Tuesday, May 12, 2020

खुशबू की तरह मिल जायेंगे


बौर अब फलों में बदल गयी हैं. नन्हे नन्हे फलों से लदे पेड़ और उन पेड़ों के पास से आती खुशबू बहुत लुभाती है. बहुत सारी खुशबुए हैं आसपास. लीची और आम के फल लगभग एक साथ बड़े हो रहे हैं. दोनों की डालें एक दुसरे में समायी हुई हैं. कभी ऐसा भी आभास होता है कि लीची के पेड़ पर अमिया उगी हों और आम के पेड़ पर लीची. प्रकृति को इकसार होना आता है, हमें नही आता. हम अपनी-अपनी खुशबू के गुमान में रहते हैं और सोचते हैं हम ही बेहतर हैं. प्रकृति को कोई गुमान नहीं. वो बस खिलने और फलने में यकीन करती है, खुशबू बनकर बिखरने में यकीन करती है. 

कल रामजी तिवारी जी की पोस्ट पढ़ी, शायदा दी की पोस्ट पढ़ी, सुकून हुआ. ऐसी बहुत सी खबरे मिलनी चाहिये जिसमें लोग एक-दूसरे की मदद कर रहे हैं. वैसे यह हमारे देखने की सीमा है या आँखों में झोंक दिए गए दृश्यों की बहुलता कि हम सकारात्मकता गढ़ने और महसूस करने से चूक रहे हैं. जबकि मैं खुद जानती हूँ बहुत से ऐसे लोगों को जो रातदिन मदद में लगे हैं, बिना किसी से कहे वो चुपचाप जितना बन पड़ता है करते जाते हैं. उन्हें कहना पसंद नहीं, कोई पूछे तो मुकर जाते हैं कि कुछ किया भी है और चुपके से रो लेते हैं कि कितना कम कर पाते हैं रोज. ये लोग खबर नहीं हैं, पोस्ट नहीं हैं, लाइक नहीं हैं, कमेन्ट नहीं हैं ये लोग इस दुनिया का भरोसा हैं. इन्हें कोई वारियर भी नहीं कहता, ये चाहते भी नहीं कि ऐसा कुछ कहा जाए लेकिन असल में इंसानियत पर भरोसा हैं ये लोग.

दूर देश नींद के लिए जूझती दोस्त को आज जरूर नींद आई होगी. कल रात रातरानी, मोगरे और मनोकामिनी की खुशबुएँ जैसे मिल गयी थीं न आपस में एक रोज हम सब भी ऐसे ही मिल जायेंगे न? 

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