मदद और उपकार में बड़ा फर्क होता है. इस समय तमाम मदद इमदाद जरूरतमंदों तक पहुँचाने में लगे हैं लोग. कुछ बच रहे हैं कुछ नहीं. कहीं मदद पहुँच पा रही है कहीं नहीं. लेकिन शायद सबके भीतर एक जज्बा जरूर है कि किसी तरह बीमार तक मदद पहुंचा सकें, किसी की साँसों की डोर को थाम सकें. यह मदद का जज्बा है. इसमें उपकार नहीं है. जरा भी नहीं. और यही इस बुरे वक्त की जरा सी सही लेकिन अच्छी बात है. इसके दो कारण हो सकते हैं एक कि यह वक्त इस कदर निर्मम है कि कुछ सोचने का मौका ही नहीं दे रहा और दूसरी कि अगर हम मनुष्यों पर सामाजिक दुराग्रहों की परतें न चढ़ी होतीं तो मूलतः हम भले ही हैं. कुछ लोगों की परतें इस दौर में उतरीं और वे बेहतर मनुष्य हुए कुछ की परतें मजबूत थीं या उनकी उन परतों को उतारने की कोशिशें कमजोर थीं और वे अब तक दुराग्रहों के दलदल में फंसे रहे.
यह वक्त क्या कह रहा है. इसने हमें बताया कि जिया हुआ लम्हा ही जीवन है बाकी सब हिसाब-किताब है. यह लम्हा कह रहा है कि वो जो छोटी-छोटी सी बातें थीं न स्पर्श, गले लगाना, हथेलियाँ कसकर हथेलियों में भींच लेना, काँधे से सटकर बैठना जो हमसे छूट गया था जीवन की आपाधापी में, कभी लापरवाही में भी वो कितना जरूरी था. वो जो पुकारना था प्रिय को उसके नाम से और जताना था उसे कि 'तुम हो तो जीवन खुश रंग लगता है,' वह अब कभी नहीं कहा जा सकेगा. उनसे जो जा चुके हैं जीवन से. जो छोड़ गए हैं स्मृतियाँ और एक अधूरापन कि इस तरह जाने की सोची तो नहीं थी.
लेकिन वो जो दूर कमरे में आइसोलेशन में हैं उनका भी एक मन है जो टूट रहा है. उन्होंने भी किसी अपने को खोया है. उन्हें समझ नहीं आ रहा कि वो अपने प्रिय के जाने से ज्यादा दुखी हैं या अपनी सांसों की डोर को सहेजने को ज्यादा परेशान है. आइसोलेशन भौतिक है लेकिन तोड़ रहा है भावनात्मक दुनिया को.
कितने दिन हुए किसी के गले नहीं लगे, कितने दिन हुए किसी की बहती आँखों को पोछ नहीं पाए. कुछ दुःख इतने भारी होते हैं कि उनको उठाने में पूरी जिन्दगी खर्च हो जाती है. उन बच्चों की आँखें पल भर को भी जेहन से हटती नहीं जिन्होंने अपने माँ-बाप दोनों को खो दिया. बेटियों का दर्द इतना ही है कि मम्मी पापा को आखिरी बार देख भी न पाए. जो माँ पूछकर पसंद की चीज़ें बनाकर खिलाती थी फिर भी खाने में होती थी न-नुकुर वो मदद में आने वाले खाने के पैकेट का इंतजार करती हैं और चुपचाप खा लेती हैं उसमें होता है जो भी खाना, जैसा भी.
अच्छा है लोग मदद कर रहे हैं, उपकार नहीं. वरना तो बची-खुची जिन्दगी और भारी हो जाती. सोचती हूँ कि काश किसी के काम आ सकती, कुछ तो कर पाती. उन बच्चियों को छाती से लगा पाती कह पाती मैं हूँ तुम्हारी माँ, मैं बनाऊँगी तुम्हारी पसंद का खाना, तुम पहले की तरह नखरे करना. लेकिन शब्द हलक में अटक जाते हैं. कुछ कह नहीं पाती.
यह मैं क्यों लिख रही हूँ, जब कुछ करना चाहिए जीवन के लिए तब लिखना क्या है आखिर सिवाय लग्जरी के. पता नहीं. मैं शायद रो रही हूँ. यह लिखना नहीं रोना है, बिलखना है, यह इच्छा है उदास दोस्त को कलेजे से लगा लेने की शायद...कुछ पता नहीं बस किसी मन्त्र की तरह बुदबुदाती हूँ सब ठीक हो....
ठीक शब्द के ढेर सारे बीज बो देना चाहती हूँ, पूरी धरती पर उगाना चाहती हूँ 'सब ठीक है' के नन्हे-नन्हे वाक्य. हालाँकि जानती हूँ 'सब ठीक है...' एक भ्रम है. कुछ है जो कभी ठीक नहीं होता...बस कि उस न ठीक के साथ जीने की आदत डालनी होती है.
बहुत बढ़िया लेख।
ReplyDeleteबहुत सुंदर
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