Saturday, April 27, 2024

तुम्हें जिंदगी से क्या चाहिये?


'तुम्हें जिंदगी से क्या चाहिए...?' चायल ने मेरी हथेलियों को थामते हुए पूछा। धूप बिखरी हुई थी उस वक़्त और चिड़ियों का शोर संगीत सा कानों में बज रहा था। हाथों में चाय का प्याला था और सामने देवदार चायल के राजा के किस्से अपनी हथेलियों में छुपाए खड़े थे।

'तुम्हें ज़िंदगी से क्या चाहिए...' सवाल पर मैं मुस्कुरा दी। कोई और पल होता या कोई और मौका तो शायद  अचकचा जाती, भ्रमित हो जाती, थोड़ी उदास भी लेकिन अभी इस लम्हे में यह सवाल ऐसा लगा जैसे किसी बच्चे की गेंद मेरी गोद में आ गिरी हो और मैंने उस गेंद को वापस करने के बहाने से बच्चे के गाल छू लिए हों। मियां चायल की हथेलियों में मुस्कुराकर अपना जवाब रख दिया...'मुझे जिंदगी से चाहिए था यह लम्हा' कहते हुए मेरी पलकें भीगी हुई थीं। तेज़ हवा का झोंका कुछ इस कदर लिपटा मुझसे कि कसकर लपेटी हुई शॉल मनोकामिनी की खुशबू सी बिखरने लगी। देवदार के जंगलों की मुस्कुराहट चाँदनी के गुच्छों समेत सर पर बरस रही थी। उफ़्फ़...वो लम्हा...उसे दर्ज करते हुए भी इस लम्हे में सारे रोएँ खड़े हैं। 

'तुम्हें ज़िंदगी से क्या चाहिए' यह सवाल असल में स्वागत की तैयारी के लिए था। क्योंकि पूरे चायल प्रवास के दौरान ऐसे न जाने कितने लम्हे मिले जिनके बारे में शायद सोचा भी नहीं था। 'यह लम्हा' पूरे प्रवास में बरसता रहा...और हर बार मन यही कहता यह लम्हा...इसे जी लिया फिर ज़िंदगी से शिकायत कैसी।  


कोई राग सुनते हुए हम उस राग की खुशबू में हम डूबे होते हैं लेकिन कोई एक जगह ऐसी आती है जहां रोएँ खड़े हो जाते हैं, आँखें भर आती हैं और लगता है बस...बस यही। कभी-कभी ऐसा नहीं भी हो पाता। ऐसे में सुनने वाले और राग छेड़ने वाले दोनों का एक 'सम' पर होना जरूरी होता है। ठीक ऐसा ही होता है यात्राओं में। तमाम यात्राओं में अब तक यह एहसास सिर्फ तीन बार ही हुआ है जब पूरा वजूद खुद-ब-खुद समर्पण के लिए व्याकुल हो उठा था। यह जादू है, हम चाहें तब नहीं घटेगा इसकी तैयारी होती होगी शायद। नहीं जानती कुछ भी लेकिन उस जादू की खुशबू अब तक पूरे वजूद पर महसूस करती हूँ। 

नहीं जानती थी कि चायल कैसा होगा। चायल और कसौली को चुना था कि भीड़ नहीं चाहती थी, कहीं जाकर कुछ देखने की इच्छा नहीं थी बस कि खुद के करीब होने का जरा सा मन था। 

चायल पैलेस को कुछ दिन का ठिकाना बनाया था। चायल का यह महल महाराजा भूपिंदर सिंह ने क्यों बसाया इसके किस्से तो सबको पता ही होंगे लेकिन एक किस्सा उनके प्रेम से जुड़ा भी सुनने को मिला कि वो जिससे प्यार करते थे उसके लिए यह महल बनाया उन्होंने। सच हो या न हो लेकिन उनकी रंगीनियों के किस्सों के बीच यह प्यार वाली बात सुनना सुखकर तो लगा।  

चायल पैलेस में रहते हुए मैंने महसूस किया मेरी चाल थोड़ी बहक रही है। गर्दन में तनिक बल आ रहा है और आंखों में कोई सुरूर। थोड़ा राजसी महसूस होने लगा था मुझे भी...सोचकर अकेले ही देर तक हँसती रही। 
उस हरे मैदान में देवदार से बतियाते हुए मैं घंटों टहलती रहती। न जाने कितनी बार मेरी खुली हुई हंसी बिखरी उस शाही बागान में। ठंड उम्मीद से ज्यादा थी और सुकून भी। 


कभी-कभी सुकून के इन पलों में होते हुए थोड़ा गिल्टी सा भी महसूस होता है। कि जब दुनिया में इतने मसायल हों, जब बच्चे भूख से लड़ रहे हों, राजनीति कितने ही मासूमों का गला घोंट रही हो, बेवजह सताये जा रहे लोगों की आहों की आवाज़ भी दबा दी जा रही हो ऐसे में खुद के लिए सुकून तलाश करना...यह एक किस्म की लग्ज़री ही तो है। न जाने कितने चेहरे, कितनी आवाजें, कितनी सिसकियाँ, कितनी खामोश डबडबाई हुई आँखें जेहन में तैर गईं। पैर चलते रहे...मैंने चाँदनी से ढंके देवदारों से कहा, सुनो तुम सबके दर्द दूर कर दो न, अपनी ठंडी हवा के फाहे भेजो न उन माओं के दर्द तक जिन्होंने खो दिये हैं अपने बच्चे।' 
माँ का कहा साथ चलने लगा,'जाने किस मिट्टी की बनी है यह लड़की जरा सा जी लेती है तो मरने लगती है।'  

ओवरथिंकिंग का टोकरा उठाए मैं अपने कमरे की तरफ बढ़ ही रही थी कि कानों में गानों की आवाज़ पड़ी। पास ही रुके युवाओं ने कैंप फायर किया हुआ था। अब तक गुड मॉर्निंग और मुस्कुराहटों के आदान-प्रदान भर की दोस्ती हो चुकी थी उन सबसे। एक प्यारी सी लड़की झिझकते हुए मेरे पास आई, 'आप बुरा न मानें तो आप भी हमें ज्वाइन करिए न।' इसके पहले मैं कुछ सोचती वो मेरा हाथ पकड़कर ले गयी। ऊपर से ठंड झर रही थी नीचे जल रही थी आग। 'आप यहाँ आए किसलिए...आपने बुलाया इसलिए' गाने पर बच्चे थिरक रहे थे। दुनिया में इतना कुछ है प्यार करने को, सबको चाहिए प्यार फिर क्यों ये हँगामा बरपा है आखिर। जो समझ लेते हम तो दुनिया में कोई मसायल होते ही क्यों। 

कुछ देर कैंप फायर में आग के उस गोले के आस पास थिरकते हुए मैंने खुद को खुश पाया। ये आज़ाद और खुश लम्हा मैं दुनिया भर की उदास औरतों को तोहफे में देना चाहती हूँ। सबके गले लगना चाहती हूँ। इसके सिवा भला और मैं कर भी क्या सकती हूँ... 

वहाँ से उठी तो देर तक अपने कमरे के बाहर पड़े झूले पर बैठी रही...सर्द हवा मेरा माथा सहला रही थी। 
बिना नींद की दवा के नींद आ गयी लेकिन बीच रात देह पर हरारत महसूस हुई। देखा तो बुखार चढ़ चुका था, सर का दर्द बता रहा था मौसम मन में ही नहीं देह में भी उतर चुका है। बुखार की दवा खाते हुए मैं मुस्कुरा दी। प्रतिभा किसी के प्रेम में हो और उसे बुखार न चढ़े ऐसा कैसे हो सकता है।  

ये हरारत मियां चायल से हुए ताजे-ताजे इश्क़ की खुशबू है जो देह पर तारी है...

जारी...

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