एक बार लेखक मित्र से पूछ बैठी थी 'क्या है प्रेम' जवाब में उसने कहा, ‘क्या नहीं है प्रेम.’ तबसे प्रेम को लेकर मेरा जो तंग नज़रिया था वो बदलने लगा. नफरत और हिंसा से इतर हर वक्त हमें जो घेरे हुए है वो प्रेम ही तो है. सुबहों से प्रेम, शामों से प्रेम. फूलों से, पत्तियों से, जड़ों से प्रेम. राह चलते अजनबी को मुस्कुराकर हेलो कहने में जो ख़ुशी महसूस होती है, बच्चों के सर पर हाथ फेरने की इच्छा, नन्ही उँगलियों में अपनी एक ऊँगली छुपा देने की कामना. नदी के किनारे बैठ लहरों को देखना, पेड़ से झरते पत्तों को देखना और देखना खाली शाखों पर फूटती कोंपलों को प्रेम ही तो है. प्रेमी के संग होने की इच्छा, संग ने होने का दुःख यह भी प्रेम है. वो जो कोई था कल तक कंधे से कन्धा टिकाये पास बैठा आज वो उठकर चला गया है बहुत दूर...उसके जाते क़दमों को देखना और उदास सिसकी को भीतर धकेल उसके होने को अपने भीतर किसी इत्र की तरह समेट लेना प्रेम है. हाँ, सब कुछ प्रेम ही है.
यह मेरी सुबह है. इसमें दाखिल होती सर्दियों की धूप है, दूर जाकर दिल के और करीब आ गए लोगों की याद है, परिंदों की चह चह है, चाय है...हां मैं प्रेम में हूँ इस समूची क़ायनात के, खुद के.
बाबुषा, आज हम भी कव्वाली सुनेंगे...तुम्हारे संग बैठकर.
यह मेरी सुबह है. इसमें दाखिल होती सर्दियों की धूप है, दूर जाकर दिल के और करीब आ गए लोगों की याद है, परिंदों की चह चह है, चाय है...हां मैं प्रेम में हूँ इस समूची क़ायनात के, खुद के.
बाबुषा, आज हम भी कव्वाली सुनेंगे...तुम्हारे संग बैठकर.
सादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार
(14-11-21) को " होते देवउठान से, शुरू सभी शुभ काम"( चर्चा - 4248) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
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कामिनी सिन्हा
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर रविवार 14नवंबर 2021 को लिंक की जाएगी ....
http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
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और स्वयं से प्रेम भी प्रेम
ReplyDeleteबहुत खूब।
ReplyDeleteप्रेम परिभाषित नहीं किया जा सका अब तक...केवल महसूस हो सका है। अच्छा लेखन।
ReplyDeleteशानदार रचना
ReplyDeleteसुन्दर है प्रेम में होना ।
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