समय के पाँव की बिवाईयां
रिसने लगी हैं इन दिनों
इन बिवाइयों से बह रही है भूख
बीमारी, असुरक्षा, भय
इन बिवाइयों से आवाज आती है
बच्चों के रोने की
स्त्रियों के सुबकने की
पुलिस की लाठी ठीक से पड़े पीठ पर
इसलिए सही ढंग से मुर्गा बनते
और दर्द को चुपचाप पी लेने की आवाज
मवाद पड गया है समय के पाँव में
रक्त के साथ साथ वह भी बह रहा है
दर्द नहीं होता अब, वो बस रिसता रहता है
प्लास्टिक की बोतलें पाँव में बंधकर
चप्पल हो गयी हैं
सूटकेस बन गया है बच्चे को ढोने की गाडी
कंधे जुते हुए हैं बैलगाड़ी के साथ
शुक्र मनाते हुए कि कम से कम
सांस बची है अब तक
समय के पाँव लड़खड़ा रहे हैं
वो अपने चेहरे पर पोत दी गयी
खूनी कालिख क्या धो पायेगा कभी
कैसे मिटा पायेगा कोई
समय के दामन पर लगे दाग
कि एक ऐसा वक़्त था इतिहास में
जब जिन्दा घायल इन्सानों ने
सफर किया था लाशों के ढेर के साथ
बच्चे इतिहास में पढेंगे कि
एक तरफ लोगों ने हौसला बढाने को
बजाई थी थालियाँ
जलाये थे दिए
और उन्हीं लोगों ने नौकरी से,
घर से निकाल दिया था लोगों को
वो मजदूर थे, उन्हें मजलूम बनाया गया
वो स्वाभिमानी थे
उन्हें हाथ फैलाने को मजबूर किया गया
बच्चे पूछेंगे इतिहास की कक्षाओं में
जिन लोगों ने बनायी थीं सड़कें
उन्हें उन सडको पर चलने का हक क्यों नहीं था
जो रेल की पटरियां उन्होंने ही बिछाई थीं
उन्ही पटरियों पर उन्हें जान क्यों देनी पड़ी
जो अनाज उगाया उन्होंने खेतों में
उसी को तरसते हुए भूख से क्यों मर गए लोग
ये दुनिया जिन्होंने बनायी थी
उस दुनिया में उनके लिए ही जगह क्यों नहीं थी
बच्चे पूछेंगे और शिक्षक सोचेंगे
क्या लिखेंगे बच्चे अपनी कॉपियों में कि
उन्हें दिए जा सकें पूरे नम्बर
एक बच्चा कोरा पन्ना छोडकर चला जाएगा
समय की आँख का आंसू उस पन्ने को भिगो देगा...
बहुत मार्मिक और सामयिक
ReplyDeleteबहुत मार्मिक स्तिथि है मैंम। समय को सच मे नजर लग गयी है, वो कुछ इंसानों को अपने कर्मो से डरा नही पा रहा। जो कमजोर हैं उन पर कानून, प्रशासन और समय की मार भारी पड़ रही है। थालियां तो हमने भी बजायी थी कोरोना वारीरयर के सम्मान में लेकिन अब इन मजदूर,मजलूम साथियों के लिए क्या करें समझ नही आ रहा। सिर्फ किसी NGO को भोजन के लिए सहयोग देकर कितनो की मदद हो पाएगी,लेकिन करते हैं पर फिर भी सवाल तो वही की क्या सॉलिड किया जाय?
ReplyDeleteमार्मिक,सटीक और सामयिक
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