The Disciple देखते समय पूरे वक़्त रोयें खड़े रहे, आँखें टप टप करती रहीं. कहने को तो यह फिल्म है लेकिन असल में यह जीवन का सत्व है. जिसे निचोड़कर इस फिल्म में रख दिया गया है. यह फिल्म उस रियाज़ की बात करती है जो जिन्दगी को साधने से सधता है. महीनों सालों रियाज़ करके हम सुर को ठीक से लगाना तो सीख सकते हैं लेकिन उस सुर के भीतर जो शुद्धता है, मर्म है, भाव है वह आत्मा की शुध्धता के रियाज़ से ही आता है.
मैं एक दर्शक के तौर पर इस फिल्म से अभिभूत हूँ और अभिभूत व्यक्ति ठीक व्यक्ति नहीं होता समीक्षा जैसी चीज़ों के लिए और वो मुझे करना आता भी नहीं. इसलिए इस फिल्म को लेकर मेरे कुछ भाव ही व्यक्त्त कर रही हूँ. फिल्म शास्त्रीय संगीत की दुनिया की कहानी है. किस तरह कोई पूरी ज़िन्दगी लगाकर सुर साधना करता है और कैसे कोई थोड़ा सा ही सीखकर शोहरत की बुलंदियों पर पहुँच जाता है.
लेकिन मेरे लिए यह फिल्म उस यात्रा की है जो हमारे भीतर चलती है, जहाँ अपनी प्यास का कुआँ हम खुद खोदते हैं और उस कुँए के मीठे पानी से खुद की प्यास बुझाते हैं. जहाँ एक सुर सही लग जाने पर मन नाच उठता है और ठीक से न लग पाने पर तालियों की गडगडाहट के शोर में भी उदास हो जाता है.
इस फिल्म को देखते हुए मुझे किशोर वय के वे दिन भी याद आये जब मैं सितार सीखा करती थी और पड़ोस के कमरे में वोकल की क्लास चलती थी. हमें फ़िल्मी गीत गाने या बजाने पर एकदम प्रतिबन्ध था. और वो कुछ इस तरह हमारे गुरु जी ने हमें बताया था मानो अगर हमने फ़िल्मी गीत बजा दिया तो कोई पाप हो जायेगा. हमें तब ज्यादा समझ तो नहीं आया था लेकिन हमसे कोई पाप न हो इसलिए हमने फ़िल्मी गीत बजाने की कभी नहीं सोची. इसलिए जब कोई मेहमान या रिश्तेदार कहते ‘बेटा जरा हमें भी बजाकर सुनाओ’ तो मैं अपना प्रिय राग मालकोश या भीमपलासी बजाने बैठ जाती. सुनने वालों को लगता वो फंस गए हैं. वो बीच में ही कहते ‘बेटा कुछ गाना वाना नहीं बजाती हो?’ तो हम शान से कहते हमारे गुरु जी ने गाना बजाने को मना किया है. क्यों मना किया गाना बजाने को, क्यों एक ही राग को महीनों बजाने के बाद भी गुरु जी को कुछ कम ही लगता था उसमें इन सवालों का जवाब इस फिल्म में है.
फिल्म के कुछ टुकड़े आपसे साझा करती हूँ,
‘एक अस्थिर मन के साथ कोई भी व्यक्ति गहराई और सच्च्चाई से ख्याल नहीं गा सकता. प्रत्येक स्वर की, प्रत्येक श्रुति की पूजा करने के लिए मन का पवित्र और निष्काम होना जरूरी है. ख्याल का अर्थ क्या है? ख्याल उस समय विशेष, उस पल में कलाकार की मन की अवस्था को कहते हैं. कलाकार अपने मन की अवस्था को ख्याल के माध्यम से प्रस्तुत करता है. गाते समय आपको खुद पता नहीं होता कि राग का कौन सा नया पहलू आप उजागर करेंगे. अगर आप चाहते हैं कि राग का सत्य स्वयं सामने आये तो आपको मन से असत्य, लोभ और अपवित्रता को मिटाना होगा.’
‘बारीकियों में फंसना छोड़ो, तुम साल दर साल रियाज़ करके बारीकियों पर काबू पा सकते हो. पर वह तुम्हें सत्य की ओर नहीं ले जाएगा. शैली अपने अंदरूनी जीवन को व्यक्त करने का केवल एक माध्यम है, शैली सिखाई जा सकती है सत्य सिखाया नहीं जा सकता, उसके लिए निर्भीक सच्चाई के साथ अपने अंदर झाँकने की ताकत होनी चाहिए यह बहुत कठिन है यह जीवन भर की तलाश है...’
‘प्रतिभावान कलाकारों की संगत में रहने से और उनके बारे में किताबें छापने से आप खुद प्रतिभावान नहीं बन जाते.’
मैं इस फिल्म को जीवन के हर पहलू से जोड़कर देख पा रही हूँ फिर भी लगता है शायद अपनी सीमित समझ के चलते कम ही देख पा रही हूँ. जहाँ माई (संगीत गुरु) ख्याल की संगीत की बारीकियां बता रही हैं मुझे सुनते हुए लगा हाँ, ऐसा ही तो लिखने के बारे में भी है. बहुत सारा पढ़कर, सुनकर लोगों से मिलकर लेखन की बारीकियां जाना लेना कौन सा मुश्किल है, लेकिन शब्द वो क्या सिर्फ शब्द होते हैं. उनके भीतर भाव का जो संसार होता है उस तक पहुंचना, उन शब्दों को अपनी निश्छल आत्मा के ताप में पकाना और तब लिखना. बिना यह सोचे कि इस पर कितनी वाहवाह मिलेगी बल्कि उस अनुभव को प्राप्त करने को जब कुछ ऐसा लिख जाय हमसे कि आत्मा का कोलाहल कुछ शांत हो और आँखों से निर्मल नीर की नदी छलक उठे.
ऐसी फ़िल्में तकनीक से नहीं रूहानी जुड़ाव से बनती हैं. फिल्म धैर्य मांगती है देखने के लिए, एकांत मांगती है बिलकुल वैसे ही जैसे रियाज़ मांगता है...लेखक निर्देशक चैतन्य तम्हाणे ने इसे आत्मा से बनाया है और वैसे ही आत्मा के संगीत से इसे सींचा है अनीश प्रधान ने. आप सबके प्रति आभार से झुकी हूँ.
फिल्म नेटफ्लिक्स पर है.
वाह
ReplyDeleteफिल्म देखने को उत्सुक करता है यह लेख।
ReplyDeleteखूबसूरत..फिल्म के प्रति उत्सुकता जगाता आलेख....
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