रीन को ताकते रहना, वाक्यों को लिखना मिटाना और हारकर आसमान देखने लगना।

छत बहुत सुंदर थी। कुछ देर तक छत पर टहलती रही फिर लैपटॉप में कुछ तलाशने लगी। तभी किसी के आने की आहट हुई। एक साँवली सी दरमियाना कद की दुबली सी लड़की आई। आँखों से हमने एक-दूसरे को हैलो कहा और मैं लिखने का नाटक करने लगी। अब मैंने खुद पर लिख रही हूँ का लेवल चिपका लिया था और ये किसी ने देख लिया था इसलिए कुछ देर तो यह नाटक चलाना ही था। चेहरे पर बेमतलब के गंभीर भाव ओढ़े मैं शब्दों की जुगाली करने में लगी थी। जाने क्यों लग रहा था वो मुझे ही देख रही होगी। चोर नज़रों से मैंने उसे देखा वो तो मेरी तरफ पीठ करके किसी से फोन पर बात कर रही थी।

लिख रही हूँ के ढोंग से जरा राहत मिली। हंसी भी आई कि कितने आवरण बेवजह ओढ़ने के आदी हम अनजाने ही ऐसा व्यवहार करते हैं जिसकी हमें खुद से भी उम्मीद नहीं होती।

ज़ेहन में कितना कुछ चलता है लिखने बैठो तो एक शब्द पर टिकने का मन न करे...कैसी तो धुंध होती है ये। न लिख पाने की पीड़ा को सहना जबरन लिखने की कोशिश से बेहतर हमेशा ही पाया है। कोशिश करके कभी एक वाक्य न लिख पायी हूँ। हालांकि न लिख पाने की पीड़ा की किरचों की चुभन को खूब सहा है।

'आप कॉफी पिएंगी?' इस वाक्य ने मुझे बेकार के सोच-विचार के दलदल से बाहर खींच लिया। मुझे यह वाक्य बड़ा मीठा लगा इस वक़्त। कॉफी पीने की इच्छा न होने के बावजूद मैंने हाँ कह दिया। इस हाँ में उस लड़की से संवाद के द्वार जो खुलते नज़र आ रहे थे। आर्यन ने अच्छी कॉफी बनाई थी। कॉफी पीते हुए उस लड़की ने अपना नाम बताया, 'मेरा नाम मिताली है। कल रात ही आई हूँ'।

मैंने अपना नाम बताया और उसके चेहरे पर आँखें गड़ा दीं। उस साँवले चेहरे पर उदासी की लकीरें साफ नज़र आ रही थी...उन लकीरों में कई कहानियाँ छुपी थीं...

(जारी...)

Wednesday, May 1, 2024

विदाई का नेग बारिश...



सा...गा...म...ध...नी....स...
ध....नी...स...म...ग...म...ग...स
स...म..म...ग...म...ग ...स....

जाने कितने बरसों बाद राग मालकोश मेरे होंठों पर खुद-ब-खुद चला आया था...उस नन्ही बुदबुदाहट में अजब सा सुकून था। वो दिन याद आए जब सितार सीखा करती थी और पड़ोस में चल रही गायन की कक्षा के बाहर खड़े होकर एक सुर में गाती लड़कियों को देखा, सुना करती थी।  खुद भी गा सकती हूँ का भरोसा जाने कभी क्यों न आया लेकिन उस कक्षा के बाहर से सुने हुए को अकेले कमरे में गुनगुनाया कई बार। शायद तभी से वृंदावनी सारंग और मालकोश प्रिय राग हो गए। 

ये देवदार के जंगलों का जादू है या स्मृति के सन्दूक से निकल भागी कोई याद....कि अनायास आज मेरी देह पर मालकोश झर रहा था। 'नव कलियन पर गूंजत भँवरा....' इस लम्हे में घुटनों तक की आसमानी स्कर्ट, सफ़ेद शर्ट में दो चोटी वाली लड़की ज्यादा थी। उस लड़की की ओर हाथ बढ़ाया, उसने मुझे अजनबी नज़रों से देखा। मैंने उसे गले लगा लिया। कुदरत आलाप ले रही थी और मैं उस लड़की को सीने से लगाए हुलस रही थी। 


अजनबी चेहरों में कई बार बहुत सारा भरोसा, अपनापन छुपा होता है, ठीक वैसे ही जैसे अनजानी राहों में सुंदर दृश्यों की भरमार। जोखिम भी होते हैं लेकिन इन जोखिमों के होने की आशंका से तो पार पाना ही पड़ेगा। ऐसी ही एक अजनबी पगडंडी पर चलते हुए इस छोटी लड़की से मुलाक़ात हो गयी। हम दोनों देर तक एक पेड़ के नीचे बैठे रहे। कितनी लंबी यात्रा...वहाँ से यहाँ तक। उस लड़की को देखती...उसकी भोली आँखों में आत्मविश्वास का 'आ' भी नहीं दिख रहा था...न सपना कोई। देर तक उसका हाथ थाम जंगल में घूमती रही। मैं उसके लिए अनजानी थी, वो मेरे लिए नहीं। हम दोनों बिछुड़ी सखियाँ थीं, असल में हम दो थीं भी कहाँ... 

चायल पैलेस में यह मेरा आखिरी दिन था। चलते-चलते फिर एक और चक्कर लगाने निकल पड़ी इस प्यारी सी लड़की का हाथ थाम। सामान पैक था। कैब का इंतज़ार था। कमरे के बाहर इन अमृत वनों को जी भर के आँखों में अकोर लेना चाहती थी। हथेलियाँ फैलाईं और उस पर बूंदें आ बैठीं। ओह बारिश....मन थिरक उठा उस एक बूंद के स्पर्श से। मानो चायल पैलेस ने चलते-चलते हथेलियों पर विदाई का नेग रख दिया हो। नन्ही बूंदों को देवदार की पत्तियों पर झरते देखना चलते वक़्त लिपटकर रो लेने जैसा था। कैब आ गयी थी औरआगे की यात्रा शुरू हो चुकी थी।

मैं चायल से नहीं जा रही थी, चायल पैलेस से जा रही थी। चायल में ही अगला ठिकाना था यहाँ से 40 किलोमीटर दूर एक गाँव में जिसका नाम था नगाली। 

नागली में तीन दिन रहना था। यह टूरिस्ट सीजन नहीं था इसलिए मुझे तो चायल भी शांत ही मिला और यह नगाली गाँव। यहाँ तो कई घंटे बाद कोई इंसान नज़र आता था। कोई बाइक, कोई कार शायद दिन में एक या दो बार गुजरते होंगे और कभी-कभार कोई पैदल जाता दिख जाता। 

जिस होम स्टे में रुकी थी वहाँ भी आवाज़ लगाने पर  सिर्फ केयर टेकर आर्यन नज़र आता वरना लगता है यह सारा संसार मेरा ही है, यहाँ सिर्फ मैं ही हूँ। बालकनी से जो खूबसूरत दृश्य दिखा उसके बाद लगा ये दिन सुंदर होने वाले हैं। सबसे पहले कमरे के सोफ़े को बालकनी में रखवाया और एक छोटी टेबल भी। बस फिर जम गया आसन मेरा और मेरी तनहाई का....

पहुँचते ही तेज़ भूख ने धावा बोला और इच्छा बुदबुदाई, 'दाल चावल'। इतना स्वादिष्ट दाल चावल आर्यन ने खिलाया कि मन खुश हो गया। थकन, सुकून और खाने की तृप्ति ने मिलकर नींद के समंदर में धकेल दिया। 


आँख खुली तो शाम हो चुकी थी। सामने दिख रही वादियों में उतर जाने की ख़्वाहिश हिलोरें लेने लगी। सामने जितनी राहें थीं सब अनजानी थीं। किसी भी राह पर कदम रखा जा सकता था...सो रख दिया एक राह पर। रास्तों की खामोशी कानों में मिसरी घोल रही थी। 

जीवन साथ चल रहा था। मैंने उसे मुस्कुराकर देखा तो उसने पलकें झपका दीं। मैं मन ही मन हंस दी। यह जो जीवन है न इतना दुष्ट है कि क्या कहें। हमेशा हमारी बनाई हुई योजनाओं की धज्जियां उड़ाने की फिराक में रहता है। इसकी मनमानी के आगे किसी की नहीं चलती। लेकिन इसके पास हमारे लिए कुछ और ही योजनाएँ होती हैं जिनका हमें पता नहीं होता। अब जीवन से लड़ती नहीं बस उसकी मुट्ठी खुलने का इंतज़ार करती हूँ कि देखूँ क्या है इसमें मेरे लिए। 



देवदार के घने जंगलों के बीच उस सर्पीली सी राह पर जीवन के साथ चलते-चलते वक़्त का कुछ पता ही नहीं चला। रात करीब सरक आई थी और चाँद भी अब हमारे साथ हो लिया था। घड़ी देखी तो कमबख्त वक़्त काफी दूर निकल चुका था। आज मुझे वक़्त की परवाह नहीं थी लेकिन बेखयाली में मैं कितनी दूर आ गयी हूँ अपने ठीहे से यह पता नहीं था सो लौटना जरूरी था। 

देर रात तक बालकनी में पड़े सोफ़े पर पसरे हुए सुनती रही जीवन राग...रात कब गयी पता नहीं, सुबह के आने की ख़बर परिंदों ने दी। 
(जारी)

Monday, April 29, 2024

ख़ुशबू लिखना चाहती हूँ...


बड़ी देर से स्क्रीन पर कुछ लिख रही हूँ, मिटा रही हूँ...आँखें झर झर झर रही हैं। सारा लिखा हुआ जिये हुए के आगे बौना लग रहा है। यह असल में यात्रा के केंद्र के बारे में है। नाभि केंद्र जहां से हमेशा ख़ुशबू फूटती रहती है। इस जिये हुए की ख़ुशबू जीवन भर संग रहेगी। दृश्यों को देखना और उनके भीतर खुद को देखना कैसा तो होता है...और फिर कुछ ही देर बाद खुद को न देख पाना और भी सुंदर। खुद से मुक्त होकर हम ही हो जाते हैं वह बौराया हुआ पाखी जो इस डाल से उस डाल लहराते हुए फुदक रहा है।

लिखने की यह बेचैनी इसलिए है कि मैं ख़ुशबू लिखना चाहती हूँ...देवदार के जंगलों की वो ख़ुशबू जो दुनिया भर के दर्द निवारकों से कहीं आगे की चीज़ है। उस ख़ुशबू की स्मृति इस लम्हे में मुस्कुराकर मुझे देख रही है। 'सब कुछ लिखा नहीं जा सकता, कुछ सिर्फ जिया जाता है,' उसने कहा। मैंने पलकें झपकायीं और उस सुबह की स्मृति की खिड़की खोल दी सुबह पूरी तरह से कमरे में बिखर गयी। स्मृति की सन्दूक बहुत बड़ी होती है इसमें पूरे पहाड़, नदियां, जंगल अपने पूरे वैभव के साथ समा जाते हैं।


सुबह उठी तो हरारत बाकी थी देह में। माँ ने फोन पर डपटा और कहा 'आज कहीं मत जाना, आराम करो'। मैंने मिमियाई सी आवाज़ में कहा 'ठीक है'। यूं भी मुझे जाना ही कहाँ था। और सुबह की एक सुंदर सैर तो मैं कर ही आई थी। सो रज़ाई में घुसकर चाय सुड़कना और सामने की खिड़की से देवदार के पेड़ों पर हवा और पंछियों के खेल देखना अच्छा विकल्प लगा।

लेकिन वो इश्क़ ही क्या जो तमाम सोचे-विचारे की तोड़-फोड़ न करे, तमाम योजनाओं की बैंड न बजा दे। देर तक बिस्तर पर पड़े-पड़े हिम्मत कर खिड़की के थोड़ा और करीब जा बैठी। बहुत सुंदर लग रहा था सब लेकिन इस देखने में हवा का स्पर्श और महक नहीं थी। लालच बढ़ा तो थोड़ा दरवाजा खोला...जैसे हवा भी इसी फिराक में हो कि कब मौका मिले और वो मुझे सराबोर कर दे। हवा का झोंका किसी नशे सा था...कुछ देर सुध-बुध खोये दरवाजे पर ही खड़ी रही। और कुछ ही देर बाद हथेली में पैरासीटामाल और पैरों में जूते देखे। 'तेरा प्यार पैरासीटामाल' वाली एक पुरानी बात याद आ गयी...किसी शरारती लम्हे की वो बात चेहरे पर खेलने लगी।

 

कल से अब तक इस जगह के लगभग के हर हिस्से तक मैं कई-कई बार जा चुकी थी। एक पगडंडी थी जो बची हुई थी। मेरे कमरे के सामने से दूर एक हरा बगीचा मुस्कुराता दिखता था। अकेले होने पर तनिक हिचक भी हुई कि कहीं अनजान रास्ते पर भटक न जाऊँ, तिस पर फोन में सिग्नल भी नहीं थे। देर रात तक पार्टी करने वाले बच्चे शायद सोये होंगे तो आसपास होने वाली थोड़ी सी हलचल भी बंद ही थी। ऐसी खामोशी कि पुकारूँ तो अपनी ही आवाज़ जरा अलसाकर ही लौटे अपने पास। संज्ञा ने ताकीद की थी जब निकलना तो एक छड़ी रखना हाथ में। सो एक छड़ी तलाशी और चल पड़ी उस पगडंडी पर। जैसे-जैसे आगे बढ़ती जाती, अच्छा लगता जाता।

एक जगह जाकर एक छोटा सा लकड़ी का गेट मिला जो न बंद था, न खुला। सोचा जाऊँ या न जाऊँ। फिर जाने का ही तय किया, कोई रोकेगा तो देख लेंगे यही तय किया मन में। लेकिन यह जो छोटा सा लकड़ी का गेट था असल में रोकने के लिए नहीं था यह बताने के लिए था कि अब आप एक दिव्य दुनिया में प्रवेश करने वाले हैं। उलझनें वुलझनें उतार फेंकिए। शानदार मंजर था। नीले और पीले फूलों की क्यारियां हाथ पकड़कर ले जाती हैं और वहाँ ले जाकर बैठा देती हैं, जहां होना असल में जहां में न होना है।

मंत्रमुग्ध उस मंज़र के आगे देर तक खड़ी रही। बैठना है, चलना है, आगे जाना है सब भूल गयी। आँखें झरना हो चुकी थीं। कुछ देर बाद होश आया तो मैं पहले वहाँ बनी बेंच पर बैठी फिर ज़मीन पर और फिर सचमुच वहीं लेट गयी। हरे कालीन पर नीले फूलों की ख़ुशबू के बीच। देवदार मानो पंखा झल रहे हों...और तभी सूरज के उगने की आहट हुई। सुबह से बादलों का खेल चल रहा था तो सूरज मियां आज तनिक देर से आए थे। सूरज की पहली किरन के साथ ही पूरा मंज़र अलौकिक हो गया। अंखुयाए हरे पर जब सूरज की पहली किरण झरती है तो कैसा दिप दिप कर उठता है संसार। हर उस सुनहरी रंगत में ज़िंदगी के हर गम को हर लेने वाली औषधि बन जाता है। मैं भागती फिरती थी यहाँ से वहाँ, नंगे पाँव। इस सुबह को अकोर लेने को व्याकुल, इसमें धंस जाने को बेताब। धूप ने माथा सहलाया और कहा, 'यह सुबह तुम्हारी ही है, यह सूरज तुम्हारा है। यह दृश्य, यह ख़ुशबू सब सिर्फ तुम्हारे हैं।' मैं फफक पड़ी। मैंने पाया कि सचमुच मेरे सिवा यहाँ कोई भी तो नहीं हैं। तितलियाँ हैं, भँवरे हैं और मैं हूँ।

 भीतर एक लंबी रुलाई धँसी हुई थी जिसे मैं लंबे समय से मुस्कुराहट बनाकर लोगों के बीच बाँट रही थी। लेकिन इस यात्रा में उस रुलाई को ठौर मिल रहा था। मैंने भीतर एक कंपन महसूस किया... किसी के आसपास न होने ने मुझे और आज़ाद किया। उस सुबह मैं उस सूरज के आगे फूट-फूटकर रोयी। जाने कितने बरसों की रुलाई थी वो। रोने की आवाज़ वादियों में घुल रही थी। कितनी देर तक रोई याद नहीं कि रोते-रोते वहीं सो गयी।

कोई होता तो पूछता कि क्या हुआ और शायद मैं झेंप जाती, असल में क्या हुआ जैसा कुछ नहीं होता। रोजमर्रा का जीवन जीते हुए हमारे भीतर न जाने कितना स्याह एकत्र होता रहता है क्योंकि दुनिया को मुस्कुराहटें चाहिए वो उदास होने को सामान्य होना नहीं मानती इसलिए हम खुश मुखौटों में खुद को कैद करते जाते हैं।

खैर, एक अच्छी मीठी नींद सो चुकने के बाद मेरी आँख खुली तो दस बज चुके थे। तीन घंटे हो चुके थे, पता ही नहीं चला। धूप की चादर पूरी देह को ढंके हुए थी। पैरासीटामाल भी अपना असर कर ही चुकी थी। मैं सोकर उठी तो लगा कोई और मैं हूँ। बहुत खुश और बहुत हल्कापन लिए। इस पल में मैंने माँ, बेटू, संज्ञा, देवयानी, श्रुति, पल्लवी, ज्योति और माया आंटी को याद किया, जरूर उन्हें हिचकी आई होगी।

मेरा उठकर जाने का मन ही नहीं कर रहा था। लेकिन कोई था नहीं कहने वाला कि जल्दी करो, वरना ब्रेकफ़ास्ट खतम हो जाएगा। इसलिए यह खुद ही कहना था खुद से। जाने से पहले एक बार फिर हर पेड़ के गले लगी, पत्तियों को छुआ और नंगे पाँव घास पर एक चक्कर लगाया और बेमन से लौटने लगी... 



नाश्ता करने वालों में सबसे देर से पहुंची थी जाहिर है उस रॉयल रेस्तरां में मैं अकेली थी। बीती रात जिस बार टेंडर ने पीनाकोलाडा पीने के लिए मुझे कंविन्स किया था और जिससे बाद में ढेर सारी गप्पें मारी थीं वही सुबह की चाय पर नमूदार हुआ। मेरे ब्रेकफ़ास्ट की ज़िम्मेदारी भी उन्हीं साहब की थी। जिस अंदाज़ से मुस्कुराकर उसने कहा, 'गुड मॉर्निंग' सुबह सच में और भी ज्यादा सुंदर हो गयी। मैंने उसका नाम रात ही पूछा था। 'आड्रिक' उसने बताया था जिसका अर्थ होता है पहाड़ों के बीच उगता सूरज। सुंदर नाम है मैंने कहा था और वो मुस्कुरा दिया था। इस सुबह की आड्रिक की मुस्कान में बीती रात की सैर की संगत भी थी।

बीती रात जब आड्रिक से मुलाक़ात हुई थी...और जिसका किस्सा मैंने छुपा लिया था। उसने बताया था, 'मुझे पहाड़ों से बहुत प्यार है।' कहकर वो रुक गया। यह वाक्य कि मुझे किसी से प्यार है इतना सघन है कि इसे सुनने के बाद वक़्त ही ठहर जाय। 

कुछ देर बाद उसने फिर कहा, ' शायद मेरे पैरेंट्स को भी पहाड़ों से प्यार रहा होगा तभी उन्होंने मेरा यह नाम रखा। आड्रिक के बात करने में एक हिचक थी जो उसे मासूम बना रही थी। उसे संकोच था शायद कि कस्टमर से कितना क्लोज होना है, कहीं बुरा न मान जाऊँ। उसकी उलझन मैं समझ गयी और मैंने उसे ज्यादा बात करने के लिए कुरेदा नहीं, उसकी चुप के साथ उसे छोड़ दिया। वो एक से एक मेरी पसंद के गाने बजाता रहा और मैं वो बेकार सी पीनाकोलाडा गटकती रही। कुछ देर बाद मैं यानि उसकी आखिरी कस्टमर बाहर निकली तो वो बार बंद करने लगा। लॉगहट्स का रास्ता सुंदर है, जंगलों से बीच से जाता है। बीच-बीच में लाइट्स भी लगी हैं फिर भी मैं तलाशने लगी कोई मिल जाता उधर जाने वाला तो एक आहट तो साथ चलती।


आड्रिक बार बंद करके निकल रहा था। मुझे अकेले जाता देख उसने पूछा, 'कोई परेशानी है? आपको कोई मदद चाहिये?' मैंने कहा मदद तो नहीं जरा सा साथ चाहिए। इस रास्ते पर अकेले जाने में वो भी इतनी रात में थोड़ी सी हिचक हो रही है। उसने कहा, 'मैम आपको होटल की गाड़ी से भी छोड़ा जा सकता है, किसी स्टाफ को आपके साथ भेज सकते हैं। या आप कहें तो मैं आपको छोड़ दूँ, मैं भी उधर ही जा रहा हूँ।'

मैंने मुस्कुराहट को छुपाते हुए कहा, लास्ट ऑप्शन ठीक रहेगा। उसने कहा, मुझे दो मिनट दीजिये मैं रजिस्टर पर साइन करके और बैग लेकर आता हूँ।

सच कहूँ, इस समय आड्रिक का होना बड़ा अच्छा लग रहा था। रास्ते भर हम बातें करते रहे। उसने बताया कि वो यह काम अपनी च्वायस से करता है। नए लोगों से मिलना, घूमना उसे पसंद है। उसने एमबीए किया, कुछ जगह नौकरी की लेकिन मन लगा नहीं। उसे दुनिया भर की शराब के बारे में भयंकर जानकारी थी। कई सारे कोर्स किए हुए हैं जनाब ने। अच्छा शराब की जानकारी के लिए भी कोर्स होते हैं ये मुझे नहीं पता था।

उसने हँसकर कहा, 'यह एक ज़िम्मेदारी वाला काम है, खुशी की तलाश में आने वालों को खुशी देना। बात सिर्फ ड्रिंक की नहीं होती उस माहौल की, व्यवहार की भी होती है जिससे कस्टमर स्ट्रेस फ्री रहे।'

'अच्छा, तुमने मेरी पसंद के गाने कैसे बजाए?' उन पगडंडियों पर चलते हुए मैंने उससे पूछ ही लिया। उसने कहा, 'कुछ राज बताने के नहीं होते मैम।' यह कहकर वो जरूर मुस्कुराया होगा जिसे अंधेरे ने ढँक लिया था।

'आप सोलो ट्रैवल पर हैं न?' उसने मुझसे पूछा। मैंने कहा 'हाँ'। 'ये बेस्ट होता है'। उसकी आवाज़ में चहक थी। 'आप क्या करती हैं'? उसने पूछा तो मुझे समझ ही नहीं आया, मुझे इस सवाल का जवाब कभी समझ नहीं आता। मैंने कहा 'नौकरी करती हूँ वैसे तो और ज़िंदगी जीने की कोशिश करती हूँ सुंदरतम तरह से'।

'आह, आप तो पोयट हैं'। उसकी आवाज़ पिघलने लगी थी। मैंने शरारत में कह दिया 'हाँ, हूँ शायद'।
'मुझे लगा था, आप पोयट ही हो सकती हैं।'
मैंने कहा, 'अच्छा है ये फ़्लर्ट। मुझे बुरा नहीं लगा'। और मैं ज़ोर से हंस दी। इतनी रात गए चायल के घने जंगलों में मेरी हंसी गूंज रही थी। मैं खुद अपनी ऐसी मुक्त हंसी को सुनकर हैरत में थी। हंसी रुक ही नहीं रही थी। 'आप हंस लीजिये फिर बताता हूँ,' उसने तसल्ली भरी आवाज़ में कहा।

'बताओ, चलो मैं रुक जाती हूँ।' यह कहकर फिर से हंसी का झरना फूट पड़ा...ये मुझे हुआ क्या है। मैं खुद हैरत में थी। मैंने महसूस किया कि रात के जंगल दिन के जंगलों से अलग होते हैं....चाँदनी में नहाये जंगलों में मेरी हंसी ज्यादा ही गूंज रही थी।

हम रुक गए थे, क्योंकि मेरी हंसी मुझे चलने नहीं दे रही थी। ज़िंदगी की किस शाख पर कब कौन सा लम्हा बैठा मिलेगा कोई नहीं जानता। आड्रिक पहाड़ी दीवार से टिककर मुझे देख रहा था और शायद सोच रहा होगा, कि ये रुके तो हम आगे बढ़ें।

खैर, हंसी का तूफान थमा और हम आगे बढ़े। उसने कहा, 'मैं फ़्लर्ट नहीं कर रहा था। हालांकि अब लग रहा है कि काश वो फ़्लर्ट ही होता...' कहकर वो मुस्कुराया। इस बार अंधेरे में भी उसकी मुस्कुराती आँखें छुप न सकीं या शायद उसने छुपाया नहीं। क्योंकि ऐसा कहते वक़्त पहली बार वो मेरे चेहरे की ओर देख रहा था। अब अचकचाने की बारी मेरी थी। 

ऐसे मौकों पर चुप्पी को आसपास नहीं ठहरने देना चाहिए यह बात वो जानता था इसलिए उसने तुरंत एक वाक्य ओढ़ लिया, 'ठंड तो नहीं लग रही आपको।' मुझे असल में लग रही थी ठंड फिर भी मैंने कहा 'नहीं, मैं ठीक हूँ'। उसने छूटी हुई बात का सिरा थामा और बोला, ' मुझे पोयट्री करने वाले लोग पहचान में आ जाते हैं। मेरी माँ भी पोयट थीं।' एक ठंडी हवा के झोंके ने उस वाक्य के'थीं' की तपिश को सहला दिया। 
क्या हुआ था? मैंने ठहरी हुई आवाज़ में पूछा।
'कोविड...' कहकर वो चुप हो गया। उसकी चुप की उदासी मुझे छू रही थी। मैंने उसकी हथेलियों को थामा। कहा कुछ नहीं।

उसने बात का सिरा बदला और आवाज़ में चहक लाते हुए बोला, 'आप कैसी पोयट्री लिखती हैं?'
मैंने कहा, ' आड्रिक, अभी तुम ऑन ड्यूटी नहीं हो कि खुश रखना तुम्हारा काम हो। ईज़ी रहो।

कुछ देर चुप्पी हमारे साथ चली हवा की आवाज़ और तेज़ और साफ सुनाई दे रही थी। मेरा ठिकाना आने ही वाला था। मुझे वहाँ छोड़कर जाते वक़्त गुड नाइट से पहले आड्रिक ने कहा, 'आप हँसती रहा करिए, अच्छी लगती हैं।'

मैंने उसकी मुस्कुराहट को आँखों में भर लिया और सोचा रिवर्स बैक वाला कॉम्प्लीमेंट नहीं करूंगी। रात नींद देर से आई थी... 

नाश्ते के टेबल पर मैंने उससे कहा, 'तुम्हारे नाम का उपयोग अपनी कहानी में करूंगी।' तुम रोक नहीं सकते। 'श्योर मैम' कहकर वो फिर एक बार नाश्ते के साथ मुस्कुराहट रखकर चला गया। नाश्ते के वक़्त मुस्कुराहटों का यह खेल चलता रहा। जिसका नतीजा यह हुआ कि मुझे ज्यादा खाना पड़ा और दो बार चाय पीनी पड़ी। खुद की ही शरारतों पर खुद ही हँसते हुए वहाँ से निकली।

कुछ देर धूप में बैठने के बाद एक और ट्रैक की तरफ पैर बढ़ गए, बढ़ते गए...अनजान रास्तों की पुकार में अजीब सा आकर्षण होता है, आप रुक नहीं सकते...

(जारी...)

Saturday, April 27, 2024

तुम्हें जिंदगी से क्या चाहिये?


'तुम्हें जिंदगी से क्या चाहिए...?' चायल ने मेरी हथेलियों को थामते हुए पूछा। धूप बिखरी हुई थी उस वक़्त और चिड़ियों का शोर संगीत सा कानों में बज रहा था। हाथों में चाय का प्याला था और सामने देवदार चायल के राजा के किस्से अपनी हथेलियों में छुपाए खड़े थे।

'तुम्हें ज़िंदगी से क्या चाहिए...' सवाल पर मैं मुस्कुरा दी। कोई और पल होता या कोई और मौका तो शायद  अचकचा जाती, भ्रमित हो जाती, थोड़ी उदास भी लेकिन अभी इस लम्हे में यह सवाल ऐसा लगा जैसे किसी बच्चे की गेंद मेरी गोद में आ गिरी हो और मैंने उस गेंद को वापस करने के बहाने से बच्चे के गाल छू लिए हों। मियां चायल की हथेलियों में मुस्कुराकर अपना जवाब रख दिया...'मुझे जिंदगी से चाहिए था यह लम्हा' कहते हुए मेरी पलकें भीगी हुई थीं। तेज़ हवा का झोंका कुछ इस कदर लिपटा मुझसे कि कसकर लपेटी हुई शॉल मनोकामिनी की खुशबू सी बिखरने लगी। देवदार के जंगलों की मुस्कुराहट चाँदनी के गुच्छों समेत सर पर बरस रही थी। उफ़्फ़...वो लम्हा...उसे दर्ज करते हुए भी इस लम्हे में सारे रोएँ खड़े हैं। 

'तुम्हें ज़िंदगी से क्या चाहिए' यह सवाल असल में स्वागत की तैयारी के लिए था। क्योंकि पूरे चायल प्रवास के दौरान ऐसे न जाने कितने लम्हे मिले जिनके बारे में शायद सोचा भी नहीं था। 'यह लम्हा' पूरे प्रवास में बरसता रहा...और हर बार मन यही कहता यह लम्हा...इसे जी लिया फिर ज़िंदगी से शिकायत कैसी।  


कोई राग सुनते हुए हम उस राग की खुशबू में हम डूबे होते हैं लेकिन कोई एक जगह ऐसी आती है जहां रोएँ खड़े हो जाते हैं, आँखें भर आती हैं और लगता है बस...बस यही। कभी-कभी ऐसा नहीं भी हो पाता। ऐसे में सुनने वाले और राग छेड़ने वाले दोनों का एक 'सम' पर होना जरूरी होता है। ठीक ऐसा ही होता है यात्राओं में। तमाम यात्राओं में अब तक यह एहसास सिर्फ तीन बार ही हुआ है जब पूरा वजूद खुद-ब-खुद समर्पण के लिए व्याकुल हो उठा था। यह जादू है, हम चाहें तब नहीं घटेगा इसकी तैयारी होती होगी शायद। नहीं जानती कुछ भी लेकिन उस जादू की खुशबू अब तक पूरे वजूद पर महसूस करती हूँ। 

नहीं जानती थी कि चायल कैसा होगा। चायल और कसौली को चुना था कि भीड़ नहीं चाहती थी, कहीं जाकर कुछ देखने की इच्छा नहीं थी बस कि खुद के करीब होने का जरा सा मन था। 

चायल पैलेस को कुछ दिन का ठिकाना बनाया था। चायल का यह महल महाराजा भूपिंदर सिंह ने क्यों बसाया इसके किस्से तो सबको पता ही होंगे लेकिन एक किस्सा उनके प्रेम से जुड़ा भी सुनने को मिला कि वो जिससे प्यार करते थे उसके लिए यह महल बनाया उन्होंने। सच हो या न हो लेकिन उनकी रंगीनियों के किस्सों के बीच यह प्यार वाली बात सुनना सुखकर तो लगा।  

चायल पैलेस में रहते हुए मैंने महसूस किया मेरी चाल थोड़ी बहक रही है। गर्दन में तनिक बल आ रहा है और आंखों में कोई सुरूर। थोड़ा राजसी महसूस होने लगा था मुझे भी...सोचकर अकेले ही देर तक हँसती रही। 
उस हरे मैदान में देवदार से बतियाते हुए मैं घंटों टहलती रहती। न जाने कितनी बार मेरी खुली हुई हंसी बिखरी उस शाही बागान में। ठंड उम्मीद से ज्यादा थी और सुकून भी। 


कभी-कभी सुकून के इन पलों में होते हुए थोड़ा गिल्टी सा भी महसूस होता है। कि जब दुनिया में इतने मसायल हों, जब बच्चे भूख से लड़ रहे हों, राजनीति कितने ही मासूमों का गला घोंट रही हो, बेवजह सताये जा रहे लोगों की आहों की आवाज़ भी दबा दी जा रही हो ऐसे में खुद के लिए सुकून तलाश करना...यह एक किस्म की लग्ज़री ही तो है। न जाने कितने चेहरे, कितनी आवाजें, कितनी सिसकियाँ, कितनी खामोश डबडबाई हुई आँखें जेहन में तैर गईं। पैर चलते रहे...मैंने चाँदनी से ढंके देवदारों से कहा, सुनो तुम सबके दर्द दूर कर दो न, अपनी ठंडी हवा के फाहे भेजो न उन माओं के दर्द तक जिन्होंने खो दिये हैं अपने बच्चे।' 
माँ का कहा साथ चलने लगा,'जाने किस मिट्टी की बनी है यह लड़की जरा सा जी लेती है तो मरने लगती है।'  

ओवरथिंकिंग का टोकरा उठाए मैं अपने कमरे की तरफ बढ़ ही रही थी कि कानों में गानों की आवाज़ पड़ी। पास ही रुके युवाओं ने कैंप फायर किया हुआ था। अब तक गुड मॉर्निंग और मुस्कुराहटों के आदान-प्रदान भर की दोस्ती हो चुकी थी उन सबसे। एक प्यारी सी लड़की झिझकते हुए मेरे पास आई, 'आप बुरा न मानें तो आप भी हमें ज्वाइन करिए न।' इसके पहले मैं कुछ सोचती वो मेरा हाथ पकड़कर ले गयी। ऊपर से ठंड झर रही थी नीचे जल रही थी आग। 'आप यहाँ आए किसलिए...आपने बुलाया इसलिए' गाने पर बच्चे थिरक रहे थे। दुनिया में इतना कुछ है प्यार करने को, सबको चाहिए प्यार फिर क्यों ये हँगामा बरपा है आखिर। जो समझ लेते हम तो दुनिया में कोई मसायल होते ही क्यों। 

कुछ देर कैंप फायर में आग के उस गोले के आस पास थिरकते हुए मैंने खुद को खुश पाया। ये आज़ाद और खुश लम्हा मैं दुनिया भर की उदास औरतों को तोहफे में देना चाहती हूँ। सबके गले लगना चाहती हूँ। इसके सिवा भला और मैं कर भी क्या सकती हूँ... 

वहाँ से उठी तो देर तक अपने कमरे के बाहर पड़े झूले पर बैठी रही...सर्द हवा मेरा माथा सहला रही थी। 
बिना नींद की दवा के नींद आ गयी लेकिन बीच रात देह पर हरारत महसूस हुई। देखा तो बुखार चढ़ चुका था, सर का दर्द बता रहा था मौसम मन में ही नहीं देह में भी उतर चुका है। बुखार की दवा खाते हुए मैं मुस्कुरा दी। प्रतिभा किसी के प्रेम में हो और उसे बुखार न चढ़े ऐसा कैसे हो सकता है।  

ये हरारत मियां चायल से हुए ताजे-ताजे इश्क़ की खुशबू है जो देह पर तारी है...

जारी...

Friday, April 26, 2024

बात कुछ बन ही गयी

नींद वक़्त से पहले ही आ चुकी थी। हालांकि इन दिनों नींद से मेरे रिश्ते अच्छे नहीं चल रहे हैं फिर भी सफर में मोहतरमा मेहरबान रहीं। मैंने आँख भर शीशे के बाहर टिमटिमाते कसौली को देखा और खरगोश की तरह नींद की चादर में दुबक गयी। 

सुबह उठी तो मौसम बदला सा लगा। एक खुशमिजाजी तारी थी मौसम पर। कुछ शरारत भी। मुस्कुराकर मैंने सुबह को 'हैलो' कहा और लैपटॉप खोलकर बालकनी में कुछ लिखने बैठ गयी। सुबह ने हाथ पकड़कर कमरे से बाहर खींच लिया। मैं सुबह का हाथ थाम कसौली में मटरगश्ती करने निकली। मैंने महसूस किया ये कोई और मैं हूँ। बेफिक्र, शरारती, अल्हड़ और मस्तीखोर। सचमुच शहर छोड़ने से सिर्फ शहर नहीं छूटता चिंताएँ भी छूटती हैं। थोड़े से बोझिल वाले हम भी छूट जाते हैं, एक अनमनापन भी छूटता है। 

होटल की चाय कुछ खास थी नहीं तो सोचा कि किसी टपरी में चाय सुड़की जाएगी। कमरे की बालकनी से जो खेत और जंगल दिख रहे थे उनकी चाह ऐसी हुई कि रास्तों के भीतर रास्तों में घुसते हुए वहाँ जा पहुंची। नयी जगह जाने पर हर अगले पल क्या होगा, कौन सा रास्ता खुलेगा, कौन सा बंद मिलेगा सब किसी रहस्य सा होता है। ये रास्ते कई बार लगा कि लोगों के घर से होकर गुजर रहे हैं। कहीं किसी चूल्हे पर बनती रोटी की खुशबू मिलती कहीं कुकर में उबलते आलू पुकारते। मैं चलती ही जा रही थी। इस बीच बादलों ने भी मटरगश्ती शुरू की और मैंने जंगल और खेतों के ठीक बीच में खुद को भीगते हुए पाया। सच कहती हूँ, देवयानी की ज़ोर से हुड़क लगी, हमारे उत्तराखंड में इसे खुद लगना कहते हैं। हिमाचल में क्या कहते होंगे नहीं जानती। देवयानी का कहा हर शहर में साथ चलता है कि ये लड़की अपनी बारिशें, अपने मौसम साथ लेकर चलती है। मैंने चेहरा ऊपर किया और बाहें फैला दीं। पहाड़ों की बारिशें किसी आशीर्वाद सी लगती हैं जो मन की सारी धुंध को दूर कर दें। मैंने मुस्कुराकर कसौली के मौसम का शुक्रिया अदा किया और बारिश से कहा, 'लौट जाओ प्रिये कि खेतों में अभी पका हुआ गेहूं खड़ा है।' बारिश समझदार थी, सर पर हाथ फेरने ही आई थी जैसे। मुझे बाहों में समेटकर, माथा सहला कर चली गयी। 

अब भीगने के बाद वाली सड़कें, पेड़, पंछी मेरे साथ थे। दूर तक जाती लंबी सड़क पर खुद को रख दिया और कुछ ही देर में खुद को बौराता हुआ पाया। नहीं जानती थी कि ऐसी किसी सुबह का मुझे इस कदर इंतज़ार था। इस पूरी यात्रा में यह बौराहट बढ़ती ही गयी जिसके किस्से आगे भी खूब मिलेंगे। 

ध्यान ही नहीं रहा कि कितनी दूर निकल आई हूँ। दूर निकलने ही तो आई हूँ सोचकर सड़क के किनारे एक पत्थर पर कुछ देर बैठ गयी और चिड़ियों का खेल देखने लगी। थोड़ी देर उन्हें ताकते रहने के बाद लगा असल में वो सब मिलकर मुझे देख रही हैं। वो मुझे देखकर क्या सोच रही होंगी, आपस में क्या बतिया रही होंगी मैंने मन ही मन सोचा और हंस दी। चाय की तलब बढ़ गयी। अब तक जितनी भी दुकानें व गुमटियां मिलीं सब बंद मिलीं थीं तो सोचा चाय मुश्किल है मिलना कि ठीक उसी वक़्त थोड़ा और आगे बढ़ने पर एक छोटी सी दुकान खुलती नज़र आई। मैंने दो चाय ली और जंगल के भीतर समा गयी। अपने भीतर के जंगल से निकलकर कसौली के रास्ते के किनारों पर सजे जंगलों में। जिस चाय में शहर की मोहब्बत घुली हो सुबह की खुशबू उससे ज्यादा अच्छी चाय भला कहाँ मिल सकती है। 

इस शहर को मैंने एक दिन का ठिकाना बनाया था। मुझे कहीं जाना नहीं था, कहीं पहुँचना भी नहीं था बस होना था उन लम्हों में, उन पलों में खुद के साथ। और बीती शाम ही समझ आ गया था कि वो सुर तो लग चुका है. पहले भी कई बार हिमाचल आई हूँ लेकिन मेरा रिश्ता बन नहीं पा रहा था हिमाचल के साथ। टूरिस्ट की तरह जगहें घूमकर लौट जाती रही। सारा दोष मेरा भी तो नहीं रहा होगा, मैंने टेढ़ी आँखों से हिमाचल की तरफ देखते हुए कहा। उसने कहा, 'घूमने आओगी, तो घुमा देंगे और दोस्ती करने आओगी तो गले से लगा लेंगे।' समझ गयी, गलती मेरी ही थी। इस बार घूमने नहीं आई थी हिमाचल के साथ दोस्ती करने, रिश्ता बनाने आई थी। एक और मौका देने खुद को भी और हिमाचल को भी। बात कुछ बन ही गयी सी लग रही थी। 

धूप बिखरी तो सिमटा जरा बिखरा हुआ मन। लौटकर कमरे में लेटे हुए घंटों राग मालकोश सुनती रही। कितना अरसा हुआ ऐसे संगीत और प्रकृति की सोहबत में हुए। पनीली आँखों में कई ख़्वाब उगने लगे थे...चायल की पुकार कानों में घुल रही थी। मैंने कहा, 'ठहरो भी, आती हूँ न तुम्हारे पास। इतनी भी क्या बेसब्री'। तेज़ हवा के झोंके ने बताया कि पैगाम पहुँच चुका है और जनाब चायल इंतज़ार में हैं....

जारी...

Wednesday, April 24, 2024

कसौली की खुशबू ने थाम लिया था...


कसौली के उस छोटे से चर्च में बैठकर जैसे ही आँखें मूँदीं, एक रुकी हुई लंबी सिसकी का एक सिरा खुल गया था। आँखें बंद करने से डरती हूँ इन दिनों कि आँखें बंद होते ही न जाने क्या-क्या नज़र आने लगता है। वो सब जो बीत चुका है फिर-फिर सामने उतराने लगता है। जैसे कोई सिनेमा की रील चल पड़ी हो। लेकिन कसौली के इस चर्च में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। बस बंद आँखों को खोलने का जी नहीं किया, पलकों से बहती लकीरों को समेटने की इच्छा नहीं हुई।

कसौली का वह छोटा सा चर्च किसी पुरानी फिल्म के किसी दृश्य जैसा लग रहा था।कुछ ही लोग थे वहाँ। ज़्यादातर युवा। उनकी मुस्कुराहटें एक-दूसरे को इस कदर थामे हुए थीं, जैसे नेक लोगों ने थामा हुआ दुनिया को। वो मोमबत्तियाँ जला रहे थे, एक-दूसरे की आँखों में झांक रहे थे, ब्लश कर रहे थे। जरूर वो अपने ही किसी रूमानी ख़्वाब में रहे होंगे। चर्च का उदास माहौल इन युवा जोड़ों की उपस्थिती से एकदम रूमानी हो उठा था। उन्होंने एक लम्हे को भी एक-दूसरे का थाम नहीं छोड़ा था। मैं कुछ देर चर्च की सामने वाली बेंच पर बैठी और सामने लगी ईसा  की मूरत को देखती रही।

इस दुनिया को सुंदर बनाने के लिए कितनी कम मेहनत करनी होती है। बस ये जैसी है, उसे वैसी ही बने ही तो रहने देना है। इतना ही तो। लेकिन दुनियादार लोगों ने ठीकरा उठाया और सुंदर सी दुनिया की काँट-छाँट शुरू कर दी। भीतर कोई रोशनी उग रही थी बाहर सूरज ढल रहा था।

ढलते सूरज की तस्वीर लेते हुए मुझे मानस की याद आई। जाने किस शहर में होगा। घुमक्कड़ ही तो है वो। सोचा उसे बताऊँ कि कसौली मे हूँ। खुश होगा। महीनों, कभी-कभी सालों भी बात न होने के बावजूद मानस हमेशा करीब महसूस होता है। शायद इसलिए कि मैं सोचूँ पत्ती तो वो जंगल की बात करे ऐसा रिश्ता है हमारा।

लेकिन मैंने फोन नहीं किया। इस न करने में इतना कुछ गुंथा हुआ है। कितना कुछ बचा लेना है। बात करो तो कितना सारा बोलना पड़ता है।

खुद के लिए एक क्रॉस खरीदा गले में पहनने को और बाहर आकर चर्च की सीढ़ियों पर बैठकर जाते हुए सूरज को देखने लगी। आसपास कुछ लोग थे लेकिन वो शांति को भंग नहीं कर रहे थे।

घर से निकलने से पहले कितने ही ऊहापोह थे, कितनी आनाकानियां। इस पल में वो सब औंधी पढ़ी थीं। मैंने अपनी कलाई को थामा और मुस्कुरा दी।

वहाँ आसपास के लोगों को देखकर सोचने लगी इनके भीतर क्या चल रहा होगा। इन मुस्कुराते चेहरों के पीछे क्या पता कोई उदास हो। क्या मेरी मुस्कुराहटों के भीतर कोई उतर पाया होगा, रंगीन, खूबसूरत तस्वीरों, मुस्कुराहटों और गुनगुनाहटों से जब मैं खुद को ही भरमा रही हूँ तो किसी और का क्या ही कहना।

हम अपने निज में किस कदर कैद हैं...पिछले दिनों यह बात और ज्यादा समझ आई। पहले भी गाज़ा की तस्वीरें देखकर उदास होती थी, किसानों की फसल बर्बाद होने के दर्द को समझती थी, जब कभी किसी भी वजह से किसी के घर टूटने की तस्वीरें देखती थी फफक उठती थी कि बचपन में ही अपना घर टूटते देखना शायद इसका कारण हो। किसान परिवार से ताल्लुक रखना शायद इसका कारण हो कि हर मौसम की बरसात से खुश नहीं होता मन, फसल का खयाल आता है सबसे पहले। लेकिन पिछले दिनों यह सब महसूस होना अपनी सघनता के साथ और करीब आया।

हर रात मेरी आँखों के आगे बेघर हुए लोग, टूटते घर, बिखरते लोग, उदास चेहरे तैरते। अपनी उदासी बौनी लगती इन सबके आगे। 'घर' शब्द को नए ढंग से समझना शुरू किया है फिर से और पाया है कि कसौली के उस छोटे से कमरे में जहां चिड़िया फुदककर बेधड़क कमरे में आ जाया करती थी, कितना सुंदर घर था वो। 

वो हाथ जो मेरे कांधे पर था जिसकी छुअन में हौसला था, वो माथे पर रखा गया चुंबन जिसने कहा था, 'प्यार है' वो आँखें जिन्होंने अपनेपन के कितने ही अर्थ खोले वो सब घर हैं। अलग-अलग शहर में रहने वाले दोस्त याद आए, नहीं घर याद आए।


ओवरथिंकिंग के दलदल में घुसी ही थी कि देवदार मुस्कुराए, हाथ पकड़कर उन्होंने उठाया और पूछा, 'जलेबी खाओगी'। मैं कसौली के उस छोटे से बाजार में जलेबी की तलाश में निकल पड़ी। अजब सी खुशबू थी यहाँ की जलेबी की मिठास में। शायद शहर की खुशबू होगी। 

जलेबी की मिठास लिए मैं इस शहर के हर कोने में घूमती रही, भटकती रही। शांति के फूल मेरे बालों में कब टंके पता ही नहीं चला। अकेले यूं किसी शहर में घूमना कितना सुखद होता है इसे दर्ज नहीं किया जा सकता बस महसूस किया जा सकता है।

चलते-चलते एक कप चाय की ख्वाहिश हुई...रात करीब सरक आई थी...

जारी....

Monday, April 22, 2024

हाँ, हम फिर तैयार हैं

पुराने घर की अंतिम मुसकुराती हुई तस्वीर 

आग का क्या है पल दो पल में लगती है
बुझते-बुझते एक जमाना लगता है....

जाने कितनी बार सुनी यह गज़ल इन दिनों ज़िंदगी का सबक बनी हुई है। अब जब मन थोड़ा संभल रहा है तो इस बारे में लिखना जरूरी लग रहा है। घटना जनवरी के किसी दिन की है। संक्षेप में इतना ही कि सुबह हमेशा की तरह सब ठीक-ठाक छोड़कर, पौधों को पानी देकर, बिस्तर और सोफ़ों के कवर की सलवटों को एकदम दुरुस्त करके, हर चीज़ को करीने से सहेज कर घर से दफ़तर के लिए निकली। यह हमेशा की आदत है। जबसे अकेले रहती हूँ यह आदत बढ़ गयी है। कि वापस लौटूँ तो घर मुस्कुराते हुए स्वागत करे और उसकी बाहों में गिरकर दिन भर की थकान गायब हो जाय। 

उस रोज सारे दिन कुछ ज्यादा ही मन लगाकर दफ्तर के सारे काम निपटाए, कुछ पेंडिंग काम भी। रोज के टाइम पर घर लौटी, दरवाजा खोला...और देखा कि मेरी दुनिया तबाह हो चुकी है। पूरा घर काले धुएँ के गुबार में घिरा हुआ, लपटों में घिरा हुआ। इस बारे में ज्यादा बात नहीं करूंगी क्योंकि बातें अंतहीन हैं, बस कि यह घटना शॉर्ट सर्किट से हुई। एक छोटी सी चिंगारी ने विकराल रूप ले लिया। और एकल जीवन के वासी इस प्रदेश यानि अपार्टमेंट में आसपास कोई था ही नहीं, सब काम पर थे तो किसी को कुछ पता न चला। फायर ब्रिगेड ने आकर आग बुझा दी, कुछ बेहद नेक काम करने वालों ने उस जले हुए मलबे के ढेर को फिर से घर बना दिया भले ही महीनों का समय लगा इसमें फिर भी। दोस्तों ने इस बीच इस कदर बाहों में कसकर रखा कि जले हुए की आंच मुझ तक पहुंचे ही न। किसने रहने का इंतजाम किया, किसने कपड़ों का किसने खाने का कुछ पता नहीं। कब किसने अकाउंट में कितने पैसे भेजे कोई हिसाब नहीं। हर पल इस दुखद घटना के दुख से बड़ा अपनेपन का घेरा संभाले हुए था। अङ्ग्रेज़ी का एक शब्द होता है Gratiude इस घटना ने मुझे इस शब्द में डुबो दिया है। सच है, वो दुख ही क्या जो और विनम्र न बनाए। मन हमेशा भीगा-भीगा सा रहता है कभी दुख से, कभी सुख से।  

तीन महीने बीत चुके हैं और अब भी यह सोचते ही झुरझुरी हो जाती है कि कैसे एक ही पल में न सर पर छत थी, न कपड़े, न खाना। यानि रोटी कपड़ा और मकान सब आग ने छीन लिया। लेकिन जानते हैं इन सबसे ज्यादा बड़ी चीज़ क्या छीनती हैं ऐसी घटनाएँ, हिम्मत, हौसला, आत्मविश्वास। मुझे याद है मैं पापा से फोन पर बात करते हुए रो पड़ी थी कि 'पापा मेरा घर नहीं जल रहा मेरी हिम्मत, मेरा हौसला जला जा रहा है।' 

कारीगरों ने घर बनाने का जिम्मा लिया, दोस्तों ने हौसला बचाने का। वो एक महीना, उसका एक-एक पल एक युद्ध था। खुद टूटी हुई थी लेकिन चाहती थी माँ उस जले हुए घर को न देखें, बेटू न देखे। कि कैसे सह पाएंगे उस हँसते मुस्कुराते हुए घर को एक जले हुए मलबे के ढेर में बदले। खैर, मेरे पास सबसे पहले पहुंची देवयानी। माँ और बच्चे के सामने तो मजबूती से खड़ी थी मैं देवयानी की बाहों ने रो लेने का ठिकाना दिया।   

खैर, इस घटना को साझा करने का कारण 'सहानुभूति', 'आह ये क्या हुआ', 'बेचारी', 'हिम्मत रखो', 'सब ठीक हो जाएगा' जैसे शब्दों से बचते हुए सिर्फ इतना साझा करना है कि घर को लेकर सावधानी रखनी जरूरी है। कोई भी स्विच या, कोई अपलायन्स जरा भी दिक्कत करे तो बिलकुल इगनोर न करें क्योंकि मेरे घर में यह हादसा बंद स्विच में हुआ। हो सके तो घर से निकलते समय एमसीबी गिराकर जाये तो ठीक होगा। लाइट के अलावा गैस सिलेन्डर हमेशा नीचे से बंद करें। पड़ोसी अगर कोई है तो उसके पास एक डुप्लीकेट चाबी जरूर दें। घर का इंश्योरेंस जरूर कराएं, सामान का इंश्योरेंस भी कराएं। लेकिन जीवन है कितनी ही सावधानी बरतें कुछ भी कभी भी हो सकता है की तैयारी के लिए दोस्ती कमाएं। 

अगर आसपास कोई इस स्थिति से गुजर रहा हो तो मदद करें लेकिन जताएँ नहीं, बात करने की बजाय पास जाकर बैठ जाएँ बस। इसी तरह की घटनाओं की कहानियाँ न सुनाएँ। 'अच्छा हुआ कि कोई था नहीं घर में' 'चलो कुछ तो बच गया', या 'उसका तो इससे भी बड़ा नुकसान हुआ था' जैसी बातें कुछ सहारा नहीं देतीं। और 'सामान ही तो जला है' वाक्य का अर्थ कौन नहीं जानता। ह्यूमन लॉस के आगे यह कुछ भी नहीं, फिर भी सामान से भी एक इमोशन जुड़ा होता ही है। 

काफी सारे लोग कई तरह के कयास लगा रहे थे कि हुआ क्या, और मैं इंतज़ार में थी कि जब मन सधेगा तब कुछ कहूँगी। 

इस घटना ने एक बार फिर भीतर एक बड़ा बदलाव किया है...मैं खुद धीरे-धीरे उस बदलाव को देख पा रही हूँ। दुखी नहीं हूँ, उदास भी नहीं हूँ...जीवन मुझे फिर से मुस्कुराकर देख रहा है...और मैं भी उसे। 

चायल ने घायल मन पर कुछ फाहे रखे हैं तो कुछ कहने का मन किया। बहुत लोगों के फोन न उठा सकी, बहुतों के मैसेज का जवाब नहीं दे सकी, लेकिन सबका साथ महसूस किया है यह दिल से कह रही हूँ जानती हूँ आप सब समझते हैं। 

Friday, April 5, 2024

सब ठीक ही तो है


न जाने किस से भाग रही हूँ. न जाने कहाँ जाने को व्याकुल हूँ. हंसने की कोशिश में न जाने क्यों आँखें छलक पड़ती हैं. बात करना चाहती हूँ लेकिन चुप हो जाती हूँ. मुश्किलें किसके जीवन में नहीं भला ये जानते हुए ख़ुद को खुशक़िस्मत महसूस करती हूँ फिर भी हवा का कोई झोंका गले से लगाकर कहता है “तुम रो क्यों नहीं लेती पगली” और मैं उसका मुँह ताकती हूँ कि मैं तो ठीक हूँ न. “ठीक होने में उदास होना, रो लेना शामिल नहीं ये किसने कहा” हवा के झोंके ने सर सहलाते हुए कहा और मैं ख़ामोश हो गई. मैंने सोचा, सपने में बार-बार ट्रेन छूट जाती है, नींद के भीतर ढेर सारी जाग भरी रहती है और जाग में नींद का दखल जारी रहता है ये सब किस से कहूँ इसलिए कह देती हूँ सब ठीक है. लेकिन जिन्हें पता है उन्हें सच में सब पता ही है कि ठीक के भीतर कितना पानी है फिर भी…

Wednesday, March 6, 2024

उम्मीद




एक रोज जरा सी लापरवाही से
उम्मीद के जो बीज
हथेलियों से छिटक कर 
बिखर गए थे

सोचा न था
कि वो इस कदर उग आएंगे
और ठीक उस वक़्त थामेंगे हाथ
जब मन काआसमान
डूबा होगा घनघोर कुहासे में

डब डब करती आँखों के आगे
वादियाँ हथेलियाँ बिछा देंगी
और समेट लेंगी आँखों में भरे मोती सारे

स्मृतियों में ठहर गए गम को
कोई पंछी अपनी चोंच से
कुतरेगा धीरे-धीरे

जब कोई सिहरन वजूद को घेरेगी 
मौसम अपने दोशाले में लपेटकर
माथा चूम लेगा

उगता हुआ सूरज
मुश्किल वक़्त को मुस्कुराकर देख रहा है...

Friday, March 1, 2024

अपनेपन की रोशनी


सांत्वना और सहानुभूति के शब्दों की हथेलियाँ
खाली ही मिलीं हमेशा की तरह
उनके चेहरे पर अपनेपन का आवरण था
उनके दुख जताते शब्दों में
छुपा था एक मीठा सा सुख भी

अक्सर वे कंधे ही सबसे कमजोर मिले
जिन्होंने कंधा बनने की खूब प्रैक्टिस की थी
और जिन्हें अब तक नहीं मिला था मौका
अपनी प्रतिभा दिखाने का

'सब ठीक हो जायेगा' की अर्थहीनता
किर्रर्रर्रर्र की आवाज़ की तरह
कानों को चुभ रही थी

'मैं हूँ न, परेशान न हो' कहकर जो गए
वो कभी लौटे नहीं फिर

इन सबके बीच
कुछ निशब्द हथेलियाँ
हाथों को थामे चुपचाप बैठी रहीं

अंधेरा घना था लेकिन
अपनेपन की रोशनी भी कम नहीं थी।

Wednesday, February 7, 2024

साथ ही साहस है


क्या मैं रोना चाहती हूँ?
क्या मैं उदास हूँ?
क्या मैं दुखी हूँ?
क्या मुझे सांत्वना की दरकार है?

इन सवालों से घिरी ही थी कि कुछ नए सवाल उग आए कि आखिर मैं कितनी उदास हूँ? दुख को परे रख रही हूँ कि दुख बहुत बड़ी चीज़ होता है और वो रोने और आंसुओं के दायरे में नहीं आता, उससे बहुत दूर निकल चुका होता है। 

खैर, पिछले दिनों जीवन में घटी एक आपदा से जो चोट लगी मन पर, जीवन पर उसके बाद से इस असमंजस में हूँ कि क्या मैं उदास हूँ? उदासी की तेज लपटें मुझे झुलसा रही थीं लेकिन दोस्तों के प्रेम की बरसात शुरू हो गयी। 

मुश्किल वक़्त में हमेशा यही जाना कि शब्द नहीं, 'साथ' (पास से या दूर से) ही मरहम है, प्रेम ही मरहम है। 
साथ जो सहानुभूति नहीं साहस लेकर खड़ा होता है, जो हिम्मत और हौसला लेकर खड़ा होता है.

'साथ'...शब्द की ताक़त इन दिनों सांस बनी हुई है। इस बार नयी लड़ाई है...कोंपलें फिर फ़ूटेंगी...उम्मीदें फिर खिलेंगी...

Monday, January 8, 2024

आने से ज्यादा जरूरी है आने की इच्छा

ओ जानाँ,
तुम्हारा आकर जाना 
मुझे प्रिय है 
कि छूट जाती है एक ख़ुशबू तुम्हारे पीछे 
जो डोलती-फिरती है मरे दायें बायें 
तुम्हारे जाने के बाद, 
जैसे तुम डोलते फिरते हो 
आने के बाद. 

तुम्हारे जाने में 
वो जो फिर से आने की
आहट होती है न, 
जैसे कोमल गंधर्व लगा हो मालकोश का

जाकर जोऔर क़रीब आ जाते हो तुम,
वो जो लगता है इंतज़ार का मद्धम सुर,
जो ख़्वाहिशों की पाज़ेब
छनकती रहती है हरदम, 
वो जो जूही की डाल सी 
महकती रहती है मुस्कुराहट
वही जीवन है
वही प्रेम है

हाँ, तुम्हारा आना ज़रूरी है
लेकिन उससे भी ज़्यादा ज़रूरी है 
आने की इच्छा का होना.
मेरे लिये वो इच्छा प्रेम है.

अगर ज़िंदगी के रास्तों पर चलते हुए 
कोई हाथ थामना चाहे तो 
रोकना मत ख़ुद को. 
बस जब बीते लम्हों का ज़िक्र आये 
तो मुस्कुराना दिल से 
मेरे लिये यही प्रेम है.