रिल्के के कहे के हवाले जीवन करने के बाद जीवन को दृष्टा की तरह देखने का प्रयास करती हूँ। हर आने वाले पल की आहट पर कान लगाए रहती हूँ कि जाने इस लम्हे में क्या हो। जीवन जैसा आता है, उसे प्यार से अपना लेती हूँ, कुछ जो पसंद नहीं आता तो झगड़ भी लेती हूँ। हालांकि उसे झगड़ा कहना गलत है, उसे जीने का ढब कहना ही ठीक होगा शायद। क्योंकि जीवन में आए अनचाहे के सामने डटकर खड़े होते समय भी जीवन साथ ही था। जब हमें लगा कि वो हमारे खिलाफ़ है तब वो असल में हमारी बांह थामे हुए था।
कई बरस पहले जब बाबुषा कहती थी कि ज़िंदगी से लड़ो नहीं, उसे जियो तो मुझे उसकी बात समझ नहीं आती थी, गुस्सा आता था उसकी बात पर। अब लगता है वो ठीक कहती थी। जीवन से लड़ना नहीं होता, उसे जीना होता है। हमारे जीवन में जो अवांछित है जिससे हम लड़ते हैं वो जीवन नहीं। हम घटनाओं को जीवन का नाम देने लगते हैं। घटना अच्छी या बुरी हो सकती है, लोग अच्छे बुरे हो सकते हैं, जीवन नहीं। उन घटनाओं और लोगों के साथ हमारा संबंध, उनका हम पर पड़ने वाला प्रभाव हमें प्रभावित करता है। वहीं से कुंठा, अहंकार, गुस्सा, प्रतिकार जैसे भाव उपजते हैं। मैंने तो अपने अनुभव में यही पाया है कि ये भाव जब जीवन का हिस्सा होने लगते हैं ये जीने में बाधा बनने लगते हैं। कितना बोझ लिए घूम रहे हैं हम, न जाने किन-किन बातों का। जबकि जीवन कितना सरल है, प्यास में पानी जैसा, भूख में रोटी जैसा, अकेलेपन में दोस्त की दुलार भरी डांट जैसा, रास्तों पर राहगीर जैसा और सुबह की चाय जैसा।
जैसे अभी मेरे सामने जो बरस रहा है जीवन रिमझिम रिमझिम। आज मुझे लंबी सुबह की दरकार थी। हमें झूलापुल के लिए जल्दी निकलना था लेकिन जिन दोस्तों के साथ जाना था उन्हें कुछ काम आ गया और हमारा निकलना थोड़ा मुल्तवी हुआ। इस तरह मेरी सुबह लंबी हो गयी। देर तक बालकनी में खामोश बैठे हुए मैंने बारिश को रुकते और मौसम को खुलते देखा। महसूस हुआ कि मन के कुछ सीले कोनों तक भी अंजुरी भर धूप गिर रही है। खामोशी का कैसा तो जादू होता है। लंबे समय से अकेले रहते हुए इस खामोशी की संगत की इतनी अभ्यस्त हूँ कि लगता है यही एक सुर है जो ठीक से लग पाता है जीवन का।
बैग पैक हो चुके थे। आज पाइन रिसौर्ट से विदा का दिन था। वो कमरा जो तीन दिन से मुझे सहेजे हुए थे उससे हाथ छुड़ाना था। मैंने 'सब कुछ को शुक्रिया' कहा। यहाँ एक आखिरी चाय पीते हुए सामने बिखरे तमाम हरे को आँखों से अकोरा।
कुछ देर में दोस्त आ पहुंचे। कुछ ही देर में हम झूलघाट के रास्ते में थे। धूप निकल आयी थी। कार में सुंदर गाने बज रहे थे। दोस्त रास्ते में आने वाली जगहों के बारे में बताते जा रहे थे साथ ही उन जगहों से जुड़े अपने अनुभवों पुराने किस्से भी सुनाते जा रहे थे।
थोड़ी ही दूरी तय की थी हमने। यह आर्मी एरिया था। कार एक किनारे रुकवाई गयी। यह जगह थी जलधारा हुडकन्ना। पता चला कि यहाँ का पानी बहुत स्वादिष्ट होता है बहुत ही मीठा और ताकीद मिली कि मुझे जरूर पीना चाहिए। पानी के स्वाद की बाबत तो मैं कुछ नहीं कहूँगी वो तो पीकर ही जाना जाना चाहिए लेकिन इस पानी से जुड़े किस्से मजेदार थे। मसलन जो यहाँ का पानी पीता है उसकी तमाम मनोकामनाएँ पूरी होती हैं, यहाँ का पानी पीकर पुत्र प्राप्ति होती है, अगर किसी को बोलने में दिक्कत है, जबान साफ नहीं है तो यहाँ का पानी पीकर एकदम ठीक हो जाती है समस्या।
इन किस्सों के बारे में बताते हुए दोस्तों का चाव और उनकी हंसी दोनों ही रोचक थी। उन्होने हँसते हुए कहा कि उनके पड़ोस के एक व्यक्ति ने दो साल तक यहाँ का पानी मंगवाकर पिया फिर उसे बेटी हो गयी...हम सब हँसते हुए वहाँ से आगे बढ़े।
बात हंसी की थी सो हंसी में टल गयी लेकिन एक सर्द लकीर दिल में कहीं तड़क गयी। 'फिर उसे बेटी हो गयी...'। यह तो पहाड़ का एक दूरस्थ सा गाँव है लेकिन पुत्र प्राप्ति का यह मोह और उसके लिए किए जाने वाले टोटके शहरों में कौन से कम हैं। बस वो प्रगतिशीलता के चोले में छुपा लिया है चतुर सुजान लोगों ने।
धर्म और आस्था चप्पे-चप्पे पर बिखरी हुई थी। हर थोड़ी देर पर कोई नए देवता दिख जा रहे थे। ऐसे-ऐसे देवता जिनका नाम भी नहीं सुना कभी। बताया गया कि यहाँ हर गाँव के अलग देवता होते हैं। हो सकता है इसका भौगोलिक कारण हो। फिर पता चला कि किसी की मृत्यु के बाद अगर उसकी आत्मा भटकती है मुक्त नहीं होती तो उसके नाम का मंदिर बना देते हैं गाँव वाले। इस तरह देवताओं की सूची बढ़ती जाती है। ये सब बातें कितनी युक्ति संगत, तर्क संगत हैं नहीं पता लेकिन लोक के कहन में तो हैं ही। तभी पता चला कि यहाँ एक खुदा देवता भी हैं...मैंने तीन बार कनफर्म किया हाँ खुदा देवता ही। थोड़ी हैरत हुई थोड़ा सुख हुआ। कितना सुंदर हो कोई अल्लाह कभी शिव मंदिर में मिलने लगें और कोई गणेश कोई हनुमान किसी मस्जिद में टकरा जाएँ। किसी चर्च में किसी गुरुद्वारे में मिलें सब और मिलकर निकालें राह हर धर्म के नाम पर होते उत्पात से बचने के।
मुझे खुदा देवता के दर्शन तो नहीं हुए लेकिन एक सुंदर सी घाटी के करीब चाय की दुकान के दर्शन हो गए। चाय से ज्यादा लोभ हुआ उस जगह पर रुकने का। कार रुकी, कौन चाय पिएगा, कौन क्या खाएगा का हिसाब लगाने का काम दोस्त के सर छोड़ मैं भागती फिरी उस घाटी की ओर जहां से काली नदी अपने सौंदर्य और आवाज़ से लुभा रही थी। नन्ही बूंदों की फुहार के बीच नदी की ओर दौड़ते मेरे कदमों से ज्यादा रफ्तार मन की थी।
जब दूर-दूर तक कोई न हो तो कुदरत का संगीत कितना स्पष्ट सुनाई देता है। झींगुर, चिड़ियों, नदी और बूंदों की आवाज़ों के बीच मैंने पत्तियों और फूलों की आवाज़ भी सुनी। उस आवाज़ की एक पंखुरी बालों में टाँक ही रही थी कि आवाज़ आई, 'आ जाओ चाय बन गयी है।'
चाय बहुत अच्छी थी और मौसम उससे भी अच्छा। चाय के साथ कुछ काले चने और उस पर पहाड़ी रायता भी था खाने को। खाने का मन एकदम नहीं था लेकिन कुछ नया था यह तो चखना तो बनता ही था। फिर पहाड़ी केले भी खाने को मिले। दो-दो इंच वाले केले। स्वाद में एकदम अलग। ऐसे केले तो मैंने दक्षिण भारत में खाये थे इलायची केले के नाम से। ये यहाँ कैसे। पता चला ये यहाँ के खास केले हैं। केले मुझे खास पसंद नहीं लेकिन इनका स्वाद अलग था। नतीजा यह हुआ कि तमाम केले ले लिए गए। नहीं जानती थी कि इन्हें मेरे साथ देहरादून रवाना होना है।
सफर आगे बढ़ा और हम झूलापुल की ओर बढ़ते गए। रास्ते में मिली ममता जलेबी। पता चला ये बहुत फेमस है। दोस्त ने हँसकर बताया कि ममता जलेबी पर खूब सारे गाने यूट्यूब पर मिलेंगे। अरे वाह, ऐसा क्या खास है जानना जरूरी था लेकिन पेट एकदम नो मोर ईटिंग वाला बोर्ड लगाए हुए बैठा था। तो तय हुआ कि ममता जलेबी को वापसी के समय निपटाया जाएगा। ममता जलेबी तकरीबन 50 साल पुरानी दुकान है। संभवतः उन दिनों मिठाई के नाम पर आई जलेबी का आकर्षण रहा होगा। सुनने में आया कि इसे चीनी से नहीं मिश्री से बनाते हैं। हालांकि जब हमने जलेबी खरीदी तो वो मिश्री की तो नहीं थी। दुकान वाले ने कहा अब कहाँ मिश्री। मिश्री इतनी महंगी हो गयी है। बहरहाल ममता जलेबी का जलवा अभी भी कायम है। और यह राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित है ऐसा भी इन्टरनेट बताता है।
पुल के इस पार एक छोटा सा सुरक्षा घेरा था। जो लगभग निष्क्रिय या कहूँ औपचारिकता भर था। एक आधार कार्ड भर दिखाकर हमें उस पार जाने की अनुमति मिल गयी। चार कदम, बस चार कदम और नेपाल। झूला पुल के ठीक बीच जब मैं खड़ी थी और नदी के दोनों छोर देख रही थी मेरी आँखें सजल हो उठीं। मैंने रोएँ खड़े होते महसूस किए।
सरहद क्या होती है एक राजनैतिक व्यवस्था ही तो। फिर इन सरहदों के नाम पर इतना रक्तपात, इतना द्वेष कैसे फैल गया। क्या फर्क है चार कदम इस पार और चार कदम उस पार में। क्या फर्क है नदी के इस किनारे में और उस किनारे में। इस सरहद के बहाने देश की बल्कि तमाम देशों की सरहदों का खयाल ज़ेहन में आ गया था। नेपाल तो मित्र देश है लेकिन सरहद तो सरहद। इस पल में मैं जहां खड़ी हूँ वो किसी सरहद में नहीं। ठीक बीच में। दो देशों के ठीक बीच में, जीवन के ठीक बीच में। मेरी रुचि न इस पार में है, न उस पार में। मेरी रुचि है इस लम्हे में जिसमें जीवन मुस्कुरा रहा है। किसी भी सरहद के इस पार या उस पार और क्या चाहिए सिवाय जीवन के। जीवन जो मोहब्बत से, जीने की समर्थता से और सम्मान से भरा हो। जीना कौन नहीं चाहता भला, प्यार किसे नहीं चाहिए, सम्मान किसकी जरूरत नहीं। झूठ कहते हैं सब कि रोटी पहली जरूरत है, हाँ, वो है लेकिन वो रोटी सम्मान से मिलनी भी जरूरी है। यही छूट जाता है...क्यों हों ऐसे हालात कि इंसान को सम्मान और रोटी में से चुनना पड़े एक को। मन में विचारों का कोलाहल था सामने नदी का।
काली नदी कह रही थी 'ज्यादा मत सोचो मेरे पास आओ।' सामने नेपाल मुस्कुरा रहा था। और दो कदम बढ़ाकर मैं नेपाल में थी। सारा मामला सोच का है वरना क्या फर्क था इस पार में, उस पार में। नेपाल की सीमा लगते ही दुकानें दिखने लगीं। सामान से भरी दुकानें। लेकिन ग्राहकों से खाली दुकानें।
लोगों ने बताया कि कोविड के बाद से यह बाजार पनप नहीं पाया। पहले यहाँ खूब भीड़ होती थी। सस्ता सामान लेने लोग टूटे रहते थे। इस देश की करन्सी, यहाँ के टैक्स भारत के मुक़ाबले सामान को सस्ता बनाते होंगे शायद। 23 बरस पहले की अपनी काठमाण्डू यात्रा याद आ गयी जब साथ आए लोगों में घूमने से ज्यादा सस्ता सामान खरीदने का चाव देखकर हैरत होती थी।
मैं नेपाल से अपने लिए क्या ले जाऊँ सोचते हुए मैंने अपनी फेवेरेट औरेंज कैंडी का एक पैकेट लिया। मैंने उस पार से इस पार की तस्वीरें लीं और खूब सारा महसूस किया दुनिया के इस कोने में अपना होना।
जब लौट रहे थे हम तो भीतर कोई खामोशी पसर गयी थी। दिन तेज़ी से बीत रहा था और मुझे यह बीतना अच्छा नहीं लग रहा था कि अगले दिन वापसी जो थी।
फिलहाल आज के दिन में अभी बहुत सारा दिन बचा हुआ था। पिथौरागढ़ पहुँचकर कविता कारवां की बैठक में शामिल होना था। यह बैठक खास मेरे आग्रह पर महेश पुनेठा जी ने रखी थी। मुझे बड़ा चाव था कि इस सुंदर शहर की एक शाम में खुद को सुंदर कविताओं के संग घुलते देखने का। कविता कारवां को जिस कदर प्यार मिल रहा है हर शहर में वह जीवन में लोगों की आस्था ही तो बयान करता है वरना जब सब अपने मैं का टोकरा उठाए हाँफ रहे हों किसको फुर्सत है कि समय निकाले किसी और की कविता सुने और सुनाए।
सरल जीवन की खुशबू में किताबों की महक घुली हुई थी। मैंने बहुत से घरों में किताबें देखी हैं, लेखकों के घर देखे हैं उनके घर की उनकी लाइब्रेरी देखी हैं। मैं खुद लाइब्रेरी वाले घर में पली बढ़ी हूँ। लेकिन यहाँ बात एकदम अलग है। ये लाइब्रेरी जनता के लिए है। इतनी सारी किताबों की सार संभाल आसान तो न होती होगी। यह पूरा परिवार किस कदर पढ़ने-लिखने की संस्कृति को बढ़ावा देने और इस दुनिया को तनिक और सुंदर बनाने के लिए जुटा हुआ है देखकर सुख होता है। अभिषेक अपने दोस्तों के साथ आरंभ स्टडी सर्किल चला रहे हैं यह एक खूबसूरत प्रयोग है। यह जनता पुस्तकालय एक ख्वाब है कि लोग पढ़ेंगे फिर समझेंगे कि असल में दुनिया भर का साहित्य बेहतर सोचने, समझने महसूस करने को कहता है ताकि हम समझ सकें कि जीवन सिर्फ प्रेम है बाकी सब बेमानी है। यह घर और इस घर के लोग मुझे कविता से लगे और अपनी ही एक कविता की लाइन याद आ गयी- 'मुझे इस धरती पर मनुष्यता की फसल उगाने वाली कवितायें चाहिए।' इस घर में ऐसी कवितायें लिखने वाले लोग रहते हैं।
दिन को यूं तो काफी पहले बीत जाना चाहिए था लेकिन कुछ मौकों पर हम उसे रोके रहना चाहते हैं और जी लेना चाहते हैं। दोस्त के घर आज डेरा था अपना। खुश रंगों से सजे इस घर में पहले भी आ चुकी हूँ। यहाँ आपकी एक नहीं चलती, डांट-डांटकर खिलाया जाता है, मनुहार से नहीं हक़ से खयाल रखा जाता है। कौन से बीज कभी छिटक गए होंगे जो मित्रता के ऐसे खूबसूरत बिरवे उगे हैं। ये मित्रताएं जीवन का संबल हैं।
अपनेपन की उसी गर्माहट के साथ गप्पे लगाते हुए कब सो गयी पता ही नहीं चला।
रात भर बारिश एक लय में गिरती रही। कभी-कभी लय घट बढ़ भी रही थी। नींद उचट गयी। एक डर मन में घिरने लगा। ये निरंतर बरसती बदलियाँ कल रास्ता न रोक लें कहीं। पहाड़ जीतने सुंदर होते हैं यहाँ की दुश्वारियाँ भी कम नहीं होतीं। घूमने आना, तस्वीरें लेना चले जाना एक बात है और यहाँ रहना दूसरी बात। पैदल, नंगे पाँव शहर में चलना, सारे मौसम बदन पर उतरने देना, स्थानीयता की, लोक की, संस्कृति की खुशबू से रू-ब-रू होना और रोज की दिक्कतों को भी चखकर देखना जरूरी होता है। चूंकि मुझे इस शहर से इश्क़ हो गया था तो शहर ने भी मुझे पूरी तरह अपनाने की ठान ली थी।
सुबह में तनाव था। तनाव सिर्फ मुझे नहीं था दोस्तों ने भी बारिश देखकर अंदाजा लगा लिया था कि रास्ता रुका हुआ हो सकता है। लैंड स्लाइड का खतरा बढ़ चुका था। सब अपनी तरह से पता लगाने की कोशिश कर रहे थे। और सुबह की पहली चाय के साथ ही पता चल गया कि लैंड स्लाइड हुआ है, रास्ता रुका हुआ है। रास्ते दो जगह बंद थे। एक जगह तो टैंकर ही मलबे में फंस गया था। समझ में आ गया था कि मुश्किल आ चुकी है।
दोस्त लगातार हौसला बढ़ा रहे थे कि पहाड़ों में यह आम बात है, रास्ता खुल जाएगा। पिथौरागढ़ से रुद्रपुर तक पहुँचने में 6 घंटे का समय लगता है इसलिए ज्यादा फिक्र तो नहीं थी लेकिन फिक्र तो थी। इधर बारिश भी रुक नहीं रही थी। हालांकि सुकून यह था कि मैं घर में थी, सुरक्षित थी।
कैसे समय से मैं स्टेशन पहुँच पाऊँ ताकि वहाँ से देहारादून की ट्रेन पकड़ी जा सके इसकी जुगत लगाने में तमाम लोग लगे हुए थे।
आखिर राह निकली और मैं ढेर सारी मधुर स्मृतियों की गठरी के साथ शहर से विदा हुई। सच है, थोड़ी सी रह गयी हूँ वहीं, पूरी कहाँ लौटी हूँ। किसी भी यात्रा से हम पूरे के पूरे वैसे ही कहाँ लौटते हैं जैसे गए थे, और यही तो यात्रा का हासिल होता है...
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