Saturday, May 4, 2024

अच्छा लगने की उम्र कम क्यों होती है....



बचपन में ड्राइंग बनाते थे। एक पहाड़, एक नदी, एक घर, घर के आगे पेड़ और पहाड़ के पीछे सूरज हुआ करता था। सूरज की किरणें साइकिल की तीली जैसी नुकीली होतीं और पहाड़ समोसे जैसे तिकोने। ड्राइंग की कॉपी में हमने जैसे भी सूरज, नदी, पहाड़ बनाए हों लेकिन उस ड्राइंग ने जीवन में पहाड़, सूरज, नदी, जंगल सब शामिल कर दिये थे। जैसे ड्राइंग का वो पन्ना ज़िंदगी का बढ़ा हुआ हाथ हो...जिसे थामकर आज इन विशाल पहाड़ों  के सम्मुख बाहें फैलाये खड़ी हूँ। ड्राइंग में बनाई वो टेढ़ी-मेढ़ी नदी कब आकर आँखों में बस गयी पता नहीं। पता तब चला जब वो जब-तब छलकने को व्याकुल होने लगी। ये नदी सुख में ज्यादा लहराती है। इस नदी का बहना जैसे टूटती साँसों को संभाल लेना।

गालों पर बहती इस नदी पर सूरज की किरणों का पड़ना कितना सुंदर होता होगा नहीं जानती थी। चायल के उस नगाली गाँव की मुट्ठी में जो सुबह छुपी थी उसके पास हुनर थे तमाम उधड़ी रातों को रफू करने के। ठंडी हवा और मध्धम धूप मिलकर बालों से खेल रहे थे। ऐसी बेफिक्र सुबहें कितनी कम आती हैं। कम क्यों आती हैं भला ये सवाल पूरी दुनिया के लिए है।

कुछ देर सूरज को ताकने के बाद नई पगडंडी पर कदम रखे। यह पगडंडी गाँव के भीतर उतर रही थी। सुबह का जीवन अंगड़ाई ले रहा था। मवेशियों की जुगाली, बच्चों का स्कूल के लिए तैयार होना, औरतों का जल्दी-जल्दी घर के काम निपटाना...बरतन माँजती सुशीला जी के करीब बैठकर चुपचाप उनका गुनगुनाना सुनती रही। वो मुस्कुराकर मुझे देख रही थीं। मैंने हाथ के इशारे से उन्हें गाते रहने का इसरार किया जिसे उन्होंने मान लिया। गाना बर्तन साफ होने से पहले खत्म हुआ और उन्होंने मुझसे हँसकर कहा, 'आपको समझ तो न आया होगा'? मैंने कहा, 'हाँ, समझ तो नहीं आया लेकिन सुंदर था। आप इतनी खुश दिख रही थीं गाते हुए'। उन्होंने बताया कि इस गीत में हिमाचल की खूबसूरती के बारे में बताया गया है। मुझे अपने नरेंद्र सिंह नेगी जी याद आ गए और उनका गाना...'ठंडो रे ठंडो मेरे पहाड़ का पानी ठंडो हवा ठंडी...'.

पेट में भूख की कुलबुलाहट शुरू हुई तो घड़ी पर नज़र पड़ी। ओह दस बज गए। 4 घंटे हो गए यूं आवारगी करते हुए। वापस लौटी तो आर्यन ने पूछा नाश्ते में क्या खाएँगी? मैं अकेली ही रुकी थी यहाँ तो जो मैं बोलती थी वही बन जाता था। इस जो बोलती हूँ बन जाने में कद्दू भी शामिल है।

मैंने कहा, 'क्या बना सकते हो जल्दी से, तेज़ भूख लगी है।' उसने हँसते हुए कहा, 'जो आप कहें।
वैसे छोले पूड़ी बनी है अगर आप खाना चाहें'। उसने सूचना भी जोड़ दी। तेल मसाले के खाने से बहुत दूर रहती हूँ मैं इसलिए छोले पूड़ी का नाम सुनते ही सिहरन सी हो गयी। फिर सोचा चलो कोई बात नहीं आज ये भी सही। उसे कहा 'ठीक है जो बना है वही ले आओ अलग से क्यों बनाना'।
वो खुश हो गया।

जब वो छोले पूड़ी का नाश्ता बालकनी में टेबल पर रख रहा था तब उसने बताया एक और मैडम आई हैं कल रात। उन्होंने ही रात ही बोल दिया था छोले पूड़ी के लिए। वैसे आपको अच्छा लगेगा। मैंने मुस्कुराकर उसके गाल थपथपा दिये। सत्रह बरस का वो किशोर शरमा गया।

छोले सच में अच्छे बने थे हालांकि पूड़ी की साइज़ ने डरा दिया। लेकिन भूख और शायद लगातार चलते रहने के कारण मैं जिन दो पूरियों को देखकर घबरा रही थी आराम से डकार गयी। नाश्ते के बाद वहीं लुढ़क गयी...हाथ में थी 'धुंध से उठती धुन....'साहित्य हमें पानी नहीं देता, वह सिर्फ हमें अपनी प्यास का बोध कराता है। जब तुम स्वप्न में पानी पीते हो तो जागने का सहसा एहसास होता है कि तुम सचमुच कितने प्यासे हो।'

निर्मल को पढ़ना जैसे अपने ही खोये हुए मन को पा लेना। जब सफर के लिए घर से निकली थी तो लोर्का और निर्मल वर्मा साथ हो लिए थे। आज नगाली गाँव के इस कोने में देवदारों की छाया में गुनगुनी धूप में लेटे हुए न जाने कितनी बार पढ़ी हुई इन लाइनों को फिर से पढ़ना सुख दे रहा था। पढ़ते-पढ़ते आँख लग गयी। बालकनी में झुक आई शाखें लगातार पंखा झल रही थीं।
 
मौसम बदला, बदली घिरी और ठंडी हवा ने गुदगुदाया। भीतर जाकर रज़ाई में धंस जाना आह, कैसा तो सुख था। हालांकि नींद जा चुकी थी लेकिन यूं लेटे रहना अच्छा लग रहा था। ऐसा बेफिक्र समय कितना कीमती होता है। कबसे तो चाहती थी कि काश! बस चंद लम्हों को तमाम जिम्मेदारियों से, दुश्वारियों से आज़ाद हो सकूँ।
चाय पीने की इच्छा हुई लेकिन बनाने की नहीं हुई...

घड़ी में सिर्फ 12 बजे थे। एक पूरा दिन सामने था और मैं थी। चाय बनाई और बाहर छाई बदलियों को देख मुस्कुरा दी। स्वाति की आवाज़ में 'कहाँ से आये बदरा...' बजा लिया। फुर्सत तलाशती तो रहती हूँ लेकिन फुर्सत से बनती नहीं है मेरी। वर्कोहलिक का टैग बहुत पहले ही लग चुका है। कमरे से लेकर देह तक रेंगती फुर्सत में स्मृतियों का पानी घुलने लगा। लिखने का सुर तो जाने कबसे रूठा हुआ है लेकिन उस रोज कुछ लिखने का दिल चाहा। लैपटॉप लेकर छत पर चली गई। लिखने का दिल चाहना, लैपटॉप खोलने का अर्थ यह बिलकुल नहीं कि लिख ही पाऊँगी ये जानती हूँ क्योंकि यह खेल अब पुराना हो चला है। खाली स्क्रीन को ताकते रहना, वाक्यों को लिखना मिटाना और हारकर आसमान देखने लगना।

छत बहुत सुंदर थी। कुछ देर तक छत पर टहलती रही फिर लैपटॉप में कुछ तलाशने लगी। तभी किसी के आने की आहट हुई। एक साँवली सी दरमियाना कद की दुबली सी लड़की आई। आँखों से हमने एक-दूसरे को हैलो कहा और मैं लिखने का नाटक करने लगी। अब मैंने खुद पर लिख रही हूँ का लेवल चिपका लिया था और ये किसी ने देख लिया था इसलिए कुछ देर तो यह नाटक चलाना ही था। चेहरे पर बेमतलब के गंभीर भाव ओढ़े मैं शब्दों की जुगाली करने में लगी थी। जाने क्यों लग रहा था वो मुझे ही देख रही होगी। चोर नज़रों से मैंने उसे देखा वो तो मेरी तरफ पीठ करके किसी से फोन पर बात कर रही थी।

लिख रही हूँ के ढोंग से जरा राहत मिली। हंसी भी आई कि कितने आवरण बेवजह ओढ़ने के आदी हम अनजाने ही ऐसा व्यवहार करते हैं जिसकी हमें खुद से भी उम्मीद नहीं होती।

ज़ेहन में कितना कुछ चलता है लिखने बैठो तो एक शब्द पर टिकने का मन न करे...कैसी तो धुंध होती है ये। न लिख पाने की पीड़ा को सहना जबरन लिखने की कोशिश से बेहतर हमेशा ही पाया है। कोशिश करके कभी एक वाक्य न लिख पायी हूँ। हालांकि न लिख पाने की पीड़ा की किरचों की चुभन को खूब सहा है।

'आप कॉफी पिएंगी?' इस वाक्य ने मुझे बेकार के सोच-विचार के दलदल से बाहर खींच लिया। मुझे यह वाक्य बड़ा मीठा लगा इस वक़्त। कॉफी पीने की इच्छा न होने के बावजूद मैंने हाँ कह दिया। इस हाँ में उस लड़की से संवाद के द्वार जो खुलते नज़र आ रहे थे। आर्यन ने अच्छी कॉफी बनाई थी। कॉफी पीते हुए उस लड़की ने अपना नाम बताया, 'मेरा नाम मिताली है। कल रात ही आई हूँ'।

मैंने अपना नाम बताया और उसके चेहरे पर आँखें गड़ा दीं। उस साँवले चेहरे पर उदासी की लकीरें साफ नज़र आ रही थी...उन लकीरों में कई कहानियाँ छुपी थीं...

(जारी...)

5 comments:

  1. सुन्दर संस्मरण

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  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" सोमवार 06 मई 2024 को लिंक की जाएगी ....  http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !

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  3. आपकी हर बात अपनी सी लगती है...लिखती रहिए. अभिनन्दन.

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