ध्यान हटाने से ध्यान नहीं हटता. उदासी झाड़ने से उदासी झड़ती नहीं. कुछ देर को भ्रम भले हो कि हम मुक्त हुए हैं. आजकल हर दिन खुद से मुंह चुराती फिरती हूँ. हर कुछ वो करने की कोशिश करती हूँ जिसमें मन लगे, लेकिन कोई दिन ढेर सारा रुदन दिए बिना नहीं जाता. जानती हूँ रोना बुरा नहीं लेकिन कहीं कुछ गहन क्षरित हो रहा है लगातार. हर रोज असहायता महसूस होती है, शर्मिंदगी महसूस होती है. हम खाए अघाए लोग हैं. उदास होते हैं फिर खुश भी हो लेते हैं.
कुछ वक्त की उदासी पर कोई सुखकर दृश्य कब्जा जमा लेता है. हम भूखे लोगों के बारे में खबरें देखकर काँप न उठें कहीं इसलिए या तो खबरें छुपा दी जाती हैं या हम चैनल बदल लेते हैं. हम रामायण, महाभारत देखने की लक्सरी जीते लोग हैं. कविताओं कहानियों में गोते लगाते लोग हैं. हम इतिहास के अपराधी हैं. हम अश्लील दृश्यों के गवाह हैं. कई बार उस तस्वीर का हिस्सा भी हैं.
देह में हरारत होना इस गहरी उदासी का हिस्सा भी हो सकती है. सांस भारी सी मालूम होती है. कुछ अच्छा नहीं लगता. इस वक़्त तुम्हें याद करना, सुबह की चाय पीते हुए खिलते हुए फूलों को देखना, पंछियों से बातें करना भी जाने क्यों दिन के किसी न किसी हिस्से में शर्मिंदगी में डुबो जाता है.
जानती हूँ तुम यही कहोगे कि 'तुम्हें सोचने की बीमारी है.' हाँ है तो सही. सोचने की भी महसूसने की भी. क्या करूँ. क्या तुम्हें भी यह बीमारी नहीं है?
क्या तुमने कोई खबर पढ़ी पिछले दिनों में किसी ग्रुप फोरवर्ड में, किसी ट्विट्टर, फेसबुक पर...कि इस विषाद काल में और गाढ़ी हो रही है मोहब्बत, जिन्हें कम जानते थे पहले उनसे बढ़ने लगा है प्यार. वो जो अनजान थे चेहरे वो तो बहुत प्यारे इन्सान थे...वो जिन्हें हम कम ही अपना समझते थे उन्हें अब गले लगाने का जी करता...कि यह काल मनुष्यता की मिसालें रख रहा है. पढ़ी हों तो, भेजना मुझे. और सुनो न पढ़ी या सुनी हों न ऐसी कोई खबर तो रो लेना थोड़ा सा...
मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता, तुम्हें याद करना भी नहीं. हालाँकि कल तुम अरसे बाद सपने में आये थे और तुम्हारे अचानक सपने में आने के कारण मुझे देर हो गयी आज जागने में....
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत बढ़िया. सटीक और सामयिक.
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