जब रात भर ख़्वाब सुकून से सोने देने के लिए पलकों की दहलीज़ पर बैठकर पंखा झले तो नींद की झील में तैरते फिरने का आनंद ही कुछ और होता है। देह पंखों से हल्की और मन एकदम मुक्त। कोई बोझ नहीं। न विगत का, न आगत का। यूं मुझे देर तक सोना पसंद है लेकिन सुबह जागने के सुख का स्वाद जबसे लगा है तबसे दो सुखों में जंग चलती है। देर तक सोने का सुख अक्सर जल्दी उठकर वॉक पर जाने के सुख पर भारी पड़ता है। लेकिन जब घर से बाहर होती हूँ, किसी नए शहर में तो उस शहर की सुबह में घुल जाने को जी करता है।
मैं चाहूँ भी तो शहर सोने नहीं देता। आवाज़ देता है, हाथ पकड़कर ले जाता है अपनी गलियों में, सड़कों में, बागीचों में। और यह शहर जिससे कल ही इश्क़ हुआ है वो भला कैसे मेरी सुबह पर अपना नाम दर्ज न होने देगा। नींद और जाग के मध्य ही थी कि चिड़ियों की पुकार और बारिश कि मध्धम धुन ने माथे पर हाथ रखा। ताप नहीं था, ताप के निशान थे थोड़े से। दुपट्टा लपेटा और बालकनी में जाकर पाँव पसार दिये। आँखों से नींद पूरी तरह झरी नहीं थी लेकिन उनमें सुबह समाने लगी थी।
बिना ज़िम्मेदारी वाली ऐसी सुबहें हम स्त्रियॉं के हिस्से में कितनी कम आती हैं। चाय तक बनाने कि ज़िम्मेदारी से मुक्त सुबह। सोचती हूँ जो हमारा बमुश्किल हाथ आया सुख है पुरुषों का तो वह रूटीन का सुख है जिसकी उन्हें इतनी आदत है कि उन्हें वह सुख महसूस तक नहीं होता। कितनी ही बातें कर लें, भाषण दे लें बराबरी के, कितनी ही कवितायें कहानियाँ लिख लें लेकिन अभी स्त्रियॉं की असल ज़िंदगी की कहानी में बहुत कुछ बदलना बाकी है। अपनी ही गहरी सांस को सुनते हुए बरसती बूंदों पर ध्यान लगा देती हूँ।
धुंध की धुन सुनते हुए अरसे बाद अपने दिल की धड़कनें सुनीं। नब्ज़ की रफ़्तार को महसूस किया, बंद आँखों में हरा समंदर उगते देखा और हरे समंदर में खुद को बिखरते हुए। बिखरना अगर इस तरह हो तो क्या ही सुंदर है। इस तरह तो मैं ज़िंदगी भर बिखर जाने को तैयार हूँ सोचते हुए होंठों के पास खिलती मुस्कुराहट को महसूस किया। इन दिनों चाय पीना बढ़ गया है सोचते हुए एक और चाय का रुख़ किया और हथेलियों को बूंदों के आगे पसार दिया। हथेलियों पर सुख बरस रहा था। मैंने उस सुख को पलकों पर रख लिया...
आज के दिन के लिए मन में काफी उत्साह था। आज युवाओं से संवाद था। नहीं जानती थी कि उनके प्रश्न क्या होंगे, लेकिन सुख था कि ऐसे युवाओं के बीच होने वाली हूँ जिनके मन में सवाल हैं। मेरी भूमिका जवाब देने की कम उन सवालों को प्यार करने की ही होने वाली है यह मुझे अच्छी तरह से पता था।
पत्रकारिता के दिनों में गेस्ट फैकेल्टी के तौर पर कई साल पत्रकारिता के छात्रों को पढ़ाया है या कहूँ कि उनसे मुखातिब हुई हूँ, वो दिन याद आ गए। सामने बैठे अपने छात्रों के चेहरे भी। आज का दिन नयी उम्र की खुशबू के संग इकसार होने का दिन था। नियत समय से पहले ही जा पहुंची थी। बरसते भीगते मौसम में यूं शहर से गुजरना, छतरियों के साये में गंतव्य तक पहुँचना रूमानी था।
पिथौरागढ़ टीम के साथ संवाद में एक गढ़न थी। साथियों को लग रहा होगा वो मुझसे कुछ पूछ रहे थे असल में मैं उन्हें सुन रही थी। कहने से ज्यादा सुनना सुंदर होता है यह अच्छे से जानती हूँ इसलिए सुनने के रियाज़ पर काम करती रहती हूँ।
सारा दिन तरह-तरह के सवालों से घिरी रही। जवाब का पता नहीं लेकिन हम सवालों पर बात करते रहे। पहाड़ी वोकल एक युवा समूह है जो आज मुझसे बात करने वाला था। नियत समय से पहले ही अनौपचारिक बातचीत मैं युवाओं के सवालों और जिज्ञासाओं के समंदर में घिरी बैठी थी।
शाम हुई और क्या खूब हुई। इतने खूबसूरत सवाल, इतने मौजूं सवाल और इतने सारे युवा चेहरे देखकर मन उम्मीद से भर उठा। सवाल जाति, धर्म, जेंडर भेद के। सवाल कैसे इस दुनिया को सुंदर बनाया जाय। पढ़ना कैसे बेहतर मनुष्य बनने में मदद करता है, क्या पढ़ना चाहिए, मन न लगे पढ़ने में तो क्या करें। लिखना कैसे बेहतर हो, कैसे पहचानें फेक न्यूज़ को। कुछ कवितायें पढ़ी गईं उन पर भी बात हुई। सवालों का सैलाब आया हुआ था और यक़ीनन यह खूबसूरत मंज़र था। ज़िंदगी को, समाज को देश को प्रेम से भर देने के लिए, एक-दूसरे को बिना किसी भी विभेद के सम्मान से पेश आने के सिवा और क्या इस धरती को सुंदर बना सकता है।
और फिर आया एक सवाल जिसने मेरे पूरे व्यक्तित्व की नब्ज़ पर हाथ रख दिया, 'आपके लिखे में प्यार शब्द बहुत आता है, आपके लिए प्यार क्या है?' इस सवाल से मैं खिल उठी। 'बचपन में जिस गुलमोहर के पेड़ के नीचे किताबें पढ़ा करती थी वो पेड़ मेरा पहला प्यार है,' मैंने कहा। यह कहते हुए मैंने खुद को गुलमोहर के साये में ही महसूस किया। स्मृति की शाख से टूटकर गुलमोहर का एक फूल अपने कंधे पर गिरता हुआ मालूम हुआ। मैंने मुस्कुराकर उसे 'हैलो' कहा और अपनी बात को कहना जारी रखा कि 'असल में जीवन में सब कुछ प्यार है। सब कुछ। धरती, आसमान, हवा, पेड़, पंछी, नदी, हम सब प्रेम ही तो हैं। प्रेम से विहीन जीवन की कल्पना ही असहनीय है। हम सब प्यार के तलबगार हैं। कौन है इस दुनिया में जिसे प्यार की आस नहीं है, तलाश नहीं। सबको प्यार मिले सम्मान मिले, जीने के समान अवसर मिलें इत्ती सी बात यूटोपिया क्यों लगने लगती है लोगों को। लेकिन अगर यह यूटोपिया है, तो है। मेरी प्यार में, जीवन में, प्रकृति में बहुत आस्था है और यही मेरे लिखे में बार-बार दिखता है जो कि लाज़िम है।'
और फिर आया एक सवाल जिसने मेरे पूरे व्यक्तित्व की नब्ज़ पर हाथ रख दिया, 'आपके लिखे में प्यार शब्द बहुत आता है, आपके लिए प्यार क्या है?' इस सवाल से मैं खिल उठी। 'बचपन में जिस गुलमोहर के पेड़ के नीचे किताबें पढ़ा करती थी वो पेड़ मेरा पहला प्यार है,' मैंने कहा। यह कहते हुए मैंने खुद को गुलमोहर के साये में ही महसूस किया। स्मृति की शाख से टूटकर गुलमोहर का एक फूल अपने कंधे पर गिरता हुआ मालूम हुआ। मैंने मुस्कुराकर उसे 'हैलो' कहा और अपनी बात को कहना जारी रखा कि 'असल में जीवन में सब कुछ प्यार है। सब कुछ। धरती, आसमान, हवा, पेड़, पंछी, नदी, हम सब प्रेम ही तो हैं। प्रेम से विहीन जीवन की कल्पना ही असहनीय है। हम सब प्यार के तलबगार हैं। कौन है इस दुनिया में जिसे प्यार की आस नहीं है, तलाश नहीं। सबको प्यार मिले सम्मान मिले, जीने के समान अवसर मिलें इत्ती सी बात यूटोपिया क्यों लगने लगती है लोगों को। लेकिन अगर यह यूटोपिया है, तो है। मेरी प्यार में, जीवन में, प्रकृति में बहुत आस्था है और यही मेरे लिखे में बार-बार दिखता है जो कि लाज़िम है।'
कोई दिन कई दिन लेकर आता है। दिन बीत रहा होता है लेकिन ठहरा रहता है। ये ऐसे ही दिन थे। शाम तक चेहरे पर थकान की लकीरें उभर आई थीं, जिनमें भूख भी शामिल थी। एक पक्का दिन जिसका हासिल एक लंबा और सार्थक संवाद था हाथ छुड़ाने को तैयार था, लेकिन...क्या यह इतना आसान था। बीतते दिन का बीतना अभी बाकी था। अचानक मैंने खुद को चंडाक के रास्तों पर पाया। उतरती शाम को अपनी दोनों हथेलियों में उठाए रास्ते खुशनुमा थे। बारिश ने आँचल समेट लिया था। पंछी आसमान में खेल रहे थे। हम और आगे और आगे बढ़ते जा रहे थे। बहुत सुना था इस जगह के बारे में।
चंडाक का नाम चंडाक क्यों है, है क्या यहाँ पर, इन सवालों के जवाब गूगल पर मौजूद थे। मेरे भीतर इच्छा थी घने देवदार के जंगल की ख़ुशबू को अपनी साँसों के उतार लेने की। यह किसी गूगल या यूट्यूब पर संभव नहीं। रास्ते की निस्तब्धता का आकर्षण अलग ही था।
'सुनो देवदार, मुझे बहुत भूख लगी है' मैंने सोचा था पहुँचकर सबसे पहले यही कहूँगी। लेकिन कुछ भी कहने कहाँ देता है यह शहर कहने से पहले इच्छायें पूरी होती जाती हैं। कब सोचा था कि किसी रोज वादियों में चल रहा होगा बदली और धूप का खेल और मेरे सामने होगी अच्छी सी कॉफी और पकौड़े।
उस जरा सी देर में वादियों के इतने रूप बदले कि दिल अश अश कर उठा। अभी कुछ देर पहले जहां धुंध थी, बस जरा सी देर बाद वहाँ धूप के गुच्छे उग आए थे और कुछ देर पहले की सुफेद पहाड़ियाँ अचानक सोने में मढी हुई लगने लगीं। देवदारों के सीने से लगकर रो लेने का जी किया, चीड़ के पेड़ों की शाखों को हथेलियों में भींच लेने का जी किया। ज़िंदगी इस कदर खूबसूरत है, प्रकृति का वैभव हमें हर पल विस्मित करता है। एक जीवन कितना कम है इस सुख को अकोरने के लिए और हम उस एक जीवन में छल, प्रपंच, ईर्ष्या, नफरत की फसल उगा बैठते हैं। शायद अभी हमें मनुष्य के तौर पर इस जीवन को जीने की योग्यता हासिल करना बाकी है। यूं सांस लेना और लेते जाना भी कोई जीना हुआ भला।
कल जब दीप्ति पूछ रही थीं साहित्य क्या है तो यही तो आया था मन में कि यह जो बिखरा हुआ है चारों ओर यही तो है साहित्य। इसे अभी लिखा जाना बाकी है। तमाम भाषाएँ इसे जस का तस लिख पाने में असमर्थ हैं। इसे जीकर ही पढ़ा जा सकता है।
कल जब दीप्ति पूछ रही थीं साहित्य क्या है तो यही तो आया था मन में कि यह जो बिखरा हुआ है चारों ओर यही तो है साहित्य। इसे अभी लिखा जाना बाकी है। तमाम भाषाएँ इसे जस का तस लिख पाने में असमर्थ हैं। इसे जीकर ही पढ़ा जा सकता है।
प्र्कृति के सम्मुख हम कितने बौने हैं। कितना तुच्छ है वो जीवन जो इस विराट सौंदर्य के करीब होकर भी अपने भीतर के खर-पतवार को बीन न पाये। जी चाहा देवदार के आगे धूनी जमाकर बैठी रहूँ, बस बैठी रहूँ। लेकिन अब पीठ कराहने लगी थी और कह रही थी कि थोड़ा आराम चाहिए सो लौटना पड़ा।
जब हम लौट रहे थे तो साथ में एक ख़ुशबू लौट रही थी। ख़ुशबू जिसे लिखा नहीं जा सकता लेकिन जो इस समय स्मृति की कोटर से निकलकर लैपटॉप में झांक रही है। देवदार की ख़ुशबू, वादियों में बिखरी धुंध की ख़ुशबू और ख़ुशबू कॉफी की।
लौटते समय शहर ने सितारों से टंकी ओढनी ओढ़ रखी थी। यह बिना बारिश वाली रात थी। कमरे में पहुँचकर बिस्तर ने पीठ के दर्द को जिस मोहब्बत से देखा मुझे सच में हंसी आ गयी। समय बीत रहा था और मैं इसे थाम लेना चाहती थी। खाने के बाद देर तक दूर तक टहलने जाने का मोह कैसे छूटता भला कि अब मेरे पास बस एक दिन शेष था इस शहर में। सुबह हमें जाना था झूलाघाट। जहां से नेपाल का रास्ता खुलता है। यानी हम नेपाल जाने वाले थे अगले दिन।
एक मुक्कमल दिन को जी लेने की खुशी रसगुल्ले के साथ सेलिब्रेट करते हुए नींद का रुख किया। नींद जो न जाने कितनी देर से बाहें पसारे अपने आगोश में लेने को व्याकुल थी...
आपके अनुभवों को पढ़कर ही सुंदर भाषा सीखी जा सकती है।
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर रविवार 16 जुलाई 2023 को लिंक की जाएगी ....
ReplyDeletehttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
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आपकी रचना चर्चा मंच ब्लॉग पर रविवार 16 जुलाई 2023 को
ReplyDelete'तिनके-तिनके अगर नहीं चुनते तो बना घोंसला नहीं होता (चर्चा अंक 4672)
अंक में शामिल की गई है। चर्चा में सम्मिलित होने के लिए आप भी सादर आमंत्रित हैं, हमारी प्रस्तुति का अवश्य अवलोकन कीजिएगा।
बहुत ही भावपूर्ण प्रस्तुति है आदरणीया।प्रकृति की छाँव और भावुक हृदय तो अनुभूतियों का शब्दांकंन इतना मोहक क्यों न हो!!🙏
ReplyDeleteबहुत सुंदर अभिव्यक्ति
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