इस दरमियान मैंने एक नया दोस्त बना लिया है. जीवन. मुझे लगता है जीवन भी मेरी तरह है, उलझा हुआ, बेचैन, थोड़ा संजीदा, थोड़ा शैतान. सबको लगता है जीवन के पास हर बात का जवाब होगा लेकिन असल में वह एक छोटे से सवाल से भी परेशान हो जाता है, सर खुजाने लगता है. चाय के बहाने सवालों से दूर निकल जाता है. अब चूंकि हमारी दोस्ती हो गयी है तो वो मुझे और मैं उसे देखकर देर तक हंसते रहते हैं. सलीम और बंटी की समझदारियों पर खामोश रहते हैं. जीवन बंटी और सलीम को देखकर कहता है अभी इन्हें पता नहीं कि यह जो समझदार होना है न इनका, यही इन्हें डुबोयेगा फिर आयेंगे इसी जीवन के पास और तब मैं चल दूंगा. यह कहते हुए वह मुस्कुराता है. मैं उससे कहती हूँ नहीं, तुम चल नहीं दोगे, चल देने का नाटक करोगे क्योंकि हो तो तुम दोस्त ही न, तो तुम साथ छोड़ नहीं पाओगे. जीवन फिर से सर खुजाने लगता है. समझदारी वाली कोई बात जीवन को भाती ही नहीं वो ऐसी तमाम बातों से दूर जाना चाहता है...बहुत दूर. बिना यह जाने कि बहुत दूर कितना दूर होता है.
ली-वान को जहाँ छोड़कर मैं इधर-उधर भटकने निकल गयी थी कि शायद उससे बातें करना बचाकर कुछ बचा लूंगी वो वहीं बैठी मिली. इस बीच उसने न जाने कितनी कॉफ़ी पी, कितनी बार घड़ी देखी पता नहीं. लेकिन जैसे ही मैंने पेज 140 खोला वो मुस्कुराती हुई मिली. मुझे लगा वो पूछेगी 'कहाँ रह गयी इतने दिन' लेकिन वो पूछती है, 'पाकिस्तान कैसा है?'
लेखक कहता है,' मैं कभी गया नहीं हूँ पाकिस्तान पर वह बहुत सुंदर है. बिलकुल भारत जैसा सुंदर.' दोनों बहुत एक जैसे हैं. दोनों अपने भीतर बहुत सारी हलचल पाले रहते हैं.'
'यह वाक्य कितना काव्यात्मक लगता है कि शायद हम मनुष्यों की आखिरी जनरेशन होंगे जो अपने समय में इस दुनिया को खत्म होता देखेंगे...' ली वान कहती है.
ली-वान खूबसूरत है. वो चाइना से है लेकिन असल में वो पूरी दुनिया की है. घुम्मकडी उसका काम भी है और शौक भी. वो बहुत सी भाषाएँ जानती है और पूरी दुनिया से प्यार करती है. ली-वान की ख़ास बात है कि वो अपनी दुनिया में आये दिए बगैर आपकी दुनिया में शामिल हो जाती है, बिना कोई ज्यादा जगह घेरे.
ली-वान के साथ रात के शहर को देखना अलग ही अनुभव है. वो जानती है कि किसी शहर से दोस्ती करनी हो तो उस शहर में पैदल घूमना चाहिए. उसके चेहरे पर छाई बच्चों सी किलक के बीच सीरियाई बच्चों की चिंता की लकीरों को अलग करके उसे देख पाना आसान नहीं. वो अपने साथ अनगिनत सवाल लिये फिरती है. लेकिन वो अनजाने हमारे बिना पूछे सवालों की बाबत आसानी से बात कर लेती है,' तुम्हें पता है मैं सामाजिक विज्ञान की छात्र हूँ. असल में मुझे ऐसा लगता है कि जैसे ही लोग शादी करते हैं, वह एक बाज़ार की साजिश का शिकार हो जाते हैं. बच्चे होने के बाद वह बाज़ार के बने बनाये एक ढांचे में घुसते हैं और उन्हें वही करना होता है जो समाज उन्हें कहता है कि यह सही है और यह गलत. प्रश्न करते ही वे उस व्यवस्था को चैलेंज करते हैं, जिसके भीतर वे गले तक डूबे हुए हैं. यह बहुत अद्भुत है कि हम इंसानों ने कैसे बाज़ार के सामने घुटने टेक दिए हैं और समाजशास्त्र कोई दूसरा तरीका जो सभ्य समाज को भी बनाये रखे, खोजने में नाकाम रहा है.'
ली-वान प्यारी हो तुम. तुम मेरे मन की बातें कहती हो.लेकिन जैसा कि हर यात्रा का हासिल चलते जाना है, इस चलते जाने में लोगों का चीज़ों का, शहरों का भावनाओं का छूटते जाना लाजिम है. ली-वान भी छूट जाती है.
कभी सोचती हूँ कि ली-वान, मार्टिन, कैथरीन, जंग-हे अगर कभी मिलें तो कितना अच्छा हो. अगर मैं उन शहरों में कभी गयी तो बिना उनसे मिलने की इच्छा लिए उन्हें जरूर ढूंढूंगी. कोरियन दोस्त को भी...हालाँकि इन सबने मिलकर मुझे खुद को ढूँढने में बहुत मदद की है. उन्होंने मेरी सुबहों में शामिल होकर बताया है कि यथार्थ में बहुत दूर...अकसर सच में बहुत दूर ही होता है, अपनी कल्पना में हम उस दूरी को कुछ कम करते हुए थोड़ा पास ला सकते हैं.
मेरी आँखें भरी हुई हैं...मुझे एकदम अच्छा नहीं लग रहा. जीवन मुझे देखकर मुस्कुराता है. जीवन यात्रा की पुकार से बड़ी कोई पुकार नहीं...कि दफ्तर की मीटिंग का वक़्त हो चला है...
सुन्दर रचना
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