Friday, June 26, 2020

ये जो पढ़ना होता है न



जब कोई लिखने की बाबत बात करता है तो मुझे लगता है उसे पढ़ने की बाबत बात करनी चाहिए. मसलन, लिखने में मुश्किल होती है, कैसे शब्द, कैसे वाक्य, कैसी क्रमबध्दता समझ में नहीं आता और तब मैं अपने भीतर कहीं दुबक जाती हूँ. मुझे इन सवालों के जवाब नहीं मालूम. लेकिन मुझे लगता है कि अगर मुझे मेरे लेखकों से कुछ पूछना हो तो मैं यह पूछने की बजाय कि फला महान रचना आपने कैसे लिखी मैं यह महसूस करना चाहूँगी कि कितने जख्म, कितनी सलवटें, कितनी पीड़ा और कितने सुख से गुजरा होगा यह लेखक. कितना अप्रिय है अपने प्रिय लेखक के सामने खुद को अपने अधकचरे लिखे के साथ एक लेखक की तरह पटक देना और मुस्कुराकर देखना लेखक की प्रतिक्रिया.

इन दिनों पहले से पढ़ी हुई किताबों को फिर से पढ़ रही हूँ, पहले देखे सिनेमा को फिर से देख रही हूँ. और मुझे कुछ नया ही दिख रहा है, कुछ नया समझ पा रही हूँ. शायद कुछ बरस बाद कुछ और पढ़ सकूं उसी रचना में. यह लेखक की नहीं पाठक की यात्रा की बाबत है.

साहित्यिक गतिविधियों की जोर आजमाइश से बहुत दूर पाठक को अपनी यात्रा खुद तय करनी होती है. लिखे हुए को उलट-पुलट कर देखते हुए अपने सम को समाज और लेखक के सम से मिलाते हुए. या मिलते हुए देखते हुए. मैं गोता लगाते हुए पढ़ती हूँ, इस प्रकिया में कई बार डूब भी जाती हूँ, गुड्प की कोई आवाज नहीं आती. लेकिन हर रचना डुबो ही देगी यह जरूरी नहीं. कुछ रचनाएँ मैंने रचनाओं की दहलीज पर बैठकर ही पढ़ लीं, वो अच्छी रचनाएँ थीं, कुछ रचनाओं को उनमें पाँव डालकर बैठे हुए पढ़ा. उन्हें पढ़ने का सुख हुआ. उन्हें पढ़ते हुए कई बार ठंडी हवाओं ने माथा सहलाया. कुछ रचनाएं इतनी निर्मम थीं कि उन्होंने बुक शेल्फ में सज जाना तो मंजूर किया लेकिन हाथ लगाने की मनाही कर दी, इस उद्घोषणा के साथ कि 'तुम अभी योग्यता ग्रहण करो'. उनके कुछ पन्नों तक जाकर लौट आना पड़ा हर बार. कुछ रचनाएँ विनम्र थीं, खुद आयीं पास, हाथ थामा और किलकते हुए खींचकर ले गयीं ठीक बीच धार में...फिर जब उस धार में धंसे रहने का सुख आने लगा उन्होंने हमें छोड़ दिया...

एक पाठक के तौर पर इन सब अनुभवों से गुजरना खूब हुआ. ऐसे ही बीच धार में छूटे हुए लम्हों में खुद के बारे में सोचते हुए महसूस हुआ कि मुझे इन दिनों कहानियों में रुचि कम होने लगी है. या यूँ कहूँ कि उन कहानियों में जिनमें यथार्थ का खुरदुरापन कम हो और लेखकीय कौशल ज्यादा. यूँ मुझे हमेशा से डायरियां पढ़ना ज्यादा पसंद रहा. डायरी पढ़ते हुए यात्राओं को पढ़ना अच्छा लगने लगा. फिर संस्मरण और कवितायें. उपन्यास, कहानियां पढ़ना जाने क्यों कम होता जा रहा है.

कहानियों का जो कहानीपन है मुझे कम रुचता है. सोचे हुए कथ्य के साथ लेखकीय कारस्तानियों को जानने से ज्यादा रुचि मुझे लेखक की सहज अभिव्यक्ति में है. शायद इसीलिए ऐसे तमाम लेखक हैं जिनकी डायरियों को, यात्रा वृत्तों को पढ़ने में खूब मजाआया लेकिन उनकी कहानियों से रिश्ता बना नहीं. 

हालाँकि कल एक और खेप आई है किताबों की, जिनमें कुछ उपन्यास भी हैं और कहानियां भी.

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