Thursday, July 13, 2023

पिथौरागढ़-अधूरे को पूरता शहर


नहीं यह पिथौरागढ़ के बारे में नहीं है, यह एक कोलाहल के बारे में है। उम्र से लंबी एक उदासी के बारे में है। चलते-चलते इस दुनिया से पार निकल जाने की इच्छा के बारे में है। यह उन तस्वीरों और रील्स की बाबत भी नहीं है जिन्हें देख लोग मुझ पर रश्क कर रहे हैं। यह आँखों में सजे मसकारे और काजल के बीच छुपी उस थकान के बारे में है जिसके बारे में बात करना भी थका देता है।

उस रोज जब मैं अपनी हथेलियों की टूटी-फूटी लकीरों से उलझी हुई थी, आसमान में कोई बदली अटकी हुई थी। मैंने पाया बदली तो कोई भीतर भी अटकी हुई है। तभी कानों में एक पुकार पड़ी। शहर पिथौरागढ़ की पुकार। उसने कानों के एकदम करीब आकर कहा,'आ जाओ मेरे पास।' मैंने चौंक कर उसे देखा, उसके चेहरे पर मुस्कान थी। मेरे माथे पर शिकन। 'ओ पिथौरागढ़, तुम तो दूर-दूर तक नहीं थे, अचानक और वो भी इस तरह न्योते के साथ'। मैंने पूछा। उसने पलकें झपकाकर कहा, 'जीवन को तुम जानती ही हो। उसका कहाँ कुछ तय होता है। सब अनिश्चित, सब अचानक।'

'हाँ, सही कह रहे हो। मैंने गुस्से से जीवन की ओर देखा।' जीवन अपनी दुष्टता पर मुस्कुरा दिया।
 

पिथौरागढ़ पहले भी एक बार जा चुकी हूँ। दस बरस पहले। हिल सिकनेस ने मेरी ऐसी बैंड बजाई थी कि स्मृति में सिर्फ वही बची थी। मैं सिहर गयी इस न्योते पर। सोचती रही, सोचती रही, फिर जाने का मन बना लिया। रिल्के का कहा अक्सर सूत्र वाक्यों कि तरह जब-तब निर्णय लेने में मदद करता है। 'Let life happen to you believe me life is in the right always- Rilke' हालांकि पूरी तरह सहमत नहीं होती हूँ मैं रिल्के से इसलिए अक्सर झगड़ा भी होता रहता है उनसे फिर भी अक्सर उनका कहा मान लेती हूँ। तो जीवन के बहाव के साथ बहते हुए पिथौरागढ़ के रास्तों की ओर कदम बढ़ा दिये।

रास्ते बरसाती झरनों, हरियाली से सजे हुए थे। वादियों में बादलों की चहलकदमी खामोशी के सुर पर चल रही थी। इन दृश्यों को कैद करते हुए हर बार लगा यह संभव ही नहीं। इस सौंदर्य को कैद कर पाना किसी कैमरे के बस की बात ही नहीं। इसे लिख पाना भी असंभव है और इस असंभव के आगे सर झुकाये जब यह लिख रही हूँ स्मृति से निकलकर एक बादल लैपटॉप में झांक रहा है। वो खुद को लिखे जाता देखना चाहता है, और जीवन मुझे उसके सम्मुख हारते देख खुश है। यूं सच कहूँ तो इस तरह हारने से मैं भी खुश हूँ। बूंदों से भरा वो बादल कुछ समझ नहीं पाता और बाहर बरस रहे बादल को देखने लगता है।

रास्ता लंबा था लेकिन इस बार मुश्किल नहीं था। हमारे सारथी गजेन्द्र जानते थे कि मुझे पहाड़ों में थोड़ी मुश्किल होती है और उन्होंने इस बात का इतना ख़याल रखा कि पूरे सफर में मैं सिर्फ बादल, बारिश, जंगल देखने के लिए आज़ाद रही।

चंपावत में कुछ देर समय बिताने के बाद हम अपेक्षित समय से पहले ही पिथौरागढ़ पहुँच चुके थे। बिना हिल सिकनेस का शिकार हुए। तो आधा दिन हथेलियों पर रखा था और पूरा पिथौरागढ़ सामने था।

एक शहर में न जाने कितनी चीज़ें होती हैं देखने की घूमने की। यह हम पर है हम क्या चुनते हैं। मैंने हमेशा कंक्रीट और इतिहास पर प्र्कृति को चुना है। दोस्त यह बात जानते हैं। पिथौरागढ़ के दोस्तों ने हाथ थामा और एक बेहद सुंदर रास्ते पर रख दिया। इतना हरा बिखरा हुआ था कि ज़िंदगी की तमाम हार भूल जाये इंसान। हरे में हार भुलाने की ताक़त होती है यह मैंने कई बार महसूस किया है। मैं हतप्रभ और मौन इन सुंदर रास्तों पर चलती जा रही थी। हमने कई गाँव पार किए, करते गए। पहाड़ी खेतों का सौंदर्य, उसमें काम करती स्त्रियाँ, लंबी खाली सड़क पर अचानक इत्मीनान से बतियाती दो औरतें, और लंबे खाली रास्ते को पार करने के बाद सड़क पर क्रिकेट खेलते कुछ लड़के। लंबे से हरे मैदान के बीच चमकता एक लाल टीन वाला घर। चारों ओर बिखरी इस हरियाली की खुशबू। एक ठीहे पर बैठकर मैं लंबी सांस लेती हूँ और सुनती हूँ उस लंबी सिसकी को जो न जाने कितने बरसों से भीतर छुपकर रह रही है। ऐसे मौकों पर वह बाहर आने को अकुलाने लगती है। मैं उसे आज़ाद करती हूँ और गालों पर उसे चुपचाप रेंगने देती हूँ।

 

ये जो दृश्य हैं सामने, ये क्या सिर्फ दृश्य हैं? क्या इन्हें ज्यों का त्यों लिखा जा सकता है। क्या उस लाल टीन वाले घर के लाल को लिखा जा सकता है जिस पर आसमानी नीले की छाया है और जिसकी किनारी पर धरती के हरे की कशीदाकारी है। मैं एकटक उसे देखती जाती हूँ। आड़ू के पेड़ ललचाते हैं मैं उन्हें दूर से देखती हूँ। उनकी ओर भागती नहीं। अपनी सीमाओं का मुझे भान है, ता उम्र मैं इस ख़ुशबू को नहीं लिख पाऊँगी लेकिन इस दृश्य को जी सकती हूँ, इस खुशबू को पी सकती हूँ, यह मुझे आता है।

कुछ ही देर में मैं उस हरे कालीन में पड़े कढ़ाई के किसी बूटे की तरह शामिल हो जाती हूँ। विलीन। जज़्ब।


 पहाड़ हर मौसम में सुंदर होते हैं। दोस्त बताते हैं कि मार्च में इनका निखार अलग ही होता है। मैं सोचती हूँ क्या इससे भी सुंदर कुछ हो सकता है। सिगरेट पीने की शदीद इच्छा को टालकर चाय पीने की इच्छा पर टिकती हूँ और उसी हरे समंदर के भीतर बैठकर चाय पीती हूँ।

पानी के नैचुरल स्रोत को देखना उसे सहेजने की टेकनीक देखना मजेदार था। दोस्त ने गुलदार के ठिकानों के बारे में बताया और यह भी कि अगर इंसान उन्हें न छेड़ें तो वो भी नहीं छेड़ता। लेकिन इंसान उनके घर तक पहुँच जाना चाहता है, आखिर वो इंसान है।

मुझे उन गांवों के नाम याद नहीं लेकिन नाम जो भी हों मुझे उनकी ख़ुशबू याद है। लौटते समय मैंने देखा ढेर सारी स्त्रियाँ स्वेटर और जैकेट पहनकर घूम रही हैं। थोड़ी हैरत हुई मुझे लेकिन कुछ दूर जाने पर जब अपनी देह पर सर्द हवा का फिसलना महसूस हुआ तो उनके स्वेटर पहनने का कारण स्पष्ट हो गया।

लौटना हमेशा अधूरा होता है लेकिन उस अधूरे में बहुत कुछ पूरा हो रहा होता है तो उस अधूरे पूरे के साथ हम शहर लौटे। किताबों का एक मेला लगा था शहर में उसमें शामिल होना था।


जारी...

No comments:

Post a Comment