ख़्वाब भरी आँखें अगर एकदम से खाली हो जायें और वो भी यूँ कि आँखों में बसने वाले ख़्वाब एक दिन कूद कर बाहर आ जाएँ और आसपास चहलकदमी करने लगें तो क्या हो? सिर्फ आँखों की कोरों को छूकर लौट जाने की बजाय एक चमकीली गीली लकीर हथेलियों पर उतर आये तो क्या हो? क्या हो कि वर्तमान के सुख में अतीत की पीड़ा का तिलिस्म (वो पीड़ा जिसकी किसी नशे की तरह हमें आदत लग चुकी थी) आकर बैठ जाए? क्या हो कि एक लम्बी गहरी चुप्पी के बीच मिल जाए कोई खोया हुआ वाक्य, कोई शब्द कोई उम्मीद जिसकी राह देखते हुए हम थक चुके थे और हमने इंतजार छोड़ दिया था?
अंतिमा पढ़ते हुए ऐसा ही महसूस हो रहा है. इसे पढ़ते हुए जैसे अतीत, और भविष्य खिसककर वर्तमान की ओर उत्देुता भरी आँखों से देख रहे हों. भीतर की किसी भूख को जैसे एक बड़ा सा टुकड़ा मिल मिल गया हो देर तक चुभलाने को और लम्बे समय बाद भूख मिटने के सुख में एक नयी भूख जाग उठने की बेचैनी शामिल होती जा रही हो .
मैं खाना धीमे खाती हूँ, चाय और भी धीरे पीती हूँ लेकिन पढ़ती तेजी से हूँ. आमतौर पर इसका सुख हुआ है लेकिन कभी-कभी उलझन भी. आज पीठ के दर्द के चलते दिन आराम के नाम था और ऐसे में अपनी पसंद की किताब पढने से अच्छा भला और क्या हो सकता था. दोपहर तक अंतिमा के ठीक बीच में पहुँच चुकने के बाद खुद को रोक लिया. सारी किताबें ऐसी नहीं होतीं कि उन्हें गति से पढ़ा जाय. मानव को पढ़ते हुए ऐसा अक्सरहां महसूस होता है. किताब को सरकाकर खुद से दूर कर दिया. उसे न पढने के लिए तमाम उपक्रम किये. अंतिमा को दूर से देखते हुए कुछ दोस्तों को फोन किए, एक बेकार सी सीरीज देखी, कई बार चाय पी, एक्सरसाइज़ की लेकिन नजर अंतिमा से हटी नहीं.
इस बीच कामू, बोर्खेस, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को फिर से पढने की इच्छा भी सामने आ खड़ी हुई. लेकिन मैंने रोहित, पवन, अरु के संवादों और चुप्पियों के बीच किसी को फ़िलहाल आने नहीं दिया.
कहे जा चुके शब्द अपना अस्तित्व धीरे-धीरे ग्रहण करते हैं. जब लगता है वो कहे जा चुके हैं तब असल वो उगना शुरू करते हैं. और जब हम पन्नों से गुजर चुके होते हैं तब पढ़े जा चुके संवाद, पढ़े जाने में घटित हुए दृश्य हमारे करीब आकर बैठ जाते हैं.
कहे जा चुके शब्द अपना अस्तित्व धीरे-धीरे ग्रहण करते हैं. जब लगता है वो कहे जा चुके हैं तब असल वो उगना शुरू करते हैं. और जब हम पन्नों से गुजर चुके होते हैं तब पढ़े जा चुके संवाद, पढ़े जाने में घटित हुए दृश्य हमारे करीब आकर बैठ जाते हैं.
फ़िलहाल उन दृश्यों के मध्य होने का सुख है. चाहती तो आज पूरी पढ़ी जा सकती थी यह किताब लेकिन बीच में रुकना सुख दे रहा है. मानव बेहद आसान लेखक हैं दिल में जगह बनाने के लिहाज से लेकिन वो अपने लिखे से अपने पाठक का हाथ पकडकर जिस दुनिया में ले जाते हैं वहाँ जाना आसान नहीं है. इस लिहाज से मानव को लोकप्रिय लेखक के तौर पर देखना संतोष से भरता है.
अंतिमा निश्चित ही मानव के पुराने पाठकों को पसंद आएगी और नए पाठक भी बनाएगी. फ़िलहाल किसी किताब के मध्य में होना यात्रा के मध्य में होने या जीवन यात्रा के मध्य में होने जैसा ही मालूम हो रहा है. आधा जिया/पढ़ा जा चुका है और आधा जिया/पढ़ा जाना बाकी है. जो बाकी है वह अनिश्चितता से भरा है... अनिश्चितता उत्सुकता बनाये हुए है..
बहुत सुंदर
ReplyDeleteपढ़ना इतना सुंदर सुखद एतिहाद के साथ , यकीन नहीं होता।
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