Sunday, December 20, 2020

धूप जो सहेली है




 और यह साल बीतने को आया आखिर. आखिरी से ठीक पहले वाले इतवार के पायदान पर खड़े होकर इस पूरे बरस को देख रही हूँ.

आंदोलनों की आंच तब भी धधक रही थी देश में जब जनाब 2020 ने इंट्री ली. और आंदोलनों की आंच अब भी धधक रही है. इस बीच कोविड ने पूरी दुनिया को अपनी गिरफ्त में लेते हुए व्यंगात्मक लहजे में कहा, इसे कहते हैं, पूरी दुनिया का एक सूत्र में बंधना.' कितना कुछ खोया हमने इस बरस. कितनों को खोया. ऐसे झटके से गए लोग कि अभी हैं, और बस अभी नहीं हैं. 

सोचती हूँ यह बरस आत्मावलोकन का बहुत ज्यादा समय लेकर भी आया था. यह जो सर पर सवार रहता है न हर वक़्त 'मेरा' ''मैं' कितना बेमानी है यह सब क्योंकि नजीर अकबराबादी के अल्फाजों में कहें तो सब ठाठ पड़ा रह जाएगा जब लाद चलेगा बंजारा.'

जीवन बस जिया गया पल ही है इससे न रत्ती भर कम न रत्ती भर ज्यादा. फिर भी रोइए जार जार क्यों कीजिए हाय हाय क्यों. बीतते बरस के आखिरी से पहले वाले इतवार की धूप मेरे पैरों के आसपास टहल रही है. वो मेरा ध्यान खींच रही है. हँसते हुए कह रही है जो नहीं करना है वो बताने के लिए भी वही तो कर रही हो...छोड़ो सब. आओ, मेरे साथ खेलो और हवा में घुलकर धूप का एक टुकड़ा मेरे चेहरे को ढांप चुका है.

मैं इस धूप की, इस हवा की, सामने मुस्कुराते फूलों की शुक्रगुजार हूँ कि इन्होंने मुझे संभाले रखा इस समय में. इस बरस भी फोन करने, बात करने, मैसेज करने,किये गए मैसेज के जवाब देने को लेकर आलस बढ़ता ही रहा. और इस बरस भी दोस्तों ने इस आलस का बुरा नहीं माना.

मैंने धूप से कहा, 'तुम जानती हो तुम मेरी कौन हो?' धूप ने मुस्कुराकर कहा 'हाँ, सहेली'
अब मुस्कुराने की बारी मेरी है. मैं धूप में अपने पाँव पसारे हुए चाय के प्याले को दोनों हथेलियों से थामे हुए सोच रही हूँ इस बरस मैंने क्या-क्या किया. सोचा था इस बरस पढूंगी कि पिछले कई बरसों से पढने का सिलसिला छूटा हुआ था. और थोड़ा संतोष है कि इस बरस पढ़ पाने का सिलसिला शुरू हुआ. पढ़ी गयी किताबों को दोबारा भी पढ़ा गया, नयी किताबें, नए लेखक पढ़े, पंछियों की बोली सीखने की कोशिश की और नये घर में आने वाले पंछियों से पक्की वाली दोस्ती की. जाना फिर बार वही कि महसूस किये हुए को व्यक्त कर पाना कितना मुश्किल होता है.

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