ये चायल के नगाली गाँव में मेरी आखिरी सुबह थी। जाने से पहले सारी हवा, सारा हरा अकोर लेना चाहती थी। सिर्फ मैं जानती थी कि कितनी बेचैनियां लिए घर से निकली थी इस सफर के लिए। कितनी अनिश्चितता लिए। ऐसी अनमयस्कता कि कहीं न मन लगे न पैर टिकें। अकेले रहते ऊब जाऊँ तो भी किसी से बात करने का जी न करे। जो कभी कर भी जाय बात करने का जी तो समझ न आए कहाँ से शुरू हो संवाद का सिलसिला। दूसरा संभाले ये ज़िम्मेदारी तो लगे थक गयी सुनते-सुनते। बात करना आजकल बात सुनना हो चला है।
कितनी ही बार दिल किया कि अपने चेहरे से पोंछकर पहचान मिटा दूँ, गुमा दूँ तमाम आवाजें, मुंह फेर लूँ समझदारियों से। मगर ये हो न सका। चंद परछाइयों ने हमेशा पीछा किया, कुछ आवाज़ों ने हमेशा पुकार की जंजीरें से बांधकर रखा, कुछ आँखों ने कभी ओझल न होने का वादा थमा दिया। सोचती हूँ जिन चीजों से भागती रही उम्र भर उन्हीं चीजों ने ज़िंदगी में रोका हुआ है। और ज़िंदगी तो कितनी खूबसूरत है। तो शुकराने में आँखें भर आती हैं उन सब मोह की जंजीरों के प्रति जिनसे भागती फिर रही हूँ।
हाल ही में देखी हुई फिल्म Irish Wish याद हो आई। सच में, हम कहाँ जानते हैं अपने बारे में कुछ भी...जानता तो कोई और है हम तो बस उसे जीते हैं। तो बस नागली गाँव की उस सुबह के आगे बाहें पसार दी थीं।
गाँव सब गाँव जैसे ही तो होते हैं। सीधे, सरल मुस्कुराते। उन पगडंडियों पर एक जगह चारा काटने की मशीन देख बचपन की याद खिल गयी जब चारा मशीन में लटक जाने के बावजूद उसे हिला तक नहीं पाती थी। सर पर चारे का गट्ठा लेकर चलने की जिद हो या कुएं से मटकी में पानी भरकर ले जाने की जिद...हर जिद पर होती अपनी मासूम हार की याद खिल गयी। कितना तो खुशकिस्मत बचपन है जो ऐसी प्यारी यादों से भरा हुआ है।
अभी बचपन की याद का हाथ थाम नगाली गाँव में घूम ही रही थी कि एक अजब सी चीज़ दिखी। कुछ काला गोल जिसमें से धुआँ निकल रहा था और उसमे पानी जैसी टोटी भी लगी थी। पास ही खड़े एक युवक ने बताया यह पानी गरम करने की चीज़ है। भीतर आग जलती हुई किनारे पर पानी जमा होने की व्यवस्था और टंकी से गरम पानी के निकास की तरतीब। यह लोगों का खुद का जुगाड़ है।
इस देश का वैभव अप्रतिम है। बस हम इस वैभव से इतर न जाने कहाँ उलझे हुए हैं और यही है मूल प्रश्न। इन उलझे सवालों के साथ और ज़िंदगी को खूब जी लेने की कशिश के साथ मैं भागती फिर रही थी गाँव में। तभी मेरा पाँव फिसला और सर्रर्रर्र....गिरी तो कोई उठाने वाला भी नहीं था। खुद उठी और खुद की तलाशी ली। दाहिने हाथ की कलाई ने देह का सारा बोझ उठा लिया था सो मैडम दर्द से कराह उठीं। थोड़ी चिंता तो हुई मुझे कि अभी एक लंबा सफर करना है ऐसे में अगर हाथ ने हाथ खड़े कर दिये तो कैसे होगा।
कमरे पर लौटी, हाथ धोया और छिली हुई जगह पर डेटोल लगाया। दर्द मूसलसल जारी थी। पैकिंग करते हुए मुस्कुराहट थी इर्द-गिर्द। कल शाम कहानी में विक्टर ऐसे ही फिसल गया था जिसे देख शैलवी देर तक हँसती रही थी और विक्टर नाराज हो गया था। और आज सुबह मैं फिसल गयी। अब मुस्कुराने की बारी विक्टर की थी।
हाथ में दर्द तो था लेकिन वो मुड़ रहा था और इस बात का सुकून था कि शायद फ्रैक्चर तो नहीं है। कैब आ चुकी थी...चला चली की बेला थी...मिताली आई और मुस्कुराकर गले लगी। मैंने महसूस किया कि वो सिसक रही है। आर्यन बाबू खड़े हुए थे, उनके चेहरे पर मुस्कुराहट भी थी और फिक्र भी। रास्ते के लिए बेसन के चीले पैक करके देते वक़्त आर्यन मूव और पट्टी लेकर भी खड़ा था। मिताली ने मूव लगाया और कॉटन बैंडेज बांधी।
कुछ ही दिनों में कैसे ये अनजान दुनिया अपनी हो चली थी। मैंने आँख भर सामने खड़े पेड़ों को देखा वो लहरा उठे। कैब सड़क पर दौड़ रही थी मन वहीं छूट रहा था....
मेरे पास वक़्त थोड़ा बचा हुआ था, मैंने संतोष को बोला, कसौली होते हुए चलें तो देर तो न होगी। उसने कुछ कहे बिना कसौली की सड़कों पर कैब मोड दी। कैब में उसने अपनी पसंद के गाने बजाए और मुझे सब अच्छे लग रहे थे। कभी-कभी खुद को दूसरों की पसंद के हवाले भी करना चाहिए। कसौली की सड़कों से फिर से गुजरना यूं लग रहा था मानो अपने ही एक ख़्वाब को फिर से छू लिया हो।
संतोष ने एक जगह ब्रेक के लिए कैब रोकी और मैं उस कैफे की छत पर पड़ी खाट पर पसर गयी। करीब 40 मिनट बाद आँख खुली। ऐसी गहरी नींद...ऐसे राह चलते मिलेगी सोचा न था। कसौली होते हुए ही कालका स्टेशन समय से पहले ही पहुँच गयी थी।
वेटिंग रूम में छुपी तमाम कहानियों की स्मृतियाँ कौंध गईं। वापसी की ट्रेन में बैठे हुए देह और मन को जैसे पंख लग गए थे...चलते वक़्त हिमाचल ने नींद साथ रख दी थी।
देहरादून पहुँचकर ऊँघते हुए सुबह की चाय बनाते हुए कलाई का दर्द किसी तोहफे सा लगा...न कोई फ्रैक्चर नहीं था बस जरा सा दर्द था कुछ दिन साथ रहा और फिर चला गया जैसे भेजने आया हो मुझे मेरे शहर तक।
बहुत सुन्दर
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