Tuesday, April 21, 2020

जीवन जिया मैंने

जीवन जिया मैंने
कहूँगी नहीं यह मरते हुए
अफ़सोस नहीं, न ही किसी पर आरोप लगाने की जरूरत
उन्माद के तूफानों और प्यार के कारनामों से अधिक
और भी हैं जरूरी चीज़ें इस दुनिया में

तुम जो पंखों से
दस्तक देते थे मेरी छाती पर
अपराधी हो मेरी युवा प्रेरणा के
तुम मान लो जिन्दा रहने का मेरा आदेश
मैं भी मानती रहूंगी तुम्हारी हर बात.

30 जून 1918




1 comment:

  1. उड़ते हुए गगन में
    परिन्दों का शोर
    दर्रों में, घाटियों में
    ज़मीन पर
    हर ओर...

    एक नन्हा-सा गीत
    आओ
    इस शोरोगुल में
    हम-तुम बुनें,
    और फेंक दें हवा में उसको
    ताकि सब सुने,
    और शान्त हों हृदय वे
    जो उफनते हैं
    और लोग सोचें
    अपने मन में विचारें
    ऐसे भी वातावरण में गीत बनते हैं।

    दुष्यन्त कुमार

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