हर रात को सुबह का पता नहीं होता। हालांकि हर रात को सुबह की तलाश जरूर होती है। पिछली कई रातों की जाग, लंबे सफ़र और कुदरत के करिश्मों से जी भर के हुई मुलाक़ात का जादू यूं हुआ कि वक़्त से पहले आँख लग गयी। बाद मुद्दत ऐसी गहरी नींद हुई। सुबह हुई चिड़ियों की आवाज़ से। कमरे का दरवाजा खोला और पल भर में पूरा मौसम कमरे में आ धमका। मौसम ने मुसकुराकर कहा,'कितना सोती हो, चलो चाय पीते हैं।' मैंने कहा, बड़े दिन बाद अच्छी नींद आई है तो टोको तो मत। उसने मुट्ठी भर बौछार में हवा का झोंका मिलाया और मेरे मुंह पर उछाल दिया। सारा आलस सामने लगे चीड़ और देवदार के पेड़ पर जा बैठा।
बालकनी में बैठकर आसमान, चिड़िया, पेड़ ताकना और चाय पीते-पीते भूल जाना और अगला घूंट लेना ये पुराना शगल है। लेकिन आज इस शगल में कुछ नया सा सुरूर था। बारिश एक लय में थी। पेड़ से टकराते हुए बूंदें मेरे पैरों को भिगोने की कोशिश में लगातार लगी हुई थीं।
ये लंबी सुबह थी। इसकी डोर मेरे हाथ में थी। मैं इसे कितनी भी देर तक थामे रह सकती थी। बूंदों का यूं एक लय में गिरना, चिड़ियों का खेल और सामने बिछा हरा समंदर, जिनकी निगरानी में खड़े खूबसूरत जंगल...दूर पहाड़ी पर उड़ते बादलों का बड़ा सा गुच्छा...ये कौन चित्रकार है...का ख्याल साथ था। ऊपर से चाय पसंद की मिल जाय तो कहना ही क्या। घर से बाहर अक्सर मन की चाय मिलना मुश्किल ही रहा है लेकिन ये शहर जिसने न्योता देकर बुलाया था, खयाल रखना जानता है। चाय के स्वाद को संभाल लेना भी।
लैपटॉप खोला कुछ लिखने के लिए लेकिन दृश्य से आँखें हटें तब न। सो लैपटॉप बेचारा चाय के कप के बगल में रखे हुए खुद को उपेक्षित महसूस करता रहा। उसका यूं उपेक्षित महसूस करना कहीं सुख भी दे रहा था। हमेशा सारी फुटेज खा लेता है वो लेकिन जब सामने मौसम हो तो इन महाशय की एक नहीं चलती।
बारिश का यूं है इस शहर में दिन भर मनमानी चलती है मैडम की। कभी भी कितनी भी। और जब मन भर जाये बरस के तो मुट्ठी भर धूप उछाल के गायब। अभी मैं बारिश में चल रहे चिड़ियों के खेल में गुम ही थी कि सामने की वादी धूप से चमक उठी। नन्ही सी हरे रंग की चिड़िया (नाम मुझे पता नहीं) सफ़ेद धारी वाली और लाल मुकुट वाली चिड़िया के साथ मिलकर कोई खेल खेलने निकल पड़ीं। चिड़ियों का मूड कैसा है यह उनकी उड़ान देखकर जाना जा सकता है। वो चिड़िया खुश थीं सब की सब।
एक कप और चाय की तलब उठी तो चाय मंगा ली। हालांकि अब सुबह समेटने का समय हो आया था। मुझे आज साहित्य और शिक्षा पर बात रखनी थी। सारे रास्ते मैं यही सोचती आ रही थी कि क्या बात करूंगी। एक संकोच, एक झिझक हमेशा साथ होती है क्या मैं बात रख पाऊँगी, क्या मैं इस बात की समझ भी रखती हूँ। फिर माँ का कहा याद आता है, 'सरल रहो बस।' मैं इसे सूत्र वाक्य की तरह बुदबुदाती हूँ। फिर हंस पड़ती हूँ, मुझे इसके सिवा आता भी क्या है। सरल होना सरल होना ही होता है उसके लिए प्रयास करते ही वो कठिन होने लगता है।
साहित्य और शिक्षा पर क्या बात हुई, कैसी बात हुई यह नहीं जानती लेकिन इतना पता है कि लोगों ने संवाद को पसंद किया। मुझे खुशी हुई एक प्यारी सी लड़की दीप्ति से मिलने की। सरल सी, प्यारी सी लड़की जो मुझसे संवाद कर रही थी। बातचीत के मध्य ही दिल चाहा कि उसे गले लगा लूँ। सरलता मुझे आकर्षित करती है।
शीला जी से मिलना हुआ वो भी एकदम सहज सरल और अपनेपन से मिलीं। लगा ही नहीं कि पहली बार मिल रहे हैं। फिर एक के बाद एक लोगों से मिलना होता रहा। सब निश्चल और मौसम जैसे प्यारे लोग।
थकान और देर तक बात कर चुकने के बाद एक अच्छी सी कॉफी पीने कि इच्छा ने एक कैफे में ला बिठाया। जाएँ कहीं भी, शहर अपने मौसम का टोकरा लिए साथ ही चल रहा था। मैं उसकी शरारत समझ चुकी थी। कॉफी पीते पीते मैंने मौसम की एक शाख को बालों में अटकाया और कॉफी पी चुकने के बाद चल पड़े बादलों के गाँव में।
जैसे-जैसे रास्तों पर आगे बढ़ रहे थे मौसम सुहाना होता जा रहा था। जैसे किसी प्रिय मेहमान के घर आने पर हम उसके सम्मुख बेस्ट चीज़ें प्रस्तुत करते हैं, घर को करीने से सजाते हैं कुछ वैसा ही बल्कि उससे ज्यादा ही कर रहा था यह शहर। अपने सौंदर्य को खुलेमन से लुटा रहा था। खूब बरस चुकने के बाद पहाड़ और वादियाँ जिस तरह धुंध के खेल खेलती हैं उसका कोई मुक़ाबला ही नहीं। मैं रास्तों पर आगे बढ़ रही थी और उलझनें पीछे छूट रही थीं। मौसम ने ठान रखा था कि मुझसे मुझे चुरा ही लेगा। और मैं तो कबसे यूं खुद से बेजार होने को बेताब थी।
वो अटकी हुई लंबी सिसकी इस सौंदर्य के आगे सजदे में थी। गालों पर गीली लकीरों का खेल जारी था। दुख से, उदासी से डील करना आसान है उसकी तो खूब आदत है लेकिन जीवन के ऐसे ख्वाबिदा से लम्हों को करीब आते देखते ही सब्र छूटने लगता है। हिचकिचाते हुए सुख की डली को मुंह में रखते हुए महसूस किया कि ओह यह है सुख, इसका स्वाद तो वाकई बहुत अच्छा होता है।
उदासियों का सामना डटकर करने वाली प्रतिभा कटियार को सुख के आगे घुटने टेकते जरा भी वक़्त नहीं लगता। सो टेक दिये घुटने और बह जाने दिया उस बरसों से अटकी सिसकी को। हथेलियों पर बादलों को लिए सड़कों पर झूमते नाचते हुए एक इच्छा ने जन्म लिया, काश, अभी इसी पल मैं मर जाऊँ। इन्हीं वादियों में सशरीर गुम हो जाऊँ। किसी को मिलूँ ही नहीं। फिर पेड़ बनकर उगूँ, पेड़ जो गुलाबी फूलों से भर उठे और जिसकी शाखों पर चिड़ियों के घोसले हों, उनके खेल चलें इस डाल से उस डाल। मृत्यु के इस रूमानी ख्याल से मन झूम उठा। कल्पना ही सही सुंदर तो है। यूं भी विनोद कुमार शुक्ल कहते ही हैं, यथार्थ झूठ है, कल्पना सच है।
बहरहाल, अपनी ही मृत्यु के रूमानी ख्याल में डूबती उतराती फिलहाल ज़िंदगी में थी मैं और ज़िंदगी खूबसूरत थी। एक पूरा दिन थकान के साथ-साथ सर थपथपा कर राहत देकर जाने को था। मैंने उसे भरी हुई आँखों से देखा, उसने कहा, तुम्हारे लिए सुंदर रात मंगाई है। और सच में दिन में जो शहर बादलों के खेल और बारिश के मेल में महक रहा था रात को वो इस तरह चमक रहा था जैसे आसमान का सितारों भरा कटोरा किसी शरारती बच्चे ने गिरा दिया हो। एकदम शांत निस्तब्ध रास्ते और जगमग शहर...मैंने आँखें मूँदीं और गहरी सांस ली।
तुमने दिल ले लिया शहर पिथौरागढ़, बेसाख्ता होंठ बुदबुदाये। शहर मुस्कुरा दिया। उसने भी बुदबुदाते हुए जवाब दिया,'यही तो मैं चाहता था।'
खूबसूरत शहर मीठे लम्हों की गर्माहट वाला दोशाला देकर जा चुका था। सोने को हुई तो देखा, वो कहीं गया नहीं था वहीं छुपकर मुझे सोते हुए देख रहा था। देह में तनिक हरारत चढ़ आई थी, हवा रात भर ठंडी पट्टियाँ रखती रही। बादल का एक टुकड़ा जो बालों में अटका हुआ साथ चला आया था, बंद आँखों से रात भर बरसता रहा। हाँ, ये राहत की बारिश थी।
बहुत सुन्दर ❤️👌👌👌👌
ReplyDeleteबहुत खूब लिखा है!!
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