Saturday, May 30, 2020

याद को कहीं जाने की जल्दी नहीं होती

फोटो- संज्ञा उपाध्याय 

जब याद आती है
तब सिर्फ याद आती है
जिद करती है
कि सब छोड़ बैठो बस उसके ही संग

तुम्हारी याद का चेहरा
ज्यादा सुंदर है तुम्हारे चेहरे से
उसके संग बैठना
है ज्यादा सुखकर
जानते हो तुम?
तुम्हारे साथ होकर भी कई बार
की हैं तुम्हारी याद से बातें

याद को कहीं जाने की
जल्दी नहीं होती
उसके जेहन में नहीं होता
कोई काम
किसी और का ख्याल

तेज़ धूप में बारिश बन बरसती है वो
टपकती है संगीत की धुन बनकर
चाँद बन दमकती है
अमावस की रातों में
थामकर हाथ सुलाती है वो
रात भर सहलाते हुए सर
सुबह के बोसे के संग जगाती है

तुम्हारी याद मुझे कभी तन्हा रहने नहीं देती
हालाँकि जब तुम होते हो पास
बहुत ज्यादा तन्हा होती हूँ मैं.

Thursday, May 28, 2020

रंग गुलाबी था दिन का


बहुत तेज आंधी आई थी आज. देर तक उस आंधी में बाहें पसार कर खड़ी रही. बहुत सारे फल टूटे पेड़ों से, पत्ते टूटे. तेज़ हवा एक जगह के सामान को उठाकर दूसरी जगह रख आई. सोचा था, इस तरह खड़ी रहूंगी तो ये तेज़ आंधी स्मृतियों के अंधड़ को भी उड़ा ले जायेगी. मेरे शहर का मौसम तुम्हारे शहर के मौसम से जब हाथ मिलाएगा तो मेरा संदेशा भी देगा. संदेशा याद का, प्यार का. तुम्हारे दिल की धडकनों को थोड़ा तेज करेगा. शायद तुम्हारे भीतर भी स्मृतियों की हलचल उठे और एक पुकार उठे उस शहर से इस शहर के नाम.

बार-बार बाहर जाती हूँ, हवाओं को टटोलती हूँ. कोई संदेशा तो नहीं इन हवाओं में टटोलती हूँ. नहीं मिलता कोई संदेशा. लौट आती हूँ. समय यूँ भी कम उदास नहीं, उस पर स्मृतियों का यह बवंडर.

बात करने से कुछ नहीं होता फिर भी जाने क्यों बात करने की इच्छा मरती ही नहीं.

गिरे हुए हर पत्ते को उठाकर देखती हूँ
कोई सन्देश तो नहीं
तितलियों से पूछती हूँ उसने कुछ कहा तो नहीं
नम सुबहों से पूछती हूँ
तुम्हारे शहर के मौसम का हाल
अख़बार के पन्ने पलटते हुए सोचती हूँ
क्या तुम भी पढ़ते होगे
मेरे शहर की ख़बरें
और पूछते होगे मौसमों से मेरा हाल
कि रंग गुलाबी था आज दिन का
तुम्हारी भेजी ओढ़नी
रही सर पर दिन भर....

मुझे कविता होने में कोई दिलचस्पी नहीं


सारी धूप पी लेना चाहती हूँ
जो जला रही है
मजदूर से मजलूम बना दिए गए लोगों को

साइकल के पैडल बन
सोख लेना हूँ सारी थकान
कि बेटियाँ बिना थके पहुंचा सकें
पिताओं को घर
और पिता अपने बच्चों को

सारे सांप गले में लपेट लेना चाहती हूँ
सारे बिच्छुओं से कह देना चाहती हूँ
कि आओ मुझे डसो
कवारन्तीन सेंटर का रास्ता भूल जाओ कुछ दिन

रेल होना चाहती हूँ
कि जहाँ सोये हों मजदूर
बदल सकूँ उधर से गुजरने का इरादा
पानी होना चाहती हूँ
कि हर प्यास तक पहुँच सकूं
पुकार से पहले
रोटी होना चाहती हूँ
कि भूख से मरने न दूं
धरती पर किसी को भी

चीख बन गुंजा देना चाहती हूँ समूची धरती को
कि दुःख अब सहा नहीं जाता
आग बन भस्म कर देना चाहती हूँ
कायर, मक्कार धूर्त राजनीति को
मीडिया को, चाटुकारों को

संवेदना और समझ बन उतर जाना चाहती हूँ
हर बेहूदा तर्क के गर्भ में

बच्चों की आँखों में खिलना चाहती हूँ
गुलमोहर की तरह
अमलताश बन सोख लेना चाहती हूँ
मुरझाये, पीले पड़े चेहरों की उदासी
शिव की भांति गटक जाना चाहती हूँ
धरती पर फैलाई गयी नफरत का तमाम विष

बहुमत होना चाहती हूँ
कि पलट सकूँ
मगरूर, हत्यारी सत्ता को अभी इसी पल

मुझे कविता होने में कोई दिलचस्पी नहीं

इरेजर होना चाहती हूँ जो
'सभ्यता' के पहले गहराते जा रहे 'अ' को
मिटा सके पूरी तरह से.

Monday, May 25, 2020

एक दुःख जो लगातार भिगोता रहता है


'मेरे सामने समन्दर है...मेरी आँखों में समन्दर है...मैं दूर तक समन्दर को देखती हूँ...लेकिन महसूस करती हूँ कि नहीं ये मैं नहीं हूँ...मेरी आंसुओं से भरी आँखों को खूबसूरत फूल दिखते हैं, जो अभी खिले नहीं हैं. मैं खुद को लहरों में पिरो देना चाहती हूँ. समन्दर की लहर हो जाना चाहती हूँ. क्यों यह संभव नहीं हो सकता.

मैं जानबूझकर अनखिले फूलों को छूती हूँ. लहरों को महसूस करती हूँ. चिड़ियों से बातें करती हूँ. मैं अपने ख्यालों को जानबूझकर दूर कहीं ले जाती हूँ. लेकिन एक दुःख है जो लगातार मेरा हाथ थामे रहता है. एक दुःख जो लगातार मुझे भीतर से भिगोता रहता है. मैं खुश होने की कितनी भी कोशिश करूँ. क्या इसका अर्थ यह है कि मैं कभी खुश नहीं हो सकती...'

(मारीना पुस्तक से)

Wednesday, May 20, 2020

समय उदास है बहुत


समय के पाँव की बिवाईयां
रिसने लगी हैं इन दिनों
इन बिवाइयों से बह रही है भूख
बीमारी, असुरक्षा, भय

इन बिवाइयों से आवाज आती है
बच्चों के रोने की
स्त्रियों के सुबकने की
पुलिस की लाठी ठीक से पड़े पीठ पर
इसलिए सही ढंग से मुर्गा बनते
और दर्द को चुपचाप पी लेने की आवाज

मवाद पड गया है समय के पाँव में
रक्त के साथ साथ वह भी बह रहा है
दर्द नहीं होता अब, वो बस रिसता रहता है

प्लास्टिक की बोतलें पाँव में बंधकर
चप्पल हो गयी हैं
सूटकेस बन गया है बच्चे को ढोने की गाडी
कंधे जुते हुए हैं बैलगाड़ी के साथ
शुक्र मनाते हुए कि कम से कम
सांस बची है अब तक

समय के पाँव लड़खड़ा रहे हैं
वो अपने चेहरे पर पोत दी गयी
खूनी कालिख क्या धो पायेगा कभी

कैसे मिटा पायेगा कोई
समय के दामन पर लगे दाग
कि एक ऐसा वक़्त था इतिहास में
जब जिन्दा घायल इन्सानों ने
सफर किया था लाशों के ढेर के साथ

बच्चे इतिहास में पढेंगे कि
एक तरफ लोगों ने हौसला बढाने को
बजाई थी थालियाँ
जलाये थे दिए
और उन्हीं लोगों ने नौकरी से,
घर से निकाल दिया था लोगों को
वो मजदूर थे, उन्हें मजलूम बनाया गया
वो स्वाभिमानी थे
उन्हें हाथ फैलाने को मजबूर किया गया

बच्चे पूछेंगे इतिहास की कक्षाओं में
जिन लोगों ने बनायी थीं सड़कें
उन्हें उन सडको पर चलने का हक क्यों नहीं था
जो रेल की पटरियां उन्होंने ही बिछाई थीं
उन्ही पटरियों पर उन्हें जान क्यों देनी पड़ी
जो अनाज उगाया उन्होंने खेतों में
उसी को तरसते हुए भूख से क्यों मर गए लोग

ये दुनिया जिन्होंने बनायी थी
उस दुनिया में उनके लिए ही जगह क्यों नहीं थी
बच्चे पूछेंगे और शिक्षक सोचेंगे
क्या लिखेंगे बच्चे अपनी कॉपियों में कि
उन्हें दिए जा सकें पूरे नम्बर

एक बच्चा कोरा पन्ना छोडकर चला जाएगा
समय की आँख का आंसू उस पन्ने को भिगो देगा...

Sunday, May 17, 2020

कविता कारवां के बहाने कितने अफसाने

- शुभांकर शुक्ला 

कविता कारवां के इस खूबसूरत सफर के बारे में एक दिन लेखा जोखा कर रहा था तो पता चला कि देखते ही देखते कितनी सारी कविताओं की पूंजी जमा हो गयी पता ही नहीं चला। अब तो कभी कभी जब टीवी पर या आसपास किसी सामाजिक , राजनीतिक, सांस्कृतिक मुद्दे पर लोगों को उलझते हुए देखता हूँ तो मन करता है कि उनको धीरे से पास बुलाऊँ और उनके कान में बोलूँ कि आप लोग बेकार की बहस में उलझे हो आपकी समस्या का निदान मैं अपनी पसंद की एक कविता से कर सकता हूँ ।

सच में ऐसा ही है । मैं मसखरी नहीं कर रहा। यहाँ ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि मैं कविता कारवां के चार सालों के सफर में जिन जिन साथियों से मिला और उनकी पसंद की जिन जिन कविताओं को सुना उससे यह निष्कर्ष निकला कि आपकी हमारी बैचनियों को एक अदद कविता बहुत ही आसानी से शान्त कर सकती है। इसको अगर संक्षेप में कहूँ तो कुछ ऐसे कहा जायेगा-

आपकी बेचैनियों का ईलाज
एक अदद कविता
सत्ता की निरंकुशता का जवाब
एक अदद कविता
मजदूर की चुप्पी की आवाज
एक अदद कविता
प्रकृति की देयताओं का निसाब
एक अदद कविता
सभी पाखण्डों का जवाब
एक अदद कविता
आपके हजारों सवालों का जवाब
एक अदद कविता ।।

तो अगर कविता कारवां के चार साल के सफर में कविताओं के सम्बन्ध में मिले अनुभवों को अगर मैं समेटूंगा तो वो कुछ इसी तरह होगा। इसमें जब मैं देहरादून की पहली कविता कारवां की बैठक में पहुंचा तो मैंने गोपाल दास नीरज जी की कविता ‘‘छिप-छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ बहाने बालों कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है’’ सुना कर शुरूआत की थी । उसके बाद खटीमा की एक बैठक में मैने मुनीर नियाजी की कविता (शायरी) पढ़ी थी - ‘‘ हमेशा देर कर देता हूँ मैं , जरूरी बात कहनी हो , कोई वादा निभाना हो ’’। इसके बाद ये सिलसिला जारी रहा और मैंने निदा फाजली जी की कविता/शायरी ‘‘घर से मस्जिद है बहुत दूर चलों यूं कर लें, किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए’’ जैसी कविताओं का पाठ विभिन्न समयों में कविता कारवां की बैठक में किया।

इसी के साथ-साथ विनोद कुमार शुक्ल जी की मेरी पसंदीदा कविता ‘‘हताशा से एक आदमी बैठ गया था, मैं व्यक्ति को नहीं जानता था, हताशा को जानता था। ’’ के बारे में भी कविता कारवां की एक बैठक के दौरान पता चला। महिलाओं को उनकी शक्ति का परिचय कराती मराठी भाषा की नागराज मंजुले की कविता ‘‘ तुम क्यों खिल नहीं जाती गुलमोहर की तरह धूप की साजिश के खिलाफ’’ को मैंने कविता कारवां की बैठकों में अपनी पसंदीदा कविता के तौर पर कविता कारवां की बैठक में अन्य साथियों के साथ पढ़ा। आज की जाति व्यवस्था पर मुखरता के साथ चोट करती अदम गोंडवी के कई कवितायें जैसे - ‘‘आइये महसूस करिये जिन्दगी के ताप को , मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको ’’ मेरी पसंद की सूची में रही हैं। अदम गोंडवी से परिचय पहले से था लेकिन अदम इस कदर धारदार और आम जनमानस को समझ में आने वाली धार के साथ लिखते हैं, यह बात कविता कारवां में मिलने वाले साथियों से पता चली। क्योंकि कई बार ऐसा भी हुआ है जैसे हम किसी कवि को पढ कऱ जैसे ही एक राय बनाते हैं तभी कविता कारवां की बैठक में कोई साथी उसी कवि की अपनी पसंद की कविता लेकर आता था जिससे हमें उस कवि के एक नये पहलू के बारे में पता चलता था। इस तरह की राय मैंने ‘रामधारी सिंह दिनकर’ जी को पढ़कर बना ली थी। रामधारी सिंह दिनकर जी की कवितायें मैं बचपन से पढ़ता आ रहा था क्योंकि मेरे दादा जी के प्रिय कवि हैं रामधारी सिंह दिनकर । घर में रेणुका और रश्मिरथी पहले से मौजूद थी। स्कूल में बचपन से मैं रामधारी सिंह दिनकर जी की ओजपूर्ण कविताओं का पाठ करता आ रहा हूँ। ओजपूर्ण शैली मुझे बहुत लाउड लगती है लेकिन कविता कारवां की एक बैठक के दौरान एक कविता रामधारी सिंह दिनकर जी की हाथ लग गयी जो इस प्रकार है कि -‘‘ तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतालाके, पाते हैं जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखलाके’’ क्ष़ित्रय वही भरी हुई हो जिसमें निर्भयता की आग, सबसे श्रेष्ठ वहीं ब्राह्मण है , हो जिसमें तप त्याग ’’। इस पूरी कविता को जब आप पढ़ेंगे तो आप पायेंगे कि दिनकर ने पूरी जातीय,गोत्रीय खोखली अस्मिता की धज्जियां उड़ा दी हैं।

नागार्जुन की एक कविता जो मुझे बेहद पसंद है -‘‘ तीनों बंदर बापू के - गांधी के भी ताऊ निकले तीनों बन्दर बापू के ’’ नागार्जुन ने ये कविता जिस सन्दर्भ में लिखी है वह बड़ा मजेदार है। इसको कविता कारवां की एक बैठक में नूतन गैराला जी ने सुनाई थी। नागार्जुन की दूसरी कविता जो मुझे पसंद वह है- ‘‘ बहुत दिनों के बाद’’ । इसी क्रम में परिचय हुआ मुक्तिबोध से ,जब खटीमा (उधमसिंहनगर) में साथी सिद्धेश्वर जी ने मुक्तिबोध की कविता ‘‘बेचैन चील’’ का पाठ किया । मुक्तिबोध की शैली मेरे लिए बिल्कुल अलग थी उसके बाद जब मैंने छान बीन शुरू की तो मुक्तिबोध की दूसरी कविता जो हाथ लगी वो थी-‘‘अंधेरे में’’ इस कविता के बारें में कहना चाहूंगा कि जैसे हम अपनी प्यास बुझाने के लिए पानी पीते रहते हैं और एक दिन घनघोर प्यास के बीच आपको अचानक से कोई शिकंजी पकड़ा दे तो बिल्कुल मुक्तिबोध की इस (अंधेरे में) वाली कविता ने कुछ उसी तरह की संतुष्टि दिलायी थी । मुक्तिबोध को पढ़ने के दोैरान उनके जीवन के बारे में पढ़ने को मिला और उन्हीं को समझते समझते परिचय हुआ केदारनाथ सिंह से।

उसी दौरान किसी इंटरव्यू या लेख में मैंने पढ़ा कि मुक्तिबोध के साहित्य से दुनिया का परिचय कराने वाले केदारनाथ सिंह जी ही थे। जब भी मैं केदारनाथ के बारे में पढ़ता था उनके साथ एक बात जरूर जुड़ जाती थी वह बिम्ब से जुड़ी हुई बात थी। इसी बहाने यह भी पता चला कि केदारनाथ जी बिम्बों के इस्तेमाल करने में महारथी समझे जाते हैं। एक गैर साहित्यिक क्षेत्र से आने की वहज से मुझे साहित्य की बारीकियों की समझ नहीं है लेकिन केदारनाथ जी से परिचय के साथ ही अचानक से साहित्य के छात्र जैसी जिज्ञासा जगी जब यह पता चला कि केदारनाथ जी ने ‘‘बिम्ब विधान’’ नाम से एक किताब की भी रचना की है। इन सब चीजों पर अभी भी समझने का काम चल रहा है लेकिन अगर बारीकियों की समझ हो तो चीजें और गहराई से समझ में आती हैं। उनकी दो कवितायें जो मुझे पसंद हैं वो हैं-‘‘हाथ’’ दुनिया को हाथ की तरह गर्म और सुन्दर होना चाहिए । और दूसरी है - ‘‘जाऊँगा कहाँ’’ ऐसा लगता है मानो एक कवि अपने चिरकालिकक अस्तित्व के सम्बन्ध में इशारा कर गया हो। केदारनाथ जी को पढ़ते पढ़ते एक दिन यों ही साथी सुभाष जी से किसी बैठक में कुँँवर नारायण जी के बारे में भी पता लगा। उनकी कवितायें जो मुझे पसंद है वह है जैसे -‘‘अबकी बार लौटा तो वृहत्तर लौटूँगा’’ इसको सुभाष जी ने एक कविता कारवां की बैठक में सुनाया था। दूसरी कविता थी उनकी ‘‘दुनिया में कितना कुछ था लड़ने झगड़ने को , पर ऐसा मन मिला कि जरा से प्यार में डूबा और जीवन बीत गया’’ तीसरी कविता थी ‘‘कविता वक्तव्य नहीं गवाह है’’ कुँवर नारायण की कविताओं में जो मासूमियत भरी ईमानदारी की एक झलक मिलती है वो बरबस ही आपको खींच लेगी।

और इसी के साथ एक बैठक में देहरादून के साथी रमन नौटियाल जी ने परिचय कराया अज्ञेय की कविता ‘‘सांप’’ से । अज्ञेय से भी मेरा परिचय एक उपन्यासकार के रूप में पहले से ही था लेकिन यह बहुत हास्यास्पद भी है कि मैं उस दौरान पहली बार जान पाया कि अज्ञेय कविता भी लिख चुके हैं। ऐसा इसलिए भी हो सकता है कि क्योंकि अज्ञेय के उपन्यासों का मेरे उपर इतना जबरदस्त प्रभाव था कि मुझे दूसरी तरफ देखने का मौका ही नहीं मिला । कभी कोई साथी अगर अज्ञेय पर बात करने के लिए मिला तो यह संयोग ही था कि हमेशा अज्ञेय के उपन्यासों पर ही बात हुई । कभी अज्ञेय के उपन्यासों के सुरूर से मैं निकल ही नहीं पाया लेकिन जब मैंने लगभग तीन साल पहले अज्ञेय की पहली कविता कविता कारवां की बैठक में सुनी तो फिर खोजबीन का सिलसिला शुरू हुआ जिसमें एक से एक बेहतरीन कविताओं से परिचय हुआ। अज्ञेय की कविताओं में जो कविता मुझे सबसे पसन्द है वह है - ‘‘ जो पुल बनायेंगे वो अनिवार्यतः पीछे रह जायेंगें ’’ दूसरी है ‘‘चीनी चाय पीते हुए’’ और इसके अलावा भी हैं लेकिन यहाँ जो कवितायें जुबान पर चढ़ी हुई है उनको मैं प्राथमिकता दे रहा हूँ ।

बीच में कविता कारवां की बैठकों मे हम लोगों ने यह तय किया था कि कुछ बैठकों में हम इन्हीं सब कविताओं के बीच से गुजरते हुए हर कविता कारवां की बैठक में एक थीम चुनेंगे और उस थीम को ध्यान में रखकर लोग अपनी पसंद की कवितायें चुनकर लायेंगे और फिर कावता कारवां की बैठक मे उसी थीम के इर्द गिर्द घूमती कविताओं का वाचन होगा। इसी दौरान ‘प्रतिरोध की कविता ’ की थीम का एक बार चयन हुआ जिसमें हमारी देहरादून की साथी प्रतिभा जी ने कुछ ऐसे कवियों की कविताओं से परिचय कराया जिन्होंने प्रतिरोध की शानदार कवितायें लिखी थीं जैसे गौहर रजा जी , राजेश जोशी जी उनमें से एक हैं। हमारे देश मे लिंचिंग आदि के बहाने हिंसा फैलाने एवं असहमतियों को दबाने की कोशिश की जा रही थी उस समय राजनीतिक हलकों में बैठे असंवेदनहीन लोंगो को आईना दिखाती गौहरा रजा की दो कवितायें बहुत पसंद हैं पहली है- ‘‘खामोशी’’- ‘‘लो मैंने कलम को धो डाला लो मेरी जुँबा पे ताला है’’ और दूसरी है - ’’धरम में लिपटी वतनपरस्ती क्या-क्या स्वांग रचायेगी , मसली कलियां , झुलसा गुलशन जर्द खिंजाँ दिखलायेगी’’ । तीसरे कवि हैं रघुवीर सहाय जिनकी कविता ‘‘दो अर्थों का भय’’ का वाचन अभी कविता कारवां के फेसबुक पेज से नरेश सक्सेना जी ने किया जिसके बारे में मुझे उसी दिन पता चला।

देहरादून की एक बैठक में प्रतिभा जी ने राजेश जोशी जी की कविता पढ़ी वह ऐसे है कि - ‘‘बर्बर सिर्फ बर्बर थे, उनके पास किसी धर्म की ध्वजा नहीं थी ,उनके पास भाषा का कोई छल नहीं था ’’यह कविता समकालीन राजनीतिक , सामाजिक सन्दर्भ में अपनी हर एक लाइन में इतने गहरे अर्थ लिए हुए कि जिसका कोई मुकाबला नहीं । दूसरी मेरी पसंद की कविता है जो राजेश जोशी जी ने लिखी है - ‘‘ जो सच सच बोलेंगे वो मारे जायेंगे’’ ।

इसी के साथ इन चार पाँच सालों में जैसे जैसे हमारे देश ,समाज और राजनीति में परिवर्तन होता रहा उसी हिसाब से हमारी जीवन शैली में, कविताओं के स्वाद में भी अलग अलग फ्लेवर का आनंद कविता कारवां के साथियों के साथ मैं लेता रहा। प्रतिरोध की कविता के खयालों के बीच पिछले चार-पाँच सालों में जेएनयू जैसे संस्थानों की खबरों में रूचि बढ़ने के साथ-साथ दो अन्य कवियों से परिचय हुआ जिसमें पहले थे रमाशंकर विद्राही और दूसरे थे गोरख पाण्डेय । जिसमें रमाशंकर विद्रोही की कविता ‘‘मैं किसान हूँ आसमान में धान बो रहा हूँ ’’ बेहद पसंद है। गोरखनाथ पाण्डे की एक कविता है -‘‘ तुम्हें डर है’’ । इसी सीरीज में जब कोरोना काल में हमने कविता कारवां के पेज से अपने देश के प्रतिष्ठित कवियों को लाइव कविता पाठ के लिए आमंत्रित किया तो उसमें भी कई नई कतिताओं और लेखक के बारे में पता चला जिनमें से अभी तक बस कात्यायनी जी को पढ़ पाया हूँ । आगे कतार में कई नाम हैं इस दौर के नए कवियों की लिस्ट है। धीरे-धीरे सबको पढ़ा जायेगा। फिर किसी एक हिस्से में ‘प्रेम और कविता’ पर लिखा जायेगा। अभी जो नाम छूट जा रहें हैं उनमें शमशेर सिंह हैं जिनकी ‘‘टूटी हुई बिखरी हुई’’ मेरी पसंदीदा कविताओं में से है। कात्यायनी जी की एक कविता जो ’’स्त्रियों कीे दशा को बहुत व्यापकता के साथ चित्रित करती है वह है-‘‘रात के संतरी की कविता’’ इसको अभी कविता कारवां के पेज से लाइव के दौरान जब नरेश सक्सेना जी अपने पसंद के कवियों की कवितायें सुना रहे थे उस दौरान इस कविता का उन्होंने जिक्र किया। तो इस तरह अभी बहुत सारे कवियों को छोड़ना पड़ रहा है । अगली कड़ी में अन्य को जोड़ा जायेगा। 

अभी बहुत बात बाकी है। अभी बहुत कुछ दर्ज होना बाकी है।

(शुभांकर शुक्ला  कविता कारवां के सहयात्री हैं )

Saturday, May 16, 2020

साझेदारी का सुख और मंगलेश डबराल


कविता कारवां पढ़े हुए को दूसरों से साझा करने, जाने हुए से ज्यादा जानने का आत्मीय प्रयोग था. कभी मध्धम कभी तेज़ कदमों से चलते हुए इस प्रयोग में साथी बढ़ते गए. हर बैठक के बाद मैंने महसूस किया कि थोड़ा और समृद्ध हुई हूँ, लगभग हर बैठक के बाद महसूस हुआ कि कितना कम जानती हूँ, कितना कम पढ़ा है. हर बार कुछ नयी कवितायेँ, नयी बातें, मुलाकातें और अपनापन झोली में आ गिरता.
आत्मीयता और सामूहिकता इस कार्यक्रम की बुनियाद रही जो बहुत मजबूत थी कि कैसे-कैसे मुकाम आये, आंधी तूफ़ान आये लेकिन आत्मीयता की मीठी नदी कल कल बहती रही, लोग जुड़ते रहे. हम सचमुच परिवार हो गये. हम एक-दूसरे से हक से मिलते हैं, लड़ते हैं झगड़ते हैं, जिम्मेदारियां उठाते हैं लेकिन साथ नहीं छोड़ते एक दूसरे का. यह व्यक्ति का नहीं समूह का कार्यक्रम बना और इसमें शामिल होते गये देश भर के लोग. कोई एक चेहरा, एक नाम है ही नहीं इस कार्यक्रम का, जो सबका था वो सबका ही होना था.

इस सफर में हमने जिन्दगी के हर रंग साथ में देखे हैं. दुःख के भीषण पलों में हमने एक-दूसरे का हाथ थामा और उम्मीद की कवितायेँ पढ़ीं. त्यौहार मनाये साथ, विपदाओं में साथ रहे, सुख दुःख बांटे, कविताओं की छाँव में जिन्दगी की धूप रख आये...राहत मिली, सुकून मिला. दोस्त मिले. नाराजगियां भी मिलीं जिन्हें भी हमने पलकों पर उठाया लेकिन रुके नहीं...चलते रहे.

यह अपनी नहीं अपनी पसंद की कविताओं का ठीहा है, इसे हमने सादा, सरल बनाने की कोशिशें की. कोशिश की कि आमजन की भागीदारी हो यहाँ, प्रेम हो, साथ हो. ग्लैमर नहीं चाहिए था, शोहरत की दरकार नहीं थी, कोई होड़ नहीं थी, बस साथ का सुख था जिसे बचाए रखना था. सहेजते चलना था.

कोविड-19 के इस विषम समय में जब देह की दूरियां बढीं हम और करीब आये. अवसाद के इस समय का हमने हिम्मत की, उजास की, प्रेम की, प्रतिरोध की कविताओं का हाथ थामकर सामना किया. कर रहे हैं. इसी कारवां में कितनी आत्मीयता से कुछ लोग जुड़ते गए इन दिनों. उन्ही लोगों में से एक मंगलेश डबराल जी हैं.

आज मंगलेश जी का जन्मदिन है. मंगलेश जी ने जब अपनी पसंद की कवितायेँ पढ़ीं तो लोगों को लगा अरे, मंगलेश जी की कवितायें तो सुनी ही नहीं लेकिन उनकी इच्छा पूरी हुई जब अशोक वाजपेयी जी ने और नरेश सक्स्सेना जी ने उनकी कवितायें पढ़ीं. और मुझे मिला एक नायब तोहफा. कि मैंने अशोक जी द्वारा पढ़ी गयी मंगलेश जी की कविता को ढूंढना शुरू किया, वो कविता रात दिन मेरे संग हो ली.'जो हमें डराता है वो कहता है, डरने की कोई बात नहीं है...' कविता नहीं मिली तो मंगलेश जी को फोन कर लिया और उन्होंने बहुत सहज और आत्अमीय भाव से अपना नया कविता संग्रह ' स्मृति एक दूसरा समय है' मुझे भेज दिया. हमें इनसे ये सहजता और विनम्रता भी तो सीखनी है. सोचती हूँ कोई नया-नया प्करसिद्विध हुआ कहाँ बात करता है इतनी आत्मीयता और सहजता से. यह व्यवहार भी तो एक कविता ही है.

मंगलेश जी के इस संग्रह की एक-एक कविता को पढ़ते हुए महसूस होता है यही तो पढ़ना चाहती थी. बस यही. समय के सीने को चीरती हुई कवितायें. धधकती हुई कवितायें, झिन्झोडती कवितायें, मौजूदा समय की आँखों में आँखे डालकर देखती और जवाब मांगती कवितायें.

सेतु प्रकाशन से आया यह संग्रह हम सबको जरूर पढना चाहिए और जन्मदिन की बधाई देनी चाहिए प्रिय कवि मंगलेश जी को. शुक्रगुजार हूँ कविता कारवां की जिसने जिन्दगी को कुछ मानी दिए और इतने सारे प्यारे लोगों से मिलवाया, उनके स्नेह का हकदार बनाया.
जन्मदिन मुबारक मंगलेश जी...

वो चिड़िया क्या गाती होगी...


एक चिड़िया देर से कान के पास शोर कर रही है. यहाँ बहुत सी चिड़िया हैं लेकिन शोर एक ही कर रही है. वो शोर करते हुए क्या कह रही होगी, क्या वो उदास होगी, या गुस्से में? हो सकता हो वो अपनी माँ से किसी बात के लिए जिद कर रही हो...जो पंछी शोर नहीं कर रहे उनके मन में क्या चल रहा होगा? 

जब मैं अपने घर में बैठकर सुबह की चाय पीते हुए पंछियों की आवाजें सुनती हूँ  तो इस सोच में डूब जाती हूँ कि एक ही समय में, एक ही काल खंड में एक सी चीज़ों के अर्थ इतने अलग क्यों होते हैं भला? क्या पंछियों की आवाज फुटपाथ पर सोने वालों, मीलों, कोसों पैदल चलने वालों को भी राहत देती होगी? राहगीरों को लाइन में लगकर खाने के पैकेट लेते वक़्त कैसा लगता होगा? और तब कैसा लगता होगा जब घंटों लाइन में लगकर भी खाना नहीं मिलता होगा.

खाना बांटने वालों को कैसा लगता होगा. जितने दोस्तों को जानती हूँ जो मदद की मुहिम में लगे हैं वो सब भीतर से उदास हैं, बेहद उदास. एक रोज एक दोस्त की ठंडी आवाज को थामने की कोशिश की तो वह बिखर पड़ी. ‘देखा नहीं जाता इतना दुःख, सहा नहीं जाता. जब हम मौके पर होते हैं, पैकेट बना रहे होते हैं, जरूरी सामान जमा कर रहे होते हैं तब ऊर्जा होती है शरीर में लेकिन जब लौटते हैं वहां से गहन उदासी होती है. किसी से कुछ कहने को दिल नहीं करता. यह कैसा समय है. इसकी जिम्मेदारी सिर्फ कोरोना वायरस के मत्थे नहीं मढ़ी जा सकती.’ वो फूट-फूटकर रो पड़ती है.

कितनी तस्वीरें हैं आसपास जो सोने नहीं देतीं, कितने किस्से हैं जो सीने से चिपके हुए हैं. कभी जी चाहता है किसी के पाँव की चप्पल बन जाऊं, किसी बच्चे को गोद में ले लूं, किसी गर्भवती के पाँव दबा दूं किसी को रोक लूं बैलगाड़ी में बैल की जगह जुतने से. कहना सिर्फ कहना होता है जब तक वह करने में बदले. व्यक्ति की तमाम सीमायें हैं, जिन्दगी की तमाम सीमायें हैं और तब हम कुछ पैसा देकर उस कुछ न कर पाने की ग्लानि से मुक्ति पाने की कोशिश करते हैं. महसूस करते हैं कि थोड़े मानवीय तो हैं हम. ठीक भी है लेकिन क्या पर्याप्त है. यह ठीक लगना कब अहंकार में बदल जाता है पता नहीं चलता. इस पर नजर रखना जरूरी है.

मैंने अपने दोस्त से पूछा जब पैसे कम पड जाते हैं और कोई देने से मना कर देता है तो कैसा लगता है, उसने कहा कुछ नहीं लगता. हम दूसरे की तरफ बढ़ जाते हैं. हमारे पास किसने क्यों नहीं दिया, कोई क्यों इतना कठोर है, कोई इस समय में क्यों पकवान की तस्वीरें लगा रहा है, लाइव हो रहा है यह सब सोचने का समय ही नहीं, उनके प्रति आक्रोश तो एकदम नहीं. यह विकट समय है, इस समय भीतर के अवसाद को थामना है और बाहर के सैलाब को. मैं खुद मनुष्य होने की प्रक्रिया में हूँ और इस प्रक्रिया में दूसरों पर ऊँगली उठाना शामिल नहीं है. सबकी अपनी वजहें होंगी, सबके अपने तरीके होंगे. हमें बस कुछ गमछे चाहिए, कुछ चप्पलें. बहुत सारे लोगों को चप्पलों की जरूरत है...’ कहते कहते उसकी आँखे बह निकली थीं...आँखों के बहने को मैंने उसकी आवाज में सुना था.' फोन रखती हूँ अब, रोजा खुलने का वक्त हो रहा है.' कहकर उसने फोन रख दिया. यकीनन फोन के दोनों सिरे सिसकियों से भीगे थे.

मदद, करुणा, दया, परोपकार ये शब्द अपनी अस्मिता को पुनः तलाश रहे हैं. मदद के भीतर अहंकार उगने लगा है, 'मैंने इतने लोगों की मदद की तुमने कितनों की?' या 'आज मैंने इतने पैसे दिए, बड़ा अच्छा लग रहा है कि कुछ कर पाए.'  यह जो अच्छा लगना है इसे कई बार पलटकर देखना होगा. बार-बार. सच में अगर मदद का भाव है तो वो रुलाएगा...बहुत रुलाएगा. 'करुणा...' वो तो हमारे भीतर के खर-पतवार को साफ करने वाला शब्द था न, कैसे वो बाहर की दुनिया में वाहवाही लूटने चल पड़ा. उसे रोकिये, उसे वापस भीतर की यात्रा पर भेजिए. दया, उपकार, कृतज्ञता उठाकर फेंक दीजिये इन शब्दों को. जीवन सबका हक है, सबको वह हक की तरह ही मिलना चाहिए उपकार की तरह नहीं.

मदद करने वालों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित भी क्यों करना. जो लोग इस वक़्त में भी एक-दूसरे को जज कर रहे हैं उनसे मुझे कुछ नहीं कहना. जो लोग चुपचाप काम में लगे हैं, अपने आंसू पोंछते हुए दिन रात कहीं, राशन कहीं, चप्पल, कहीं कपड़े पहुंचा रहे हैं उनसे कहना है कि उनसे प्यार है.

आज ही सोनू बता रही थी कि जिनके घर में वो बर्तन मांजने का काम करती है उन आंटी ने गुरद्वारे में पैसे दिए हैं गरीबों के लिए राशन बांटा है लेकिन मुझे काम से निकाल दिया और पैसे भी नहीं दिए.

ऐसे भी चेहरे हैं मदद के संसार में. क्या वो चिड़िया उन आंटी के प्रति गुस्से से चिल्ला रही होगी. क्या वो अपनी माँ से कह रही होगी कि माँ मेरे हिस्से का दाना उस छोटे बच्चे को दे दो न.

कल पडोस का एक छोटा बच्चा अपने पापा से कह रहा था, पापा अब मैं मैगी नहीं खाऊँगा. आप मेरी गुल्लक के और मैगी के पैसे से उस बेबी को खाना दे दो न जो टीवी में रो रहा था...

Tuesday, May 12, 2020

खुशबू की तरह मिल जायेंगे


बौर अब फलों में बदल गयी हैं. नन्हे नन्हे फलों से लदे पेड़ और उन पेड़ों के पास से आती खुशबू बहुत लुभाती है. बहुत सारी खुशबुए हैं आसपास. लीची और आम के फल लगभग एक साथ बड़े हो रहे हैं. दोनों की डालें एक दुसरे में समायी हुई हैं. कभी ऐसा भी आभास होता है कि लीची के पेड़ पर अमिया उगी हों और आम के पेड़ पर लीची. प्रकृति को इकसार होना आता है, हमें नही आता. हम अपनी-अपनी खुशबू के गुमान में रहते हैं और सोचते हैं हम ही बेहतर हैं. प्रकृति को कोई गुमान नहीं. वो बस खिलने और फलने में यकीन करती है, खुशबू बनकर बिखरने में यकीन करती है. 

कल रामजी तिवारी जी की पोस्ट पढ़ी, शायदा दी की पोस्ट पढ़ी, सुकून हुआ. ऐसी बहुत सी खबरे मिलनी चाहिये जिसमें लोग एक-दूसरे की मदद कर रहे हैं. वैसे यह हमारे देखने की सीमा है या आँखों में झोंक दिए गए दृश्यों की बहुलता कि हम सकारात्मकता गढ़ने और महसूस करने से चूक रहे हैं. जबकि मैं खुद जानती हूँ बहुत से ऐसे लोगों को जो रातदिन मदद में लगे हैं, बिना किसी से कहे वो चुपचाप जितना बन पड़ता है करते जाते हैं. उन्हें कहना पसंद नहीं, कोई पूछे तो मुकर जाते हैं कि कुछ किया भी है और चुपके से रो लेते हैं कि कितना कम कर पाते हैं रोज. ये लोग खबर नहीं हैं, पोस्ट नहीं हैं, लाइक नहीं हैं, कमेन्ट नहीं हैं ये लोग इस दुनिया का भरोसा हैं. इन्हें कोई वारियर भी नहीं कहता, ये चाहते भी नहीं कि ऐसा कुछ कहा जाए लेकिन असल में इंसानियत पर भरोसा हैं ये लोग.

दूर देश नींद के लिए जूझती दोस्त को आज जरूर नींद आई होगी. कल रात रातरानी, मोगरे और मनोकामिनी की खुशबुएँ जैसे मिल गयी थीं न आपस में एक रोज हम सब भी ऐसे ही मिल जायेंगे न? 

Monday, May 11, 2020

उन्हें सिर्फ सरकारी आदेशों से डर लगता था



दफ्तर जाना शुरू हो गया है. अच्छा लग रहा है. काम पहले भी खूब था अब भी खूब है लेकिन घर से निकलना अच्छा लग रहा है. उदास भी कर रहा है. सड़क पर जाने वालों की शक्लें अब नहीं दिखतीं, मास्क दिखते हैं. आँखें दिखती हैं कुछ की, कुछ की वो भी नहीं दिखती. लेकिन देह भंगिमाओं को, आँखों को, चाल को जितना पढ़ पाती हूँ उनमें एक आशंका है, भय है. हो सकता है यह मेरे ही मन की दशा हो जो मुझे बाहर दिख रही है. हो सकता है यह सबके मन की दशा हो. महीनों बाद लोगों से मिलने में भी उत्साह कम भय, सुरक्षा, बचाव ज्यादा है. अनजानी आशंकाओं और भय ने लगता है हमारे भीतर जो अपनेपन की, भरोसे की थोड़ी नमी थी उसे भी सुखा दिया है.

लगा था कि फिजिकल डिस्टेंसिंग के दौर में मन की दूरियां और कम होंगी. हम मन से और करीब आयेंगे. एक दूसरे का ज्यादा ख्याल रखेंगे. ज्यादा कंसर्न होंगे. लेकिन हुआ उल्टा ही. या शायद न भी हुआ है. अभी अभी मन की जो दशा है उसमें तो यही लगता है कि जी भर के रो लूं. न न हुआ कुछ भी नहीं, कि इतना कुछ घट रहा है यह कम है क्या...हमारा निज क्या समाज के बिना बन सकता है. कि है घर में राशन, सिलेंडर, फल, सब्जी सब लेकिन क्या भूख है? क्या नींद है? नींद अगर है तो क्या उसमें बुरे सपने नहीं हैं?

मैं रात भर रेल की पटरियों पर खेलती रही. यह फैंटेसी नहीं है, मेरे बचपन का जिया हुआ कोई लम्हा है जो सपने में ढलकर लौटा है. छुटपन के दिनों में जब माँ के साथ डेली पैसेंजरी करते हुए उनके औफ़िस जाया करती थी तब ही ट्रेन से प्रेम शुरू हो गया होगा शायद. माँ हास्पिटल में काम करती थीं और मैं रेलवे स्टेशन के पास वाले आम के बाग़ में खेला करती थी. मालगाड़ियों से गन्ने खींचने वाले बच्चे भी होते थे. रेल की पटरियों पर कितने खेल खेले हमने. पटरियों पर चलना अलग ही सुख देता था. बिना गिरे कौन चल सकता है एक ही पटरी पर. पटरी पर सिक्का रखकर उस पर से ट्रेन को गुजरते देखना और सिक्के का चुम्बक बनना...रेल की पटरियों की अलग ही फैंटेसी रही है. कि लगता है इन पटरियों में राज छुपा है कहीं जाने का, कहीं पहुँच जाने का. ये जाने किस दुनिया की सैर को ले जाएँगी, वो दुनिया यकीनन इस दुनिया से सुंदर होगी...

तुमसे बिछड़ते वक्त भी मेरा ध्यान इन पटरियों पर ही था...क्या कोई पटरी है जो तुम तक पहुँचती है...

जिन्हें नहीं मालूम जीवन के रहस्य वही पूछ सकते हैं कि 'पटरियां क्या सोने के लिए होती हैं'. ये पटरियां जिन्होंने बिछाई थीं उनसे पूछ रहे हैं आप कि पटरियां क्या सोने के लिए होती हैं. वो जीवन से थके थे. सड़कों से उन्हें वंचित कर दिया गया था, उनके पास भूख थी, रोटियां नहीं. नींद थी बिस्तर नहीं. चलते जाने का साहस था लेकिन सड़कें छीन ली गयी थीं उनसे.

उन्हें पटरियों पे नींद आ गयी...एक ट्रेन उन्हें उनके तमाम सपनों समेत अपने साथ ले गयी. उनकी जान ट्रेन ने नहीं व्यवस्था ने ली, सरकारी फरमानों ने ली...वो जीना चाहते थे. भूख, प्यास, बीमारी, थकान से कम डरते थे वो
ज्यादा डरते थे सरकारी आदेश से. अपनी ही बिछाई पटरियों पर सर रखकर सोना महानगर में जिन्दगी खोने से तो बेहतर लगा होगा न?

रेल की पटरियों पर कितना कुछ बिखरा हुआ है, कितने सवाल हैं, कितनी जवाबदेहियां हैं...इन्हें बटोरने वाला कोई नहीं.  

Sunday, May 10, 2020

ओ अच्छी लड़कियों


फिर यूँ हुआ कि मुझे मेरी ही कविता के फ़ॉरवर्ड्स मिलने लगे. सुबह से 4 बार आ गये अलग-अलग जगहों से. तो नींद से आँखे खोलते हुए यह पोस्ट लिख रही हूँ. यह कविता मेरे पास 2015 में आई थी. मुझे याद है मैंने इसका पहला ड्राफ्ट दफ्तर में लिखा था. बहुत सारी उलझन और बेचैनियों के बीच. फिर यह दैनिक जागरण में छप गयी. फिर इस कविता पर बहुत सारी प्यारी-प्यारी चिठ्ठियाँ मिलीं. फिर इसे दोस्त सुभाष ने हिंदी कविता के लिए रिकॉर्ड करके सरप्राईज किया. असल में यह कविता अपनी यात्रा पर निकल चुकी थी. कभी कभी मैं इसके साथ हो लेती, ज्यादा मौकों पर यह अकेली ही आगे बढती रही. इसी यात्रा में एक रोज यह शुभा मुद्गल और अनीश प्रधान जी से मिली और उन्होंने इसे Serendipity Arts Festival के लिए मांग लिया. उस मौके पर मैं भी गोवा जा पहुंची. दिसम्बर 2018 की बात है यह. चूंकि इस कविता को मुझसे लाइव परफारमेंस के लिए माँगा गया था इसलिए मेरे पास होते हुए भी इसकी कोई रिकॉर्डिंग शेयर नहीं की. अब यह पब्लिक के लिए ओपन हो चुकी है. इस कविता को ओमकार पाटिल ने बहुत मोहब्बत से गाया है.

इसमें पूरी टीम का एफर्ट है. एफर्ट नहीं असल में प्यार है. आज इसका ऑडियो आप सबके साथ साझा कर रही हूँ ओमकार के प्यारे से मैसेज और शुभा जी और अनीश जी के साथ बिताये मीठे पलों की याद के साथ...

O Achchi Ladkiyon'
Happy to got to sing this composition by Aneesh Pradhan, written Beautifully by Pratibha Katiyaar. This song goes to every women in the world. Everyday is a Mother's Day for me.
Serendipity Soundscapes Presents The Maverick Playlist

O Achchi Ladkiyon
Vocals: Omkar Patil
Lyrics: Pratibha Katiyaar
Composer: Aneesh Pradhan

Curator: Aneesh Pradhan
Consultant: Shubha Mudgal
Drums: Srijan Mahajan
Guitarist: Nikhil Malik
Keyboard: Harshit Jain
Flute: Avadhoot Phadke
Harmonium: Purav Jagad
Bass Guitar: Nishant Nagar
Tabla: Siddharth Padiyar
Percussion: Kirti Prabar Das

MUSIC ARRANGEMENT
Nikhil Malik
Srijan Mahajan

Recorded live by Nitin Joshi, mixed by Studio Fuzz

कफस उदास है यारो


परिंदा देर तक चक्कर काटकर उड़ गया
बैठा नहीं शाख पर
जैसे किसी उलझन में रहता है वो
इन दिनों

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कोई किताबों की सूची साझा कर रहा है
कोई सिनेमा के दृश्यों को ढूंढते हुए
भुलाने की कोशिश कर रहा है
वर्तमान समय की दर्दनाक तस्वीरों को
कोई राशन बांटने के बाद लौटता है सिसकते हुए
कि हर रोज कुछ बढे हुए हाथ और सूखी आँखें
खाली ही छूट जाती हैं उससे
खाने बैठता है तो रुलाई फूटती है
फिर वो ढूंढता है गये खुश मौसम की तस्वीर
किसी को लगता है यह कविता लिखने का वक़्त नहीं
यह कहते ही फूटती है उदासी की एक नदी
इन दिनों उदास कविता हाथ थामे चलती है

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उदास मन से चाय बनाते हुए
जब वो बजाता है कोई मीठी धुन
ठीक उसी वक्त उसके भीतर
गल रही होती है बेहद उदास धुन

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पांव दुखते रहते हैं आजकल हमेशा ही
जैसे सदियों से चले जा रहे हों
हालाँकि घर से निकले जमाना हुआ
ये किसकी थकन चली आई है
पैरों में
ये किसकी उचटी नींद है
जो सोने नहीं देती, पल भर भी

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जो नहीं दिख रहे आंसू बहाते
उनके दुःख को भी समझो
कि दुःख आंसुओं से बहुत बड़ा होता है.

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जो लड़ते हुए नजर नहीं आ रहे
वो भी हो सकते हैं गहन लड़ाई में
कि 'सुख' लिखना 'दुःख' से लड़ने का
ढब भी तो हो सकता है.

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फोन पर बात करते हुए
हंस रही है जो लड़की
अभी-अभी उसने पोछे हैं आंसू
और बालों में लगाये हैं मोगरे के फूल
बस कुछ देर पहले
सिसकियों में गोते लगा रही थी वो

Saturday, May 9, 2020

मुबारक


तुम तक पहुंचना चाहती हूँ
तुम्हारे तसव्वुर को हथेली पर लेकर
हर रात निकल पड़ता है मेरा मन
दहलीज के उस पार....

तुम्हारे शहर की हवाओं में
घुल जाना चाहती हूँ,
तुम्हारे कंधे पर गिरने वाली ओस
बनना चाहती हूँ
जिन रास्तों पर भागते फिरते हो तुम
उन रास्तों के सीने में समा जाना चाहती हूँ.

बारिश होना चाहती हूँ
तुम्हारे घर से निकलते ही
तुम पर बरस पड़ने को बेताब
जानती हूँ तुम्हें आदत नहीं है
रेनकोट रखने की...

धूप होना चाहती हूँ कि
अपने भीगे हुए मन को सुखाने
तुम मेरे ही सानिध्य को तलाशो
और मैं छाया बनना चाहती हूँ
कि तेज़ धूप से तंग आकर
तुम मेरी तलाश में दौड़ पड़ो...

धड़कन बनना चाहती हूँ
तुम्हारे सीने में बस जाना चाहती हूँ
हमेशा के लिए
कि ये देह छूटे भी तो मैं
जिन्दा ही रहूँ...

तुम्हारी आवाज होना चाहती हूँ
कि जब मौसम आलाप ले रहा हो
मैं तुम्हारे कंठ से सुर बनकर छलक उठूं,
इन्द्रधनुष होना चाहती हूँ
कि हमेशा पहनो तुम मेरा ही कोई रंग

चाँद होना चाहती हूँ
कि तुम्हारे साथ रहूँ हमेशा
सितारे होना चाहती हूँ
कि तुम्हारा व्यक्तित्व
झिलमिलाता रहे हरदम...

नदी होना चाहती हूँ कि
तुम्हारी प्यास मेरे ही किनारों पर बुझे,
पहाड़ होना चाहती हूँ कि
तुम्हारे भीतर मेरे होने का अर्थ हो
तुम्हारा विराट व्यक्तित्व

नहीं, मैं दीवारों में कैद नहीं होना चाहती
मत, रोकना मेरी ख्वाहिशों के विस्तार को
मै तुम्हें लेकर आसमान में उड़ना चाहती हूँ
मै कुछ भी नहीं चाहती तुम्हारे बिना
'तुम' आखिर 'मैं' ही तो हो...

दिन मुबारक!

Friday, May 8, 2020

questions by our future generations


- Khwahish

When was the last time when we realized that we have stopped being humane? When was the time when we threw all our sensitivity in trash? When are we going to understand that we are arguing wrong issues at wrong time. We are suffering from a pandemic and still what we are doing is finding a Hindu Muslim angle. This is annoying that even in such difficult times we just can not stop being dumb. Why is the Muslim angle to this pandemic being raised again and again?When are we going to see them as just normal people and not as a religious identity? I condemn the act done by them but by 'them' I refer to those 'people' regardless of their religion. And if religion is such a passionate aspect then why are we not discussing the same actions carried out by Hindus? Where was this debate when Hindu Mahsabha organised the party. And why is the media exaggerating these topics? Is media's work to provide us with information or provide us with hatred?

When will we be finally open our eyes and stop being dummies? When are we going to behave like civilized people. None of the religion promotes either stone pelting or hatred towards the other people.

The role of police in the past few time has been disappointing at many circumstances and as individuals our angst towards wrong deeds is worth it but is this the right time and right way to rebel against them . Whatever happened , in today's scenario they are putting their lives on stake. Can't we just cooperate.If we would be sensitive this war against virus would have been much smoother.

It is not the time when we play the blame game. It is the time when we start re evaluating the importance of life. This time has made a lot of us value life more , as we miss our life. Its the time when we realize that we are more than privileged that we have roofs and food. While we all make new dishes everyday it is necessary to keep in mind that we are privileged because there are people out there who are struggling for a single meal.

People may die, communities may die,maybe we all do. But these questions are not going to be dead . These questions are going to be raised again and again by us by our future generations.

These questions themselves will rebel.

Tuesday, May 5, 2020

खिलने दो न असहमति के सौन्दर्य को


लॉकडाउन खुल रहा है धीरे-धीरे. तुम्हारे शहर में भी तो खुला होगा न? मैं गयी थी बाजार कुछ जरूरी सामान लेने. पूरे 42 दिन बाद बाज़ार. अजीब उहापोह थी मन में. बाजार जाते ही खत्म हो गयी. इतनी भीड़ थी वहां कि बिना कुछ लिए ही वापस आ गयी. अब इसी तरह जीने की आदत डालनी होगी. आर्थिक स्थिति डांवाडोल पहले ही कम नहीं थी अब और बंटाधार होगा इसका. शराब की दुकानों पर लगी लाइनें मजाक और विमर्श का विषय नहीं हैं विमर्श का विषय है सरकार की वह मजबूरी जो पहले तो पूरे देश को घरकैद कर देती है सुरक्षा के नाम पर और फिर जरूरी दुकानों और दफ्तरों को कुछ नियमों के साथ खोलने की बात करती है और उस जरूरी की लिस्ट में शराब को रख देती है. क्यों? विमर्श का विषय है कि जब समूची दुनिया कोरोना से लड़ रही थी क्यों सरकार भूली नहीं अपना जातिवादी, धर्मवादी एजेंडा और चुन-चुनकर लोगों को जेल भेजती रही, केस ठोंकती रही. कहीं कोई चर्चा भी न हुआ. काम भी हो गया. कोविड की आड़ में क्या-क्या न झोली किया सरकार ने. अजीब बात है न? वैसे इतनी अजीब भी नहीं. अजीब और बहुत कुछ चलता रहता है इन दिनों. जैसे हम इतने जजमेंटल क्यों हैं. किसी के बारे में, किसी बात पर राय बनाने को लेकर इतनी जल्दी में क्यों रहते हैं. या तो किसी के गले में लटक जाने तक सहमत होते हैं या पिस्तौल तान देने की हद तक विरोध में खड़े हो जाते हैं. दुखद है यह. हम असहमत हो सकते हैं लेकिन उन बारीकियों को समझते हुए कि क्यों हैं असहमत. बिना किसी को कटघरे में खड़ा करे. हमारी किसी से असहमति हमारे सोचने की लेयर्स का अंतर भी हो सकता है. मुझे तो लगता है मेरी कम समझी भी हो सकती है. जानती ही कितना हूँ. अपने जाने हुए का विस्तार मुझे हमेशा असहमतियों के बीच ही मिला है.

मैंने बताया था न तुम्हें मैं मोनिका कुमार को पढ़ रही हूँ इन दिनों. अपने भीतर कुछ उगता हुआ लगता है उन्हें पढ़ते हुए. मेरे कम जाने को विस्तार जैसा. या जाने हुए का ज्यादा जानने की ओर बढाने जैसा. पिछले दिनों फिल्म थप्पड़ पर उनके लिखे को लेकर काफी चर्चा है. मैंने बताया था न तुम्हें उस लेख के बारे में. हाँ वही थप्पड़, मुझे पसंद नहीं आई. उस लेख में थोड़ा अतिवाद तो लगा था मुझे भी. कि आप एक फिल्म से कितनी अपेक्षा रख सकते हैं. बौलीवुड ने तो न जाने कितने संवेदनशील विषयों पर फ़िल्में बनाकर उनकी ऐसी तैसी की है और खूब पैसा भी कमाया है. चाहे वो वर्क प्लेस पर सेक्स्सुअल हैरसमेंट को लेकर बनी हो, दहेज के झूठे मामले में फंसाने वाली फिल्म हो, स्त्री को काम पर जाते और पुरुष को घर पर काम करते दिखाने वाली फिल्म हो. फिल्मों से बहुत उम्मीद नहीं की जा सकती हालाँकि की जानी चाहिए. फिर भी जो थोडा बहुत सहयोग किया है फिल्मों ने उसके जरिये हम विमर्श को सहज ढंग से आम लोगों तक ले जाने में इस्तेमाल कर ही लेते हैं. थ्री इडियट, अस्तित्व जैसी फिल्मों को एकेडमिक सेशंस में इस्तेमाल होते देखा ही है. देखा तो मृत्युदंड को भी है.

मुझे भी फिल्म तो अच्छी नहीं लगी थी लेकिन यह अच्छा लगा था फिल्म में कि इसे देखकर यह विचार आना कि यह तो कितना कम है, जीवन में तो इससे कितना ज्यादा सहते हैं हम...और यह विचार ही इस फिल्म के बाद हर स्त्री के मन में आये, सोया हुआ अस्मिता बोध थोडा करवट ले तो भी कम नहीं. और पुरुष? उनका क्या? यह फिल्म पुरुषों के लिए भी तो थी न कि वो याद करें, महसूस करें कि जीवन भर साथ रह रही स्त्री को कितना कम समझ सके हैं वो, कितना कम हो सके हैं उसके मन के साथ.

मन, अपना मन, उसके साथ खड़े होना, दूसरे के मन को समझना ये सब अभी बहुत बड़ी बातें लगती हैं. तभी तो मुझे लगा था कि अमु तो खुशकिस्मत है उसे पड़ोसन भी समझ लेती है, उसकी भाई की गर्लफ्रेंड भी, पिता भी.

प्रोफेसर पिता बेटी को कैसे हाउसवाइफ होने देने से खुश हो सकता है? जबकि प्रोफेसर, अफसर, डाक्टर, इंजीनियर, सीईओ, आईएएस और लेखक पिताओं, पतियों की जड़ताएं कहाँ छुपी हैं भला.

मोनिका सोशल कंस्ट्रक्शन की बात करती हैं, ज्यादा गहरे उतरकर पड़ताल करती हैं. वो शायद सिर्फ फिल्म की बात नहीं करतीं, 'शायद' शब्द की आड़ ले रही हूँ शायद यह मेरे कम समझे को संभाल लेगा. वो फिल्म के बहाने पूरे समाज की पड़ताल करती हैं. वो छुटपुट चीज़ें से बहल जाने के खिलाफ दिखती हैं उनमें समुच्य में बदलाव की जो इच्छा है वो मुझे बहुत अच्छी लगती है. इतनी बड़ी इच्छाओं की मुझे तो शायद हिम्मत ही नहीं हुई कभी. जरा जरा सी चीज़ों में खुश हो ली मैं तो. लेकिन बड़े बदलाव के लिए बड़ी इच्छा होना लाजिमी है हालाँकि वो छोटे छोटे रेशों से होकर ही बड़ी होगी, परिपक्व होंगी इसमें भी कोई शक नहीं. बावजूद इसके एक फिल्म से इतनी अपेक्षाएं कुछ ज्यादा ही लगती हैं.

स्त्री विमर्श का डिब्बा बड़ा है. कई स्तर पर बात करनी होगी, कई तरह से. हर किसी को साथ लेकर चलना होगा. तो मोनिका बात गलत नहीं करतीं बस वो फिल्म के बरक्स उस बात को रखती हैं तो अतिवाद लगने लगता है.

चलो, असहमत ही हो लेते हैं. लेकिन हम असहमत होते ही युद्ध में क्यों उतर जाते हैं. वो हमकदम हैं, हमविचार हैं. वो भी हमारी तरह स्त्री मुक्ति का सपना देखती हैं. गहराई से समझती हैं मुद्दों को. उनसे कितना कुछ सीखने को मिलता है. हमारे कितने अनकहे को शब्द देती हैं. तो सलीके से असहमत ही हो लेते हैं. बात कर लेते हैं, सुन लेते हैं.

लेकिन देख रही हूँ मोनिका की तरफ निशाना साधते नजर आ रहे हैं लोग. हम सब स्त्री मुक्ति का सपना देखने वाली स्त्रियाँ अगर दोस्त नहीं हैं तो कौन सी स्त्री मुक्ति, किससे. क्या हम असहमतियों का सम्मान करना नहीं सीख सकते. असहमति की भाषा इतनी तल्ख क्यों.

मैं तो सबसे सीखने की कोशिश करती हूँ. सबको पढ़ती हूँ. ज्यादा कुछ जानती भी नहीं हूँ लेकिन इतना तो समझ ही सकती हूँ कि हम सब एक ही सपने को आँखों में लिए हैं, एक ऐसा समाज जहाँ स्त्री पुरुष दोनों अपनी मर्जी को पहचानें और उसे जीने की ओर कदम बढ़ाएं. बिना एक-दूसरे के प्रति आफेंसिव हुए. क्या यह इतनी बड़ी बात है.

मैं एक पोस्ट पर मोनिका से आंशिक असहमत हूँ लेकिन उनके साथ हूँ. क्योंकि मैं जानती हूँ उनकी आँखों में भी वही सपना है जो मेरी आँखों में है. उनके साथ होने का यह अर्थ कैसे मान लिया कि जो उनसे असहमत हैं मैं उनके साथ नहीं हूँ. असल में हम सब साथ ही हैं. होना चाहिए. सब दोस्त ही हैं असहमति आरोप की तरह नहीं, अपनी बात रखने की तरह हो तो अच्छा होता है न ?

देश खुल रहा है, दफ्तर खुल रहे हैं, दुकानें खुल रही हैं हमारे जेहन कब खुलेंगे? खुलना सिर्फ ज्यादा चीजों को जानना नहीं होता, खुलना ज्यादा जानने के बाद असहमति की यात्रा तय करते हुए भी सह्रदय और विनम्र होना ही जाना है.

दो अलग रंग और आकार वाले फूल अलग खुशबू वाले फूल अलग-अलग तरह से एक ही काम करते हैं दुनिया को सुन्दर बनाने का, महकाने का. ऐसा विचारों के साथ क्यों नहीं हो सकता भला?

Sunday, May 3, 2020

ये मेरा घर ये मेरा घर...


आज सुबह में थोड़ा हल्कापन महसूस हो रहा है. थोड़ी ख़ुशी. आज मुझे 'अपने घर' में आये हुए एक बरस हो गया. पिछले बरस इन दिनों महसूस करना लगभग थमा हुआ था. पैर चक्करघिन्नी हो गये थे और दिमाग में जैसे एक साथ हजार हिसाब किताब चल रहे होते थे. मैं उन दिनों बहुत खुश नहीं थी. बस रोबोट की तरह काम करती जा रही थी. 'मेरा सपनों का घर' जैसा कोई सपना नहीं था मेरा. इसलिए घर मेरी ख्वाहिशों की फेहरिस्त में काफी नीचे ही था. जिन्दगी के उतार चढ़ाव और माँ-पापा की इच्छा कि 'तुम्हारे सर की छत सुरक्षित हो जाए' ने घर बनाने की ओर बढ़ा दिया.

घर में आने के बाद दोस्त पूछते कैसा महसूस कर रही हो तो मैं कहती कुछ महसूस नहीं हो रहा फिलहाल. महसूस होना हमेशा वक्त लेता है. पिछ्ले बरस की भागमभाग इस बरस का ठहराव बनी, महसूस करना बढ़ा. घर के मायने क्या थे मेरे लिए, पंछियों से बातें करने का ठीहा, बादलों को आते-जाते देखने की फुर्सत, एक कोना जहाँ संगीत सुना जा सके, एक कोना जहाँ पढ़ा जा सके, जहाँ देर तक जागा जा सके, सुबह की चाय पीते हुए अलसाया जा सके देर तक...बारिशों को हथेलियों पर लिया जा सके. जहाँ देह ही नहीं आत्मा भी बिंदास घूमती फिरे, कोई क्या कहेगा की फ़िक्र से परे. जहाँ दोस्तों की आमद हो, खिलखिलाहटें हो... ये कुछ ज्यादा फैंटेसी नहीं हो गयी?

जिस दुनिया में स्त्रियों को अपने लिए एक कोना न मिलता हो, अपनी मर्जी की सब्जी बनाना उनकी लिस्ट से गायब हो चुका हो और पति व बच्चों की पसंद ही उनकी पसंद में ढल चुकी हो, जहाँ कपडे वो मोहल्ले वालों के हिसाब से पहनती हों और सोना जागना, मुस्कुराना घरवालों के हिसाब से होता हो स्त्रियों के जीवन में और जहाँ लॉकडाउन में घर का अर्थ बढती हुई हिंसा के आंकड़ों में दर्ज हो वहां मेरी ख्वाहिशों के घर का सपना तो फैंटेसी ही हुआ.

मुझे लगता है चीज़ें उतनी मुश्किल होती नहीं जितनी लगती हैं. बस इतनी सी ही तो बात होती है कि खुद की ख्वाहिश को पहचानो और उसके लिए थोड़ा एसर्ट भी करो. लेकिन यह छोटी सी लगने वाली दो ही बाते बहुत बड़ी हैं असल में. स्त्रियों को खुद को महसूस करने, खुद के लिए वो सपने देखने जो प्रयोजित न हों, और अगर वो देख लें तो उसके लिए एसर्ट करने की कोई गुंजाईश नहीं छोड़ी जाती. सफ़ेद घोड़े पर आने वाला राजकुमार जाने किसने उनके सपनों में बो दिया कि हर लड़की वही सपने देखने लगी, पिया का घर प्यारा लगे के गीत गाते हुए झूमने लगी, सबकी इच्छाओं के लिए रसोई में पकवान बनाने में सुख महसूस करने लगी और फिल्मो और धारावाहिकों में परोसी जा रही स्त्री किरदारों में खुद को देखने लेगी.

मैं भी तो ऐसी ही थी न. मैंने भी तो सर पर पल्ला लेकर तुलसी चौरा की पूजा करने वाली करवाचौथ के व्रत रखने वाली और दूसरों की ख़ुशी के लिए दिन भर रसोई में खटने वाली भूमिका दिल से निभाई. उसी में जीवन का समस्त सुख महसूस करने की कोशिश की. बारिश तब भी थी, फूल तब भी तो खिलते होंगे, पंछी तब भी तो गुनगुनाते होंगे मुझे सुनाई क्यों नहीं देते थे.

ऐसा नहीं कि अब मैं दूसरों की ख़ुशी को महत्व नहीं देती लेकिन उसके कारण खुद को एक्सप्लॉइट करना अब बंद कर दिया है. बस इतना ही.

हमें खुद को एक्सप्लोर करना सिखाया नहीं जाता, लेकिन हमें सीखना चाहिए. उसकी कीमत चुकानी पड़े तो चुकानी चाहिए. अपनी जिन्दगी और अपनी ख्वाहिशों की ओर हाथ बढ़ाना सीखना ही होगा. ये घर उसी का हासिल है. मेरे लिए घर का अर्थ विशाल भव्य किसी आलीशान हवेली नहीं है बल्कि वो कोना है जो मेरा है...मेरा अपना कोना.

इस मेरे अपने में मैं ही हूँ, कोई घालमेल नहीं. और मुझमें मुझे उगाने की शुरुआत प्रेम ही तो है. खुद से प्यार करना सिखाया तुमने जबसे तबसे मैं बदलने लेगी. प्रेम लिजलिजा नहीं बनता, मजबूत बनाता है. सहमी, घबरायी, सबकी बात मानने वाली अच्छी लड़की से मुक्ति मिली मुझे. कितना सुख है इस आज़ादी का.

वो आज ही का दिन था जब घर में पुताई और लकड़ी आदि का काम खत्म हुआ था. मैं अपने घर की दीवारों को रंग देने वालों, इनमें खिड़कियाँ खोलने वालों के प्रेम में थी. काम खत्म हुआ तो मैंने उनसे कहा आप लोगों के साथ ही पार्टी करनी है मुझे. और तो किसी को बुलाना नहीं है आप लोग आइयेगा....मेरी आवाज में मेरे मन के भाव एकदम से छ्लक रहे थे. उन लोगों को यकीन नहीं हो रहा था मेरी बात पर. क्यों नहीं हो रहा था यकीन. यह घर उनका भी तो है न जिन्होंने इसे बनाया. हर ख़ुशी में कमरे के हर रंग में हर कोने में उनकी बसाहट है. मैं उन्हें याद करती हूँ.

रंगों से घर को सजाने वाले, गम्भीर मुझे समझने लगे थे, वो कहते आपको जंगल से प्यार है न आपकी बालकनी में जंगल वाला टेक्सचर करूंगा एक दिन, आपके कमरे में आसमानी रंग और चिड़िया होनी चाहिए...हरा कितना हरा, नीला कितना नीला...उसे पता था. क्या तुम्हें पता है मुझे कितना नीला चाहिए?

सरफराज, मुनीर, फैजल, आलिम और गम्भीर आज भी मेरी याद में हैं. अभी गंभीर से बात कर बताया उसे 'आज ही तुमने मेरा घर सजा संवारकर सौंपा था...याद है?' उसे याद तो न होगा कि यह उसका काम है, वो बहुत घर सजाता है, सौंप देता है. लेकिन मेरे फोन से वो भावुक हो गया....भावुक तो मैं भी हूँ वैसे.

उन सब दोस्तों को शिद्दत से याद कर रही हूँ जिन्होंने हमेशा हाथ थामे रखा...मुझे जिन्दा रखा और खुद के लिए सपने देखने की ओर धकेला... घर जीने की इच्छा का ही तो नाम है न?

Saturday, May 2, 2020

पंछियों की आमद सुकून है


कल सारा दिन जररररर्र से निकल गया. किया क्या कुछ याद नहीं. लेकिन बेजारी सी रही हर वक्त. इतनी बेजारी कि कुछ लिखने का भी जी न किया. यूँ बेजारी तो रहती ही है इन दिनों हरदम. सारी दुनिया मजदूर दिवस मना रही थी सिवाय मजदूरों के. कहीं से कोई खबर न आई कि आज मजदूरों ने पेटभर खाया और इस तरह दिन सेलिब्रेट किया. कहीं से कोई खबर न आई कि आज मजदूरों का भी सम्मान होना जरूरी है ऐसा कहा सुना गया हो कहीं. शायद मैंने ही न पढ़ा हो. शायद हुआ हो और मेरी नजर न पहुंची हो. यह 'शायद' शब्द है न यह मुझे जिन्दा रखता है. इसमें उम्मीद का पूरा संसार छिपा है. विशाल संसार. मैं इसी शायद में गोते लगाती रहती हूँ.

मैं हमेशा सोचती हूँ कि जब एक मजदूर पिता अपने बच्चे के सामने पिटता है या गाली खाता है तब उसे कैसा लगता है. मैं सोचती हूँ कि जब एक माँ अपने बच्चों के सामने रोज पिटती है तो उसे कैसा लगता है, बच्चे जब कहीं भी पीट दिए जाते हैं माँ, बाप, जाति, समुदाय और गरीबी की गाली खाकर तो उन्हें कैसा लगता होगा. शायद सम्मान शब्द ने उन तक पहुँचने की यात्रा नहीं की अब तक. आप उन्हें कुछ भी कह लो बस उन्हें बस उनकी रोजी न छीनो. रोजी यानी रोटी, सर छुपाने को एक छत. शिक्षा, स्वास्थ्य तो उनके लिए बहुत बाद की बाते हैं. सम्मान तो शायद सबसे आखिरी बात.

हमारे पास शब्द हैं. हम पेट की भूख को मिटाने के बाद जेहन की भूख मिटाने बैठ जाते हैं. जो कवितायेँ हम उनके लिए लिखते हैं वो उन्हें देखते तक नहीं, जो लेख हम उनके लिए लिखते हैं वो उन्हें नहीं पढ़ते, जो भाषण हम उनके लिए देते हैं उनमें उनकी कोई दिलचस्पी नहीं. यह सब हम भरे पेट लोगों की जुगाली है. उन्हें सिर्फ सरकारी घोषणाओं से फर्क पड़ता है जिसमें हो उनके खाने और रोजगार की बात. उनके लिए सबसे अच्छी कविता है उन योजनाओं का कागजों से उतरकर उनके जीवन तक पहुँचना.

आप उनसे बहुत प्यार और सम्मान से बात करते हैं लेकिन उनका पेट अगर खाली है तो वो आपका दिया सम्मान छोड़कर आगे बढ़ जायेंगे. एक खबर पढ़ी थी कुछ दिन पहले एक विकलांग व्यक्ति ने मुफ्त में दान का राशन लेने से मना कर दिया. वो काम करके कमाना चाहता था,,,उसे सम्मान की समझ हो गयी थी शायद. एक जगह स्कूल में रह रहे मजदूरों ने स्कूल की पुताई कर दी कि मुफ्त में बैठे-बैठे खाना उन्हें रास नहीं आ रहा था. फिर भी हम मध्यवर्ग के लोग इन्हें मक्कार, कामचोर और धूर्त कहने में किसी भी घटना में इन पर शक करने में और इनके सर पर ठीकरा फोड़ने से बाज नहीं आता.

तुम सच ही कहते हो कितने बेवजह की बातें चलती हैं मेरे जेहन में. भेजा शोर करता है टाइप. इस शोर की शांति नींद में ही है और इन दिनों नींद भी कम ही है. अजीब थका-थका सा रहता है मन भी शरीर भी. पैरों में दर्द रहता है काफी दिनों से.

पंछियों की आमद इन दिनों थोड़ा सुकून है...