दफ्तर जाना शुरू हो गया है. अच्छा लग रहा है. काम पहले भी खूब था अब भी खूब है लेकिन घर से निकलना अच्छा लग रहा है. उदास भी कर रहा है. सड़क पर जाने वालों की शक्लें अब नहीं दिखतीं, मास्क दिखते हैं. आँखें दिखती हैं कुछ की, कुछ की वो भी नहीं दिखती. लेकिन देह भंगिमाओं को, आँखों को, चाल को जितना पढ़ पाती हूँ उनमें एक आशंका है, भय है. हो सकता है यह मेरे ही मन की दशा हो जो मुझे बाहर दिख रही है. हो सकता है यह सबके मन की दशा हो. महीनों बाद लोगों से मिलने में भी उत्साह कम भय, सुरक्षा, बचाव ज्यादा है. अनजानी आशंकाओं और भय ने लगता है हमारे भीतर जो अपनेपन की, भरोसे की थोड़ी नमी थी उसे भी सुखा दिया है.
लगा था कि फिजिकल डिस्टेंसिंग के दौर में मन की दूरियां और कम होंगी. हम मन से और करीब आयेंगे. एक दूसरे का ज्यादा ख्याल रखेंगे. ज्यादा कंसर्न होंगे. लेकिन हुआ उल्टा ही. या शायद न भी हुआ है. अभी अभी मन की जो दशा है उसमें तो यही लगता है कि जी भर के रो लूं. न न हुआ कुछ भी नहीं, कि इतना कुछ घट रहा है यह कम है क्या...हमारा निज क्या समाज के बिना बन सकता है. कि है घर में राशन, सिलेंडर, फल, सब्जी सब लेकिन क्या भूख है? क्या नींद है? नींद अगर है तो क्या उसमें बुरे सपने नहीं हैं?
मैं रात भर रेल की पटरियों पर खेलती रही. यह फैंटेसी नहीं है, मेरे बचपन का जिया हुआ कोई लम्हा है जो सपने में ढलकर लौटा है. छुटपन के दिनों में जब माँ के साथ डेली पैसेंजरी करते हुए उनके औफ़िस जाया करती थी तब ही ट्रेन से प्रेम शुरू हो गया होगा शायद. माँ हास्पिटल में काम करती थीं और मैं रेलवे स्टेशन के पास वाले आम के बाग़ में खेला करती थी. मालगाड़ियों से गन्ने खींचने वाले बच्चे भी होते थे. रेल की पटरियों पर कितने खेल खेले हमने. पटरियों पर चलना अलग ही सुख देता था. बिना गिरे कौन चल सकता है एक ही पटरी पर. पटरी पर सिक्का रखकर उस पर से ट्रेन को गुजरते देखना और सिक्के का चुम्बक बनना...रेल की पटरियों की अलग ही फैंटेसी रही है. कि लगता है इन पटरियों में राज छुपा है कहीं जाने का, कहीं पहुँच जाने का. ये जाने किस दुनिया की सैर को ले जाएँगी, वो दुनिया यकीनन इस दुनिया से सुंदर होगी...
तुमसे बिछड़ते वक्त भी मेरा ध्यान इन पटरियों पर ही था...क्या कोई पटरी है जो तुम तक पहुँचती है...
जिन्हें नहीं मालूम जीवन के रहस्य वही पूछ सकते हैं कि 'पटरियां क्या सोने के लिए होती हैं'. ये पटरियां जिन्होंने बिछाई थीं उनसे पूछ रहे हैं आप कि पटरियां क्या सोने के लिए होती हैं. वो जीवन से थके थे. सड़कों से उन्हें वंचित कर दिया गया था, उनके पास भूख थी, रोटियां नहीं. नींद थी बिस्तर नहीं. चलते जाने का साहस था लेकिन सड़कें छीन ली गयी थीं उनसे.
उन्हें पटरियों पे नींद आ गयी...एक ट्रेन उन्हें उनके तमाम सपनों समेत अपने साथ ले गयी. उनकी जान ट्रेन ने नहीं व्यवस्था ने ली, सरकारी फरमानों ने ली...वो जीना चाहते थे. भूख, प्यास, बीमारी, थकान से कम डरते थे वो
ज्यादा डरते थे सरकारी आदेश से. अपनी ही बिछाई पटरियों पर सर रखकर सोना महानगर में जिन्दगी खोने से तो बेहतर लगा होगा न?
रेल की पटरियों पर कितना कुछ बिखरा हुआ है, कितने सवाल हैं, कितनी जवाबदेहियां हैं...इन्हें बटोरने वाला कोई नहीं.
" अपनी ही बिछायी पटरियों पर सर रख के सोना " बेहद कठिन दौर में ऐसी घटनाएँ हमारे अस्तित्व पर सवाल करती हैं . आज हमारी अपनी सहूलियत की व्यवस्थाएं हमारी जान ले रही हैं . सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्यों कर उन्हें पटरियां सबसे महफूज़ जगह लगीं अपनी थकान दूर करने को. शायद सूचना के अभाव में यह घटना हुयी . आम तौर पर हर जगह यह सूचना थी कि रेल सेवायें पूरे देश में बन्द हैं .
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